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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
गुप्तेन्द्रिय इन्द्रियों का संवरण करने वाला। गुप्तानि-स्वस्वविषयप्रवृत्तिनिरोधेन संवृतानीन्द्रियाणि येनासौ गुप्तेन्द्रियः।
(बृभा ८०३ वृ)
गुण १. पर्याय या अंश। गुण:-अंशः पर्यायः।
(अनुमवृ प १०१) २. द्रव्य का सहभावी धर्म, जो द्रव्य के आश्रय में रहता है, स्वयं निर्गुण है। द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः।
(तसू ५.४०) गुणः सहभावी धर्मो यथात्मनि विज्ञानव्यक्तिशक्त्यादिः।
(प्रनत ५.७)
गुणरत्नसंवत्सर एक विशिष्ट तप:कर्म, जिसमें सोलह मास का समय लगता है। तपस्या का कालमान तेरह मास सतरह दिनों का होता है
और आहार का कालमान तिहत्तर दिनों का होता है। गुणरत्नसंवत्सरं-तपः, इह च त्रयोदशमासा: सप्तदशदिनाधिकास्तपःकालः, त्रिसप्ततिश्च दिनानि पारणककाल इति।
(भग २.६१ वृ) गणवीर्य
औषधि में होने वाली गुणात्मक शक्ति, जिसके द्वारा रोग का निवारण होता है। गणवीरियंजं ओसहीण तित्त-कडय-कसाय-अंबिल-महरगुणत्ताए रोगावणयणसामत्थं। (निभा ४७ चू)
गुरु १. धर्माचार्य, जो तत्त्व का प्रतिपादन करता है, जैसेतीर्थंकर, गणधर आदि। धर्मज्ञो धर्मकर्ता च, सदा धर्मप्रवर्तकः। सत्त्वेभ्यो धर्मशास्त्रार्थदेशको गुरुरुच्यते॥
(प्रज्ञावृप १६३) २. जो अर्हत् के प्रवचन (शासन) का अनुगमन करता है तथा बाह्य और आभ्यन्तर ग्रन्थियों से मुक्त होता है। निर्ग्रन्थो गुरुः॥ अर्हतां प्रवचनानुगामी बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिविप्रमुक्तः निर्ग्रन्थः।
(जैसिदी ८.२ वृ)
गुणव्रत
(प्रसावृप २९४) (द्र शिक्षाव्रत) गुणस्थान धर्म-धर्मिणोरभेदोपचारात् जीवस्थानानि कर्मक्षयोपशमादिजन्यगुणाविर्भावरूपक्रमिकविशुद्धिरूपाणि गुणस्थानानि उच्यन्ते।
(जैसिदी ७.१ वृ) (द्र जीवस्थान)
गुरुचिन्तक वह मुनि, जो गुरु की सेवा में नियुक्त होता है।
(व्यभा १९४३) गुरु प्रायश्चित्त अनुद्घातिक प्रायश्चित्त, जिसका वहन निरन्तर किया जाता है। काल की दृष्टि से ग्रीष्म काल और तप की दृष्टि से अष्टमभक्त (तेला) आदि गुरु प्रायश्चित्त हैं। जं तु निरंतरदाणं, जस्स व तस्स व तवस्स तं गुरुगं। जं पुण संतरदाणं, गुरू वि सो खलु भवे लहुओ॥ काल-तवे आसज्ज व, गुरू वि होइ लहुओ लहू गुरुगो। कालो गिम्हो उ गुरू, अट्ठाइ तवो लहू सेसो॥
(बृभा ३००,३०१) (द्र अनुद्घातिक)
गुप्ति १. मन, वचन और काया की प्रवृत्ति का सम्यक् निग्रह।। सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः।
(तसू ९.४) २. चित्त की वह अवस्था, जिसके द्वारा अशुभ मन, वचन और काया का निवर्तन होता है। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो॥ (उ २४.२६)
गुरुलघुद्रव्य वह द्रव्य, जो भारयुक्त है, जैसे-बादरस्कन्ध-औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तैजस शरीर। परमाण्वादेरारभ्य संख्यातप्रदेशात्मकोऽसंख्यातप्रदेशात्मको यश्चानन्तप्रदेशात्मकः सूक्ष्मस्कन्धः कार्मणप्रभृतिक एते अगुरुलघवः, बादराः स्कन्धा औदारिकवैक्रियाहारकतैजसरूपा गुरुलघवः।
(बृभा ६५ वृ)
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