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________________ १९६ जैन पारिभाषिक शब्दकोश सुत्तत्थहेतुकारण, वागरणसमिद्धचित्तसुतधारी। पोराणदुद्धरधरो, सुतरयणनिधाणमिव पुण्णो॥ धारिय-गुणितय समीहिय, निज्जवणा विउलवायणसमिद्धो। पवयणकुसलगुणनिधी, पवयणऽहियनिग्गहसमत्थो॥ (व्यभा १४९५, १४९६) जो संसार-भय से उद्विग्न हो थोडा भी पाप करना नहीं चाहता। पवियक्खणा णाम वज्जभीरू भण्णंति, वज्जभीरुणो णाम संसारभयउव्विग्गा थोवमवि पावं णेच्छंति। __(द २.११ जिचू पृ ९२) प्रविचक्षणा:-चरणपरिणामवन्तः। (द २.११ हावृ प ९९) प्रवचननिह्नव आगमसम्मत किसी एक विषय का अपलाप करने वाला दृष्टिकोण। प्रवचनं-आगमं निह्नवते-अपलपन्त्यन्यथा प्ररूपयन्तीति प्रवचननिह्नवाः। (स्था ७.१४ वृ प ३८९) प्रवचनमाता १. वे आठ माताएं (आठ समितियां). जो चारित्र रूपी पत्र की सुरक्षा करती हैं। एदाओ अट्ठपवयणमादाओ णाणदंसणचरित्तं। रक्खंति सदा मुणिओ माया पुत्तं च वयदाओ॥ (भआ ११९९) २. पांच समिति और तीन गुप्ति-चारित्र के ये आठ प्रकार, जिनमें द्वादशांग समाया हुआ है। एयाओ अट्ट समिईओ, समासेण वियाहिया। दवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उपवयणं ।। (उ २४.३) प्रव्रज्या दीक्षा, महाव्रतों का स्वीकरण, विरति का परिणाम, जिसमें सम्पूर्ण सावध योग से निवृत्ति होती है। विरतिपरिणामः सकलसावद्ययोगविनिवृत्तिरूपः प्रव्रज्या। (पञ्चव १६४ वृ) पव्वयणं पव्वज्जा पावाओ सुद्धचरणजोगेसु। इय मोक्खं पड़ गमणं कारण कज्जोवयाराओ॥ (स्था ३.१८० वृ प १२३) (द्र दीक्षा) प्रव्राजक वह आचार्य, जो प्रव्रज्या देता है. सामायिक आदि का आरोपण करता है। प्रव्राजक:-सामायिकव्रतादेरारोपयिता। (तभा ९.६व) प्रव्राजनाचार्य (स्था ४.४२२) (द्र प्रव्राजक) प्रवर्तक धर्मसंघ में सात पदों में से एक पद। वह मुनि, जो तप, संयम और योग साधना में योग्य व्यक्ति को प्रवृत्त और असमर्थ को निवृत्त करता है तथा गण की चिंता करता है। तवसंजमजोगेसुं जो जोगो तत्थ तं पवत्तेइ। असहं च नियत्तेइ गणतत्तिल्लो पवत्तओ। (प्रसा २४) (द्र उपाध्याय) प्रव्राजनान्तेवासी वह शिष्य, जो प्रव्रज्या ग्रहण की दृष्टि से प्रव्राजक आचार्य का अन्तेवासी होता है। प्रव्राजनया-दीक्षया अन्तेवासी प्रव्राजनान्तेवासी दीक्षित इत्यर्थः। (स्था ४.४२४ वृप २३०) प्रवर्तिनी वह साध्वी, जो गण की सब साध्वियों का नेतृत्व करती है। 'प्रवर्तिनी' सकलसाध्वीनां नायिका। (बृभा ४३३९ वृ) प्रशम सम्यक्त्व का एक लक्षण । राग-द्वेष का उपशमन। रागादीनामनुद्रेकः प्रशमः। (तवा १.२.३०) (द्र शम) प्रविचक्षण सम्यक् चारित्र से युक्त वह मुनि, जो पापभीरु होता है और प्रशास्तृदोष वाद-दोष का एक प्रकार । प्रशास्ता-सभानायक की द्वेषवृत्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016091
Book TitleJain Paribhashika Shabdakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2009
Total Pages346
LanguageHindi
ClassificationDictionary, Dictionary, & agam_dictionary
File Size17 MB
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