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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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दुर्द्धर मति
दुष्प्रयुक्तकायक्रिया धारणामति का एक प्रकार । दुर्द्धर को धारण करना, जो नय कायिकी क्रिया का एक प्रकार। इन्द्रिय और मन के विषयों और भंगों से गहन है।
में आसक्त मुनि की काया की प्रवृत्ति। """"धारणमती"दुद्धरं धरेति।
(स्था ६.६४) दुष्प्रयुक्तस्य-दुष्टप्रयोगवतो दुष्प्रणिहितस्येन्द्रिया""दुद्धरनयभंगगुविलत्ता॥
(व्यभा ४११०) ण्याश्रित्येष्टानिष्टविषयप्राप्तौ मनाक्संवेगनिर्वेदगमनेन तथा
अनिन्द्रिय-माश्रित्याशुभमनःसंकल्पद्वारेणापवर्गमार्ग प्रति दुर्नय
दुर्व्यवस्थितस्य प्रमत्तसंयमस्येत्यर्थः कायक्रिया दुष्प्रयुक्तवह दृष्टिकोण, जो निरपेक्ष और एकान्तग्राही होता है।
कायक्रिया।
(स्था २.६ वृ प ३८) सदेव सत् स्यात् सदिति त्रिधार्थो,
(द्र अनुपरतकायक्रिया) मीयेत दुर्नीति-नय-प्रमाणैः।" (अन्ययो २८) ते सावेक्खा सुणया,
दुष्यम-दुष्षमा णिरवेक्खा ते वि दुण्णया होति। (काअ २६६)
काल का एकांत दःखमय विभाग। अवसर्पिणी का अन्तिम
तथा उत्सर्पिणी का पहला आरा। इसका कालमान इक्कीस दुर्भगनाम
हजार वर्ष होता है। नामकर्म की एक प्रकृति, जिसके उदय से उपकारक और
दुष्ठु समा दुष्षमा-दुःखरूपा अत्यन्त दुष्षमा दुष्षम-दुष्षमा। संबंधी भी अप्रिय लगते हैं।
(स्था १.१३३ वृ प २५) यदुदयादुपकारकृदपि जनस्य द्वेष्यो भवति।
एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसम-दूसमा। (प्रज्ञा २३.३८ वृप ४७४)
(भग ६.१३) दुर्लभबोधिक
दुष्पम-सुषमा वह व्यक्ति, जिसे बोधि की प्राप्ति दुर्लभ है।
काल का दुःख-सुखमय विभाग। अवसर्पिणी का चौथा (भग ३.७२)
तथा उत्सर्पिणी का तीसरा आरा। इसका कालमान बयालीस दुष्ठुप्रतीच्छित
हजार वर्ष कम एक कोटाकोटी सागरोपम होता है। ज्ञान का एक अतिचार। ज्ञान को सम्यग भाव से ग्रहण न
(स्था १.१३१) करना।
एगा सागरोकमकोडाकोडी बायालीसाए।
वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसमसुसमा॥ दुष्ठु प्रतीच्छितं कलुषितान्तरात्मना। (आव ४.८ हावृ २ पृ १६१)
(भग ६.१३४)
दुष्षमा दुष्पक्वाहार
काल का दुःखमय विभाग। अवसर्पिणी का पांचवां तथा उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत का एक अतिचार। जो भोजन
उत्सर्पिणी का दूसरा आरा । इसका कालमान इक्कीस हजार अच्छी तरह से न पकाया गया हो. वैसा भोजन करना।
वर्ष होता है।
(स्था १.१३२) असम्यक्पक्वो दुष्पक्वः।।
(तवा ७.३५)
एक्कवीसं वाससहस्साई कालो दूसमा। (भग ६.१३४) दुष्पक्वौषधिभक्षण
दूत विद्या उपभोगपरिभोगपरिमाण व्रत का एक अतिचार। अर्धपक्व
रोगी का दूत चिकित्सक के पास जाता है, जिस स्थान पर धान्य को पक्व मानकर खाना।
रोगी के दंश है, चिकित्सक दत के उस अवयव का दुष्पक्वा:-अस्विन्ना ओषधयस्तद्भक्षणता, अतिचारता
अपमार्जन करता है और रोगी स्वस्थ हो जाता है। चास्य पक्वबुद्ध्या भक्षयतः। (उपा १.३८ वृ पृ१५)
तया च दूतविद्यया यो दूत आगच्छति, तस्य दंशस्थानमप
माय॑ते । तेनेतरस्य दंशस्थानमुपशाम्यति। Jain Education International For Private & Personal Use Only
(व्यभा २४४० वry.org