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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
भवित्ता तओ पच्छा सिज्झति....॥ शुक्लो नामाभिन्नवृत्तोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति। निरतिचारचरण इत्यन्ये। सुक्काभिजाइ'त्ति शुक्लाभिजात्यः परमशुक्ल इत्यर्थः ।....एतच्च श्रमणविशेषमेवाश्रित्योच्यते न पुनः सर्व एवैवंविधो भवतीति।.....शुक्ल उक्तः, स च तत्त्वतः केवली। (भग १४.१३६,१३७ वृ)
शुचि
योगसंग्रह का एक प्रकार । पवित्रता, सत्य, संयम का आचरण । 'सुइ' त्ति शुचिः सत्यं संयम इत्यर्थः ।
(सम ३२.१.२ वृ प५५)
हा हा
शुक्लपाक्षिक अपार्धपुद्गलपरावर्त तक संसार में रहकर मुक्त होने वाला। जीव।
(स्था १.१८७) (द्र कृष्णपाक्षिक, पुद्गल परिवर्त) शुक्ललेश्या प्रशस्त लेश्या का तीसरा प्रकार। १. प्रशस्ततम भावधारा, जितेन्द्रियता, प्रशान्तता, अप्रमत्तता
और धर्म्यध्यान-शुक्लध्यानलीनता से संबंधित चैतन्य की एक रश्मि। अट्टरुद्दाणि वज्जित्ता, धम्मसुक्काणि झायए। पसंतचित्ते दंतप्या, समिए गुत्ते य गुत्तिहिं ।। सरागे वीयरागे वा, उवसंते जिइंदिए। एयजोगसमाउत्तो, सुक्कलेसं तु परिणमे॥
(उ ३४.३१,३२) (द्र भावलेश्या) २. प्रशस्ततम भावधारा की उत्पत्ति में हेतुभूत श्वेत वर्ण वाले पुद्गल। संखंककुंदसंकासा, खीरपूरसमप्पभा। रययहारसंकासा, सुक्कलेसा उ वण्णओ॥
(उ ३४.९) (द्र द्रव्यलेश्या) शुक्लाभिजात्य १. वह श्रमणोपासक, जो मुनित्व को स्वीकार कर अभिन्न चारित्र वाला, अमत्सरी, कृतज्ञ, सत्प्रवृत्ति वाला और हित का अनुबंध रखने वाला होता है तथा मृत्यु को प्राप्त कर देवरूप में उपपन्न होता है। "इच्चेतेसमणोवासगा सुक्का, सुक्काभिजातीया भवित्ता॥ ..."सुक्क' त्ति शुक्ला अभिन्नवृत्ता अमत्सरिणः कृतज्ञाः सदारम्भिणो हितानुबन्धाश्च सुक्काभिजाइय'त्ति शुक्लाभिजात्याः शुक्लप्रधानाः। (भग ८.२४२ वृ) २. वह विशिष्ट श्रमण, जो एकवर्षीय मुनिपर्याय में अनुत्तरोपपातिक देवों की तेजोलेश्या का अतिक्रमण कर निरतिचार चारित्र-पालन करता हुआ परमशुक्ल-केवली हो जाता है, सिद्ध हो जाता है। ....बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं देवाणं तेयलेस्सं वीईवयइ। तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए
शुद्ध तप प्रायश्चित्त का एक प्रकार। वह तप, जो परिहार तप की भांति कर्कश नहीं है, जिसमें संभाषण, संभोजन आदि वर्जित नहीं हैं। आलावण पडिपुच्छणं, परियट्टट्ठाण वंदणग मत्ते। पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव॥ आलवणादी उ पया, सुद्ध तवे तेण कक्खडो न भवे। इतरम्मि उ ते नत्थी, कक्खडओ तेण सो होति॥
(व्यभा ५५०,५५८) शुद्धपृथ्वी वह पृथ्वी, जो सचित्त है, शस्त्र से अनुपहत है। असत्थोवहता सुद्धपुढवी। (द ८.५ अचू पृ १८५) शुद्धोपहृत मुनि को ऐसा भोजन देना, जो दाता द्वारा अपने निमित्त लाया गया है तथा जो लेपरहित है। शुद्धम्-अलेपकृतं शुद्धौदनं च, तच्च तदुपहृतं चेति शुद्धोपहृतम्।
(स्था ३.३७९ वृ प १३८) (द्र फलिकोपहत, संसृष्टोपहत )
शुभनाम नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से नाभि के ऊपर के अवयव शुभ होते हैं। यदुदयान्नाभेरुपरितना अवयवाः शुभा जायन्ते तत् शुभनाम।
(प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) शुभ प्रकृति वह कर्म-प्रकृति, जो शुभ (प्रमोद के निमित्तभूत) रस से
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