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________________ जैन पारिभाषिक शब्दकोश १४३ 'देशव्रतानि' स्थूलप्राणातिपातविरमणादीनि। लेकर उत्कृष्टतः सम्पूर्ण लोक के रूपी द्रव्यों को जानने की (बृभा ५०२४ वृ) क्षमता रखता है। (द्र देशचारित्र) ..."देसोही वि सव्वोही वि॥ (प्रज्ञा ३३.३३) "पुनरपरेऽवधेस्त्रयो भेदाः-देशावधि: परमावधि: सर्वावधिदेशस्नान श्चेति।"उत्सेधागुलासंख्येयभागक्षेत्रो देशावधिर्जघन्यः । मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार।शौचस्थानों के अतिरिक्त उत्कृष्टः कृत्स्नलोकः। (तवा १.२२.४) नेत्र-केश आदि का प्रक्षालन करना । (द्र अधोवधि) देससिणाणं लेवाडयं मोत्तूण सेसं अच्छिपम्हपक्खालणमेत्तमवि देससिणाणं भवइ। (दजिचू पृ ११२) देहप्रलोकन (द्र स्नान) मुनि के लिए अनाचार का एक प्रकार । तैल, पानी या दर्पण में मुंह देखना। देशाराधक देहप्रलोकनं च आदर्शादावनाचरितम्। १. वह व्यक्ति, जो शीलसम्पन्न है किन्तु श्रुतसम्पन्न-धर्म (द ३.३ हावृ प ११७) को जानने वाला नहीं है। पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं असुयवं-उवरए, दोगुन्दक अविण्णाय-धम्मे एस णं गोयमा! मए पुरिसे देसाराहए त्रायस्त्रिंश जाति के देव, जो सदैव भोग में रत रहते हैं। पण्णत्ते। त्रायस्त्रिंशा देवा नित्यं भोगपरायणा दोगुंदगा इति भण्णंति। (भग ८.४५०) (उ १९.३ शावृ प ४५१) २. वह मुनि, जो अन्यतीर्थिक और गृहस्थ के अप्रिय व्यवहार को सम्यक् सहन कर लेता है किन्तु चतुर्विध धर्मसंघ के दोष व्यवहार को सम्यक् सहन नहीं करता। अप्रीत्यात्मक जीवपरिणाम, जिसका क्रोध और मान के रूप जो अम्हं निग्गंथो वा निग्गंथी वा आयरियउवज्झायाणं अंतिए में संवेदन होता है। मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइए समाणे बहूणं दोसो विवागपच्चइयो; कोह-माण-अरदि-सोग-भयअण्णउत्थियाणं बहूणं गिहत्थाणं सम्म सहइखमइ तितिक्खइ दुगुंछाणं दव्वकम्मोदयजणिदत्ताओ। (धव पु१४ पृ११) अहियासेइ, बहूणं समणाणं बहूणं समणीणं बहूणं सावयाणं (द्र द्वेष) बहूणं सावियाणं य नो सम्मं सहइ जाव नो अहियासेइएस णं मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते। (ज्ञा ११.५) दोष पाप (भग १.२८६) देशावकाशिक (द्र द्वेष पाप) गृहस्थ धर्म (श्रावक) का दसवां व्रत, जिसमें दिग्व्रत की निर्धारित सीमा का अल्पकाल के लिए पुनः संकोच करना द्रव्य होता है। १. जिसके आश्रय में गुण रहते हैं। गृहीतस्य दिक्परिमाणस्य दीर्घकालस्य यावज्जीवनसंवत्सर गुणाणमासओ दव्वं। (उ २८.६) ..."प्रत्यहं तावत्परिमाणस्य गन्तुमशक्तत्वात् प्रतिदिनं २. जो गुण और पर्याय से युक्त हैं। प्रतिदिवसमित्येतच्च "दिवसादिगमनयोग्यदेशस्थापनं गुणपर्यायवद्रव्यम्। (तसू ५.३७) प्रतिदिन-प्रमाणकरणं देशावकाशिकम्। ३. जो सत् है, जिसका अस्तित्व है। (आवहावृ २ पृ २३०) यत् सत् तद् द्रव्यम् । (भिक्षु ५.८ वृ) देशावधि ४. वह मुनि, जो राग-द्वेष रहित है, वीतराग है। ५. वीतराग की भांति आचरण करने वाला, अल्पकषायी। वह अवधिज्ञान, जो उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग से । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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