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जैन पारिभाषिक शब्दकोश
नन्दी
ध्रुवसत्ताका वे कर्म-प्रकृतियां, जिनकी सत्ता विशिष्ट गणस्थान की प्राप्ति के बिना निरन्तर बनी रहती है। विशिष्टगुणप्राप्तिं विना ध्रुवा निरन्तरा सत्ता यासां ता ध्रुवसत्ताकाः।
(कप्र पृ २९) ध्रुवोदया उदय-काल के व्यवच्छेद से पूर्व तक जिन प्रकृतियों का उदय निरन्तर रहता है। उदयकालव्यवच्छेदादर्वाग्ध्रुवो निरन्तर उदयो यासां ता ध्रुवोदया:।
(कप्र पृ २८)
उत्कालिक श्रुत का एक प्रकार, जिसमें ज्ञान-मीमांसा और आगम का विशद विवरण मिलता है। इमं पंचविहणाणपरूवगं णंदि त्ति अज्झयणं, तं च सुतंसेण सव्वसुतब्भंतरभूतं ।
(नन्दीचू पृ १) नपुंसकलिंगसिद्ध वह सिद्ध, जो कृतनपुंसक के रूप में मुक्त होता है। जन्म से नपुंसक सिद्ध नहीं होता। अत: मुक्त होने के प्रसंग में कृत नपुंसक विवक्षित है। नपुंसकलिङ्गे वर्तमाना: सन्तो ये सिद्धास्ते नपुंसकलिङ्गसिद्धाः।
(प्रसावृ प ११२) नपुंसकवेद नोकषाय चारित्रमोहनीय कर्म की एक प्रकृति। नपुंसकवेदमोहकर्म के उदय से स्त्री और पुरुष के प्रति नपुंसक में होने वाला वासनात्मक संवेदन। नपुंसकस्य स्त्रियं पुरुषं च प्रत्यभिलाष इत्यर्थः तद्विपाकवेद्यं कर्मापि नपुंसकवेदः। (प्रज्ञा १८.६२ वृ प ४६९)
ध्रौव्य त्रिपदी का एक अङ्ग। वस्तु के स्थायित्व का सूचक पद, जो दर्शन का विषय बनता है। ""अनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावाद् ध्रुवति स्थिरीभवतीति ध्रुवः । ध्रुवस्य भावः कर्म वा ध्रौव्यम्। यथा । मृत्पिण्डघटाद्यवस्थासु मृदाद्यन्वयः। (ससि ५.३०) ध्रुवतीति ध्रुवं-शाश्वतं तद्भावो धौव्यं-स्थिरता। ... द्रव्यास्तिकस्य ध्रौव्यमन्वयी सामान्यांशः। (तभा ५.२९ वृ) ध्रौव्यस्य ग्राहकं दर्शनम्। (जैसिदी २.६ वृ)
नमस्कार पुण्य पुण्य का एक प्रकार। संयमी को नमस्कार करने से होने वाला पुण्य प्रकृति का बंध। (द्र मन:पुण्य)
नक्षत्र ज्योतिष्क देव का एक प्रकार। ये संख्या में अट्ठाईस हैं, जैसे-कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा आदि।
(त्रिप्र ७.२६-२८) (द्र ज्योतिष्क देव)
नमस्कारसहिता प्रत्याख्यान का एक प्रकार। सूर्योदय से लेकर एक मुहूर्त (४८ मिनट) तक चारों आहारों का प्रत्याख्यान करना तथा समय सम्पन्न होने पर नमस्कारमंत्र का उच्चारण कर उसे पूर्ण करना। सूरे उग्गए नमुक्कारसहियं पच्चक्खाइ चउव्विहं पि आहारं"।
(आव ६.१) णमोक्कारं काऊणं जेमेउं वदृति।णमोक्कारं काऊणं जेमेति तो न भग्गं।
(आवचू २ पृ ३१५)
नक्षत्र संवत्सर संवत्सर का वह कालमान, जिसमें ३२७ २१ दिन होते हैं।
(स्था ५/२१० पृ ३२७) नगर धर्म लोकधर्म का एक प्रकार । वह धर्म (आचारसंहिता). जिसके आधार पर नगर की व्यवस्था की जाती है। नागरधर्मो-नगराचारः। (स्था १०.१३५ वृ प ४८९)
नय अनन्तधर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का बोध । प्रमाण के द्वारा गृहीत वस्तु के विवक्षित अंश का ज्ञान करने वाला तथा
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