________________
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
सूक्ष्म क्षेत्र सागरोपम
(अनु ४३९)
(द्र क्षेत्र सागरोपम)
सूक्ष्म जीव वे जीव, जो आंखों से देखे न जा सकें। सूक्ष्मनाम कर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले जीव, सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव। सूक्ष्मनामकर्मोदयोपजनितविशेषाः सूक्ष्माः।
(धव पु १ पृ २६९)
सूक्ष्मतेजस्कायिक सूक्ष्मनाम कर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले तेजस्कायिक जीव।
(प्रज्ञा १.२४) (द्र सूक्ष्मनाम) सूक्ष्मध्यान ध्यानसंवरयोग। वह ध्यान, जो महाप्राणध्यान के सदृश है, जिसमें ध्याता कायनिरोध करता है, निश्चल और उच्छ्वास शून्य हो जाता है तथा जिससे प्राण की सूक्ष्मता हो जाती है। परिस्थितिवश ध्याता बीच में ही ध्यान सम्पन्न कर सकता है, यदि गीतार्थ द्वारा उसके बाएं अंगूठे का स्पर्श किया । जाए। ""अज्जपूसभूई य।आयाणपूसमित्ते सुहुमे झाणे॥ वसुभूती आयरिया बहुसुता"पूसमित्तो बहुस्सुतो"तेसिं आयरियाणं चिंता जाता-सुहुमज्झाणं पविस्सामि, तं महापाणसरिसयं, तं किर जाहे पविसति ताहे एवं जोगसंनिरोधं करोति जथा किंचि विण चेतेति।"आयरिओ न चलति न फंदति, ऊसासनीसासो वि नत्थि, सुहुमो किर एवं।"पुव्वं भणितो सो"जाहे"अच्चयो होज्जा ताहे वामंगुट्ठाए छिवेज्जासि त्ति, छित्तो, तो पडिबुद्धो।
(आवनि १३१७ चू २ पृ २१०) (द्र महाप्राण)
सूक्ष्मनाम, यदुदयाद्बहूनामपि समुदितानां जन्तुशरीराणां चक्षुर्ग्राह्यता न भवति। (प्रज्ञा २३.३८ वृ प ४७४) यदुदयादन्यजीवानुपग्रहोपघाताऽयोग्यसूक्ष्मशरीरनिर्वृत्तिर्भवति तत् सूक्ष्मनाम।
(तवा ८.११.२९) सूक्ष्मनिगोद निगोद के वे जीव, जो सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं। सक्ष्मनिगोदाः सर्वलोकापन्नाः। (जीवा ५.३८ व प ४२३) .."सुहुमणिगोदाणं जलथलआगासेसु सव्वत्थ तेसिं जोणिदंसणादो।
(धव पु १४ पृ २३२) (द्र सूक्ष्मजीव) सूक्ष्मपृथ्वीकायिक सूक्ष्मनामकर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले पृथ्वीकायिक जीव।
(प्रज्ञा १.१६) (द्र सूक्ष्मनाम) सूक्ष्मवनस्पतिकायिक सूक्ष्मनामकर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले वनस्पतिकायिक जीव।
(प्रज्ञा १.३०) (द्र सूक्ष्मनाम) सूक्ष्मवायुकायिक सूक्ष्मनामकर्म के उदय से निष्पन्न सूक्ष्म शरीर वाले वायुकायिक जीव।
(प्रज्ञा १.२७) (द्र सूक्ष्मनाम) सूक्ष्मसम्पराय चारित्र चारित्र का एक प्रकार । दसवें गुणस्थान में होने वाला चारित्र, जहां सूक्ष्म कषाय (लोभ) अवशेष रहता है। उपशमश्रेणी और क्षपक श्रेणी में आरूढ़ साधक सूक्ष्म लोभाणुओं का वेदन करता है, उस समय की चारित्रिक स्थिति। कोवाइ संपराओ तेण जओ संपरीइ संसारं। तं सुहुमसंपरायं, सुहुमो जत्थावसेसो सो॥ लोभाणू वेयंतो जो खलु उवसामओ व खवओ वा। सो सुहमसंपराओ अहक्खाया ऊणओ किंचि॥
(विभा १२७७, १३०२)
सूक्ष्मनाम नाम कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से निष्पन्न शरीर समुदित अवस्था में भी अदृश्य (चक्षु के द्वारा अग्राह्य) होते हैं, जिन पर दूसरे जीवों के अनुग्रह और उपघात का प्रभाव । नहीं होता।
सूक्ष्मसम्पराय जीवस्थान जीवस्थान/गुणस्थान का दसवां प्रकार । संज्वलन लोभ के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org