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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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शिल्पस्थावरकाय शिल्प से संबंधित होने के कारण तेजस्काय का अपर नाम है-शिल्पस्थावरकाय।
(स्था ५.१९) (द्र इन्द्रस्थावरकाय) शिल्पस्थावरकायाधिपति वह देव, जो तेजस्कायसंज्ञक स्थावरकाय का अधिपति है।
(स्था ५.२० वृ प २७९) (द्र इन्द्रस्थावरकायाधिपति)
शीतीभूत वह मनि, जिसका क्रोध आदि कषाय उपशान्त है। सीतभतेण सीतो उवसंतो, जधा निसण्णो देवो. अतो सीतभूतेण उवसंतेण अप्पणा। (द ८.५९ अचू पृ २००) शीतीभूतेन क्रोधाद्यग्न्यपगमात् प्रशान्तेन। (दहावृ प २३८)
शीतोष्ण योनि वह उत्पत्ति स्थान, जो शीतोष्ण होता है।
(तभा २.३३ वृ) (द्र उष्ण योनि)
शीतगृह वर्धकिरत्न के द्वारा निर्मित चक्रवर्ती का घर, जो वर्षा ऋतु में बरसाती हवा से अप्रभावित, सर्दी में गरम और गर्मी में ठण्डा रहता है। शीतगृहं नाम-वर्द्धकिरत्ननिर्मितं चक्रवर्तिगृहम्, तच्च वर्षासु निवातप्रवातं शीतकाले सोष्मं ग्रीष्मकाले शीतलम्।
(बृभा २७१६ वृ) शीततेजोलेश्या अनुग्रह करने वाली तथा उष्णतेजोलेश्या का प्रतिकार करने वाली तेजोलेश्या। ....प्रसन्नस्त शीततेजसाऽनगहाति। (तभा २.३७०) सीयलियाए तेयलेस्साए"उसिणा तेयलेस्सा पडिहया।
(भग १५.६८) शीत परीषह परीषह का एक प्रकार । ठण्ड से उत्पन्न वेदना, जो मुनि के द्वारा समभावपूर्वक सहनीय है। चरंतं विरयं लूहं सीयं फुसइ एगया। नाइवेलं मुणी गच्छे सोच्चाणं जिणसासणं॥ न मे निवारणं अस्थि, छवित्ताणं न विज्जई। अहं तु अग्गिं सेवामि, इइ भिक्खू न चिंतए॥
(उ २.६,७)
शीर्षप्रहेलिका गणित-विषय की अंतिम संख्या, जो कुल १९४ अंकों की होती है (५४ अंक और उसके ऊपर १४० शून्य होते हैं)। अंक इस प्रकार हैं-७५८२६३२५३०७३०१०२४११५७ ९७३५६९९७५६९६४०६२१८९६६८४८०८०१८३२९६इस संख्या के आगे १४० शून्य। सीसपहेलियाए चत्तालं सुण्णसयं ततो छ णव दो ति अटू एक्को सुण्णं अट्ठ सुण्णं अट्ठ चतु अट्ठ छ छ णव अट्ठ एक्को दो छ सुण्णं चतु छ पण छ णव सत्त णव णव छ पण ति सत्त णव सत्त पण एक्को एक्को चतु दो सुण्णं एक्को सुण्णं ति सत्त सुण्णं ति पण दो ति छ दो अट्ठ पण सत्त य ठवेज्जा ।
(अनुचू पृ३९, ४०)
शुक्लध्यान निर्मल प्रणिधान वाला ध्यान। १. निर्मल प्रणिधान-समाधि-अवस्था को शुक्ल ध्यान कहते हैं। उसके चार भेद हैं-पृथक्त्ववितर्कसविचार, एकत्ववितर्कअविचार, सूक्ष्मक्रियाअप्रतिपाति, समुच्छिन्नक्रियाअनिवृत्ति। निर्मलं प्रणिधानं शक्लम। (जैसिदी ६.४४ ) पृथक्त्ववितर्क सविचार-एकत्ववितर्काऽविचार-सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति-समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्तीनि शुक्लम्।
(जैसिदी ६.४४) २. पूर्वधर मुनि के पूर्व श्रुत के आधार पर होने वाला ध्यान। ""आद्ये शुक्ले ध्याने पूर्वविदो भवतः। (तभा ९.३९) ३. योगनिरोधात्मक ध्यान, जो केवली के होता है। परे द्वे शुक्लध्याने केवलिन एव भवतः, न छद्मस्थस्य।
(तभा ९.४०)
शीत योनि वह उत्पत्ति स्थान, जो शीतल होता है।
(तभा २.३३ वृ)
(द्र उष्ण योनि)
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