SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 245
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ जैन पारिभाषिक शब्दकोश मातृकेव मातृका-प्रवचनपुरुषस्योत्पादव्ययधौव्यलक्षणा उत्पादन दोष का एक प्रकार । दूसरे मुनि के द्वारा उत्साहित पदत्रयी तस्या अनुयोगः। (स्था १०.४६ वृप ४५६) करने पर गृहस्थ के अभिमान को उत्तेजित कर भिक्षा लेना। लब्धिप्रशंसोत्तानस्य परेणोत्साहितस्यावमतस्य वा गृहस्थामातृकापद भिमानमुत्पादयतो मानपिण्डः। (योशावृ पृ १३५) दृष्टिवाद के विकास की हेतुभृत त्रिपदी-उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य। मानप्रत्यय सकलवाङ्मयस्य अकारादिमातृकापदानीव दृष्टिवादार्थ- क्रियास्थान का एक प्रकार । जाति, कुल, बल आदि के मद प्रसवनिबन्धनत्वेन मातृकापदानि उत्पादविगमध्रौव्यलक्ष- से ग्रस्त होकर दूसरे को हीन और अपने आपको उत्कृष्टरूप णानि। (सम ४६.१ वृ प ६५) में प्रस्तुत करने की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति। (द्र त्रिपदी) जाइमदेण वा कुलमदेण वा बलमदेण वा...."चंडे थद्धे चवले माणी यावि भवइ । एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावजं मातृग्राम ति आहिज्जइ। (सूत्र २.२.११) स्त्री अथवा स्त्रीवर्ग। मानप्रत्यया क्रिया इत्थी माउग्गामो भण्णति। (निचू २ पृ ३७१) द्वेषप्रत्यया क्रिया का एक प्रकार। मान के निमित्त से होने मातृग्रामे नाम समयपरिभाषया स्त्रीवर्गः । (बृभा २०९६ वृ) वाली क्रिया। (स्था २.३७) माध्यस्थ्य भावना मानविजय राग-द्वेषपूर्वक होने वाले पक्षपात का अभाव। वह साधना, जिससे मृदुता का विकास होता है, मानवेदनीय रागद्वेषपूर्वकपक्षपाताऽभावो माध्यस्थ्यम्। कर्म का बंध नहीं होता और पूर्वबद्ध मानवेदनीय कर्म की (तवा ७.११.४) निर्जरा होती है। माणविजएणं महवं जणयइ। माणवेयणिज्जं कम्मं न बंधइ, मान पुव्वबद्धं च निज्जरेड़। (उ २९.६९) १. कषाय का एक प्रकार । आत्मा का वह अध्यवसाय, जो उत्कर्ष से उत्पन्न होता है। मानसंज्ञा उत्कर्षाध्यवसायो मानः । (आभा ३.७१) मानवेदनीय कर्म के उदय से होने वाला अभिमानात्मक २. विभागनिष्पन्न द्रव्य प्रमाण का एक प्रकार, जिससे लम्बाई संवेदन। और चौड़ाई का माप किया जाता है। (अनु ३७३) । मानोदयादहङ्कारात्मिका उत्सेकादिपरिणतिर्मानसंज्ञा। (प्रज्ञा ८.१ वृ प २२२) मान पाप पापकर्म का सातवां प्रकार । मान की प्रवृत्तिसे होने वाला कर्म मानसिक ध्यान का बंध। __ (आवृ प ७२) किसी एक आलम्बन अथवा वस्तु पर मन को एकाग्र करना। मानसं त्वेकस्मिन् वस्तुनि चित्तस्यैकाग्रता। मान पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव मान में प्रवृत्त होता है। (बृभा १६४२ वृ) जिण कर्म नै उदय करी जी, मान तप्त जीव रा प्रदेश। मानुषोत्तर पर्वत तिण कर्म नै कहियै सही जी, मान पापठाणो रेस ।। वह पर्वत, जो पुष्करद्वीप के अर्धभाग में स्थित है, मनुष्य मायादिक पापठाणां तिकैजी, इमहिज कहियै विचार। लोक की सीमा करता है और स्वर्णमय है। ज्यांरा उदय थी जे-जे नीपजै जी, ते कहियै आस्रव द्वार। मानुषोत्तरो नाम पर्वतो मानुषलोकपरिक्षेपी सुनगरप्राकारवृतः (झीच २०,२२) पुष्करवरद्वीपार्धविनिविष्टः काञ्चनमयः सप्तदशैक विंशतियोजनशतान्युच्छितः। मानपिण्ड (तभा ३.१३) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy