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फलजृम्भक
जृम्भक देव का एक प्रकार, जो फलों की रक्षा के लिए नियुक्त है।
(भग १४.११९)
फलप्राप्त
उदय प्राप्त, फल देने में समर्थ कर्म-पुद्गल । 'फलप्राप्तस्य' फलं दातुमभिमुखीभूतस्य ततः सामग्री(प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९)
वशादुदयप्राप्तस्य ।
फलिकोपहृत
मुनि को ऐसा भोजन देना, जो खाने के लिए (अतिथि को) थाली आदि में परोसा हुआ है।
उपहृतमुपहितम्, भोजनस्थाने ढौकितं भक्तमिति भावः, फलिकं - प्रहेणकादि, तच्च तदुपहृतं चेति फलिकोपहृतं अवगृहीताभिधानपञ्चमपिण्डैषणाविषयभूतम् ।
(स्था ३.३७९ वृ प १३८)
ब
बकुश
निर्ग्रन्थ का दूसरा प्रकार । वह निर्ग्रन्थ, जो शरीर और उपकरणों की विभूषा में रत रहता है, जो ऋद्धि और यश की कामना करने वाला, सातगौरव (सुविधावाद) में संलग्न, परिवार में आसक्त तथा शबल (धब्बे युक्त) चारित्र से युक्त होता है।
बकुशं - शबल: कर्बुरं, ततश्च बकुशसंयमयोगाद् बकुशः । (भग २५.२७८ वृ) शरीरोपकरणविभूषाऽनुवर्तिनः ऋद्धियशस्कामाः सातगौरवाश्रिता अविविक्तपरिवाराः छेदशबलयुक्ताः निर्ग्रन्था बकुशाः । (तभा ९.४८)
बद्ध
जीव के द्वारा राग-द्वेष के परिणामवश कर्मरूप में परिणमित कर्मवर्गणा के पुद्गल । कर्म की वह अवस्था, जिसकी बंधक्रिया सम्पन्न हो चुकी है।
जीवेन बद्धस्य - रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिणमितस्य । (प्रज्ञा २३.१३ वृप ४५९) बद्धा उपरतबन्धक्रियाः । (विभा २९६२ मवृ)
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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
बद्धस्पर्शस्पृष्ट
कर्म की वह अवस्था, जिसमें बद्ध कर्मपुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ गाढतर संश्लेष हो जाता है।
जीवेन बद्धस्य – रागद्वेषपरिणामवशतः कर्मरूपतया परिणमितस्य स्पृष्टस्य - आत्मप्रदेशैः सह संश्लेषमुपगतस्य बद्धफासपुटुस्से त्ति पुनरपि गाढतरं बद्धस्यातीव स्पर्शेन स्पृष्टस्य (प्रज्ञा २३.१३ वृ प ४५९)
च।
बद्धस्पृष्ट
घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय के विषयभूत गंध, रस और स्पर्श, जो जल की भांति स्पृष्ट होकर आत्मप्रदेशों के साथ आश्लिष्ट होते हैं।
'बद्धस्पृष्टमिति ' - आश्लिष्टं तोयवदात्मप्रदेशैरात्मीकृतमित्यर्थः''''आलिङ्गितानन्तरमात्मप्रदेशैरागृहीतमित्यर्थः । (नन्दी ५४.४ हावृ पृ ५७)
बद्धायुष्क
वह जीव, जिसके भावी जन्म का आयुष्य बंध चुका है। यत्र भवे वर्तते स एवैको भवः शङ्खेषूत्पत्तेरन्तरेऽस्तीतिकृत्वा, एवं शङ्खप्रायोग्यं बद्धमायुष्कं येन स बद्धायुष्कः । ( अनु ५६८ मवृ प २१३)
बध्यमान
कर्म की वह अवस्था, जिसकी बंधक्रिया प्रारम्भ हो चुकी है ।
बध्यमानाः प्रारब्धबन्धक्रियाः ।
(विभा २९६२ मवृ)
बन्ध
१. नौ तत्त्वों में एक तत्त्व। जीव के द्वारा कर्म-पुद्गलों का
ग्रहण |
जीवस्य कर्मपुद्गलानामादानम् - क्षीरनीरवत् परस्पराश्लेषः बन्धोऽभिधीयते । (जैसिदी ४.६ वृ)
२. स्थूलप्राणातिपातविरमण व्रत का एक अतिचार। अपने आश्रित पशु अथवा मनुष्य आदि को रज्जु आदि से बांधना । 'बंधे' त्ति बन्धो द्विपदादीनां रज्ज्वादिना संयमनम् ।
(उपा १.३२ वृ पृ १०) ३. पुद्गल का एक पर्याय । संश्लेष - पुद्गल का पुद्गल के साथ मिलना ।
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