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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
केवलिश्रुतसंघधर्मदेवावर्णवादो दर्शनमोहस्य ।
(तसू ६.१४)
अवलम्बन
अवग्रह की चौथी अवस्था, जिसमें विशेष - सामान्य अर्थ का अवग्रह होता है।
विसेससामण्णत्थावग्गहकाले अवलंबणता भण्णति । (नन्दी ४३ चू पृ ३५, ३६ )
अवसन्न
वह मुनि, जो सामाचारी के पालन में प्रमाद करता है। सामाचारीविषयेऽवसीदति -प्रमाद्यति यः सोऽवसन्नः ।
(प्रसा १०३ वृप २५)
अवसर्पिणी
असंख्य वर्षों का एक कालखण्ड, जो दस कोटिकोटि अद्धा सागरोपम होता है । समय (कालचक्र) का अवरोही चक्र या क्रम। इसमें आयुष्य, शरीर आदि का परिमाण कम हो जाता है।
'ओसप्पिणी ' त्ति अवसपति हीयमानारकतया अवसर्प्पयति assयुष्कशरीरादिभावान् हापयतीत् णी सागरोपमकोटीकोटीदशकप्रमाणः कालविशेषः ।
(स्था १.१२७ वृ प २७) दस सागरोपमकोडाकोडी कालो ओसप्पिणी ।
(भग ६.१३४ )
(द्र उत्सर्पिणी)
अवसर्पिणी- उत्सर्पिणी
बारह अर (विभाग) वाला एक कालचक्र, जिसका कालमान बीसकोटाकोटि सागरोपम होता है।
वीसं सागरोपमकोडाकोडी कालो ओसप्पिणी उस्सप्पिणी (भग ६.१३४)
य।
अवस्थितकल्प (द्र स्थितकल्प)
अवस्वापिनी
वह विद्या, जिसके प्रयोग से व्यक्तियों को निद्रामग्न कर दिया जाता है। (व्यभा १५२९)
अवाच्य
युगपद् अनेक धर्मों का कथन नहीं किया जा सकता, इस
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अपेक्षा से धर्मी अवाच्य है। वाचामविषयमवाच्यम् ।
युगपद् अनेक धर्मापेक्षया च अवाच्यम्
( भिक्षु ६. १० )
।
( भिक्षु ६. ११)
अवाय
श्रुतनिश्रित मतिज्ञान का तीसरा प्रकार। ईहा के पश्चात् उत्पन्न होने वाला 'अमुक है', 'अमुक नहीं है' इस प्रकार का निश्चयात्मक अवबोध, जैसे-यह शंख का ही शब्द है । अवगृहीतस्येहितस्यार्थस्य निर्णयरूपोऽध्यवसायोऽवायः । ( नन्दी ३९ मवृ प १६८ )
अविग्रहगतिसमापन्न
१. उत्पत्तिस्थान में स्थित जीव । २. ऋजुगतिक जीव ।
अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते ।
३९
अविग्रहगतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिकः स्थितो वा ।
(भग १४.५४,५५ वृ)
(भग १.३३५ वृ)
अविधिनिर्गत
वह मुनि, जो आचारहीनता और अनुशासनहीनता के कारण संघ से बहिष्कृत कर दिया जाता है।
अविधिनिर्गताः सारणादिभिस्त्याजिता एकाकीभूताः ।
(बृभा ५८२५ वृ)
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अविनाभाव
व्याप्ति - सहभावी के सहभाव का, क्रमभावी के क्रमभाव का नियम ।
सहक्रमभाविनोः सहक्रमभावनियमो ऽविनाभावः । (प्रमी १.२.१० )
(द्र व्याप्ति)
अविपाकजा निर्जरा
तप आदि के द्वारा निर्धारित समय से पहले होने वाली निर्जरा, जो स्वैच्छिक और अनैच्छिक दोनों प्रकार की होती है ।
कर्माप्राप्तविपाककालमौपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णं बलादुदीर्योदयावलिकामनुप्रवेश्य वेद्यते पनसतिन्दुकाम्रफलपाकवत् सा त्वविपाकजा निर्जरा । (तभा ८.२४ वृ)
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