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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
असत्यामृषा (व्यवहार) भाषा का एक प्रकार । वह भाषा, जिससे प्रतिनियत अर्थ का निर्धारण नहीं होता। अनेक कार्यों की अवस्थिति में किसी के पूछने पर किसी कार्य के विषय में निश्चित निर्देश न देने वाली भाषा, जैसे---जो तुम्हें अच्छा लगे वह काम करो। अनभिग्रहा यत्र न प्रतिनियतार्थावधारणं, यथा बहुकार्येष्ववस्थितेषु कश्चित् कञ्चन पृच्छति-किमिदानीं करोमि? स प्राह-यत्प्रतिभासते तत्कुरु। (प्रज्ञा ११.३७ वृ प २५९)
अनर्थदण्ड
(स्था २.७६)
(द्र अनर्थदण्डप्रत्यय)
अनन्तानुबन्धी कषाय चारित्र मोहनीय कर्म की एक प्रकति। अनन्त संसार का अनुबंध करने वाला कषाय-चतुष्क (क्रोध-मान-माया- -लोभ), जिसके उदयकाल में सम्यक्त्व प्राप्त नहीं होता। अनन्तं संसारमनुबध्नन्तीत्येवंशीला अनन्तानुबन्धिनः।
(प्रज्ञा १४.७ वृ प ४६८) सम्यक्त्वगुणविघातकृदनन्तानुबन्धी। (प्रज्ञावृ प २९१) पढमिल्लुयाण उदए नियमा संजोयणा कसायाणं। सम्महसणलंभं भवसिद्धीयावि न लहंति॥
(आवनि १०८) अनन्तानुबन्धी क्रोध यह पत्थर की रेखा के समान सुदीर्घ काल तक टिकने वाला होता है। पव्वयराइसमाणे।
(स्था ४.३५४) (द्र अनन्तानुबन्धी कषाय) अनन्तानुबन्धी मान यह पत्थर के स्तम्भ के समान अतिस्तब्ध होता है। सेलथंभसमाणे।
(स्था ४.२८३) (द्र अनन्तानुबन्धी कषाय) अनन्तानुबन्धी माया यह बांस की जड़ के समान वक्रतम होती है। वंसीमूलकेतणासमाणा।
(स्था ४.२८२) (द्र अनन्तानुबन्धी कषाय) अनन्तानुबन्धी लोभ यह कमिरेशम के रंग के समान रञ्जक होता है-अधिकतम आसक्ति वाला। किमिरागरत्तवत्थसमाणे।
(स्था ४.२८४) (द्र अनन्तानुबन्धी कषाय) अनपवर्तनीय आयुष्य वह आयुष्य, जो कर्मकृत कालमर्यादा से पहले समाप्त न हो, अकाल मृत्यु से मुक्त। नापवायुषोऽनपवायुषः..."न हि तेषामायषो बाह्यनिमित्तवशादपवर्तोऽस्ति।
(तवा २.५२.५) अनभिगृहीता
अनर्थदण्डप्रत्यय दण्डसमादान (क्रियास्थान) का दूसरा प्रकार । प्रयोजन के बिना प्रमादवश की जाने वाली हिंसात्मक प्रवृत्ति । अहावरे दोच्चे दंडसमादाणे अणट्ठादंडवत्तिए त्ति आहिज्जइसे जहाणामए केइ पुरिसे जे इमे तसा पाणा भवंति, ते णो अच्चाए णो अजिणाए णो मंसाए''से हंता छेत्ता भत्ता लुंपइत्ता विलुंपइत्ता ओदवइत्ता उज्झिउं बाले वेरस्स आभागी भवति-अणट्ठादंडे।
(सूत्र २.२.४) अनर्थदण्डविरमण गृहस्थ धर्म का आठवां व्रत, अपध्यानाचरित आदि की वर्जना करना। चउव्विहं अणट्ठादंडं पच्चक्खाइ, तं जहाअवज्झाणाचरितं पमायाचरितं हिंसप्पयाणं पावकम्मोवदेसे।
(उपा १.३०)
अनर्पणा
(भिक्षु ४. ७) (द्र अनर्पित) अनर्पित अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का प्रतिपादन करते समय शेष सब धर्मों के प्रति की जाने वाली उपेक्षा। प्रयोजनाभावात सतोऽप्यविवक्षा भवति इत्युपसर्जनीभूतमनर्पितमित्युच्यते।
(तवा ५. ३२.२)
अनवक
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