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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
कर्मप्रकृति कर्म का स्वभाव और प्रकार। प्रकृतिशब्देन स्वभावो भेदश्चाभिधीयते। (उचू प २७७) (द्र प्रकृतिबन्ध) कर्मप्रवाद पूर्व आठवां पूर्व । इसमें कर्म के स्वरूप का प्रज्ञापन किया गया
कर्मशरीर कायप्रयोग
(सम १३.७) (द्र कार्मणशरीर कायप्रयोग) कर्मस्थिति कर्म-बंध का कर्मरूप में होने वाला अवस्थिति-काल । स्थिति:-कर्मरूपतावस्थानलक्षणा।
(प्रज्ञा २३.६० वृप ४७९) कर्मादान आजीविका के लिए किया जाने वाला महाहिंसा और महापरिग्रह वाला व्यवसाय और उद्योग, जिससे कर्मों का आगमन होता है। 'कम्मादाणाई' ति कर्माणि-ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते यैस्तानि कर्मादानानि।
(भग ८.२४२ वृ)
कलह पाप पापकर्म का बारहवां प्रकार । कलह की प्रवृत्ति से होने वाला अशुभ कर्म का बंध।
(आवृ प ७२)
पर
अट्टमं कम्मप्पवादं, णाणावरणाइयं अविधं कम्मं पगति-ट्ठिति-अणुभाग-प्पदेसादिएहिं भेदेहिं अण्णेहि य उत्तरुत्तरभेदेहिं जत्थ वणिज्जति तं कम्मण्यवाद।
(नन्दी १०४ चू पृ७६) कर्मफलचेतना वह चेतना, जो सुख-दुःख का वेदन कर पुनः कर्मबंध का हेतु बनती है। अव्यक्तसुखदुःखानुभवनरूण कर्मफलचेतना।
(बृद्रसंवृ पृ ३९) कर्मभूमि वे क्षेत्र (पांच भरत, पांच ऐरवत, पांच महाविदेह), जहां मनुष्य कृषि, वाणिज्य आदि के द्वारा जीविका-निर्वाह करते हैं तथा जहां आध्यात्मिक प्रयत्न संभव है। कृषिवाणिज्यतपःसंयमानुष्ठानादिकर्मप्रधाना भूमयः कर्मभूमयः।
(नंदी २३ मवृ प १०२) कम्मभूमगा पंचसु भरहेसु पंचसु एरवदेसु पंचसु महाविदेहेसु ।
(नन्दीचू पृ २२) (द्र अकर्मभूमि) कर्म वर्गणा अष्टविध कर्मस्कन्ध कर्मशरीर के प्रायोग्य पुद्गल समूह।
(विभा ६३१ ७) कम्मवग्गणा णाम अट्ठकम्मक्खंधवियप्या।
(धव पु १४ पृ५२) कर्मवीर्य कर्मों के उदय से निष्पन्न शक्ति। कर्माष्टप्रकारं-कारणे कार्योपचारात् तदेव वीर्यमिति प्रवेदयन्ति, तथाहि-औदयिकभावनिष्पन्नं कर्मेत्युपदिश्यते।।
(सूत्र १.८.२ वृ प १६८)
य।
कलह पापस्थान वह कर्म, जिसके उदय से जीव कलह में प्रवृत्त होता है।
(झीच २२.२२) कल्प १. कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें साधुओं के आचारविषयक विधि-निषेध, उत्सर्ग-अपवाद आदि का विवरण है। चार छेदसूत्रों में से एक। कल्प्यन्ते-भिद्यन्ते मूलादिगुणा यत्र स कल्पः।
(तभा १.२० वृ) कालियं अणेगविहं पण्णत्तं,तं जहा-उत्तरज्झयणाइंदसाओ कप्पो ववहारो निसीहं"।
(नन्दी ७८) २. वह नियम अथवा विधि-विधान, जिसके आधार पर सामाचारी का संचालन होता है। 'कल्प:' सामाचारी।
(बृभा ४२६६ वृ) ३. देवलोक। (द्र कल्पोपग देव) ४. वह वस्त्र, जो ओढने के काम आता है, पछेवड़ी।
(ओनि ५९१)
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