________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश 331 हायनी हिंस्रप्रदान शतायु जीवन की छठी दशा। छठा दशक, जिसमें मनुष्य अनर्थदण्ड का एक प्रकार / दूसरों को हिंसाकारक शस्त्र आदि भोगों से विरक्त होने लगता है और इन्द्रियबल तथा बाहुबल समर्पित करना। क्षीण हो जाता है। हिंस्त्रं-हिंसाकारि शस्त्रादि तत्प्रदान-परेषां समर्पणम्। छट्ठी उ हायणी नाम, जं नरो दसमस्सिओ। (उपा 1.30 वृ पृ९) विरज्जइ य कामेसु, इंदिएसु य हायई।। हिमवान् वर्षधर (दहावृ प८) हायत्यस्यां बाहुबलं चक्षुर्वा हायणी। (दशाचू प 3) (द्र क्षुद्रहिमवान् वर्षधर) हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम हास्य इच्छापरिमाण व्रत का एक अतिचार / स्वर्ण, रजत आदि के नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय स्वीकृत परिमाण का अनजान में अथवा अतिलोभ के कारण से सनिमित्त या अनिमित्त हास्य उत्पन्न होता है। किया जाने वाला अतिक्रमण। यदुदयेन सनिमित्तमनिमित्तं वा हसति तत्कर्म हास्यम्। (उपा 1.36) (स्था 9.69 वृ प 445) हीनप्रेषण हास्यविवेक आज्ञा की अवहेलना करने वाला, जो आचार्य की आज्ञा को सत्य महाव्रत की एक भावना। हास्य का विवेक करना, देश, काल आदि के बहाने से हीन कर देता है। हीणपेसणं णाम जो य पेसण आयरिएहिं दिन्नं तं देसहास्य का प्रत्याख्यान करना। कालादीहिं हीणं करेति त्ति हीणपेसणे। हास्यं हसनं-मोहोद्भवः परिहासस्तत्परिणतो ह्ययमात्मा परि-हसन् परेण सार्धमलीकमपि ब्रूयात्, तस्य परिजिहीर्षया (द 9.2.22 जिचू पृ 317) च हास्यप्रत्याख्यानमभ्युपेयम्। (तभा 7.3 7) हीनाक्षर हासंन सेवियव्वं"एवं मोणेण भाविओ भवड अंतरप्या। ज्ञान का एक अतिचार। अक्षरों को न्यून कर उच्चारण करना। (प्रश्न 7.21) (आव 4.8) हिंसा हीयमान अवधिज्ञान प्रमत्त योग से किसी जीव के प्राणों का व्यपरोपण करना। अवधिज्ञान का एक प्रकार, जो उत्पन्न होकर संक्लिष्ट परिणाम प्रमत्त योगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। (तसू 7.13) के कारण घट जाता है। हायमाणयं ओहिनाणं-अप्पसत्थेहिं अज्झवसाणट्ठाणेहिं हिंसादण्ड वट्टमाणस्स वट्टमाणचरित्तस्स, संकिलिस्समाणस्स संकिलिक्रिया का एक प्रकार प्रतिशोध, प्रतिकार और संभावना की स्समाणचरित्तस्स सव्वओ समंता ओही परिहायइ। दृष्टि से की जाने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति। (नन्दी 19) अण्णं वा अणियं वा हिंसिंसु वा हिंसंति वा हिंसिस्संति हुण्ड वा तं दंडं'"हिंसादंडवत्तिए त्ति आहिए। (सूत्र 2.2.5) वह अपलक्षणयुक्त पात्र, जो कहीं से निम्न और कहीं से हिंसानुबन्धी उन्नत होता है। ऐसा पात्र चारित्र का भेदन करता है अतः रौद्रध्यान का एक प्रकार, जिसमें हिंसा का अनुबन्ध-सतत धारणीय नहीं है। प्रवर्तन हो। अपलक्षणोपेतमुच्यते- 'हुण्डं' क्वचिन्निम्नं क्वचिदुन्नतं 'हिंसाणुबंधि'."हिंसा-सत्त्वानां वधबन्धनादिभिः प्रकारैः / यत्तदधारणीयं"। (ओनिवृ प 211) पीडामनुबध्नाति-सततप्रवृत्तं करोतीत्येवंशीलं यत्प्रणिधानं हुंडे चरित्तभेदो। (ओनि 688) हिंसानुबन्धो वा यत्रास्ति तद्धिंसानुबन्धि रौद्रध्यान। Jain Education International (स्था ४.६३वप१७८te & Personal use only www.jainelibrary.org " का