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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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लोगव्यवहारपरो ववहारो भणइ कालओ भमरो। परमत्थपरो मण्णइ निच्छइओ पंचवण्णो त्ति॥
व्याख्याचूलिका (विभा ३५८९)
कालिक श्रुत का एक प्रकार । व्याख्याप्रज्ञप्ति-- भगवती की लोकप्रसिद्धार्थानुवादपरो व्यवहारः।। (भिक्षु ५.१९)
चूलिका। (द्र नैश्चयिक नय)
वियाहो भगवती, तीए चूला वियाहचूला।
(नन्दी ७८ चू पृ ५९) व्यवहार राशि
(जैतवि १.३) (द्र सांव्यवहारिक जीव)
व्याख्याप्रज्ञप्ति
(नन्दी ८०) व्यवहार वाक्योग
(द्र व्याख्या)
(भग २५.६) (द्र असत्यामृषा)
व्याख्याप्रज्ञप्तिधर
वह मुनि, जो व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) के सूत्रपाठ और व्यवहार सत्य
अर्थ का विशेषज्ञ होता है। सत्य का एक प्रकार। लोकव्यवहार में प्रचलित भाषा का
अप्पेगइया विवाहपण्णत्तिधरा।
(औप ४५) प्रयोग, जैसे-पर्वत पर तण आदि के जलने पर भी कहा जाता है कि पर्वत जल रहा है।
व्याप्ति ववहार त्ति व्यवहारेण सत्यं व्यवहारसत्यम्। यथा दह्यते
व्याप्य के होने पर व्यापक का अवश्य होना अथवा व्याप्य गिरिः। ( . १०.८९ वृ प ४६५)
का व्यापक के होने पर ही होना।
व्याप्तिापकस्य व्याप्ये सति भाव एव व्याप्यस्य वा तत्रैव व्यवहारी
भावः।
__ (प्रमी १.२.६) वह मुनि, जिसमें प्रायश्चित्त देने की अर्हता है।
(द्र अविनाभाव) व्यवहरतीत्येवंशीलो व्यवहारी व्यवहारक्रियाप्रवर्तकः, प्रायश्चित्तदायी।
(व्यभा १ वृ प ३) व्यावहारिक अद्धा पल्योपम
(अनु ४२१) व्याकृता
(द्र अध्वा पल्योपम) असत्यामृषा भाषा का एक प्रकार। भाषा का वह प्रयोग, जिसका अर्थ प्रकट (असंदिग्ध) हो।
व्यावहारिक अद्धा सागरोपम व्याकृता या प्रकटार्थाः। (प्रज्ञा ११.३७ वृप २५९)
(अनु ४२९)
(द्र अध्वा सागरोपम) व्याख्या द्वादशांग का पांचवां अंग (भगवती), जिसमें देव, नरेन्द्र व्यावहारिक अर्थावग्रह और राजर्षि द्वारा पूछे गये छत्तीस हजार प्रश्नों और भगवान् औपचारिक अवग्रह। वह अवग्रह, जिसमें विशेष ज्ञान की महावीर द्वारा दिए गए उत्तरों का वर्णन है।
अपेक्षा होती है और जो अन्तर्मुहूर्त अवधि वाला है। वियाहे णं जीवा'"अजीवा "जीवाजीवा विआहिज्जंति अत्थोग्गहो जहन्नो समयं सेसोग्गहादओ वीसुं। लोयालोए विआहिज्जति।"से ण अंगट्ठयाए पंचमे अंगे"... अंतोमुहुत्तमेगं तु॥
(विभा ३३४) छत्तीसं वागरणसहस्साइं, दो लक्खा अट्ठासीइं पयसहस्साई अतिस्तोककालत्वेन जघन्यो नैश्चयिकोऽर्थावग्रह एकसमयं पयग्गेणं।
(नन्दी ८५) भवति। शेषास्तु""व्यञ्जनावग्रहव्यावहारिकार्थावग्रहहा. वियाहे णं णाणाविह-सुरनरिंदरायरिसि-विविह-संसइय- पृथगेकमेवान्तर्मुहूर्तं भवन्ति। (विभामवृ १ पृ१६८) पुच्छियाणं जिणेणं वित्थरेण भासियाणं । (समप्र ९३)
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