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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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आदि का सापेक्ष प्ररूपण। विभज्यवादो नाम भजनीयवादः। तत्र शंकिते भजनीयवाद एव वक्तव्यः-अहं तावदेवं मन्ये, अतः परमन्यत्रापि पुच्छेज्जसि।अथवा विभज्यवादो नाम अनेकांतवादः, स यत्र यत्र यथा युज्यते तथा तथा वक्तव्यः, तद्यथा-नित्यानित्यत्वमस्तित्वं वा प्रतीत्यादि।
__ (सूत्र १.१४.२२ चू पृ २३५) विभाग पर्याय का एक लक्षण । वियुक्त पदार्थों में भिन्नता की प्रतीति
का कारणभूत पर्याय, जैसे-यह उससे विभक्त है। वियुक्तेषु भेदज्ञानस्य कारणभूतो विभागः, यथा अयमितो विभक्तः।
(जैसिदी १.४६ )
विपाकोदय कर्म की वह उदयावस्था, जिसमें उसके विपाक (फल) का अनुभव होता है। यत्र फलानुभवः स विपाकोदयः। (जैसिदी ४.५ वृ) विपुलमतिमन:पर्यव मन के विशेष और विविध पर्यायों को जानने वाला मन:पर्यवज्ञान। विपुला मती विपुलमती, बहुविसेसग्गाहिणि त्ति भणितं भवति।
(नंदी २४ चू पृ २२) विउलमती नाम मणोगयं भावं पडुच्च सपज्जायग्गाहिणी मती।
(आवचू १ पृ ६८) विपुडौषधि लब्धि का एक प्रकार । मल-मूत्र के द्वारा रोग दूर करने वाली योगज विभूति। विट्ठ ओसहिसामत्थजुत्तत्तेण विप्पोसही भन्नति। विप्पोसधी य रोगाभिभूतं अप्पाणं वा परं वा छिवत्ति तं तक्खणा चेव ववगयरोगायंकं करोति।
(आवचू १ पृ६८) विड् उच्चारः""आत्मानं परं वा रोगापनयनबद्धया विडादिभिः स्पृशतः साधोस्तद्रोगापगमः। (विभा ७७९ वृ) विभङ्गज्ञान वह अतीन्द्रिय ज्ञान (अवधिज्ञान), जो मिथ्यादृष्टि को उपलब्ध होता है। तं चेव ओहिण्णाणं मिच्छादिट्ठिस्स वितहभावगाहित्तणेण विभंगणाणं भण्णति।
(आवचू १ पृ६४) मिथ्यादृष्टेरवधिर्विभङ्ग उच्यते। (तभा २.५ वृ) । विभक्तिभाव कर्म के द्वारा होने वाला जीव और जगत-जीवसमूह का नानात्व। कम्मओणं जीवे नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ।
(भग १२.१२०) विभज्यवाद १. भजनीयवाद, विश्लेषण अथवा विभागपूर्वक प्रयुक्त किया । जाने वाला वचन। २. अनेकान्तवाद। नित्यत्व-अनित्यत्व, अस्तित्व-नास्तित्व
विभागनिष्पन्न द्रव्यप्रमाण द्रव्य प्रमाण का एक प्रकार। वह माप (या तोल) जिसमें मेय और मापक पृथक्-पृथक होते हैं। जैसे-१ किलो गेहूं, १ क्विटल बाजरा आदि। (अनु ३७२) विभावपर्याय दूसरे के निमित्त से होने वाली अवस्था। परनिमित्तापेक्षो विभावपर्यायः। (जैसिदी १.४५)
विभूषा अनाचार का एक प्रकार । शरीर की विभूषा करना जो मुनि के लिए अनाचरणीय है। विभूषणं अलंकरणं। __ (द ३.९ अचू पृ६२) विभूषापरिवर्जन ब्रह्मचर्य गुप्ति का नौवां प्रकार । शरीर की विभूषा का वर्जन करना। विभूसं परिवजेज्जा, सरीरपरिमंडणं। बंभचेररओ भिक्खू सिंगारत्थं न धारए॥ (उ १६.९) विमर्श ईहा की पांचवीं अवस्था, जिसमें अर्थ के नित्य, अनित्य आदि धर्मों का विमर्श होता है। "तमेवत्थं णिच्चाऽणिच्चादिएहिं दव्वभावेहिं विमरिसतो वीमंसा भण्णति।
(नन्दी ४५ चू पृ ३६)
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