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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
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चारित्रानुकूला प्रवृत्तिः समितिः। (जैसिदी ६.१२ व) 'पासंडाणं भवे समुद्देसो।
(निभा २०२०) परप्राणिपीडाहारेच्छया सम्यगयनं समितिः। (तवा ९.२)
सम्पातिम समुचिता शक्ति
१. अन्तरिक्ष से गिरने वाला जल। आसन्नकार्ययोग्य शक्ति, जैसे दूध में घृत होने की शक्ति। आपश्च-द्रवलक्षणा जीवास्तदाश्रिताश्च प्राणा: सम्पाआसन्नकार्ययोग्यत्वाच्छक्तिः समुचिता परा। (द्रत २.६) । तिमाः।
(सूत्र १.७.७ वृ प १५७) किं च दुग्धादिभावेन प्रोक्ता लोकसुखप्रदा॥ (द्रत २.७) २. अन्तरिक्ष में उड़ने वाले जीव-जंतु।
तिर्यक्सम्पतन्तीति तिर्यक्सम्पाताः-पतङ्गादयः। समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति
(दहावृ प १६४) (औप ६९) (द्र समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति)
सम्बन्ध
(भिक्षु ३.११ वृ) समुच्छिन्नक्रिया अप्रतिपाति
(द्र व्याप्ति) शुक्लध्यान का चौथा प्रकार, इसमें सूक्ष्म क्रिया का भी। निरोध हो जाता है, यह अप्रतिपाति है।
सम्भिन्नज्ञानदर्शन समुच्छिन्ना क्रिया-कायिक्यादिका शैलेशीकरणनिरुद्ध- केवली, जिसका ज्ञान-दर्शन सर्व द्रव्य-पर्यायों का ग्राहक योगत्वेन यस्मिस्तत्तथा अप्रतिपाति-अनुपरतस्वभावम्।
(भग २५.६०९ वृ)
सम्भिन्ने-सर्वद्रव्यपर्यायग्राहके ज्ञानदर्शने यस्य स सम्भिन्नज्ञानदर्शनः।
(तभा १.३१ वृ) समुत्थानश्रुत कालिक श्रृत का एक प्रकार, जिसका परावर्तन करने से
सम्भिन्नश्रोता ग्राम, नगर आदि पुनः बस जाते हैं।
१. जिसके श्रोत (इन्द्रियां) परस्पर संभिन्न-एकरूपता को से चेव समणे"तुडे समाणे पसण्णे पसण्णलेस्से उवउत्ते प्राप्त हैं, जैसे-चक्षुकार्यकारित्व के कारण श्रोत्र चक्षुरूप हो समुट्ठाणसुतं परियट्टेइ एक्कं दो तिणि वा वारे ताहे से गामे जाता है। वा जाव रायहाणी वा आवासेति। समुवट्ठाणसुये त्ति वत्तव्वे श्रोतांसि-इन्द्रियाणि, संभिन्नानि-परस्परत एकरूपतावगारलोवातो समुट्ठाणसुये त्ति भणितं।
मापन्नानि यस्य स तथा, श्रोत्रं चक्षुःकार्यकारित्वात् चक्षुरूप(नंदी ७८ चू पृ६०)
तामापन्नं, चक्षुरपि श्रोत्रकार्यकारित्वात् तद्रूपतामापन्न
मित्येवं संभिन्नानि यस्य परस्परमिन्द्रियाणि स संभिन्नश्रोताः। समुद्घात
(आवमवृ प ७८) वेदना आदि की स्थिति में आत्मप्रदेशों का शरीर से स्वत:
२. जो शरीर के एक भाग से अथवा समस्त शरीर से शब्द अथवा प्रयत्नपूर्वक बहिर्निर्गमन।
सुनता है, रूप देखता है, गंध सूंघता है, रस चखता है, वेदनादिभिरेकीभावेनात्मप्रदेशानांतत इतः प्रक्षेपणं समुद्घातः। स्पर्शों का संवेदन करता है।
(जैसिदी ७.२९)
दस इंदियत्था पडुप्पण्णा पण्णत्ता, तं जहा-देसेण वि एगे समुद्देश
सद्दाई सुणेति। सव्वेण वि एगे सद्दाई सुर्णेति।"रूवाई
पासंति"गंधाई जिंघंति"रसाइं आसादेंति फासाइं पडि१. प्राचीन अध्ययन पद्धति का दूसरा चरण । पढ़े हुए ज्ञान के
संवेदेति।
(स्था १०.४) स्थिरीकरण का निर्देश।
(द्र संभिन्न श्रोतोलब्धि) एवंविधं स्थिरपरिचितं कुर्विति समनुज्ञा समुद्देशः।
(अनु ३ हावृ पृ २)
सम्भोज २. औद्देशिक (उद्गम दोष) का एक प्रकार । पाषण्डियों के १. एक मण्डली में भोजन करना।
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