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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
अवधिर्मर्यादा; रूपिष्वेव द्रव्येषु परिच्छेदकतया प्रवृत्तिरूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः। (नन्दीमवृ प ६५) तेणावहीयए तम्मि वाऽवहाणं तओऽवही सो य मज्जाया। जं तीए दव्वाइ परोप्परं मुणइ तओऽवहि ति॥
(विभा ८२) (द्र अवधिदर्शन)
व्यापेक्षया पुनस्तद्ग्रहणावधिं यावज्जीवस्य मृतत्वादिति।
(सम १७.१ ७ प ३२) अवनामिनी वह विद्या, जिसके प्रयोग से वृक्ष की शाखा झुक जाती है। (द्र उन्नामिनी)
अवधिज्ञानावरण ज्ञानावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अवधिज्ञान आवृत होता है। पुद्गलद्रव्यमर्यादयैव वाऽऽत्मनः क्षयोपशमजः प्रकाशाविर्भावोऽवधि:"""तदावरणमवधिज्ञानावरणम्।
(तभा ८.७४) अवधिज्ञानी वह जीव, जो अवधिज्ञानयुक्त है। (भग ६.४५) (द्र अवधिज्ञान)
अवन्ध्य पूर्व ग्यारहवां पूर्व, जिसमें मोक्षमार्ग की दृष्टि से ज्ञान, तप आदि की सफलता एवं प्रमाद आदि की अशुभफलता का प्रज्ञापन किया गया है। एगादसमं अवंझं ति, वंझं णाम-णिप्फलं, ण वंझमवंझं, सफलेत्यर्थः, सव्वे णाणतवसंजमजोगा सफला वणिजंति, अप्पसत्था य पमादादिया सव्वे असुभफला वण्णिता, अतो अवंझं।
(नन्दी १०४ चू पृ ७६) अवम वह मुनि, जिसका प्रव्रज्या-पर्याय तीन वर्ष से कम है। अवमो नाम आरात् त्रिवर्षारतो यस्य प्रव्रज्यापर्यायेण त्रीणि वर्षाणि नाद्यापि परिपूर्णानि भवन्ति।
(व्यभा १६४७ वृ प ६२)
अवधिदर्शन दर्शन का एक प्रकार। मूर्त द्रव्यों का सामान्यग्राही प्रत्यक्ष (अतीन्द्रिय) बोध। अवधिना-रूपिमर्यादया अवधिरेव वा करणनिरपेक्षो बोधरूपो दर्शनं सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनम्।
(स्था वृ प ४२५) (द्र अवधिज्ञान) अवधिदर्शनावरण दर्शनावरणीय कर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से अवधिदर्शन आवृत होता है। सामान्यार्थग्रहणमवधिदर्शनं तस्यावरणमवधिदर्शनावरणम्।
(स्था ९.१४ वृ प ४२५) अवधिमरण मरण का एक प्रकार। एक बार जिन आयुष्य कर्म के दलिकों का वेदन कर मरता है, उन्हीं कर्मदलिकों का पुनः वेदन कर मरना। अवधि:-मर्यादा तेन मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरिष्यति तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्र
अवमान विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण का एक प्रकार, जिससे लम्बाई, चौड़ाई और गहराई का माप किया जाता है। ओमाणे-जण्णं ओमिणिज्जइ। (अनु ३८०) अवमोदरिका बाह्य तप (निर्जरा) का एक प्रकार। आहार, पानी, वस्त्र, पात्र और कषाय का अल्पीकरण । सा दुविहा-दव्वे भावे या दव्वे उवकरणे भत्तपाणे या" भावोमोयरिया चउण्हं कसायाणं। (दअचू पृ १३) अवर्णवाद राग-द्वेष और मोह के आवेश से केवली, श्रुत, संघ आदि के असदभत दोषों का उदभावन करना. जो दर्शनमोह कर्म के बंध का हेतु है। रागद्वेषमोहसमावेशादसद्भूतदोषोद्भावनं"निन्दाप्रख्यापन वा वदनं वा दोषभाषणमवर्णस्य वादोऽवर्णवादः ।
(तभा ६.१४ वृ)
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