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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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(द्र पुष्करद्वीपार्ध)
(द्र आत्मभाववक्रता, परभाववक्रता)
माया कषाय का एक प्रकार। आत्मा का वह अध्यवसाय, जो वञ्चना से उत्पन्न होता है। वञ्चनाध्यवसायो माया।
(आभा ३.७१)
मायाक्रिया ज्ञान, दर्शन आदि के क्षेत्र में छल-कपट करना। ज्ञानदर्शनादिषु निकृतिर्वञ्चनं मायाक्रिया। (तवा ६.५.११)
मायामृषा पाप पापकर्म का सतरहवां प्रकार। १. वञ्चनायुक्त मृषा की प्रवृत्ति से बंधने वाला पापकर्म।
(आवृ प ७२) २. वेषान्तर और भाषान्तर के द्वारा दूसरों को ठगने की प्रवृत्ति। 'मायामोसे' तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः संयोगः। अथवा वेषान्तरभाषान्तरकरणेन यत्परवञ्चनं तन्मायामषेति।
(भग १.२८६ वृ) मायामृषा पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मायामृषा में प्रवृत्त होता है। (द्र माया पापस्थान)
माया पाप पापकर्म का आठवां प्रकार । माया की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध।
(आवृ प ७२) माया पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव माया में प्रवृत्त होता है।
(झीच २२.२२) (द्र मान पापस्थान)
माया विजय वह साधना, जिससे ऋजुता का विकास होता है, मायावेदनीय कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध मायावेदनीय कर्म की निर्जरा होती है। मायाविजएणं उज्जुभावं जणयइ, मायावेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, पुव्वबद्धं च निजरेइ। (उ २९.७०)
मायापिण्ड उत्पादन दोष का एक प्रकार । मंत्र के प्रयोग से रूपपरिवर्तन कर भिक्षा ग्रहण करना। मन्त्रयोगकुशलो रूपपरावर्त्तादिना यल्लभते स मायापिण्डः।
(प्रसा ५६६ वृ)
मायाप्रत्यय क्रियास्थान का एक प्रकार। अपने दोषपूर्ण स्वरूप को छिपाने
था दोषों से निवत्त होने के लिए आलोचना (पायश्चित्त द्वारा शद्धि) न करने की मनोवत्ति और प्रवत्ति । जे इमे भवंति गूढायारा तमोकासिया"एवमेव माई मायं कट्ट णो आलोएइ"।
(सूत्र २.२.१३) मायाप्रत्यया क्रिया प्रेय:प्रत्यया क्रिया का एक प्रकार । माया के निमित्त से होने वाली क्रिया। पेज्जवत्तिया किरिया दविहा पण्णत्ता.तं जहा-मायावत्तिया चेव लोभवत्तिया चेव। (स्था २.३६) माया-शाठ्यं प्रत्ययो-निमित्तं यस्याः कर्मबन्धक्रियाया व्यापारस्य वा सा तथा। (स्था २.१७७ प३८)
मायाशल्य शल्य का एक प्रकार। वह भावात्मक आयुध, जो मायापूर्ण आचरण के रूप में उदित होकर आत्मिक सरलता को बाधित करता है। माया-निकृतिः सैव शल्यं मायाशल्यम्।
(स्था ३.३८५ वृ प १३९) माया संज्ञा मायावेदनीय कर्म के उदय से होने वाला वञ्चनात्मक संवेदन। मायावेदनीयेनाशुभसंक्लेशादनृतसंभाषणादिक्रिया मायासंज्ञा।
(प्रज्ञा ८.९ वृ प २२२) मायिमिथ्यादृष्टि मायाशल्ययुक्त मिथ्यादृष्टि वाला व्यक्ति। (भग ५.१०२)
मायी वह व्यक्ति, जो आभियोगिकी भावना से भावित होकर मंत्र,
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