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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
पत्तेयं जेण हयाणि सो पडिहयपावकम्मो।
अपूर्वाधिकरणोत्पादनात् प्रात्यायिकी क्रिया। (तवा ६.५) (द ४.१८ जिचू पृ १५४)
प्रत्याख्यातपापकर्मा प्रतीच्छक
वह मुनि, जो अपनी संवर-साधना के बल से आश्रव-द्वारों वह मुनि, जो अन्य गण से आकर श्रृत आदि के लिए को निरुद्ध कर चुका है। उपसम्पदा स्वीकार करता है।
पच्चक्खायपावकम्मो नाम निरुद्धासवदुवारो भण्णति। पडिच्छे त्ति येऽन्यतो गच्छान्तरादागत्य साधवस्तत्रोपसम्पदं
(द ४.१८ जिचू पृ १५४) गृह्णन्ति ते प्रतीच्छकाः।
(व्यभा ९५७ वृ) प्रत्याख्यान प्रतीच्छकः-परगणवर्ती सूत्रार्थतदुभयग्राहकः।
१. प्रवृत्ति के निरोध का संकल्प। अनागत काल में अमुक
(व्यभा १६८२ वृ) प्रकार का सावध कार्य नहीं करूंगा, इस प्रकार का संकल्प। प्रतीत्य सत्य
आगामी काल में होने वाले दोषों के निमित्तभूत भावों का
प्रतिषेध करना। सत्य का एक प्रकार। सापेक्ष सत्य-एक वस्तु की अपेक्षा
प्रत्याख्यानं–निरोधप्रतिज्ञानम्। (भग १७.४९ वृ) दूसरी को छोटा, बड़ा, हल्का, भारी आदि कहना।
प्रत्याख्यानं नाम अनागतकालविषयां क्रियां न करिष्याप्रतीत्य-आश्रित्य वस्त्वन्तरं सत्यं प्रतीत्यसत्यम्।
मीति संकल्पः।
(भआ ११६ विवृ) (स्था १०.८९ वृ प ४६५)
२. आवश्यक का छठा अध्ययन, जिसका प्रतिपाद्य विषय प्रत्यक्ष ज्ञान
है-गुणधारणा। इसमें मूलगुण-उत्तरगुण की स्वीकृति तथा इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सीधा आत्मा से होने उसकी निरतिचार पालना के लिए विशिष्ट गुणों का आधान वाला ज्ञान।
किया जाता है।
(नन्दी ७५) इन्द्रियमनोनिरपेक्षमात्मनः साक्षात् प्रवृत्तिमत्प्रत्यक्षम्। छठे जहा मूलुत्तरगुणपडिवत्ती निरतियारधारणं च जधा
(आवमवृ प १६) तेसिं भवति तथा अत्थपरूवणा। (अनु ७४ चू पृ१८)
गुणधारणा प्रत्याख्यानार्थाधिकारः। (अनुहाव पृ २५) प्रत्यक्ष प्रमाण विशद ज्ञान, जिसे सिद्ध करने के लिए किसी दसरे प्रमाण प्रत्याख्यानपरिज्ञा की अपेक्षा नहीं है।
पापकर्म को जानकर उसका आचरण नहीं करना। विशदः प्रत्यक्षम्।
पच्चक्खाणपरिण्णा नाम पावं कम्मं जाणिऊण तस्स पावस्स प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम्।
जं अकरणं सा पच्चक्खाणपरिण्णा भवति। (प्रमी १.१.१३,१४)
(दजिचू पृ ११६)
(द्र ज्ञपरिज्ञा) प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्ष और स्मृति के योग से होने वाला संकलनात्मक ज्ञान। प्रत्याख्यान पूर्व यह चार प्रकार का होता है, जैसे-यह वही है, यह उसके नौवां पूर्व, जिसमें सर्व प्रत्याख्यान के स्वरूप का प्रज्ञापन समान है, यह उससे भिन्न है, यह उससे दूर या पास, छोटा किया गया है। या बड़ा आदि है।
णवमं पच्चक्खाणं, तम्मि सव्वपच्चक्खाणसरूवं वण्णिदर्शनस्मरणसम्भवं तदेवेदं तत्सदृशं तद्विलक्षणं तत्प्रति- ज्जति।
(नन्दी १०४ चू पृ७६) योगीत्यादिसंकलनं प्रत्यभिज्ञानम्। (प्रमी १.२.४)
प्रत्याख्यानावरण कषाय प्रत्ययक्रिया
चारित्रमोहनीय कर्म की वह प्रकृति-कषाय चतुष्टयी (क्रोधक्रिया का एक प्रकार । नये-नये अधिकरणों को उत्पन्न करना। मान-माया-लोभ), जिसके उदयकाल में सर्वविरति की
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