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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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भाविनैगम नैगमनय का एक प्रकार। वर्तमान में भविष्य का संकल्प, जैसे-यह नवजात शिशु विद्वान् है। भाविनैगमः-वर्तमाने भविष्यत्संकल्पः, जातोऽयं विद्वान्।
(भिक्षु ५.५ वृ) भावेन्द्रिय इन्द्रिय-ज्ञान की शक्ति और उसका उपयोग। 'भाविंदियाई' ति लब्ध्युपयोगलक्षणानि।
(भग १.३४१ वृ)
भिक्षु वह मुनि, जो परदत्तभोजी है, अहं भावना और हीनता से ग्रस्त नहीं है, नाना प्रकार के परीषहों और उपसर्गों पर विजय पा लेता है और अध्यात्मयोग में लीन है। एत्थ विभिक्खू-अणुण्णते णावणते दंते दविए वोसट्ठकाए संविधुणीय विरूवरूवे परीसहोवसग्गे अज्झप्पजोगसुद्धादाणे उवट्ठिए ठिअप्पा संखाए परदत्तभोई 'भिक्खू' त्ति वच्चे॥
(सूत्र १.१६.५)
भाषक वह प्राणी, जिसमें बोलने की क्षमता हो। भाषकाः भाषालब्धिसम्पन्नाः। (प्रज्ञा ३.१०८ वृप १३९) भाषा पर्याप्ति छह पर्याप्तियों में पांचवीं पर्याप्ति। भाषा के योग्य पुद्गलों का ग्रहण, परिणमन और उत्सर्ग करने वाली पौदगलिक शक्ति की संरचना। वइजोग्गे पोग्गले घेत्तूण भासत्ताए परिणामेत्ता वइजोगत्ताए निसिरणसत्ती भासापज्जत्ती। (नन्दीचू पृ २२) भाषाप्रायोग्यपुद्गल-ग्रहण-परिणमनोत्सर्गरूपं पौद्गलिकसामर्थ्योत्पादनं भाषापर्याप्तिः। (जैसिदी ३.११ वृ) भाषावर्गणा वह पुद्गलसमूह, जो भाषा के प्रायोग्य होता है।
(विभा ६३१) भाषा समिति हित, मित, असंदिग्ध और अनवद्य अर्थ का प्रतिपादन करने वाला वचन बोलना। हितमितासंदिग्धानवद्यार्थनियतं भाषणं भाषासमितिः।
(तभा ९.५) भिक्षाचर्या संयमजीवन के निर्वाहार्थ की जाने वाली भिक्षा की प्रवृत्ति।
(सूत्र २.१.५३) भिक्षार्थं चर्या-चरणमटनं भिक्षाचर्या ।
(स्था ६.६५ वृप ३४६) (द्र वृत्तिसंक्षेप)
साधना का विशेष प्रयोग, जो नौवें पूर्व की तीसरी आचार वस्तु को जानने वाले अथवा असंपूर्ण दशपूर्वी भिक्षु के द्वारा किया जाता है। पडिवन्जइ एयाओ, संघयणं-धिइजुओ महासत्तो। पडिमाउ भावियप्या, सम्मं गुरुणा अणुण्णाओ॥ गच्छे च्चिय णिम्माओ, जा पुव्वा दस भवे असंपुण्णा। णवमस्स तइयवत्थू , होइ जहण्णो सुयाहिगमो॥
(पंचा १८.४, ५) भिन्नदशपूर्वी १. वह मुनि, जो असम्पूर्ण दशपूर्वी हो। (नन्दी ६६) 'भिन्ने' त्ति असम्पूर्णदशपूर्वधारिणः। (बृभा १११४ वृ) २. वह मुनि, जो दसवें पूर्व का अध्ययन समाप्त होने पर प्राप्त होने वाली सर्वविद्याओं में लुब्ध हो जाता है। (द्र अभिन्नदशपूर्वी) भिन्नमुहूर्त एक समयन्यून एक मुहूर्त। समऊणेक्कमुहुत्तं भिण्णमुहुत्तं.। (त्रिप्र ४.२८८) भिन्नाक्षर चतुर्दशपूर्वी वह चतुर्दशपूर्वी, जिसे प्रत्येक अक्षर के श्रुतगम्य पर्यायों का भिन्न-परिस्फुट ज्ञान होता है। श्रुतज्ञान विषयक कोई संशय नहीं होने के कारण वह आहारक लब्धि का प्रयोग नहीं करता। वही श्रुतकेवली कहलाता है। (द्र चतुर्दशपूर्वी) भिन्नाचार खण्डित चारित्र वाला मुनि, जो जाति आदि बताकर जीविका
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