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२. वह कर्म, जो चेतना को
विकल करता है।
सदसद्विवेकविकलं करोति आत्मानमिति मोहनीयम् ।
सद् और असद्
विवेक से
(प्रज्ञा २३.१ वृ प ४५४)
मोही भावना
संक्लिष्ट भावना का चौथा प्रकार । आत्महत्या आदि की भावना से भावित चित्त वाले व्यक्ति का व्यवहार और आचरण । सत्थग्गहणं विसभक्खणं च जलणं च जलप्पवेसो य । अणायारभंड सेवा, जम्मणमरणाणि बंधंति ॥ (उ ३६.२६७)
मौखर्य
अनर्थदण्डविरमण व्रत का एक अतिचार । धृष्टतापूर्ण मिथ्या
और असम्बद्ध प्रलाप करना ।
मौखर्यं धार्यप्रायमसत्यासम्बद्धप्रलापित्वमुच्यते ।
(उपा १.३९ वृ पृ १७)
मौशली
प्रतिलेखना का एक दोष । प्रतिलेखन करते समय वस्त्र को ऊपर, नीचे, तिरछे किसी वस्त्र या पदार्थ से संघट्टित करना । 'मोसलि' त्ति तिर्यगूर्ध्वमधो वा घट्टना ।
( उ २६.२६ शावृ प ५४१ )
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प्रक्षित
एषणा दोष का एक प्रकार। दान देते समय आहार, चम्मच या देने वाले का हाथ आदि पृथ्वी, पानी, वनस्पति रूप किसी सचित्त वस्तु से छू जाने पर भी भिक्षा ले लेना । शुष्केन सरजस्केनातीवश्लक्ष्णतया भस्मकल्पेन यद्देयं हस्तः पात्रं वा प्रक्षितं आर्द्रेण वा । (पिनिवृ प ९६ )
म्लेच्छ
वे लोग, जो अव्यक्त - अस्फुट बोलते हैं। जिनका कहा हुआ आर्य लोग नहीं समझ पाते ।
मिलक्खूव्वत्तभासी ॥ ( निभा ५७२८) 'मिलेक्खु य'त्ति म्लेच्छा -- अव्यक्तवाचो, न यदुक्तमार्यैरवधार्यते, ते च शकयवनशबरादिदेशोद्भवाः, येष्यवाप्यापि मनुजत्वं जन्तुरुत्पद्यते, एते च सर्वेऽपि धर्माधर्मगम्यागम्यभक्ष्याभक्ष्यादिसकलार्यव्यवहारबहिष्कृतास्तिर्यक्प्राया एव ।
जैन पारिभाषिक शब्दकोश
( उ १०.१५ शावृ प ३३७ )
य
यक्ष
वानमंतर देव का पांचवां प्रकार। इस जाति का देव श्याम आभा वाला, गंभीर और विशाल उदर वाला होता है, जिसका दर्शन प्रिय और शरीर मान- उन्मान प्रमाण युक्त होता है, उसके हाथ, पैर, नख, तालु, जिह्वा तथा ओष्ठ रक्तिम होते हैं, वह भास्वर मुकुट और नाना रत्नजटित आभूषणों को धारण करता है । उसका चिह्न है वटवृक्ष ।
यक्षाः श्यामावदाता गम्भीरास्तुन्दिला वृन्दारका: प्रियदर्शना मानोन्मानप्रमाणयुक्ता रक्तपाणिपादतलनखतालुजिह्वोष्ठा भास्वरमुकुटधरा नानारत्नविभूषणा वटवृक्षध्वजाः । (तभा ४.१२ वृ)
यतनावरणीय कर्म
वीर्यान्तराय कर्म का एक प्रकार । संयमसाधना में किये जाने वाले प्रयत्नों चारित्राराधना के विशेष प्रयोगों में विघ्न पैदा करने वाला कर्म ।
'जयणावरणिज्जाणं' ति, इह तु यतनावरणीयानि चारित्रविशेषवीर्यान्तरायलक्षणानि मन्तव्यानि । ( भग ९.१८ वृ)
यतिधर्म
उत्तमक्षमा आदि दशविध धर्म, जो अनगार द्वारा आचरणीय है ।
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दशप्रकारो यतिधर्मः । उत्तमा गुणा मूलोत्तराख्यास्तेषां प्रकर्षः - पराकाष्ठा तद्युक्तोऽनगाराणां धर्मो भवति । (तभा ९.६ वृ)
(द्र श्रमणधर्म )
यत्रतत्रानुपूर्वी
पूर्वी का एक प्रकार । अनुलोमप्रतिलोमक्रम, तदुभयक्रम । (द्र अनानुपूर्वी) आणुव्वी तिविहा ।
...तं जहा - पुव्वाणुपुव्वी, पच्छाणुपुव्वी, जत्थतत्थाणुपुवी चेदि ।' जत्थ वा तत्थ वा अप्पणो, इच्छिदमादिं कादूण गणणा जत्थतत्थाणुपुवी होदि । (कप्रा पृ २८)
यथाकृत
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