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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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दर्भ विद्या
दर्शन परीषह वह विद्या, जिसमें अभिमन्त्रित कश से रोगी का अपमार्जन परीषह का एक प्रकार। सूक्ष्म और अतीन्द्रिय पदार्थों का किया जाता है और वह स्वस्थ हो जाता है।
दर्शन न होने से उत्पन्न होने वाली खिन्नता, जो मुनि के लिए या दर्भे दर्भविषया भवति विद्या, यया दर्भेरपमृज्यमान सहनीय है। आतुरः प्रगुणो भवति।
(व्यभा २४३९ वृ) नत्थि नूणं परे लोए इड्डी वावि तवस्सिणो। दर्शन
अदुवा वंचिओ मि त्ति इइ भिक्खू न चिंतए।
अभू जिणा अस्थि जिणा, अदुवावि भविस्सइ। १. सामान्य अवबोध। अनाकार उपयोग। इससे द्रव्य का
मुसं ते एवमाहंसु, इइ भिक्खू न चिंतए॥ निर्विकल्प---जाति, द्रव्य, गुण और क्रिया से रहित ज्ञान
(उ २.४४,४५) होता है। जं सामण्णग्गहणं दंसणमेयं"।
(सप्र २.१)
दर्शनपुलाक "दर्शनम्-अनुल्लिखितविशेषस्य सन्मात्रस्य प्रतिपत्तिः""।
पुलाक निर्ग्रन्थ का एक प्रकार । मिथ्यादृष्टि वाले व्यक्तियों (जैसिदी २.११ वृ)
के सम्पर्क आदि से दर्शन को सारहीन बनाने वाला। २. दर्शनमोह के विलय से होने वाली दृष्टि, सम्यक्त्व।
कुदृष्टिसंस्तवादिभिर्दर्शनपुलाकः । दृश्यन्ते-श्रद्धीयन्ते पदार्था अनेन "दर्शनं-दर्शनमोहनीयस्य
(स्था ५.१८५ वृ प ३२०) क्षयः क्षयोपशमो वा, दृष्टिर्वा दर्शनं-दर्शनमोहनीय
दर्शन प्रतिमा क्षयाद्याविर्भूतस्तत्त्वश्रद्धानरूप आत्मपरिणामः।
उपासक प्रतिमा का पहला प्रकार, जिसमें प्रतिमाधारी उपासक (स्थ १६ वृ प २१,२२) ३. दर्शन मोह के उदय से होने वाला दृष्टि, मिथ्यात्व।
दर्शन की वह साधना करता है, जो शंका, कांक्षा आदि
विकल्प से रहित होती है और जिसमें शम, संवेग आदि का दर्शनमोहोदयात् अतत्त्वे तत्त्वप्रतीतिः मिथ्यात्वं गीयते।
विशिष्ट अभ्यास किया जाता है और जो राजाभियोग आदि (जैसिदी ४.१८ वृ)
आकारों (अपवादों) से मुक्त होती है। दर्शन आत्मा
पसमाइगुणविसिटुं कुग्गहसंकाइसल्लपरिहीणं। दर्शनात्मक चेतना।
सम्मदंसणमणहं दंसणपडिमा हवइ पढमा ।। दर्शनात्मा सर्वजीवानां... जस्स दवियाया तस्स दंसणाया सम्यग्दर्शनस्य कुग्रहशंकादिशल्यरहितस्याणुव्रतादिगुणनियम अत्थि' त्ति यथा सिद्धस्य केवलदर्शनं 'जस्सवि विकलस्य योऽभ्युपगमः सा दर्शनप्रतिमेति, सम्यग्दर्शनदसणाया तस्स दवियाया नियमं अत्थि' त्ति यथा चक्षु- प्रतिपत्तिश्च तस्य पूर्वमप्यासीत् केवलमिह शङ्कादिदोषदर्शनादिदर्शनवतां जीवत्वम्। (भग १२.२००,२०३ वृ) । राजाभियोगाद्याकारषट्कवर्जितत्वेन यथावत्सम्यग्दर्शनाचार
विशेषपरिपालनाभ्युपगमेन च प्रतिमात्वं संभाव्यते। दर्शनकषायकुशील
(प्रसा ९८२ वृ प २९४) कषायकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो दर्शन के प्रसंग में क्रोध, अहंकार आदि का प्रयोग कर दर्शन की
दर्शनप्रतिषेवणाकुशील विराधना करता है।
प्रतिषेवणाकुशील निर्ग्रन्थ का एक प्रकार। वह मुनि, जो (द्र ज्ञानकषायकुशील)
दर्शन के आधार पर आजीविका करता है।
(द्र ज्ञानप्रतिषेवणाकुशील) दर्शनक्रिया क्रिया का एक प्रकार । रागाविष्ट होकर रमणीय रूप की ओर
दर्शन बोधि देखने की प्रमादी पुरुष की प्रवृत्ति।
१. अप्राप्त दर्शन की प्राप्ति। रागार्टीकृतत्वात् प्रमादिनः रमणीयरूपालोकनाभिप्रायः। २. दर्शनप्राप्ति के उपाय का चिन्तन।
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