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जीवराज जैन ग्रंथमाला ८
भट्टारक-सम्प्रदाय
स्व. ब्र. जीवराज गौतमचन्द्रजी
। प्रकाशक :
जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर,
वि. सं. २०१४
८ रु.
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JĪVARĀJA JAINA GRANTHAMĀLĀ, No. 8
General Editors : Dr. A. N. Upadhye & Dr. H. L. Jain
U 174 17.
BHATTĀRAKA SAMPŘIDAYA)
( A History of the Bhattaraka Pithas especially of Western
India, Gujarat, Rajasthan and Madhya Pradesh )
By Prof. V. P. Johrapurkar, M. A. Lecturer in Sanskrit, Nagpur Mabavidyalaya, Nagpur.
Published By
Gulabchand Hirachand Doshi Jaina Samskriti Samrakshaka Sangha, Sholapur
1958
All Rights Reserved
Price Rupees 8 only
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First Edition: pies Copies of this book can be bad direct from Jaina Samskriti
Samrakshaka. Sangha, Santosha Bhavan,
Phaltan Galli, 'Sholapur (India)
Price Rs. 8/- per copy, exclusive of postage
जीवराज जैन ग्रंथमालाका परिचय सोलापुर निवासी ब्रह्मचारी जीवराज गौतमचंदजी दोशी कई वर्षोंसे संसारसे उदासीन होकर धर्मकार्यमें अपनी वृत्ति लगा रहे थे । सन् १९४० मैं उनकी यह प्रबल इच्छा हो उठी कि अपनी न्यायोपार्जित संपत्तिका उपयोग विशेष रूपसे धर्म और समाजकी उन्नतिके कार्यमें करें । तदनुसार उन्होंने समस्त देशका परिभ्रमण कर जैन विद्वानोंसे साक्षात् और लिखित सम्मतियां इस बातकी संग्रह की कि कौनसे कार्यमें संपत्तिका उपयोग किया जाय । स्फुट मतसंचय कर लेनेके पश्चात् सन् १९४१ के ग्रीष्मकालमें ब्रह्मचारीजीने तीर्थक्षेत्र गजपंथा (नासिक) के शीतल वातावरणमें विद्वानोंकी समाज एकत्र की और ऊहापोहपूर्वक निर्णयके लिए उक्त विषय प्रस्तुत किया। विद्वत्सम्मेलनके फलस्वरूप ब्रह्मचारीजीने जैन संस्कृति तथा साहित्यके समस्त अंगोंके संरक्षण, उद्धार और प्रचारके हेतुसे 'जैन संरक्षक संस्कृति संघ' की स्थापना की और उसके लिये ३०००० तीस हजारके दानकी घोषणा कर दी । उनकी परिग्रहनिवृत्ति बढ़ती गई, और सन् १९४४ में उन्होंने लगभग २,००,००० दो लाखकी अपनी संपूर्ण संपत्ति संघको टस्ट रूपसे अर्पण कर दी। इस तरह आपने अपने सर्वस्वका त्याग कर दि. १६-१-५७ को अत्यन्त सावधानी और समाधानसे समाधिमरणकी आराधना की । इसी संघके अंतर्गत 'जीवराज जैन ग्रंथमाला ' का संचालन हो रहा है । प्रस्तुत ग्रंथ इसी ग्रंथमालाका अष्टम पुष्प है ।
प्रकाशक गुलाबचंद हिराचंद दोशी, जैन संस्कृति संरक्षक संघ,
स्रोलापुर.
मुद्रक फुलचंद हिराचंद शाह,
वर्धमान छापखाना, १३५, शुक्रवारपेठ, सोलापुर.
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भट्टारक-संप्रदाय
स्व. ब्र. जीवराज गौतमचन्द्रजी
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भट्टारक सम्प्रदाय
अर्थात्
मध्ययुगीन दिन बर जैन साधुओं के संघ सेनगण, बलात् रगण और काष्ठासंघका सपूर्ण वृत्तान्त
वी संवत् २४८४ )
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सम्पादक
श्री. विद्याधर जोहरापुरकर, एम्. ए.
( संस्कृतके व्याख्याता, नागपुर महाविद्यालय, नागपुर )
मूल्य ८ रुपये
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( सन १९५८
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सम्पादकीय
शिलालेख, ताम्रपट व ग्रंथ-प्रशस्तियां इतिहास-निर्माणके अमूल्य और सर्वोपरि प्रामाणिक साधन है, यह बात अब सर्व स्वीकृत है। जैनधर्म संबंधी ये प्रमाण अभीतक पूर्णरूपसे सुलभ नहीं हो सके इसी कारण जैनधर्मका इतिहासभी अभी तक प्रामाणिकरूपसे प्रस्तुत नहीं किया जा सका । सौभाग्यसे इस कमीकी अब धीरे धीरे पूर्ति होनेकी आशा होने लगी है । अनेक प्रकाशन संस्थायें अब इस ओर अपना ध्यान दे रही हैं । माणिकचन्द ग्रंथमालाकी तीन जिल्दोंमें डॉ. गेरीनो द्वारा संकलित सूची में उल्लिखित प्रायः समस्त जैन लेखोंका संग्रह हिन्दी भावानुवाद सहित प्रकाशित हो गया है । औरभी अनेक छोटे बड़े लेखसंग्रह प्रकाशित हुए हैं । हमारी यह ग्रंथमालाभी इस दिशामें प्रयत्नशील है । अभी अभी जो इस ग्रंथ मालामें Jainism in South India and Some Jaina Epigraphs शीर्षक ग्रंथ प्रकाशित हुआ है वह इस बातका प्रमाण है कि इन लेखोंसे कैसा अज्ञात इतिहास प्रकाशमें आता है।
प्रस्तुत पुस्तकमें प्रो. विद्याधर जोहरापुरकरने भट्टारकसम्प्रदाय संबंधी ७६६ लेख संग्रह किये हैं। और उनका हिन्दी भावार्थभी लिखा है, तथा ऐतिहासिक टिप्पणियां भी जोडी हैं । नामादि वर्णानुक्रमणियोंसे ग्रंथका उपयोग करनाभी सुलभ बना दिया गया है । यद्यपि इनमेंके बहुतसे लेख पहलेसे हमारी दृष्टिमें चले आरहे हैं । किन्तु यहां जो उन्हें व्यवस्थासे कालक्रमानुसार रखा गया है उससे अनेक तथ्य प्रकट होते हैं। जिनका विवेचन किया जाना आवश्यक प्रतीत होता है। प्रस्तावनामें संकलनकर्त्ताने अनेक सूचनाएं की हैं जिनपर ऊहापोह व मतभेद संभव है। किन्तु अपने प्राक्कथनमें उन्होंने यह प्रतिज्ञा की है कि " इस पुस्तकके अगले भाग प्रकाशित होने पर इस विषयपर विस्तारसे लिखनेका सम्पादकका विचार है।" इसपरसे हमें धैर्यपूर्वक ग्रंथके अगले भागकी प्रतीक्षा करना चाहिये । हमे इस उदीयमान साहित्यसेवीसे भविष्यके लिये बहुत बड़ी आशायें हैं।
हीरालाल जैन आ. ने. उपाध्ये
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प्राक्कथन
मध्ययुगीन जैन समाजके इतिहासमें भट्टारक सम्प्रदायका स्थान महत्त्वपूर्ण है । इस सम्प्रदायसे सम्बद्ध इतिहाससाधन पट्टावलियां, प्रतिमालेख, ग्रंथप्रशस्तियां आदि विपुलमात्रामें प्रकाशित हुए है। किन्तु इन साधनोंका व्यवस्थित उपयोग करके कोई ग्रन्थ अब तक नहीं लिखा गया था। इस कमीको अंशतः दूर करने के उद्देश्यसे ही प्रस्तुत पुस्तकका सम्पादन किया गया है।
अनेकान्त, जैन सिद्धान्त भास्कर, आदि संशोधनपत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्रीके अतिरिक्त, नागपुर, कारंजा, अंजनगांव तथा कुछ अन्य स्थानोंके अप्रकाशित इतिहाससाधनोंका भी इस पुस्तकमें उपयोग किया गया है। इनमें नागपुरके समस्त मूर्तिलेखोंका संग्रह हमें देवलगांव निवासी श्रीमान शान्तिकुमारजी ठवली द्वारा प्राप्त हुआ । शेष साधन हमने स्वयं संकलित किए हैं ।
___ इस पुस्तकका स्वरूप एक तरहसे इतिहास-साधनसूची जैसा है। पहले मूल लेख दिए हैं, फिर उनका हिंदी सारांश टिप्पणियों सहित दिया है, तथा इस परसे फलित कालानुक्रम भी साथमें दिया है। भट्टारकों द्वारा निर्मित ग्रंथोंका परिचय, मूर्तिकलाका विकास तथा जातीयसंघटन आदि जो विषय विस्तृत विवेचनकी अपेक्षा रखते हैं उनका प्रस्तावनामें निर्देश मात्र कर दिया गया है । इस पुस्तकके अगले भाग प्रकाशित होने पर इस विषय पर विस्तारसे लिखने का सम्पादकका विचार है। . पट्टावलियों आदिमें जो बातें बहुत ही संदिग्ध हैं उनका हमने विवेचन नहीं किया है, सिर्फ कहीं कहीं निर्देश भर कर दिया है। जहां तक हो सका, सुस्थापित तथ्योंका ही निवेदन किया है । कुंदकुंद, उमास्वाति आदि आचार्योंके गणगच्छादिका क्या, सम्बन्ध रहा इस विषयमें भी हम ने चर्चा नहीं की है क्यों कि इस विषय के लिए पर्याप्त तथ्य उपलब्ध नहीं हैं।
इस पुस्तकके लिए बाबू कामताप्रसादजी, मुनि कान्तिसागरजी, पंडित मुख्तारजी तथा परमानंदजी आदि विद्वानों द्वारा प्रकाशित सामग्रीका उपयोग हुआ है । इसके वर्तमान स्वरूपके लिए श्रीमान् डॉ. उपाध्येजीकी प्रेरणा, श्रद्धेय पं. प्रेमीजीके आशीर्वाद तथा श्रीमान् डॉ. हीरालालजी जैनका प्रोत्साहन ही कारणभूत हुए हैं । 'जैनमित्र' के वयोवृद्ध संपादक श्रीमान् कापडियाजी ने भ.
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( ६ )
सुरेंद्रकीर्ति आदिके फोटो भेजने की कृपा की है । पुस्तकके मुद्रण कार्यका निरीक्षण जीवराज ग्रंथमाला सुयोग्य कार्यवाह श्री. अक्कोळेने सुचारुरूपसे किया है । इन सब महानुभावों के प्रति हम कृतज्ञता व्यक्त करते हैं ।
नागपुर
ता. २-४-५८
हमें खेद है कि इस ग्रंथमालाके संस्थापक श्रद्धेय ब्र. जीवराज गौतमचंद दोशी का इस पुस्तक प्रकाशित होनेसे पहले ही देहान्त हो गया । संशोधन के विषय में उन्हें बहुत रुचि थी । हम उन्हें हार्दिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित करते हैं । पुस्तकके परिवर्धन तथा सुधारके विषयमें जो भी सुझाव दिए जायेंगे उनका स्वागत किया जायगा ।
}
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- संपादक
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Achar
(७) अनुक्रमणिका
संपादकीय प्राक्कथन अनुक्रमणिका संकेतसूची Introduction शुद्धिपत्र
प्रस्तावना -
१ ऐतिहासिक स्थान २ उत्पत्ति और पार्श्वभूमि ३ परंपराभेद और विशिष्ट आचरण ४ स्थल और काल ५ कार्य-मूर्तिप्रतिष्ठा ६ ग्रन्थलेखन और संरक्षण ७ शिष्यपरम्परा ८ जातिसंघटना ९ तीर्थयात्रा और व्यवस्था १० चमत्कार ११ कलाकौशलका संरक्षण १२ अन्य सम्प्रदायोंसे सम्बन्ध १३ परस्पर सम्बन्ध १४ शासकोंसे सम्बन्ध १५ उपसंहार
१-२९९
भट्टारकसम्प्रदाय -
१ सेनगण २ बलात्कारगण-प्राचीन ३ , कारंजाशाखा
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७
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भानपुरशाखा
सूरतशाखा जेरहट शाखा
55
परिशिष्ट १ बलात्कारगण की शाखावृद्धि,
२ काष्ठासंघ की स्थापना,
7)
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१३ काष्ठासंघ माथुरगच्छ
१४
१५
१६
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परिशिष्ट - ३ भट्टारक - नामसूची
४ आचार्यादि नामसूची
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लातूरशाखा
उत्तरशाखा
दिल्ली-जयपुरशाखा
नागौरशाखा
अटेरशाखा
Fstarar
(८)
लाडोबागड पुन्नागच्छ
बागडगच्छ
नन्दीतटगच्छ
५ ग्रन्थनाम सूची
६ मन्दिर उल्लेखसूची
७ जाति - नामसूची
८ शासक -- नाम सूची
९ भौगोलिक नामसूची
१० नकशा
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७९
८९
९७
११४
१२६
१३६
१५९
१६९
२०२
२०९
२१०
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३१९
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Achar
(९) संकेतसूची
१ प्रकाशित साधन
अ. - अनेकान्त मासिक, सं. पं. जुगलकिशोरजी मुख्तार आदि. च, - श्री. जिनदास ना. चवडे, वर्धा, द्वारा प्रकाशित ग्रन्थ. दा.- दानवीर माणिकचन्द्र, ले. ब. शीतलप्रसादजी. भा.- जैन सिद्धान्त भास्कर त्रैमासिक, सं. डॉ. हीरालालजी जैन आदि. भा. अ. - उपर्युक्त त्रैमासिकमें प्रकाशित ग्रन्थप्रशस्ति-संग्रह. भा. प्र. - उपर्युक्त त्रैमासिकमें प्रकाशित प्रतिमालेख-संग्रह. म. प्रा. - मध्यप्रान्त और बरार के हस्तलिखितोंकी सूची
सं. रायबहादुर हीरालालजी. हि. - जैन हितैषी मासिक, सं. पं. नाथूरामजी प्रेमी आदि.
जै. - जैन साहित्य और इतिहास, ले. पं. नाथूरामजी प्रेमी (प्रथम संस्करण. २ अप्रकाशित साधन ( मूर्तिलेख तथा हस्तलिखित )
का. - बलात्कारगण मंदिर, कारंजा. ना. - सेनगणमंदिर, नागपुर प. - काष्ठासंघमंदिर, अंजनगांव पा. - पार्श्वप्रभु (वडा) मंदिर, नागपुर ब. - बलात्कारगण मंदिर, अंजनगांव म. - श्री. मा. स. महाजन, नागपुरका संग्रह
से. - सेनगण मंदिर, कारंजा । ३ जिन ग्रंथों की प्रतिलिपियोंकी पुष्पिकाएं मूल लेखांकोंमें दी हैं उन लेखांकों
के शीर्षकोंमें उन ग्रंथों के नाम ब्रैकेटमें रखे गए हैं। .
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Acha
INTRODUCTION
(A digest of Hindi Prastāvanā)
1. General Nature
Bhattāraka is a term applied to a particular type of Jaina ascetics. Unlike a Muni or Yati, these ascetics assumed the position of a religious ruler. They managed large estates donated to some temple and enjoyed supreme authority in religious matters. Their tradition is very much similar to that of the Sankarāchāryas. 2. Extent of the Subject
Bhattāraka tradition is found in both Digambara and Svetāmbara sects. Twentytwo seats of Digambara Bhattārakas are known today. Out of these, one seat of Senagaña existed at Kāranja (Dist. Akola, Berar), ten seats of Balātkāra Gana existed at Jaipur, Nagore, Ater, Ider, Bhanpur, Surat, Jerhat, Karanja, Latur and Malkhed, and four seats of Kāsthāsargha existed at Hisar, Surat, Gwalior and Karanja. The complete historical account of these fifteen seats is embodied in the present work. Remaining seats of Digambara Bhatçärakas are situated at Kolhapur, Mudbidri, Karkal, Humbuch and Sravan Belgola. We hope to edit the account of these seats in the second volume of this work. 3. Age of the tradition
Traditions embodied in the Dhavalā, Harivamsapurāna etc. are unanimous about the line of pontiffs that existed during the first seven centuries after Mahāyira. Bhadrabahu II and Lohārya II were the last two pontiffs in this line. Traditional Pattävalis of various seats of Bhattārakas generally begin with either of these two.
Exact historical references to these seats are, however, found from eighth century A. D. To fill up the gap between these six centuries all traditions claim the famous pontiffs such as Kundakunda, Samantabhadra, Devanandi Pūjyapäda etc., according to their will.
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Introduction
il
Even these references found from eighth century onwards are not continuous. The later Bhattāraka traditions generally begin from the thirteenth century A. D., which continue upto the present day. 4. Literary Contribution
This volume contains references to about 400 compositions of various Bhattārakas. This literature is mainly divided into three topics : epics, stories and texts for worship. Epics and stories are generally smaller reductions of stories found in the Padmapurāņa of Ravisena, Harivamsapurāņa of Jinasena and Mahāpurāņa of Jinasena and Gunabhadra. These are found in Sanskrit, Prākrit, Apabhransa, Hindi, Marathi, Gujarati, and Rajasthani. Various Purāņas by Sakalakirti of Ider and numerous Vratakathās by Srutasāgarasūri are noteworthy. References are also found to works on grammar, astrology, prosody, logic, metaphysics, medicine, mathematics and other allied subjects. 5. Contribution towards Art and Architecture
Installation of various images was considered to be the main work of a Bhattāraka. These ceremonies presented a good opportunity for large religious and social gatherings and to establish one's prestige in the society. Various titles such as Sanghapati, Seth etc., were conferred upon chief donators of the ceremony.
More than a thousand images were installed at a single ceremony by Jinachandra at Mudasa (Rajasthan) chief donator was Seth Jivarāj Papadiwāl. These images were later on sent to a large number of temples all over India. They are found right from Amritsar to Madras and from Girnar to Calcutta. This ceremony took place on the Akşaya Tritiya of Sam. 1548 (1492 A. D.)
Some twenty types of images were installed during this age. The largest number of images were of Pārsvanātha, the twentythird Tirthankara. Temples, pillars and other monuments formed an important part of Bhattārakas' work. 6. Instruction
Preservation of manuscripts was the most valuable work done in this age. Works on grammar, medicine, mathematics
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Bhṭṭāraka Sampradaya
and similar technical subjects, which were written by Jaina teachers of past, were regularly studied by the disciples of every learned Bhaṭṭāraka. Several copies of these works were prepared for this purpose only. The udyapana ceremony of every Vrata usually consisted of a donation of some manuscript to some Bhaṭṭāraka.
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7. Social activities
By virtue of their position as a religions teacher Bhaṭṭārakas were above the level of caste distinctions. But this aspect of Hindu Culture had so much influence on Jaina society that it could not be ignored. Every seat of Bhaṭṭārakas was generally associated with one particular caste.
Bhaṭṭārakas often arranged long pilgrimages with a large number of followers. In this respect, Srutasagara Sūri's visit to Gajapantha and various pilgrimages of Devendrakirti (Third) of Karanja are noteworthy. Bhaṭṭarakas sometimes looked after the management of the holy places, for instance, Shri Mahavirji was managed by Bhaṭṭarakas of Jaipur.
Many times, non-Jain students came to receivein learng from Bhaṭṭārakas. The names of Pt. Haji, Saiva Madhava, Bhupati Prajna Miśra and Dvija Viśvanatha are notable in this respect.
Bhaṭṭārakas were supposed to possess miraculous powers gained through some Mantras. To walk through air, to remove the effect of poison, to make stone-image speak are some of the miracles ascribed to various Bhaṭṭärakas.
The Mathas of Bhaṭṭärakas were centres of various social functions. This provided an occasion for preservation of various arts. Many references are found to music, painting, sculpture, dancing and other arts.
8. Interrelations
There was no principle for which there could be a serious dispute between different seats of Bhaṭṭārakas. Their inter-relations rested entirely on personal attitude. Śribhuṣaṇa of Nanditatagachchha had worst relations with Vadichadra of Balatkaragaṇa, but Indrabhuṣaṇa of the same line had good relations with all.
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Introduction
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9. Other religious sects
References are found to various disputes between these Bhattā raka Institution and Vedic scholars, Svetāmbara sect and the Terāpantha. The last was particularly against the system of Bhattārakas. Disputes with Svetāmbaras often resulted from the question of possession of some holy places. 10. Relation with Rulers
No king was following Jainism in the age of Bhattārkas. Some ministers, no doubt, were from Jaina families. There was no hostility with any particular ruler. Jaina society continued its work peacefully even during the reign of all Moghul emperors Akbar recieved special honour for his sympathetic attitude. Relations with the Tomar dynasty of Gwalior also seem to be notably good. Visits to courts of various Hindu and Muslim rulers are often referred to. 11. Conclusion
Thus it would be clear that the Bhattāraka tradition played an important part in the history of Mediaeval Jaina society. This book, though containing the account of only a part of the tradition contains references to some 400 Bhattārakas, their 175 disciples, 309 literary compositions, 90 temples, 31 castes; 100 rulers and 200 places. With more sources utilised, their figures can be easily doubled.
The age. as it was, was not very glorious But some personalities deserve attention. Jaina history will remain incomplete without the mention of Sakalakirti, Sibhachandra and Jinachandra. History of rise gives inspiration. History of downfall gives lessons. Bɔth are necsssary for a growing society. With this view, we hope, this topic will recieve due attention, though it was so far completely neglected.
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(१४)
भट्टारक संप्रदाय
शुद्धिपत्र
पृष्ठ पंक्ति प्रस्तावना १४ १३
अशुद्ध इन्द्रभूषण सि. भा. वर्ष पृ. ९ में श्री.गोडे का लेख पट्टाधीश हुए।
११२ ४
রানমুম্বল सि, भा, वर्ष ४ पृ. ९ में श्री. गौड का लेख सुखेन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए। सुखेन्द्रकीर्ति उपर्युक्त पृ. २७१ गोपसेन
११२ ८ सुरेन्द्रकीर्ति १८७ २० उपयुक्त पृ. ७१२ २६१ १४,१५ गोपसेन
जयसेन
भावसेन
जयसेन अ. २ पृ. ६८६
२६३ १३
अ.२ पृ.६०६
२६९ १० ३०२ २७
भा. ७ पृ. १६ धर्मचन्द्र (विशालकीर्ति के शिष्य) ५१२-५१३ जिन्तुर ६९
जिन्तुर ३९
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प्रस्तावना
१. ऐतिहासिक स्थान
जैन समाज के इतिहास में सामान्य तौर पर तीन कालखण्ड दृष्टिगोचर होते हैं । भगवान् महावीर के निर्वाण के बाद करीब ६०० वर्ष तक जैन समाज विकासशील था । अपने मौलिक सिद्धान्तों का विकास और प्रसार करनेके लिए उस समय जैन साधु अपना पूरा समय व्यतीत करते थे । जनसाधारण से सम्पर्क कायम रहे इस उद्देश से वे परित्रज्या - निरन्तर भ्रमण का अवलम्ब करते थे । मठ, मन्दिर या वाहन, आसनों की उन्हें आवश्यकता नहीं थी । तपश्चर्या के उनके नियम भी भगवान् महावीर के आदर्श से बहुत कुछ मिलते जुलते थे । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के रूप में साधुओं में वस्त्रधारण की प्रथा यद्यपि उस समय भी थी तथापि भगवान के आदर्श जीवन को वे भूल नहीं सके थे ।
1
ईस्वी सन की दूसरी शताब्दी से जैन समाज व्यवस्थाप्रिय होने लगी । व्यवस्थापन का यह युग भी करीब ६०० वर्ष चलता रहा । इस युग के आरम्भ मैं कुन्दकुन्द और धरसेन आचार्य ने विशाल जैन शास्त्रों को सूत्रबद्ध करने का आरम्भ किया। पांचवी सदी में श्वेताम्बर सम्प्रदाय ने भी अपने आगम शास्त्रबद्ध किये । अनुश्रुति से चली आई पुराण कथाएं इसी समय विमलसूरि, संघदास, कविपरमेश्वर आदि के द्वारा ग्रन्थबद्ध हुई । तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में भी समन्तभद्र और सिद्धसेन के मौलिक विवेचन को अकलङ्क और हरिभद्र द्वारा इसी युग में सुव्यवस्थित सम्प्रदाय का रूप प्राप्त हुआ । पल्लव, कदम्ब, गंग और राष्ट्रकूट राजाओं के आश्रय से इसी युग में मठ और मन्दिरों का निर्माण वेग से हुआ तथा आचार्य परंपराएं सार्वदेशीय रूप छोड कर स्थानिक रूप ग्रहण करने लगीं ।
नौवीं शताब्दी से जैन समाज का जनसाधारण से सम्पर्क बहुत कम होता गया । भारतके कई प्रदेशों में अब यह सिर्फ वैश्य समाज के एक भाग के रूप में परिणत होने लगी । राजकीय दृष्टि से भी मुस्लिम शासकों का प्रभाव धीरे धीरे बढ़ने लगा । इन परिस्थितियों में स्वभावत: विकास और व्यवस्था की प्रवृत्तियां पीछे रह गई और आत्मसंरक्षण की प्रवृत्ति को ही प्राधान्य मिलने लगा । किसी युगप्रवर्तक नेता के अभाव से यह संरक्षणात्मक प्रवृत्ति धीरे धीरे व्यापक होती गई और अन्त में उस ने विकासशीलता को समाप्त कर दिया। इसी प्रवृत्ति के फलस्वरूप साधुसंघ में भद्दारकसम्प्रदाय उत्पन्न हुए और बढे । भट्टारकों के
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भट्टारक संप्रदाय
पूरे कार्य पर इसी मनोवृत्ति का प्रभाव मिलता है । एकदृष्टि से यह प्रवृत्ति समाज के अस्तित्व के लिए आवश्यक भी थी । यह प्रवृत्ति न होने के कारण ही बौद्ध धर्मावलम्बी समाज भारत से नष्ट हो गई यद्यपि उस का सामर्थ्य जैन समाज से अपेक्षाकृत अधिक था।
२. उत्पत्ति और पार्श्वभूमि ___उपर्युक्त तीन कालखंडों में पहले विकासशील युग के इतिहास के साधन बहुत कम मात्रा में उपलब्ध हैं । इस युग में दिगम्बर और श्वेताम्बर इन दोनों संघों में एक एक ही आचार्य परम्परा का अस्तित्व सुनिश्चित हुआ है । स्थूलतः देखा जाय तो दक्षिणभारत में दिगम्बर सम्प्रदाय और उत्तर भारत में श्वेताम्बर सम्प्रदाय कार्यशील रहा था । दिगम्बर परम्परा में भगवान् महावीर के बाद गौतमइन्द्रभूति, सुधर्मस्वामी लोहार्य, जम्बूस्वामी, विष्णुनन्दि, नन्दिमित्र, अपराजित, गोवर्धन, भद्रवाहु, विशाख, प्रौष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नागसेन, सिद्धार्थ, धृति पेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव, धर्मसेन, नक्षत्र, जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, कंसाचार्य, सुभद्र, यशोभद्र, भद्रबाहु और लोहाचार्य इन आचार्यों को श्रुतधर कहा जाता है
और इन का सम्मिलित समय ६८३ वर्ष कहा गया है । ' श्वेताम्बर सम्प्रदाय में प्रायः इतने ही समय में आर्य जम्बूस्वामी के बाद प्रभव, शय्यंभव, यशोभद्र, संभूतिविजय, भद्रबाहु, स्थूलभद्र, महागिरि, सुहस्ति, सुस्थित, सुप्रतिवुद्ध, इन्द्रदिन्न, दिन्न, सिंहगिरि और वज्रस्वामी इन आचार्यों का उल्लेख पाया जाता है। इसी समय यद्यपि यापनीय संघ की तीसरी परम्परा भी हो गई है , तथापि उस की ऐसी कोई व्यवस्थित परम्परा का निर्देश नहीं मिलता है।
इस पहले युग के अन्त से ही दूसरे युग की विभिन्न परम्पराओं का आरम्भ होता है जिन का आगे चल कर तीसरे युग के विभिन्न भट्टारकसम्प्रदायों में रूपान्तर हुआ। इस परम्परा-विस्तार का प्रमुख कारण स्थान भेद था और कहीं कहीं कुछ आचरण के फरक से भी उसे बल मिला है। यद्यपि इस दूसरे युग का इतिहास इस ग्रन्थ का प्रमुख विषय नहीं है, तथापि पार्श्वभूमि के तौर पर इस परम्पराविस्तार को निम्न तालिका के रूप में अंकित किया जा सकता है। यह तालिका प्रधानरूप से पट्टावलियों के अवलोकन से बनाई गई है और इस लिए अन्तिम
१ धवला भाग १ पृ ६६ आदि, २ तपागच्छ पट्टावली (जैन साहित्य संशोधक खंड १ अंक ३) आदि
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प्रस्तावना
रूप से निर्णीत नहीं है। फिर भी ज्ञान की वर्तमान स्थिति में यह काफी तथ्यपूर्ण कही जा सकती है।
भद्रबाहु
अलि
लोहाचार्य
विनयन्धर (पुन्नाट गण ) (लाडवागड गच्छ)
माघनन्दि (मूलसंघ)
धरसेन (सेनसंघ)
पूज्यपाट देवनन्दि
वीरसेन
विनयसेन
वननन्दि (द्राविड संघ) (देशीय गण)
गुणनन्दि जिनसेन
(मूलसंघ) (बलात्कार गण) गुणभद्र
(सेनगण)
कुमारसेन
रामसेन (माथुर गच्छ)
नेमिषेण
(नन्दीतट गच्छ) उत्तरवर्ती सम्प्रदायों की पट्टावलियों से इस द्वितीय युग की परम्परा निश्चित करना सम्भव नहीं है क्यों कि उन में अन्य सम्प्रदायों के अच्छे आचार्यों को अपनी ही परम्परा का घोषित करने की प्रवृत्ति देखी जाती है। वीरनन्दि, मेघचन्द्र आदि देशीयगण के आचार्यों के नाम बलात्कार गण की पट्टावलियों में तथा जिनसेन, वीरसेन आदि सेनगण के आचार्यों के नाम लाडवागड गच्छ की पट्टावली में पाये जाते हैं यह इसी का परिणाम है। दूसरी चीज यह है कि पट्टावली लेखकों का समय इन आचार्यों के समय से बहुत बाद का है और इस लिए कितनी ही चमस्कारिक कथाएं उन के द्वारा विभिन्न आचार्यों के लिए गढ़ी गई हैं। पट्टावलियों में दिया हुआ उन का समय और क्रम भी इसी लिए विश्वासयोग्य नहीं है।
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भट्टारक संप्रदाय
इस ग्रन्थ के विभिन्न प्रकरणों के प्रारंभिक परिच्छेदों से ज्ञात होगा कि अधिकांश भट्टारक परम्पराओं के ऐतिहासिक उल्लेख नौवीं शताब्दी से प्राप्त होते हैं। इस लिए भट्टारकप्रथा अमुक आचार्य ने अमुक समय स्थापन की यह कहना असम्भव है। श्रुतसागर सूरि ने कहा है कि वसन्तकीर्ति ने यह प्रथा आरम्भ की है। किन्तु यह सिर्फ उस विशिष्ट परम्परा के लिए ही सही है। भट्टारक सम्प्रदाय की विशिष्ट आचरण पद्धतियाँ धीरे धीरे किन्तु बहुत पहले से ही अस्तित्व में आ चुकी थीं यह प्रस्तावना के अगले विभाग से स्पष्ट होगा। भट्टारक सम्प्रदाय में ये पद्धतियां तेरहवीं सदी के करीब स्थिर हुई इतना ही कहा जा सकता है।
३. परम्पराभेद और विशिष्ट आचरण साधुसंघ के साधारण स्थिति से यह परम्परा पृथक् हुई इस का पहला कारण वस्त्रधारग था। यह पद्धति बहुत पहले ही विवाद का कारण बन चुकी थी। भगवान पार्श्वनाथ की परंपरा के आचार्य केशी कुमारश्रमण ने गणधर इन्द्रभूति गौतम से इस पद्धति के विषय में प्रश्न किया था। इस के परिणाम स्वरूप तात्कालिक रूप से यह विवाद शान्त हुओ। किन्तु वस्त्रधारी साधुओं का अस्तित्व बना रहा । आगे चल कर आर्य महागिरि और शिवभूति के समय फिर यह विवाद जागृत होता गया और अन्त में जब आचार्य कुन्दकुन्द के नेतृत्व में संघ ने दिगम्बरस्व का सम्पूर्ण समर्थन किया तब हमेशा के लिए श्वेताम्बर और दिगम्बर ये भेद दृढ हो गये। इस के बावजूद भी दिगम्बरसम्प्रदाय में फिर वस्त्रधारण की प्रथा शुरू हुई। इसे मुस्लिम राज्य काल में और अधिक बल मिला और आखिर वह भट्टारकों के लिए अपवाद मार्ग के रूप में मान्य कर ली गई। व्यवहार में यद्यपि वस्त्र का उपयोग भट्टारकों के लिए समर्थनीय ठहरा दिया गया तथापि तत्व की दृष्टि से नमता ही पूज्य मानी जाती रही। भट्टारकपद प्राप्ति के समय कुछ क्षणों के लिए क्यों न हो, नम अवस्था धारण करना आवश्यक रहा । कुछ भट्टारक मृत्यु समीप आने पर नग्न अवस्था ले कर सल्लेखना का स्वीकार करते रहे। नमता के इस आदर के कारण ही भट्टारकपरम्परा श्वेताम्बर सम्प्रदाय से पृथक्ता घोषित करती रही।
भट्टारकपरम्परा का दूसरा विशिष्ट आचरण मठ और मन्दिरों का निवासस्थान के रूप में निर्माण और उपयोग था। इसी के अनुषंग से भूमिदान का
१ लेखांक २२५ देखिए. २ उत्तराध्ययन सूत्र, केसीगोयमिन्न अध्ययन. ३ देखिए लेखांक १९०
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प्रस्तावना
स्वीकार करने और खेती आदि की व्यवस्था भी भहारक देखने लगे थे । संवत् ५२६ में वज्रनन्दि ने द्राविड संघ की स्थापना की उस के ये ही मुख्य कारण थे ऐसा देवसेन ने कहा है । ' शक ६३४ में रविकीर्ति ने ऐहोळे ग्राम में जो मन्दिर बनवाया वह इस पद्धति का पर्याप्त पुराना उदाहरण है यद्यपि भूमिस्वीकार के उल्लेख इस से भी पहले के मिले हैं।
इन दो प्रथाओं के कारण भट्टारकों का स्वरूप साधुत्व से अधिक शासकत्व की ओर झुका और अन्त में यह प्रकट रूप से स्वीकार भी किया गया । वे अपने को राजगुरु कहलाते थे और राजा के समान ही पालकी, छत्र, चामर, गादी आदि का उपयोग करते थे। वस्त्रों में भी राजा के योग्य जरी आदि से सुशोभित वस्त्र रूट हुए थे । कमण्डलु और पिच्छी में सोने चांदी का उपयोग होने लगा था। यात्रा के समय राजा के समान ही सेवक सेविकाओं और गाडी घोडों का इंतजाम रखा जाता था तथा अपने अपने अधिकारक्षेत्र का रक्षण भी उसी आग्रह से किया जाता था। इसी कारण भट्टारकों का पट्टाभिषेक राज्याभिषेक की तरह बडी धूमधाम से होता था। इस के लिए पर्याप्त धन खर्च किया जाता था जो भक्त श्रावकों में से कोई एक करता था। इस राजवैभव की आकांक्षा ही भट्टारक पीठों की वृद्धि का एक प्रमुख कारण रही यद्यपि उन में तत्त्व की दृष्टि से कोई मतभेद होने का प्रसंग ही नहीं आया।
विभिन्न पिच्छियों का उपयोग विभिन्न परम्पराओं का प्रतीक रहा है । सेन गण और बलात्कार गण में मयूरपिच्छ का उपयोग होता था', लाडवागड गच्छ में चामर का पिच्छी जैसा उपयोग होता था, नन्दीतट गच्छ में भी यही प्रथा थी और माथुर गच्छ में कोई पिच्छी नहीं होती थी । इतिहास से ज्ञात होता है कि अन्यान्य आचार्यों ने चलाकपिच्छ और गृध्रपिच्छ का भी उपयोग किया है और उसे निन्दनीय नहीं माना गया किन्तु भट्टारक काल में अक्सर इस छोटी सी चीज को लेकर कटु शब्दों का प्रयोग होता रहा है ।
भष्टारकों के कार्य के विषय में अगले विभागों में चर्चा की गई है । उन के अतिरिक्त एक विशिष्ट रीति का उल्लेख कारंजा के भ. शान्तिसेन के विषय में हुआ
१ दर्शनसार २४.२८. २ मर्करा ताम्रपत्र आदि. ३ देखिए लेखांक ७२५. ४ देखिए लेखांक ६७२. ५ देखिए लेखांक ५१. ६ देखिए, लेखांक ६४३. ७ देखिए लेखांक ५४१. ८ जैनशिलालेख संग्रह भा. १ भूमिका पृ. १३१.
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भट्टारक संप्रदाय
है । इस के अनुसार आप ने बड़े समारोह से समुद्रतट पर स्नान किया था । ' ४. स्थल और काल
साधुत्व के नाते भट्टारकों का आवागमन भारत के प्रायः सभी भागों में होता था । दक्षिण में मूडबिद्री, श्रवणबेलगोल, कारकल, हुंबच इन स्थानों पर देशीय गण आदि शाखाओं के पीठ स्थापित हुए थे । प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्णित भट्टारक भी यात्रा के लिए श्रवणबेलगोलतक आते जाते थे यद्यपि इस प्रदेश से उन के कोई स्थायी सम्बन्ध नहीं थे । इस से दक्षिण में तमिलनाड और केरल ये दो प्रदेश प्राचीन समय जैनधर्म के प्रभाव क्षेत्र में रहे थे किन्तु भट्टारकों का कोई सम्बन्ध उन से नहीं था ।
पूर्व भारत में सम्मेदशिखर, चम्पापुर, पावापुर और प्रयाग की यात्रा के लिए विहार होता था। वैसे इस प्रदेश में न तो कोई भट्टारकपीट था, न उन का शिष्यवर्ग था | आरा के नजदीक मसाद में काष्ठासंघ के कुछ उल्लेख मिले हैं । उनके अतिरिक्त पूर्व भारत से प्रायः कोई स्थायी सम्बन्ध नहीं था ।
महाराष्ट्र में मलखेड का पीठ बलात्कारगण का केन्द्र था । इसी की दो शाखाएं कारंजा और लातूर में स्थापित हुई, जिन का वर्णन प्रकरण ३ और ४ में हुआ है। कोल्हापुर में लक्ष्मी सेन और जिनसेन इन दो भट्टारकों की परम्पराएं थीं किन्तु उन का इस ग्रन्थ में सम्मिलित करने योग्य वृत्तान्त हमें प्राप्त नहीं हो सका । ये दोनों भट्टारक अपने को सेनगण के पट्टाधीश मानते हैं । बलात्कारगण के अतिरिक्त कारंजा में सेनगण और लाडबागड गच्छ के भी पीठ थे। इन पीठस्थानों के अतिरिक्त विदर्भ के रिद्धिपूर, बाळापुर, रामटेक, अमरावती, आसगांव, एलिचपुर, नागपुर आदि स्थानों में तथा मराठवाडा के जिन्तुर, नांदेड, देवगिरि, पैठन, शिरड आदि स्थानों में इन पांच पीठों के शिष्यवर्ग अच्छी संख्या में रहते थे। मूल उल्लेखों में इस भाग का उल्लेख प्रायः वराट, वैराट, वन्हाड आदि नामों से हुआ है । मलखेड को मलयखेड और कारंजा को कार्यरंजकपुर की संज्ञा मिली है। गुजरात में सूरत बलात्कार गण का और सोजित्रा नन्दीतर गच्छ का केन्द्र था। समुद्रतटवर्ती इलाकों में नवसारी, भडोच, खंभात, जांबूसर, घोघा आदि स्थानों में भट्टारकों का अच्छा प्रभाव था । उत्तर गुजरात में ईडर का पीठ महत्त्व
१ देखिए लेखांक ७५. २ देखिए लेखांक ५१४, १२५ आदि. ३ देखिए लेखांक ४३९ आदि. ४ देखिए लेखांक ५८६ आदि.
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प्रस्तावना
पूर्ण था। सौराष्ट्र में गिरनार और शत्रुंजय की यात्रा के लिए भट्टारकों का आगमन होता था किन्तु वहां कोई स्थायी पीठ स्थापित नहीं हुआ ।
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काल में इसी प्रदेश में सागवाडा और ही एक परम्परा आगे चल कर ईंडर में आदि स्थान इन्ही पीठों के प्रभाव में थे। गिरि में माथुर गच्छ और बलात्कार गण के स्थानों में इन का प्रभाव था ।
मालवा में धारा नगरी प्राचीन समय में जैन धर्म का केन्द्र था । उत्तरवर्ती अटेर के पीठ स्थापित हुए । सागवाडा की स्थायी हुई । महुआ, डूंगरपूर, इन्दौर इसी के उत्तर में ग्वालियर और सोनाकेन्द्र थे । देवगढ, ललितपुर आदि
6
राजस्थान में नागौर, जयपुर, अजमेर, चित्तौड, भानपुर और जेरहट में बलात्कार गण के केन्द्र थे । हिसार में माथुर गच्छ का प्रधान पीठ था। पंजाब से कुछ स्थानों में पाई जाने वाली मूर्तियों के अतिरिक्त भट्टारकों का कोई सम्बन्ध ज्ञात नहीं होता। दिल्ली से समय समय पर प्रायः सभी पीठों के भट्टारकों ने अपना सम्बन्ध जोडा है । किन्तु मेरठ और हस्तिनापुर के कुछ ग्रामों के अतिरिक्त उत्तरप्रदेश से भी भट्टारकों का कोई खास सम्बन्ध नहीं था ।
1
प्रत्येक पीठ के प्रकरण के अन्त में दिये गए कालपट से उन के समय का स्पष्ट निर्देश होता है । मोटे तौर पर देखा जाय तो सेनगण के उल्लेख नौवीं सदी से आरम्भ होते हैं तथा उस की मध्ययुगीन परम्परा १६ वीं सदी से ज्ञात होती है । बलात्कार गण के उल्लेखों का प्रारम्भ १० वीं सदी से तथा मध्ययुगीन परम्परा का आरम्भ १३ वीं सदी से होता है । काष्ठासंघ के विभिन्न गच्छों के प्राचीन उल्लेख ८ वीं सदी से एवं मध्ययुगीन परम्पराओं के उल्लेख १४ वीं सदी से प्राप्त हो सके हैं। प्रत्येक पीठ का विशेष प्रभाव किस शताब्दी में रहा यह कालपटों से अच्छी तरह देखा जा सकता है ।
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५. कार्य- मूर्ति प्रतिष्ठा
मूल ग्रन्थ का सरसरी तौर पर अवलोकन करने से भी स्पष्ट होता है कि मारकों के जीवन का सब से अधिक विस्तृत कार्य मूर्ति और मन्दिरों की प्रतिष्ठा यही था । इस पूरे युग में मूर्तिप्रतिष्ठा का यह कार्य इतने बड़े पैमाने पर हुआ कि आज के समाज को उन सब मूर्तियों का रक्षण करना भी दुष्कर हुआ है। इस का एक कारण यह है कि प्रतिष्ठा उत्सव को धार्मिक से अधिक सामाजिक रूप प्राप्त हुआ था। जिस प्रतिष्ठा का निर्देश इस ग्रन्थ के दो पंक्तियों के मूर्तिलेख में हुआ है उस के लिए भी कम से कम हजार व्यक्तियों को इकट्ठे आने का मौका मिला था ।
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C
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Acha
भट्टारक संप्रदाय
प्रतिष्ठाकतों को समाज का नेतृत्व अनायास ही प्राप्त होता था और उसी प्रतिष्ठा में यदि गजरथ भी हो तब तो संघपति का पद भी उसे विधिवत् दिया जाता था। सामाजिक मान्यता की इस अभिलाषा के साथ ही मुस्लिम शासकों की मूर्तिभंजकता की प्रतिक्रिया के रूप से भी जैन समाज में मूर्ति प्रतिष्ठा को सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्थान मिला।
इस युग में प्रतिष्ठित की गई मूर्तियां साधारणत: पाषाण और धातुओं की होती थीं । धातु मूर्तियों का प्रमाण कुछ बढता गया है। तीर्थकर, नन्दीश्वर, पंचमेरू, सहस्रक्ट, सरस्वती, पद्मावती आदि यक्षिणी, क्षेत्रपाल और गुरु ये मूर्तियों के प्रमुख प्रकार थे । तीर्थंकरों की मूर्तियां पद्मासन और कायोत्सर्ग इन दो मुद्राओं में होती थीं। इन में पार्श्वनाथ की मूर्तियां सर्वाधिक संख्या में और विविध रूपों में पाई जाती हैं। नागफणा के ऊपर, नीचे, आगे या बाजू में होने से पार्श्वनाथ की मूर्तियों में यह विविधता पाई जाती है। शान्तिनाथ, कुन्थुनाथ और अरनाथ इन तीन तीर्थंकरों की संयुक्त मूर्ति को रत्नत्रयमूर्ति कहा जाता है। किसी एक तीर्थंकर की मुख्य मूर्ति के ऊपर और दोनों ओर अन्य तेईस तीर्थंकरों की छोटी मूर्तियां हो तो उसे चौबीसी मूर्ति कहा जाता है। इसी प्रकार अनन्तनाथ तक के चौदह तीर्थंकरों की संयुक्त मूर्तियां भी पाई जाती है। और इसका खास उपयोग अनन्तचतुर्दशी पूजामें किया जाता है । सामान्य तौर पर इस युग की तीर्थंकर मूर्तियां सादी होती थी। मूर्ति के साथ ही भामंडल, छत्र, सिंहासन आदि भी उकेरने की पहली पद्धति इस युग में प्रायः लुप्त हो गई। मूर्तियों का विस्तार दो इंच से बीस फुट तक विभिन्न प्रकार का रहा है फिर भी अधिकांश मूर्तियां एक फुट ऊंचाई की है। मूर्तियों का निर्माण मुख्य तौर पर राजस्थान में होता था।
___ यंत्रों की प्रतिष्ठा यह इस काल की विशेष निर्मिति है। दशलक्षण धर्म रत्नत्रय, षोडशकारण भावना, द्वादशांग आगम, नव ग्रह, ऋषिमंडल और सकलीकरण के यंत्र ये इन के विविध प्रकार थे। सभी धर्मतत्त्वों को मूर्तरूप में बांधने की प्रवृत्ति ही इस यंत्रप्रतिष्ठा का मूलभूत कारण है।
पहले तीर्थंकरों के साथ अनुचरों के रूप में यक्ष आदि देवताओं की मूर्तियों का निर्माण होता था । इस युग में उन की स्वतन्त्र मूर्तियां बनने लगीं । यक्षों में धरणेन्द्र और क्षेत्रपाल प्रमुख हैं। यक्षिणियों में चक्रेश्वरी, ज्वालामालिनी, कूष्मांडिनी, अंबिका और पद्मावती ये प्रमुख है। ज्ञान का प्रमाण जैसे कम होता गया
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प्रस्तावना
वैसे इन सब की मूर्तियों को पद्मावती के ही विभिन्न रूप माना जाने लगा, और अन्त में काली और दुर्गा जैसी अन्य या स्थानिक सम्प्रदाय की देवताओं के साथ भी इन की एकता होने लगी थी। कुक्कुट आदि वाहन, धनुष आदि शस्त्र इत्यादि बाह्य चिन्हों से यह गलत एकता आसानी से स्थापित हो सकी जिस का अब भी जैनसमाज में काफी प्रभाव है।
प्रतिष्ठाओं के लिए वैसे कोई महीना वयं नहीं था। फिर भी वैशाख में सब से अधिक प्रतिष्ठाएं हुई। इस का कारण शायद यह था कि अक्षय तृतीया एक स्वयंसिद्ध मुहूर्त माना जाता था। उस दिन के लिए पंचांग देखने की जरूरत नहीं समझी जाती थी । यातायात आदि की दृष्टि से भी यही मौसम ऐसे उत्सवों के लिए अनुकूल भी होता है।
संख्या की दृष्टि से दिल्ली शाखा के भ. जिनचन्द्र द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियां सब से अधिक है । प्रतिष्ठाकर्ता सेट जीवराज पापडीवाल के प्रयत्नों से ये हजारों मूर्तियां भारत के कोने कोने में पहुंची हैं। इन की प्रतिष्ठा संवत् १५४८ की अक्षयतृतीया को हुई थी। विशालता की दृष्टि से ग्वालियर और चंदेरी की मूर्तियां उल्लेखयोग्य है। कारंजा के उपान्त्य भ. देवेन्द्रकीर्ति ने भी रामटेक, नागपुर आदि स्थानों में विशाल मूर्तियां स्थापित की हैं।
मूर्तियों के पादपीठ के लेख बहुधा टूटी फूटी संस्कृत में लिखे जाते थे। क्वचित हिन्दी, मराठी आदि लोकभाषाओं का भी उपयोग उन के लिए हुआ है। उन का विस्तार मूर्ति के विस्तार के अनुरूप होता था।' सर्वाधिक विस्तृत लेख में समय, प्रतिष्ठाकर्ता सेठ की वंशपरम्परा, प्रतिष्ठासंचालक भट्टारक की गुरुपरम्परा, स्थान, स्थानीय और प्रादेशिक शासक तथा एकाध मंगल वाक्य इन का निर्देश होता था।
६. कार्य- ग्रन्थलेखन और संरक्षण भट्टारक युग का ग्रन्थलेखन मुख्य रूप से पिछले युग के ग्रन्थों के संक्षेप या रूपान्तर के रूप में था । कोई नई मौलिक प्रवृत्ति उस में नहीं थी। पुराण, कथा और पूजापाठ इन तीन प्रकारों की रचनाएं संख्या की दृष्टि से सर्वाधिक हैं। कर्मशास्त्र, अध्यात्म आदि गम्भीर विषयों के ग्रन्थों पर कुछ टीकाओं के अतिरिक्त अन्य लेखन नहीं हुआ।
१ लखों के विस्तारभेद का नमूना देखिए-जैन सिद्धान्त भास्कर व.७, पृ. १६.
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भट्टारक संप्रदाय
पुराण और कथाएं साधारणतः जिनसेन कृत हरिवंशपुराण, रविषेण कृत पद्मपुराण तथा जिनसेन कृत महापुराण के आधार पर लिखी गई। संस्कृत में ईडर शाखा के भ. सकलकीर्ति और भ. शुभचन्द्र के विभिन्न पुराण ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं । अपभ्रंश में माथुर गच्छ के भ, अमरकीर्ति, भ. यशःकीर्ति और पंडित रइधू की रचनाएं अच्छी हैं । हिन्दी में शालिवाहन, खुशालदास आदि कवि प्रमुख हैं। राजस्थानी में ब्रह्म जिनदास के रास ग्रन्थ बहुत सुन्दर हैं। गुजराती में सूरत शाखा के भ. वादिचन्द्र, जयसागर और नन्दीतट गच्छ के धनसागर तथा भ. चंद्रकीर्ति की रचनाएं उल्लेखनीय हैं। मराठी में पार्श्वकीर्ति, गंगादास, जिनसागर और महतिसागर ये चार लेखक विशेष लोकप्रिय हो सके थे।
__ पूजापाठों में अष्टक, स्तोत्र, जयमाला, आरती, उद्यापन ये मुख्य प्रकार थे। जिन मूर्तियों और यंत्रों की प्रतिष्ठा भट्टारकों द्वारा हुई उन सब के अस्तित्व को बनाये रखने के लिए ये पूजापाठ नितान्त आवश्यक थे । पूजनीय व्यक्ति या तत्त्व की अपेक्षा पूजा के द्रव्य का अधिक वर्णन करना इस युग के पूजापाठों की विशेषता कही जा सकती है । इन की दूसरी विशेषता इन की गेयता है । छोटे बडे विविध मात्राओं के छंदों में रची होने से बहुधा सामान्य आशय की पूजा भी बहुत आकर्षक मालूम पडती थी। गुजराती और राजस्थानी के पुराण ग्रन्थों में और खास कर रास ग्रन्थों में भी यह गेयता मौजूद है जिस से उन की लोकप्रियता बढी है।
इन प्रमुख विभागों के बाद न्यायशास्त्र में भ. धर्मभूषण कृत न्यायदीपिका और भ. शुभचन्द्र कृत संशयिवदनविदारण उल्लेखनीय हैं। आचारधर्म पर षट्कर्मोपदेश, धर्मसंग्रह और त्रैवर्णिकाचार ये ग्रन्थ इस युग के प्रातिनिधिक कहे जा सकते हैं । सकलकीर्ति के मूलाचारप्रदीप में मुनिधर्म का वर्णन हुआ है । कर्मशास्त्र पर ज्ञानभूषण और सुमंतिकीर्ति की कर्मकाण्ड टीका एकमात्र उल्लेखयोग्य ग्रन्थ है। प्राकृत का एक व्याकरण भ. शुभचन्द्र ने और दूसरा एक श्रुतसागरसूरि ने लिखा है । अकारान्त क्रम से लिखा हुआ संस्कृत शब्दों का कोष विश्वलोचन श्रीधरसेन की एकमात्र रचना है। हिन्दी में भगवतीदास ने अनेकार्थनाममाला कोष लिखा है। ज्योतिष और वैद्यक पर भी उन के ही ग्रन्थ हैं। गणितज्योतिष में भ.ज्ञानभूषण के कार्य का उल्लेख मिलता है किन्तु उन के कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होते । इन के अतिरिक्त कैलास, समवसरण आदि अनेक स्फुट विषयों पर छोटी छोटी कविताओं की रचना की गई है ।
प्राचीन ग्रन्थों के हस्तलिखितों की रक्षा यह भट्टारकों के कार्य का सब से
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श्रेष्ठ अंग है। व्रतों के उद्यापन आदि के अवसर पर नियमित रूप से एकाध प्राचीन ग्रन्थ की नई प्रति लिखा कर किसी मुनि या आर्यिका को दान दी जाती थीं । गणितसारसंग्रह जैसे पाठ्य पुस्तकों की कई प्रतियां शिष्यों के लिए तैयार की जाती थीं। पुराने हस्तलिखित खरीद कर उन का संग्रह किया जाता था। पुराने संग्रहों को समय समय पर ठीक किया जाता था। ग्रन्थों की भाषा कठिन हो तो उन के समासों मे टिप्पण लगा कर पढ़ने के लिए साहाय्य किया जाता था। हस्त. लिखितों की अन्तिम प्रशस्तियों का ऐतिहासिक महत्त्व सर्वमान्य है। इस ग्रन्थ में सम्मिलित समयसार और पंचास्तिकाय की प्रतियों की प्रशस्तियां नमूने के तौर पर देखी जा सकती हैं। गणितसारसंग्रह की प्रतियां भी प्रातिनिधिक हैं।
७. कार्य-शिष्यपरम्परा जैन समाज में विद्याध्ययन की व्यवस्था कुलपरम्परा पर आधारित नहीं थी। शायद इसी लिए वह ब्राह्मणपरम्परा जितनी सुदृढ नहीं रह सकी। यह कमी दूर करने के लिए हमेशा शिष्य परम्पराओं के विस्तार का प्रयत्न जैन साधुओं द्वारा किया गया। भट्टारक सम्प्रदाय भी इस प्रवृत्ति को निभाता रहा। ग्रन्थ के मूल पाठ से स्पष्ट होगा कि इस कार्य में भट्टारकों ने काफी सफलता प्राप्त की। ब्रह्म जिनदास, श्रुतसागरसूरि, पण्डित राजमल्ल आदि भट्टारकशिष्यों के नाम उन के गुरुओं से भी अधिक स्मरणीय हुए हैं ।
व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के फलस्वरूप जिस प्रकार भट्टारक पीठों की वृद्धि हुई उसी प्रकार शिष्य परम्पराओं का भी पृथक् अस्तित्व रह सका। अनेक बार देखा गया है कि भट्टारकों के जो शिष्य पट्टाभिषिक्त नहीं हुए थे उन की स्वतन्त्र शिष्य परम्पराएं छह सात पीढियों तक चलती रहीं। गणितसारसंग्रह और शब्दार्णवचन्द्रिका की प्रशस्तियों में इस के अच्छे उदाहरण मिलते हैं।
विभिन्न भट्टारक पीठों में सौहार्द की रक्षा करने में भी शिष्यपरम्परा का महत्त्वपूर्ण उपयोग हुआ। दक्षिण के पण्डितदेव और नागचन्द्र जैसे विद्वानों का उत्तर के जिनचन्द्र और ज्ञानभूषण जैसे भट्टारकों से सहकार्य हुआ यह इसी का उदाहरण है। ब्रह्म शान्तिदास के सूरत और ईडर इन दोनों पीठों से अच्छे सम्बन्ध थे! इसी प्रकार पण्डित राजमल्ल भी माथुर गच्छ की दो भिन्न शाखाओं से एक ही समय संलग्न रह सके थे। कारंजा के लाडवागड गच्छ के कवि पामो जैसे शिष्यों ने नन्दीतट गच्छ के भट्टारकों से घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित किए थे। इस दृष्टि से परस्पर
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भट्टारक संप्रदाय
सम्बन्ध और अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्ध इन दो विभागों में आगे और विचार किया गया है।
जैनेतर सम्प्रदायों के विद्वान भी कई बार भट्टारकों के शिष्य वर्ग में सम्मिलित हुए थे। द्विज विश्वनाथ म, इन्द्रभूषण के शिष्य थे। भ, राजकीर्ति के शिष्यों में पण्डित हाजी का उल्लेख हुआ है । गोमटस्वामीस्तोत्र के कर्ता भूपति 'प्राशमिश्र भी जैन विद्वान प्रतीत नहीं होते । इस दृष्टि का भी विशेष विवरण अगले विभागों में होगा।
जैनेन्द्र व्याकरण, गणितसारसंग्रह, कल्याणकारक जैसे शास्त्रीय ग्रन्थों को जैनेतर समाजों में उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था जिस से उन का पठन पाठन कई चार लुप्तप्राय हो गया । इस संकट में से ये अन्य जीवित रह सके इस का अधिकांश श्रेय भट्टारकों के शिष्यवर्ग को ही है । इन्हीं ने इन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करा कर उन का अभ्यास किया और उन की आयु की वृद्धि की ।
८. कार्य- जातिसंघटना जैन समाज में इस वक्त जो जातियाँ हैं इन की स्थापना दसवीं सदी के करीब हुई ऐसा विद्वानों का अनुमान है । इन जातियों में अधिकांश के नाम स्थान या प्रदेश पर आधारित हैं । बघेरा गांव से बघेरवाल, खंडेला से खंडेलवाल, पद्मावती से पद्मावती पल्लीवाल इत्यादि नाम रूट हुए हैं । इस युग के हिन्दू समाज के प्रभाव से जैन समाज में भी यह जातिसंस्था अति नियमित और कठोर हुई । खानपान, विवाहसंबन्ध, व्यवसाय और ऊँच नीच की कल्पना इन चारों बातों में जाति का ही निर्णायक महत्त्व होता था और पहिष्कार के शस्त्र से वह बराबर कायम रखा गया । अव इन चारों में सिर्फ विवाहसंबन्ध पर ही जाति का प्रभाव है और वह भी कई जगह ढीला पड चुका है ।
साधुपद पर प्रतिष्ठित होने के नाते भट्टारक जातिभेद से ऊपर होते थे । फिर भी विरुदावलियों में उन की जाति का अनेक बार उल्लेख हुआ है । जाति संस्था के व्यापक प्रभाव का ही यह परिणाम है । इसी प्रकार यद्यपि भट्टारकों के शिष्यवर्ग में सम्मिलित होने के लिए किसी विशिष्ट जाति का होना आवश्यक नही था तथापि बहुतायत से एक भट्टारक पीट के साथ किसी एक ही विशिष्ट जाति का संबन्ध रहता था। बलात्कार गग की सूरत शाखा से हुमड जाति, अटेर शास्था से लमेचू जाति, जेरहट शाखा से परवार जाति तथा दिल्ली जयपुर शाखा से
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प्रस्तावना
खंडेलवाल जाति का विशेष सम्बन्ध पाया जाता है। इसी प्रकार काष्ठासंघ के माथुर गच्छ के अधिकांश अनुयायी अगरवाल जाति के, नन्दीतट गच्छ के अनुयायी हमह जाति के और लाडवागड गच्छ के अनुयायी बघेरवाल जाति के थे ।
अनेक जातियों में भाटों द्वारा जाति के सब बरानों का वृत्तान्त संग्रहित करने की प्रथा थी। ऐसे वृत्तान्तों में अक्सर किसी प्राचीन आचार्य के द्वारा उस जाति की स्थापना होने की कहानी मिलती है । नन्दीतट गच्छ के प्रकरण से सात होगा कि नरसिंहपुरा जाति की स्थापना का श्रेय रामसेन को दिया जाता था तथा भट्टपुरा जाति उन के शिष्य नेमिसेन द्वारा स्थापित मानी जाती थी। ऐतिहासिक काल में भी सूरत के भ. देवेन्द्रकीर्ति (प्रथम) को रानाकर जाति का संस्थापक कहा गया है । बघेरवाल जाति में मूलसंघ के आचार्य रामसेन द्वाग और काष्ठ.संघ के आचार्य लोहद्धारा धर्म की स्थापना हुई थी ऐसी कथा मिलती है। कई स्थानों पर जैनेतर समाजों में धर्मोपदेश दे कर नई जातियों की स्थापना की गई इसी का यह उदाहरण कहा जाता है । इतिहाससिद्ध न होने पर भी इन कथाओं को भावना की दृष्टि से कुछ महत्त्व अवश्य है ।
प्रत्येक जाति में नियत संख्या के कुछ गोत्र थे । मूर्तिलेख आदि में बहुधा इन का उल्लेख हुआ है। बघेरवाल जाति के पच्चीस गोत्र काष्ठासंघ के और सत्ताईस गोत्र मूलसंघ के अनुयायी थे । नागौर शाखा के भट्टारक बहुधा खंडेलवाल जाति के विभिन्न गोत्रों से लिए गए थे। लमेचू , परवार, हुमड आदि जातियों में भी गोत्रों के उल्लेख मिलते हैं। हूमड जाति में लघुशात्रा और वृद्धशाखा ऐसे दो उपभेद थे । इन्हें ही दस्सा और बीसा हमड कहते हैं। इसी प्रकार परवार जाति में अठसखे, चौसखे आदि भेद थे । ये भेद विवाह के समय कितने गोत्रों का विचार किया जाय इस पर आधारित थे। श्रीमार, ओसवाल आदि कुछ जातियां श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही है। किन्तु इन के भी कुछ उल्लेख दिगम्बर भट्टारकों द्वारा प्रतिष्ठित मूर्तियों के लेखों में मिलते हैं।
९. कार्य-तीर्थयात्रा और व्यवस्था तीर्थक्षेत्रों की यात्रा और व्यवस्था ये मध्ययुगीन जैन समाज के धार्मिक जीवन के प्रमुख अंग थे। तीर्थक्षेत्रों के दो प्रकार किये जाते हैं। जहां किसी. तीर्थकर या मुनि को निर्वाण प्राप्त हुआ हो उसे सिद्धक्षेत्र कहते हैं । जहां किसी व्यक्ति, मूर्ति, या चमत्कार के कारण क्षेत्र स्थापित हुआ हो उसे अतिशयक्षेत्र
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भट्टारक संप्रदाय
कहते हैं । सिद्धक्षेत्रों में पश्चिम में गिरनार और शत्रुजय विशेष प्रसिद्ध थे । दक्षिण में गजपंथ और मांगीतुंगी प्रसिद्ध थे । पूर्व में सम्मेदशिखर, चम्पापुरी
और पावापुरी ये सर्वमान्य सिद्धक्षेत्र थे । मध्य भारत में सोनागिरि और चूलगिरि ( बडवानी ) को कुछ महत्त्व था । अतिशयक्षेत्रों में सुदूर दक्षिण में श्रवणबेलगोल की गोमटेश्वर की महामूर्ति सब से अधिक प्रसिद्ध थी। राजस्थान में धूलिया के केशरियानाथजी की कीर्ति सर्वाधिक थी। हैद्राबाद राज्य के माणिक्यस्वामी भी काफी लोकप्रिय थे।
कारंजा के सेनगण के पदाधीशों में भ. जिनसेन और नरेन्द्रसेन ने लम्बी यात्राएं की। वहीं के बलात्कार गण के पदाधीश देवेन्द्रकीर्ति ( तृतीय ) ने पश्चिमी क्षेत्रों की छह यात्राएं की। ईडर शाखा के भ, सकलकीर्ति (प्रथम) और भ. पद्मनन्दि की शत्रुजय यात्राएं स्मरणीय रहीं । भानपुर शाखा के भ. रत्न कीर्ति के शिष्यों ने दक्षिण की यात्रा की । सूरत शाखा के भ. विद्यानन्दि, उन के शिष्य श्रुतसागरसूरि और भ. इन्द्रभूषण ने विस्तृत यात्राओं का नेतृत्व किया। नन्दीतट गच्छ के भ. चन्द्रकीर्ति और भ. इन्द्रभूषण ने दक्षिण की विस्तृत यात्राएं की। इन के अतिरिक्त छोटी मोटी अनेक यात्राओं के उल्लेख मिलते हैं जो भौगोलिक नाम सूची में पूरी तरह संकलित किये गए हैं। परस्परसम्बंध के निरूपण में कुछ तीर्थयात्राओं पर प्रस्तावना के अगले विभागों में और विचार हुआ है।
नन्दीतट गच्छ के ब्रह्म ज्ञानसागर ने अपने समय के तीर्थक्षेत्रों का वर्णन स्फुट कवित्तों में किया है। इस में सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्र मिला कर ७८ क्षेत्रों का उल्लेख हुआ है । इस का सारांश अन्यत्र प्रकाशित हो चुका है। इसी प्रकार जयसागर की तीर्थजयमाला, श्रुतसागर की रवित्रत कथा तथा षट्प्राभूतटीका और छत्रसेन की पार्श्वनाथपूजा में भी अनेक तीर्थक्षेत्रों के उल्लेख हैं। विस्तार भय से ये सब मूल ग्रन्थ में समाविष्ट नही किए जा सके । तीर्थक्षेत्रों के इतिहास की दृष्टि से इन का अपना महत्त्व है।
महावीरजी क्षेत्र की व्यवस्था जयपुर शाखा के भट्टारकों द्वारा, सोनागिरि की वहीं के भट्टारकों द्वारा तथा केशरियाजी क्षेत्रकी व्यवस्था काष्ठासंघ के भटारकों द्वारा होती थी। इस दृष्टिसे विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं हुए हैं किन्तु होने की संभावना अवश्य है।
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प्रस्तावना
१०. कार्य- चमत्कार मन्त्र तन्त्रों की साधना द्वारा किसी देवी या देव को प्रसन्न कर लेना भट्टारकों का विशेष कार्य माना जाता था। ऐहिक दृष्टि से मुक्त होने के कारण और श्रावकों से कम सम्बन्ध होने के कारण मुनियों को मन्त्रसाधना करने का निषेध था। भट्टारकों का स्थान समाज के शासक के रूप में होने से उन के लिए मन्त्रसाधना इष्ट ही समझी जाती थी। सूरत शाखा के भ, मल्लिभूषण ने पद्मावती देवी की
आराधना की थी, तथा लाडयागड गच्छ के भ. महेन्द्रसेन ने क्षेत्रपाल को सम्बोधित किया था, ऐसे उल्लेख प्राप्त हुए हैं।
___ मन्त्रसाधना द्वारा भट्टारकों ने जो चमत्कार किये उन के कुछ उल्लेख प्राप्त हुए हैं। इन में पालकी का आकाश गमन मुख्य है। भ. सोमकीर्ति ने पावागढ़ में और भ. मलयकीर्ति ने आंतरी में यह चमत्कार किया था। मूरत के अन्तिम भट्टारकों के विषय में भी ऐसी ही अनुश्रुति प्राप्त हुई है। सरस्वती की पाषाण । मूर्ति के द्वारा दिगम्बर सम्प्रदाय का प्राचीनत्व सिद्ध किया गया यह भी चमत्कारों का अच्छा उदाहरण है। सामान्यतः यह चमत्कार आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा किया गया ऐसा मानते हैं, किन्तु कुछ विद्वानों के भत से यह चमत्कार उत्तर शाखा के भ. पद्मनंदि द्वारा किया गया था । कारंजा शाखा के भ. पद्मनंदि की मृत्यु मुक्तागिरि क्षेत्र पर किसी चमत्कार के कारण हुई ऐसी लोकोक्ति है। कारंजा के भ. देवेन्द्रकीर्ति (उपान्त्य) ने भातकुली के प्रतिष्ठा महोत्सव के अवसर पर लगी हुई आग मन्त्रित जल द्वारा शान्त की ऐसी भी अनुश्रुति है।
बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में चमत्कारों का कोई महत्त्व नहीं रहा है। किन्तु मध्ययुग की सामान्य लोगों की भावनाओं को देखते हुए उसे धर्म के क्षेत्र में जो स्थान मिला वह स्वाभाविक ही प्रतीत होता है।
११. कार्य-कलाकौशल्य का संरक्षण मध्ययुगीन समाज के जीवन में धर्म को जो महत्त्वपूर्ण स्थान था उस के कारण अन्यान्य अनेक क्षेत्रों का धर्म से सम्बन्ध स्थापित हो गया था। धर्म के नेता के नाते भट्टारकों ने विविध कलाओं को समय समय पर प्रोत्साहन दिया यह इसी का उदाहरण है। संगीत, शिल्प, चित्र, नृत्य आदि कलाओं के विषय में इस ग्रन्थ में अनेक उल्लेख प्राप्त हुए हैं।
पूजाप्रतिष्ठा भट्टारकों का प्रमुख कार्य था और इस में संगीत का महत्त्वपूर्ण स्थान था। इस युग के पूजापाठों में गेवता विशेष रूप से है इस का निर्देश पहले
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भट्टारक संप्रदाय
किया जा चुका है। प्रतिष्ठा उत्सव के समय अक्सर दूर दूर से भजन या कीर्तन के लिए गायक बुलाए जाते थे। इस के अलावा अन्य समय भी हफ्ते में एकबार मन्दिरों में सामुदायिक भजन करने की प्रथा थी। भजनों के लिए भट्टारकों द्वारा रने गए कई पद उपलब्ध होते हैं।
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मूर्ति यन्त्र और मन्दिरों की निर्मिति से भट्टारकों द्वारा शिल्पकला संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान मिला है । कई स्थानों पर मन्दिरों में पाषाण या लकडी के स्तम्भों या छतों पर जिनेन्द्र जन्माभिषेक, सम्मेदशिखर आदि तीर्थक्षेत्र और अन्यान्य कथाओं की प्रतिकृतियां प्राप्त होती हैं। सूरत के गोपीपुरा मन्दिर की एक मेरुमूर्ति पर चार भङ्कारकों की मूर्तियां निर्मित हैं। जिन्तूर के निकट नेमगिरी पर नेमिनाथ की विशाल मूर्ति के पादपीठ पर उस क्षेत्र के संस्थापक वीर संघपति और उनके कुटुंबियों की सुंदर मूर्तियां उत्कीर्ण हैं । इसी प्रकार अनेक स्थानों पर मन्दिरों के सामने विशाल मानस्तम्भों का निर्माण हुआ है जिन पर समवसरणादि विविध दृश्य अंकित मिलते हैं। भट्टारकों के समाधिस्थानों पर निर्माण किये गए स्मारक भी कई स्थानों पर दर्शनीय बने हैं ।
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हस्तलिखितों की प्रतिमां कराते वक्त कई भट्टारकों ने अपने चित्रकलाप्रेम का परिचय दिया है । जिनसागर विरचित सुगन्धदशमी कथा की एक प्रति ७३ चित्रों से विभूषित है जो नागपुर के सेनगणमन्दिर में उपलब्ध हुई है । अंजनगांव के बलात्कारगण मन्दिर में चौवीस तीर्थकरों के शास्त्रोक्त आसन, यक्ष, यश्चिणियाँ, वर्ण आदि से युक्त सुन्दर चित्र प्राप्त हुए हैं। नागपुर के त्रैलोक्यदीपक नामक हस्तलिखित में बड़े प्रमाण पर मानचित्रों का अंकन हुआ है । काष्ठासंघ माथुरगच्छ के भ. क्षेमकीर्ति के उपदेश से वैराट नगर के जिनमन्दिर को विविध चित्रों से अलंकृत किया गया था। कई सुन्दर प्रतियों का लेखन सुवर्णाक्षरों द्वारा हुआ है । पूजा के लिए जो मण्डल बनाये जाते थे उन में भी कई बार चित्रकला के अच्छे नमूने प्राप्त होते हैं ।
मध्ययुग में अन्य कलाओं की अपेक्षा नृत्य कला कुछ हीन लोगों की कला मानी जाती थी । फिर भी विविध धार्मिक उत्सवों के अवसर पर परियों के खेल को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था। खास कर विजयादशमी और पद्मावती की रथयात्रा के अवसर पर नियमपूर्वक इस का प्रयोग होता था ।
इन सब कलाओं के केन्द्रित होने के कारण ही मध्ययुग में मन्दिरों को समाज जीवन के केन्द्रों का स्थान मिल सका । इस से इन कलाओं का अस्तित्व
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बना रहा और साथ ही उन में गम्भीरता और पावित्र्य की भावना भी दृढ हो । सकी। इसी लिए बाल और वृद्ध, स्त्री और पुरुष सभी प्रकार के व्यक्ति मन्दिरों की ओर आकर्षित हो सके । जैन समाज का अन्य समाजों से सौहार्द स्थापित करने में भी इन कलाओं का विशेष महत्त्व रहा ।।
१२. अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्ध सेन संघ, काष्ठासंघ और बलात्कारगग की परम्पराओं के आरंभ काल में जैन धर्म के प्रतिस्पर्धी वैदिक और बौद्ध ये दो धर्म प्रचलित थे। इस लिए बौद्ध दर्शन की अनेक मान्यताओं के खंडन का प्रयास जिनसेन, गुणभद्र आदि आचार्यों के ग्रन्थों में दिखाई देता है। किन्तु भट्टारक परम्पराएं दृढमूल हुई उस समय तक बौद्ध धर्म भारतवर्ष से प्रायः पूरी तरह निर्वासित हो चुका था। इस लिए भट्टारक पीठों से बौद्ध सम्प्रदाय के सम्बन्धों का प्रश्न ही नहीं उठता। अपवाद रूप से नन्दीतटगच्छ के भ. विजयकीर्ति द्वारा वसुधारा नामक बौद्ध तन्त्र विषयक रचना की एक प्रतिलिपि की गई थी जो हाल में ही उपलब्ध हुई है । पहावली आदि में कहीं कहीं बौद्धों के पराजय के जो उल्लेख हैं उन्हें प्रत्यक्ष आधार न होने से पुरानी परंपरा का अनुकरण मात्र समझना चाहिये । चौद्ध ग्रन्थों के अध्ययन या अध्यापन की प्रथा भी भट्टारक सम्प्रदाय में बिलकुल नहीं थी जो श्वेताम्बरों में कुछ हद तक कायम रह सकी।
इन परंपराओं के आरंभ काल में वैदिक सम्प्रदायों का अद्भुत प्रभाव जैन समाज पर पडा। इस से जैन समाज का ढांचा बिलकुल ही बदल गया। एक सवर्ण हिन्दू की तरह जैन भी जातिसिद्ध उच्चता पर विश्वास करने लगे। सामाजिक और वैधानिक मामलों में भी जनों ने प्रायः पूरी तरह वैदिकों का अनुकरण किया। आरंभसे मटसंस्था कैसे उत्पन्न हुई इसका अभी पूरा संशोधन नहीं हुआ है, तो भी भट्टारक सम्प्रदाय के विकास पर शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों का परिणाम स्पष्ट दिखाई देता है। शायद उस समयकी मांग ऐसी ही कुछ होगी। भट्टारक पीठों में भी कई दृष्टियों से वैदिक पद्धतियों का प्रवेश हुआ। पद्मावती आदि देवियों को काली, दुर्गा या लक्ष्मी का ही रूपान्तर माना जाने लगा। अध्यात्मशास्त्रों के व्याख्यान में आत्मा के समान ही ब्रा का निरूपण होने लगा। कथा पुराणों में भी कई वैदिक कथाओं का समावेश किया गया। भट्टारकों के लिए शिक्षक या शिष्यों के रूप में कई बार वैदिक पण्डितों की योजना होती थी। इस से यह प्रभाव व्यापक हो सका । द्विज विश्वनाथ, भूपति प्राज्ञ मिश्र, शैव माधव
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भट्टारक संप्रदाय
ये भट्टारकों के प्रभाव क्षेत्र के घटक बन सके ।
अप्रत्यक्ष रूप से यद्यपि इस प्रकार वैदिक सम्प्रदाय से समझौता किया गया तथापि प्रत्यक्ष रूप से अनेक बार उस से संघर्ष भी हुआ। विभिन्न वादविवादों में श्रुतसागरसूरि ने नीलकण्ठ भट्ट का, प्रतापकीर्ति ने केदारभट्ट का, विजयसेन ने चन्द्रतपस्वी का, चन्द्रकीर्ति ने कृष्णभट्ट का और धारसेन ने धनेश्वरभट्ट का पराजय किया था। ग्रन्थों में भी न्याय, वैशेषिक, सांख्य, वेदान्त आदि वैदिक दर्शनों पर खंडनात्मक लेखन किया गया ।
बारहवीं सदी से मुस्लिम राजसत्ता भारत में दृढमूल हुई। नम मुनियों के स्थान पर भट्टारकों की स्थापना होने में इस परिस्थिति का बडा हाथ था। आगे चल कर भट्टारकों ने अनेक मुस्लिम शासकों से अच्छे सम्बन्ध स्थापित कर लिए । मुस्लिमों द्वारा इस युग में जैनों पर कोई विशेष अन्याय हुआ हो ऐसा ज्ञात नहीं होता। किन्तु मुस्लिम समाज या इस्लाम धर्म से जैनों का विशेष सम्बन्ध नहीं आता था। अपवाद रूप से भ. राजकीर्ति के शिष्य पं. हाजी अवश्य मुस्लिम प्रतीत होते हैं।
भट्टारको से श्वेताम्बर सम्प्रदाय के सम्बन्ध बहुत अच्छे नहीं थे। शायद इस लिए कि इन दोनों के बाह्य रूप में कोई अन्तर नहीं रहा था, वे अपना विरोध अन्य मार्गों से प्रकट करते रहते थे। भ. श्रीभूषण ने एक विवाद में श्वेतांबरों का एक मन्दिर गिरा कर उन्हें निर्वासित कराया था। स्थानकवासी सम्प्रदाय के मूर्तिपूजा विरोध के लिए श्रुतसागर सूरि ने जगह जगह उन की निन्दा की है। स्थानकवासी साधु उच्च नीच का विचार न करते हुए सब लोगों से आहार ग्रहण करते थे इस पर भी उन्हें काफी गुस्सा आता था। केवलियों का आहार, स्त्री मुक्ति
और भ. महावीर का गर्भान्तरण इन श्वेताम्बर मान्यताओं के खण्डन के लिए भ. शुभचन्द्र ने संशयिवदनविदारण नामक ग्रन्थ लिखा। अपवाद रूप से कारंजा के भट्टारकों के विषय में श्वेताम्बर साधु शीलविजय ने प्रशंसात्मक उद्गार व्यक्त किए थे। किन्तु ऐसे प्रसंग बहुत ही कम बार आते थे। श्वेताम्बर और दिगम्बर सम्प्रदाय के इस विरोध का एक प्रमुख कारण तीर्थक्षेत्रों का अधिकार था। माणिक्यस्वामी, केशरियाजी, चंदवाड, जीरापल्ली, आदि अतिशय क्षेत्र और प्रायः
* यह मतप्रणाली प्राप्त ऐतिहासिक आधारोंकी सीमाओमें समझ लेनी चाहिए। यह अभी विचाराधीन है, और इस विषयमें मतभेद भी है।
-ग्रंथमाला संपादक
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प्रस्तावना
सभी सिद्धक्षेत्र दोनों सम्प्रदायों द्वारा पूज्य थे इस लिए उन पर अधिकार पाने के लिए प्रायः झगडे होते रहते थे।
_सत्रहवीं शताब्दी में राजस्थानके आसपास जैन सम्प्रदाय में शुद्धीकरणवादी तेरापंथ की स्थापना हुई। नाटक समयसार आदि के कर्ता पण्डित बनारसीदास इस सम्प्रदाय के नेता थे । पूजा पद्धति को सादी करना, मूल अध्यात्मशास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन बढाना तथा शास्त्रोक्त आचरण न करनेवाले भट्टारकों को पूज्य नही मानना ये इस सम्प्रदाय के प्रमुख लक्षण थे । भट्टारक सम्प्रदाय में शासनदेवताओं की पूजा को एक प्रमुख स्थान मिला था उसे भी तेरापंथ ने नष्ट करना चाहा । स्वभावतः भट्टारकों द्वारा इस पंथ का विरोध किया गया। अपवाद रूप से कारंजा के भ. देवेन्द्रकीर्ति ( तृतीय ) के सम्पर्क में आ कर आगरा निवासी जीवनदास ने तेरापंथ का अपना अभिमान छोड दिया ऐसा उल्लेख मिलता है।
___दक्षिण में श्रवणबेलगोल, कारकल, हुंक्च और मुडबिद्री इन स्थानों पर देशीय गग आदि परम्पराओं के भट्टारक पीठ थे । ये दिगम्बर सम्प्रदाय के ही होने से इन के सम्बन्ध उत्तरीय भट्टारकों से प्रायः अच्छे रहते थे। पण्डितदेव, नागचन्द्रसूरि, श्रुतमुनि आदि दाक्षिणात्य विद्वान् भ. जिनचन्द्र, ज्ञानभूषण, श्रुतसागरसूरि आदि से सम्बन्ध स्थापित करते थे। कारंजा के भ. धर्मचन्द्र श्रवण - बेलगोल पहुंचे तब भ. चारुकीर्ति से उन की मुलाकात हुई थी। नन्दीतटगच्छ के भ. चन्द्रकीर्ति ने नरसिंहपुर में एक विवाद में विजय पाई उस समय भ. चारुकीर्ति उन्हें मिलने आए थे।
१३. परस्पर सम्बन्ध भट्टारक सम्प्रदायों के परस्पर सम्बन्ध प्रायः व्यक्तिगत मनोवृत्ति पर निर्भर रहते थे । इसी लिए न तो उन में कोई स्थायी वैर दिखाई देता है, न स्थायी प्रेम । सहकार्य या झगडे के लिए कोई तत्त्व आधारभूत नहीं था। इसी लिए समय समय पर विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हो सके।
सेन गण के प्राचीन आचार्य वीरसेन और जिनसेन अपनी प्रतिभा और विद्वत्ता के कारण पुन्नाट संघ के आचार्य जिनसेन द्वारा सन्मानित हुए थे। उन ने जिन आचार्यों का पूज्य बुद्धि से स्मरण किया है उन में भी सम्प्रदायभेद की कोई झलक नहीं आती । आचार्य कुन्दकुन्द का अनुल्लेख अवश्य कुछ खटकता है।
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भट्टारक संप्रदाय
इसी परंपरा के पल्लपण्डित ने आचार्य शाकटायन पाल्यकीर्ति की व्याकरणकुशलता का उल्लेख किया है । शाकटायन यापनीय संघ के थे यह सुप्रसिद्ध है।
सेनगण की उत्तरकालीन परम्परा में भ. वीरसेन (प्रथम ) ने नन्दीतटगच्छ के भ. सोमकीर्ति के साथ एक प्रतिष्ठा महोत्सव में भाग लिया था। इन के बाद भ. सोमसेन (चतुर्थ ) ने धर्मरसिक की प्रशस्ति में महेन्द्रकीर्ति का गुरु रूप में उल्लेख किया है। इन के शिष्य भ. जिनसेन पूर्वाश्रम में ईडर शाखा के भ. पद्मनन्दि के शिष्य रह चुके थे। इस परम्परा के अन्तिम भ. वीरसेनस्वामी का पट्टाभिषेक कारंजा के ही बलात्कारगण के पट्टाधीश भ. देवेन्द्रकीर्ति के हाथों हुआ था। इन के बाद भ. रत्नकीर्ति और भ. देवेन्द्रकीर्ति ये दो और भट्टारक बलात्कारगण की कारंजा शाखा में हुए । वीरसेन स्वामी के इन के व्यक्तिगत सम्बन्ध खास विरोध के नहीं थे । किन्तु इन के शिष्य वर्ग में परस्पर वैर की भावना बहुत तीव्र हो चुकी थी। अब नए युग के प्रभावसे यह विरोध लुप्तप्राय हो चुका है।
लातूर और कारंजा ये बलात्कारगण की एक ही परंपरा की दो शाखाएं होने से आरंभ में इन के सम्बन्ध काफी अच्छे थे । किन्तु बाद में लातूर के भ, नागेन्द्रकीर्ति का कारंजा के भ. देवेन्द्रकीर्ति ( उपान्त्य) से एकबार अपने अधिकार क्षेत्र को ले कर कुछ विरोध भी हुआ था।
दिल्ली शाखा के भ. जिनचन्द्र का प्रभाव व्यापक था। सूरत के भ. विद्यानन्दि, ईडर के भ. ज्ञानभूषण तथा अटेर के भ. सिंहकीर्ति और नागौर के भ, रत्नकीर्ति इन के प्रभावक्षेत्र में सम्मिलित होते थे। इसी शाखा के भ, चन्द्रकीर्ति का उल्लेख नागौर के भ. नेमिचन्द्र द्वारा लिखाई गई एक ग्रन्थप्रशस्ति में मिलता है। .. ईडर के भ. सकलकीर्ति ने ज्ञानकीर्ति, धर्मकीर्ति और भुवनकीर्ति इन को भट्टारक पद पर प्रतिष्ठित किया था। इन के शिष्य ब्रह्म जिनदास के अनेक शिष्य थे । इन में ब्रह्म शान्तिदास ने सकलकीर्ति की परम्परा के समान ही सूरत की भ. लक्ष्मीचन्द्र की परम्परा से भी सम्बन्ध स्थापित किए थे । अपने ग्रन्थों के कारण अन्य अनेक सम्प्रदायों द्वारा सकलकीर्ति सन्मानित हुए थे। ईडर शाखा के ही भ. शुभचन्द्र ने सूरत के लक्ष्मीचन्द्र और वीरचन्द्र का स्मरण किया है।
__ भानपुर शाखा के भ. गुणचन्द्र के गुरु भ. सिंहनन्दी का सूरत शास्त्रा के श्रुतसागरसूरि तथा ब्रह्म नेमिदत्त ने आदरपूर्वक स्मरण किया है । इसी शान्त्रा के भ, रत्न चन्द्र (प्रथम ) का पट्टाभिषेक हेमकीर्ति द्वारा हुआ था किन्तु उस समय
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बडी शाखा के ( सम्भवत: ईडर ) कुछ श्रावकों ने विघ्न उपस्थित करने की कोशिश की थी।
सूरत शाखा के भ. विद्यानन्दी ने काष्ठासंघीय श्रावकों के लिए भी मूर्तिप्रतिष्ठाएं कीं । इन के शिष्य श्रुतसागर सूरि के विविध सम्बन्धों का उल्लेख पहले हो चुका है। इन की परम्परा के भ. लक्ष्मीचन्द्र के शिष्यों में कारंजा के वीरसेन और विशालकीर्ति भट्टारक प्रमुख थे । इन के प्रशिष्य भ. ज्ञानभूषण के शिष्यों में भी काष्ठासंघ के भ. रत्नभूषण का समावेश होता था। सूरत के ही भ. वादिचन्द्र का नन्दीतटगच्छ के भ. श्रीभूषण के साथ एक बार वाद विवाद हुआ था।
जेरहट शाखा के श्रुतकीर्ति ने दिल्ली के भ. जिनचन्द्र के शिष्य विद्यानन्दि का स्मरण किया है। ... माधुर गच्छ की दो विभिन्न परम्पराओं से लाटीसंहिता और जम्बूस्वामीचरित के कर्ता पण्डित राजमल्ल एक ही समय सम्बद्ध थे। एक ही गच्छ की होने पर भी इन परम्पराओं में अन्य विशेष सम्बन्ध नहीं पाए जाते।
लाडवागड गच्छ के भ. पद्मसेन के शिष्य नरेन्द्रसेन ने आशाधर को संघबाह्य कर दिया था तब उन ने श्रेणिगच्छ का आश्रय लिया था। इन की परम्परा के मलयकीर्ति ने तरसुम्बा में मयूरपिच्छ धारण करनेवालों का पराजय किया था। त्रिभुवकीर्ति के बाद इस शाग्वा में कोई भट्टारक नहीं हुए इस लिए इस के अनुयायी नन्दीतट गच्छ के भट्टारकों द्वारा ही समस्त धार्मिक कार्य कराते थे।
नन्दीतट गच्छ के भ. श्रीभूपण और चन्द्रकीर्ति का मूलसंघ के प्रति बहुत ही विकृत दृष्टिकोण था । मयूरपिच्छ की उन ने खूब निन्दा की है। किन्तु इन्ही के परम्परा के इन्द्रभूषण के समय फिर से सेनगण और बलात्कारगण के साथ अच्छे सम्बन्ध स्थापित हो गए थे।
१४. शासकों से सम्बन्ध ___इस युग में किसी राजाने प्रत्यक्ष रूप से जैन धर्म धारण किया हो ऐसा 'प्रतीत नहीं होता । अपवाद सिर्फ राष्ट कूट सम्राट अमोघवर्ष का हो सकता है ।
आदिपुराण आदि के कर्ता जिनसेन, गणितसारसंग्रह के कर्ता महावीर एवं शाकटायन व्याकरण के कर्ता पाल्यकीर्ति ने आप की बहुत प्रशंसा की है।
इंडर के राव भागजी के मन्त्री भोजराज जैनधर्मीय थे । इन के कुटुम्बीयों नं श्रुतसागर सूरि के साथ गजपन्थ और मांगीतुंगी तीर्थक्षेत्रों की यात्रा की थी।
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भट्टारक संप्रदाय
इसी प्रकार विजयनगर के मन्त्री इरुग दण्डनायक जैन थे। आप ने भ. धर्मभूषण के उपदेश से विजयनगर में कुन्थुनाथ का भव्य मन्दिर बनवाया था। जयपुर आदि राजस्थान के राज्यों में भी समय समय पर जैनधर्मीय मन्त्री हुए हैं।
जो राजा स्वयं जैन नहीं थे उन ने भी समय समय पर भहारकों की विद्वत्ता या मन्त्रप्रभाव से प्रभावित हो कर उन का सत्कार किया था। राजा भोज की सभा में लाडवागड गच्छ के भ. शान्तिषेण सस्कृत हुए थे। इसी गच्छ के भ. विजयसेन कनौज के राजा हरिश्चन्द्र द्वारा सन्मानित हुए थे। ईडर के राव रणमल ने भ. मलयकीर्ति का तथा कलबुर्गा के सुलतान फिरोजशाह ने भ. नरेन्द्रकीर्ति का सन्मान किया था। मालवा के सुलतान ग्यासुद्दीन द्वारा सूरत शाखा के भ. मल्लिभूषण का आदर किया गया। इसी शाखा के भ. लक्ष्मीचंद्र और ईडर के भ. ज्ञानभूषण ने कर्णाटक के देवराय, मल्लिराय, भैरवराय आदि कई स्थानीय शासकों से सन्मान पाया था। कारंजा शाखा के पूर्व रूप के भ. विशालकीर्ति दिल्ली के सुलतान सिकन्दर, विजयनगर के सम्राट विरूपाक्ष एवं आरग के दंडनायक देवप्प द्वारा सस्कृत हुए थे। इन्हीं के शिष्य विद्यानंद ने भी मल्लिराय आदि शासकों से सन्मान पाया था।
सेन गण, बलात्कार गण एवं पुन्नाट गण के प्राचीन समय के उल्लेख बहुधा दानपत्रों के रूप में प्राप्त हुए हैं। उत्तरकालीन चालुक्यों में राजा त्रिभुवनमल, रानी केतलदेवी, राजा त्रैलोक्यमल्ल आदि के दानपत्र उल्लेखनीय हैं। कच्छपघात वंश के राजा विक्रमसिंह ने भ. विजयकीर्ति को नवनिर्मित जिनमन्दिर के लिए भूमिदान दिया था। उत्तरकालीन भट्टारकों के विषय में भी ऐसे अनेक उल्लेख प्राप्त हो सकेंगे यद्यपि ऐसे प्रत्यक्ष उल्लेख अभी उपलब्ध नहीं हो सके हैं।
इन प्रत्यक्ष सम्बन्धों के अतिरिक्त ग्रन्थप्रशस्ति आदि में तत्कालीन राजाओं के अनेक उल्लेख मिलते हैं। ग्वालियर के तोमर वंशीय राजा वीरमदेव, डूंगरसिंह, कीर्तिसिंह एवं मानसिंह का कालनिर्णय माथुरगच्छ के भट्टारकों ने उन के जो उल्लेख किए हैं उन्हीं से हो सकता है। मुगल वंश के बाबर से लेकर महम्मदशाह तक प्रायः सभी सम्राटों के उल्लेख अन्यान्य ग्रन्थप्रशस्तियों में मिले हैं। हिन्दुओं को . भयभीत कर देने वाले औरंगजेब के समय भी जैन ग्रंथकर्ता अपना कार्य शान्तिपूर्वक जारी रख सके थे | इन उल्लेखों में सम्राट अकबर के विषय में लाटीसंहिता के... कर्ता पण्डित राजमल्ल ने लिखे हुए ७० श्लोक विशेष महत्त्व के हैं। इन में एक महाकाव्य के समान ही अकबर और उस की राजधानी आगरा का वर्णन किया है।
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प्रस्तावना
१५. उपसंहार
भट्टारक सम्प्रदाय का इतिहास अब तक कुछ उपेक्षित सा रहा है । इस ग्रन्थ में उस के एक भाग का उपलब्ध वृत्तान्त संगृहीत हुआ है । इस से यह स्पष्ट होता है कि इतिहास का यह भाग भी काफी महत्त्वपूर्ण है । इसी पद्धति से दिगम्बर सम्प्रदाय के मुडबिद्री, श्रवणबेलगुल, कारकल, हुंबच और कोल्हापुर के भट्टारक पीठों का वृत्तान्त तथा श्वेताम्बर सम्प्रदाय के बीकानेर, दिल्ली, लखनऊ आदि अनेक भट्टारक पीठों का वृत्तान्त संग्रहीत किया जाए तो जैन सम्प्रदाय का एक हजार वर्षों का इतिहास बहुत कुछ स्पष्ट और प्रामाणिक रूप ले सकेगा ।
२३
इस ग्रंथ में एक सीमित संख्या में ही साधनों का उपयोग हो सका है अभी अनेक भट्टारक पीठों के शास्त्रभांडार, अनेक मूर्तिलेख एवं शिलालेखों का अवलोकन कर के नई सामग्री प्रकाश में लाई जा सकती है। इसी प्रकार ऐसे कई मूर्तिलेख आदि साधन सन्दिग्धता के कारण इस ग्रन्थ में समाविष्ट नहीं किए हैं। अधिक साधन उपलब्ध होने पर इन की सन्दिग्धता भी दूर हो सकती है। इस तरह साधनों की मर्यादाओं के बावजूद इस ग्रन्थ में कोई ४०० भट्टारकों का, उन के १७५ शिष्यों का, ३०० ग्रन्थों का, ९० मन्दिरों का, ३१ जातियों का, १०० शासकों का तथा २०० स्थानों का उल्लेख हुआ है एवं उन का ऐतिहासिक मूल्य निर्धारित हुआ है । यदि सब साधनों का पूरा उपयोग किया जाए तो यह संख्या आसानी से दुगुनी हो सकती है।
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भट्टारक सम्प्रदाय के इतिहास में जैनसमाज की अवनति का ही इतिहास छिपा है । किन्तु उस में कई उज्ज्वल व्यक्तिमत्त्व हमारा ध्यान आकर्षित करने के लिए समर्थ हैं । भ. शुभचन्द्र और भ सकलकीर्ति जैसे ग्रन्थकर्ता और भ. जिनचन्द्र जैसे मूर्तिप्रतिष्ठापक आचार्यों की सर्वथा उपेक्षा की जाए तो जैन समाज का इतिहास अधूरा ही रहेगा । उन्नति का इतिहास प्रेरक शक्ति के रूप में उपयुक्त होता है । उसी प्रकार अवनति का इतिहास भी अनेक शिक्षाएं दे सकता है। भट्टारक सम्प्रदाय के इतिहास में जो संरक्षगशीलता दृष्टिगोचर होती है उस के परिणामों से सावधान हो कर यदि हम फिर एक बार विकासशील प्रवृत्ति को अपना सके तो जैन समाज फिर एक बार अपने प्राचीन गौरव को प्राप्त कर सकती है।
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१. सेनगण
लेखांक १ - पखंडागमटीका धवला
वीरसेन अजजणंदिसिस्सेणुज्जुवकम्मस्स चंदसेणस्स । तह णत्तुवेण पंचत्थूहण्णयभागुणा मुणिणा ॥ सिद्धतछंदजोइसवायरणपमाणसत्थणिवुणेण । भट्टारएण टीका लिहिएसा वीरसेणेण ॥ अठ्तीसम्हि सासिय विक्कमरायम्हि एसु संगरमो । पासे सुतेरसीए भावविलग्गे धवलपक्खे ।। जगतुंगदेवरज्जे रियम्हि कुंभम्हि राहुणा कोणे । सूरे तुलाए. संते गुरुम्हि कुलविल्लए होते ।। चावम्हि वरणिवुत्ते सिंघे सुक्कम्हि णेमिचंदम्हि । कत्तियमासे एसा टीका हु समाणिआ धवला ॥ . बोदणरायणरिंदे गरिंदचूडामणिम्हि मुंजते । सिद्धंतगंथमस्थिय गुरुप्पसाएण विगता सा ।।
( भाग १ प्रस्तावना पृ. ३६ ) लेखांक २ - कसायपाहुडटीका जयधवला जिनसेन
श्रीवीरसेन इत्यात्तभट्टारकपृथुप्रथः । पारदृश्वाधिविश्वानां साक्षादिवस केवली ।। यस्तप्तोद्दीप्तकिरणैभव्यांभोजानि बोधयन् । व्यद्योतिष्ट मुनीनेनः पंचस्तूपान्वयांबरे ॥ प्रशिष्यश्चंद्रसेनस्य यः शिष्योऽप्यार्यनंदिनाम् । कुलं गणं च संतानं स्वगुणैरुदजिज्वलत् ।। तस्य शिष्योऽभवच्छ्रीमान् जिनसेनः समिद्धधीः । -इति श्रीवीरसेनीया टीका सूत्रार्थदर्शिनी । वाटग्रामपुरे श्रीमद्गूर्जरार्यानुपालिते ।। फाल्गुने मासि पूर्वाह्ने दशम्यां शुक्लपक्षके । प्रवर्धमानपूजोरुनंदीश्वरमहोत्सवे ॥ अमोघवर्षराजेंद्रप्राज्यराज्यगुणोदया।
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२
लेखांक ३ - आदिपुराण
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भट्टारक संप्रदाय
निष्ठिता प्रचयं यायादाकल्पांतमनल्पिका || एकोनषष्टिसमधिकसप्तशताब्देषु शकनरेंद्रस्य । समतीतेषु समाप्ता जयधवला प्राभृतव्याख्या ||
लेखांक ४ – पार्श्वाभ्युदय
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अहं सुधर्मो जंब्वाख्यो निखिल श्रुतवारिणः । क्रमाकैवल्यमुत्पाद्य निर्वास्यामस्ततो वयम् ।। १३९ त्रयाणामस्मदादीनां कालः केवलिनामिह । द्वाषष्टिवर्षपिंडः स्याद् भगवन्निर्वृतेः परम् ॥ १४० ततो यथाक्रमं विष्णुर्नदिमित्रोऽपराजितः । गोवर्धनो भद्रबाहु रित्याचार्या महाधियः || १४१ चतुर्दशमहाविद्यास्थानानां पारगा इमे । पुराणं द्योतयिष्यति कार्त्स्न्येन शरदः शतम् ॥ १४२ विशाखप्रोष्ठिलाचा क्षत्रियो जयसाह्वयः । नागसेनश्च सिद्धार्थो धृतिषेणस्तथैव च ॥ १४३ विजयो बुद्धिमान् गंगदेवो धर्मादिशब्दतः । सेन दशपूर्वाधारकाः स्युर्यथाक्रमम् ॥ १४४ व्यशीतं शतमन्दानामेतेषां कालसंग्रहः । तदा च कृत्स्नमेवेदं पुराणं विस्तरिष्यते || १४५ ज्ञानविज्ञानसंपन्नं गुरुपर्वान्वियादिदं । प्रमाणं यच्च यावच्च यदा यच्च प्रकाशते || १५२ तदापीदमनुस्मर्तु प्रभविष्यति धीधनाः । जिनसेनाग्रगाः पूज्याः कवीनां परमेश्वराः ।। १५३
( भाग १ प्रस्तावना प्र. ६९ )
इति विरचितमेतत्काव्यमावेष्ट्र मेघं । बहुगुणमपदोपं कालिदासस्य काव्यं ॥
[२ -
पर्व ३, (स्याद्वाद ग्रंथमाला, इन्दौर १९१६ )
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-- ७
१. सेनगण
मलिनितपरकाव्यं तिष्ठतादाशशांकं । भुवनमवतु देवः सर्वदामोघवर्षः ॥ श्रीवीरसेनमुनिपादपयोजजंगः श्रीमानभूद्विनयसेनमुनिगरीयान् । तोदितेन जिनसेनमुनीश्वरेण काव्यं व्यधायि परिवेष्टितमेघदूतम।।
( प्रकाशक- नाथा रंगजी १९१०) लेखांक ५ - दर्शनसार
गुणभद्र सिरिवीरसेणसीसो जिणनेणो सयलसत्थविण्णाणी। सिरिपउमनंदिपच्छा चउसंघसमुद्धरणधीरो ॥ ३० तस्स य सीसो गुणत्रं गुणभदो दिव्यणाणपरिपुण्णो । पक्खुववासुटुमदी महातवो भावलिंगो य ।। ३१ तेण पुणो विय मिच्चु णाऊण मुणिस्स विणयसेणस्स । सिद्धतं घोसित्ता सयं गयं सग्गलोयस्स ॥ ३२
( हि. १३ पृ. २५७) लेखांक ६ - आत्मानुशासन
जिनसेनाचार्यपादस्मरणाधीनचेतसां । गुणभद्रभदंतानां कृतिरात्मानुशासनं ।। २६९
(प्रकाशक- ज्ञानचंद जैन, लाहौर १८९८ )
लेखांक ७ - आदिपुराण उत्तरखंड
निर्मितोऽस्य पुराणस्य सर्वसारो महात्मभिः । तच्छेषे यतमानानां प्रासादस्येव नः श्रमः ॥ ११ अर्धे गुरुभिरेवास्य पूर्व निष्पादितं परैः । परं निष्पाद्यमानं सच्छंदोवन्नातिसुंदरं ॥ १३ पुराणं मार्गमासाद्य जिनसेनानुगा ध्रुवम । भवाब्धेः पारमिच्छंति पुराणस्य किमुच्यते ॥ ४०
(पर्व ४३, स्याद्वाद ग्रंथमाला, इंदौर, १९१६ )
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भट्टारक संप्रदाय
लेखांक ८ - उत्तरपुराण प्रशस्ति
लोकसेन श्रीमूलसंघवाशिौ मणीनामिव सार्चिषाम् । महापुरुषरत्नानां स्थानं सेनान्वयोऽजनि ॥२ तत्र वित्रासिताशेषप्रवादिमदवारणः । वीरसेनाग्रणी:रसेनभट्टारको बभौ ॥ ३ सिद्धिभूपद्धतिर्यस्य टीकां संवीक्ष्य भिक्षुभिः । टीक्यते हेलयान्येषां विषमापि पदे पदे ॥ ६ अभवदिव हिमाद्रेर्देवसिंधुप्रवाहो | ध्वनिरिव सकलज्ञात्सर्वशास्त्रैकमूर्तिः ॥ उदयगिरितटाद्वा भास्करो भासमानो मुनिरनु जिनसेनो वीरसेनादमुष्मात् ।। ८ यस्य प्रांशुनखांशुजालविसरद्वारांतराविर्भवत्पादाभोजरजःपिशंगमुकुटप्रत्यग्ररत्नातिः ॥ संस्मर्ता स्वममोघवर्षनृपतिः पूतोहमद्येत्यलं स श्रीमान् जिनसेनपूज्यभगवत्पादो जगन्मंगलं ॥ ९ दशरथगुरुरासीत्तस्य धीमान् सधर्मा शशिन इव दिनेशो विश्वलोकैकचक्षुः ॥ निखिलमिदमदीपि व्यापि तद्वाङ्मयूखैः प्रकटितनिजभावं निर्मलैर्धर्मसारैः ॥ १२ प्रत्यक्षीकृतलक्ष्यलक्षणविधिविद्योपविद्यातिगः सिद्धांताब्ध्यवसानयानजनितप्रागल्भ्यवृद्धेद्धधीः ॥ नानानूननयप्रमाणनिपुणो गण्यैर्गुणैर्भूषितः शिष्यः श्रीगुणभद्रसूरिरनयोरासीजगद्विश्रुतः ।। १४ कविपरमेश्वरनिगदितगद्यकथामातृकं पुरोश्चरितं । सकलच्छंदोलंकृतिलक्ष्यं सूक्ष्मार्थ गूढपदरचनं ।। १५ जिनसेनभगवतोक्तं मिथ्याकविदर्पदलनमतिललितं । सिद्धांतोपनिबंधनकर्ता भर्ना चिराद्विनायासात् ॥ १९ अतिविस्तरभीरुत्वादवशिष्ट संगृहीतममलधिया। गुणभद्रसूरिणेदं प्रहीणकालानुरोधेन ॥ २०
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१. सेनगण
विदितसकलशास्रो लोकसेनो मुनीशः कविरविकलवृत्तस्तस्य शिष्येषु.मुख्यः । सततमिह पुराणे प्राप्य साहाय्यमुच्चैः गुरुविनयमनैषीन्मान्यतां स्वस्य सद्भिः ॥ २८ अकालवर्षभूपाले पालयत्यखिलामिलां । तस्मिन्विध्वस्तनिःशेषद्विषि वीध्रयशोजुषि ॥ ३१ पद्मालयमुकुलकुलप्रविकासकसत्प्रतापततमहसि । श्रीमति लोकादित्ये प्रध्वस्तप्रथितशत्रुसंतमसे ॥ ३२ चेल्लपताके चेल्लध्वजानुजे चेल्लकेतनतनूजे । जैनेंद्रधर्मवृद्धिविधायिनि विधुवीध्रयशसि ॥ ३३ वनवासदेशमखिलं मुंजति निष्कंटकं सुखं सुचिरं । तत्पिनिजनामकृते बंकापुरे पुरेष्वधिके ॥ ३४ शकनृपकालाभ्यंतरविंशत्यधिकाष्टशतमिताद्वांते । मंगलमहार्थकारिणि पिंगलनामनि समस्तजनसुखदे ॥ ३५ श्रीपंचम्यां बुधार्द्रायुजि दिवसवरे मंत्रिवारे बुधांशे । पूर्वायां सिंहलग्ने धनुपि धरणिजे वृश्चिकार्की तुलायां ।। सूर्ये शुक्रे कुलीरे गवि च सुरगुरौ निष्ठिते भव्यवर्यैः ।। प्राप्तेश्यं सर्वसारं जगति विजयते पुण्यमेतत्पुराणम् ।। ३६
( स्याबाद ग्रंथमाला, इंदौर १९१८)
लेखांक ९ -- मुळगुंद शिलालेख
कनकसेन श्रीमते महते शान्त्ये श्रेयसे विश्ववेदिने । नमश्चंद्रप्रभाख्याय जैनशासनमृद्वये ॥१ शकनृपकालेऽष्टशते चतुरुत्तरविंशदुत्तरे संप्रगते । दुंदुभिनामनि वर्षे प्रवर्तमाने जनानुरागोत्कर्षे ॥२ श्रीकृष्णवल्लभनृपे पाति महीं विततयशसि सकलां तस्मात् । पालयति महाश्रीमति विनयांबुधिनानि धवळविषयं सर्वे ॥ ३ तस्मिन् मुळगुंदाख्ये नगरे वरवैश्यजातिजातः ख्यातः। चंद्रार्यसत्पुत्रश्चिकार्योऽचीकर जिनोन्नतभवनं ॥ ४
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भट्टारक संप्रदाय
[१० ---
तत्तनयो नागार्यो नाम्ना तस्यानुजो नयागमकुशलः । अरसार्यो दानादिप्रोद्युक्तसम्यक्त्वसक्तचित्तव्यक्तः ।। ५ तेन दर्शनाभरणभूषितेन पितृकारितजिनालयाय
चंदिकवाटे शे (से) नान्वयानुगाय नरनरपतियतिपतिपूज्यपादकुमारशे (से) नाचार्य मी (मे) ख वीरसेनमुनिपतिशिष्य कनकशे (से) न सूरिमुख्याय कंदवर्ममानक्षेत्रे ए. ... . 'बम्माना हस्तात् सहस्रवल्लीमात्रक्षेत्रं द्रव्यसिंदुना गृहीत्वा नगरमहाजनविदेशे दत्तं ।।
(जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ पृ. १५८ ) लेखांक १० - अंगडि शिलालेख
वज्रपाणि स्वस्ति सकवर्ष ९२४ नेय जयसंवत्सरद चैत्रमासद सुद्ध दशमी.... वार पुष्यनक्षत्रदंदु विनयादित्यपोयसळन राज्यं प्रवर्तिसे सूरस्तगणद श्रीवत्रपाणिपंडितदेवर ... गंतियरप्प जाकियव्वे गंतियर सोसवूरोळे नाडे पोपणद दिसेयनरसर्गे बोक्कागं पोन्नरे कोट्ट मण्णरेकोंडु सोसवूर बसदिगे बिट्टर निसिदिगे यडे बळळेय .... एरडु हळद मेगण गण्ण बाल्कु मकरजिनालयके विट्टर ॥
( उपर्युक्त, पृ. २२७) लेखांक ११ - होनवाड शिलालेख
महासेन .. श्रीमूलसंधे जिनधर्ममूले गणाभिधाने वरसेननाम्नि । - गच्छेषु तुच्छेऽपि पोगर्यभिख्ये संस्तूयमानो मुनिरायसेनः ।।
अनेकभूपालकमौलिरत्न-शोणांशुवालातपजालकेन । प्रोज्जूंभितश्रीचरणारविंद-श्रीब्रह्मसेनप्र(ब)तिनाथशिष्यः ।। तस्यार्यसेनस्य मुनीश्वरस्य शिष्यो महासेनमहामुनींद्रः । सम्यक्त्वरत्नोज्ज्वलितांतरंगः संसारनीराकरसेतुभूतः ।। तज्जैनयोगींद्रपदाब्ज,गः श्रीवानसाम्रायवियत्पतंगः । श्रीकोम्मराजात्मभवस्सुतेजः सम्यक्त्वरत्नाकरचांकिराजः ॥ तन्निर्मितं भुवनबुभुकमत्युदात्तं लोकप्रसिद्धविभवोन्नतपोनवाडे । रंरम्यते परमशांतिजिनेंद्रगेहं पार्श्वद्वयानुगतपार्श्वसुपार्थवासं ॥
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-- १२]
१. सेनगण
ॐ शकवर्ष ९७६ नेय जय संवत्सरद वैशाखद मारास्ये : सोमवारदंदिन सूर्यग्रहणनिमित्तदि भीमनदिय तडिय मणियूर अध्ययण वीडिनोळ पोन्नबाडदोळ् चांकिमय्यन माडिसिद श्रीशांतिनाथदेवर त्रिभुवनतिलकचैत्यालयदलिप ऋषियर-जियराहारदानके सर्वनमस्यवागि श्रीमत्रैलोक्यमल्लदेवर श्रीकेतलदेवियर विन्नपदि मूवत्तुगेण गळेयोल बिट्टनेलमत्त (र) ३५ तोण्ट ।।
( उपयुक्त, पृ. २२८ ) लेखांक १२ - बळगांवे शिलालेख
रामसेन श्रीमत् त्रिभुवनमल्लदेवर श्रीमच्चालुक्यविक्रमवर्ष २ नेय पिंगळसंवत्सरद पुष्य सुह ७ आदित्यवारदंदिनुत्तरायण- संक्रांतिय पर्वनिमित्तं राजधानि बळिगावेयोळ् तम्मकुमार- गालदंदु माडिसिद श्रीमञ्चालुक्यगंगपेनिडिजिनालयद देवर्गर्चनपूजनाभिषेककं भोगकं ऋषियराहारदानक मेले बसदिय खंडस्फुटितनवकर्मद बेसक्कमागि... || अंतु समस्तशास्त्रपारावारपारग परमतपश्चरणनिरतरप्प श्रीमूलसंघद सेनगणद पोगरिगच्छद श्रीमत् रामसेनपंडितर्गे धारापूर्वकं सर्वनमस्यं माडि कोट्ट बनवसे पनि सिरद कंपणं जिड्डळिगे ७० र बळियबाडं मनेवने १. 'श्रीमद् गुणभद्रदेवर गुहूं चावुण्डमय्यं बरेदं मंगळमहाश्री ।।
( उपर्युक्त, पृ. ३१५ ) लेखांक १३ - सोमवार शिलालेख
रामचंद्र स्वस्ति भद्रमस्तु जिनशासनाय । स्वस्ति शकवर्ष १०१७ नेय युवसंवत्सरद भाद्रपद मासद सुद्धसप्तमी गुरुवारदंदु मकरलग्नं गुरूदयदल् श्रीमत्सुराष्ट्रगणद कल्नेलेय रामचंद्रदेवर शिष्यनियरष्प अरसव्ये गतियर् ॥
( उपर्युक्त, पृ. ३५१) लेखांक १४ - हिरेआवलि शिलालेख
माधवसेन स्वस्ति श्रीमतु विक्रमवर्षद ४ [९] नेय साधा [रण] संवत्सरद
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भट्टारक संप्रदाय
[१५ -
माघशुद्ध ५ बृहस्पतिवारदंदु श्रीमन्मूलसंघद सेनगणद पोगरिगच्छद चंद्रप्रभसिद्धांतदेवशिष्यरप्प माधवसेनभट्टारक- देवरु
मनदिं जिनन पदंगळोळ् अनुनयदि निरिसि पंचपदमं नेनेयुत्तु । अनुपमसमाधिविधियं मुनिमाध · पडेदं ।।
( उपर्युक्त, पृ. ४३६ ) लेखांक १५ – कंवदहळ्ळि शिलालेख
पल्लपंडित
भद्रमस्तु जिनशासनस्य । श्रीसूरस्थगणे जातश्चारुचारित्रभूधरः । भूपालानतपादाब्जो राद्धांतार्णवपारगः ॥ १ आदावनंतवीर्यस्तच्छिष्यो बाळचंद्रमुनिमुख्य-। स्तत्सूनुर्जितमदनः सिद्धांतांभोनिधिः प्रभाचंद्रः ॥ २ शिष्यं कल्नेलेदेवस्तस्याभूत्तन्मनीषिणः सूनुः । विध्वस्तमदनदो गुणमणिरष्ट्रोपवासिमुनिमुख्यः ॥ ३ तन्मौखो विबुधाधीशो हेमनंदिमुनीश्वरः। राद्धांतपारगो जातः सूरस्थगणभास्करः ॥ ४ तदंतेवासिनामाद्यो माद्यतामिद्रियद्विषाम् । यतिर्विनयनंदीति विनेताभूत्तपोनिधिः ॥ ५ व्रतसमितिगुप्तिगुप्तो जितमोहपरीषहो बुधस्तुत्यो । हतमदमायाद्वेषो यतिपतितत्सूनुरेकवीरोऽभूत् ।। ८ तस्यानुजः सकलशास्त्रमहार्णवोऽभूद् । भव्याब्जपंडदिनकृन्मुनिपुंडरीको ॥ ९ विध्वस्तमन्मथमदोऽमळगीतकीर्तिः । श्रीपल्लपंडितयतिर्जितपापशत्रुः ।। १० पल्लकीर्तिर्यथा रूढः पुरा व्याकरणे कृती। तथाभिमानदानेषु प्रसिद्धर् पल्लपंडितः ।। ११ ''शक वरिस १०४६ विलंबि संवत्सरदः ..
( उपर्युक्त, पृ. ३९९)
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-- २०]
१. सेनगण लेखांक १६ - विश्वलोचन कोश
श्रीधरसेन सेनान्वये सकलतत्त्वसमर्पितश्रीः श्रीमानजायत कविर्मुनिसेननामा । आन्वीक्षिकी सकलशास्त्रमयी च विद्या यस्यास वादपदवी न दवीयसी स्यात् ॥१ तस्मादभूदखिलवाङ्मयपारदृश्वा विश्वासपात्रमवनीतलनायकानाम् । श्रीश्रीधरः सकलसत्कविगुंफितत्वपीयूषपानकृतनिर्जरभारतीकः ॥ २ तस्यातिशायिनि कवेः पथि जागरूकधीलोचनस्य गुरुशासनलोचनस्य । नानाकवींद्ररचितानभिधानकोशानाकृष्य लोचनमिवायमदीपि कोशः ॥ ३
( प्रकाशक- नाथारंगजी, बम्बई १९१२ ) लेखांक १७ - पट्टावली
सोमसेन नवलक्षधनुराधीश-सप्तलक्षकर्णाटकराजेंद्रचूडामौक्तिकमालाप्रभाधुनीजलप्रवाहप्रक्षालितचरणनखबिंब-श्रीसोमसेनभट्टारकाणाम् ।। ३३
(म. १३१) लेखांक १८ - पट्टावली
अलकेश्वरपुराद् भरवच्छनगरे राजाधिराज-परमेश्वर-यवनरायशिरोमणि-महम्मदपातशाहसुरत्राण-समस्यापूरणादखिलदृष्टिनिपातेनाष्टादशवर्ष प्राय-प्राप्तदेवलोकश्रीश्रुतवीरस्वामीनाम् ॥ ३४
( उपर्युक्त ) लेखांक १९ - पट्टावली
धारसेन भंभेरीपुर-धनेश्वरभट्टभ्रष्टीकृतानलनिहित-यज्ञोपवीतादिविजितसिंहब्रह्मदेवसधर्मशर्मकर्म-निर्मलातःकरणश्रीमच्छ्रीधारसेनाचार्याणाम् ॥ ३५
( उपर्युक्त) लेखांक २० - (समयसार)
देवसेन श्रीखाणदेशे धरणग्रामचैत्याले श्रीआचार्यजी देवसेनजी ओसवाल
श्रुतवीर
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भट्टारक संप्रदाय
[२० ...
ज्ञाते सा कल्याणचंदसा भार्या दगडुबाई तत्पुत्र आदुसाजी भार्या मेनाबाई तत्पुत्र मंदासाजी पुस्तकपठनार्थ ।।
(से. २४) लेखांक २१ - शिलालेख
सोमसेन ___ स्वस्तिश्री संवत् [ १५४१ वर्षे शाके १४९१ (१४०६९)] प्रवर्तमाने कोधीता संवत्सरे उत्तरगणे...मासे शुरूपक्षे ६ दिने शुक्रवासरे स्वातिनक्षत्रे...योगे २ करणे मिथुनलग्ने श्रीवराटदेशे कारंजानगरे श्रीसुपार्श्वनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे सेनगणे पुष्करगच्छे श्रीमन वृद्ध(वृषभ)सेनगणधराचार्ये पारंपद्ति श्रीदेववीरमहावादवादीश्वर रायवादियिकी महासकलविद्वज्जन, सार्वभौमसाभिमानवादीभसिंहाभिनवत्रैविद्य सोमसेनभट्टारकाणामुपदेशात् श्रीबघेरवालज्ञाति खमडवाड(खटवड)गोत्रे अष्टोत्तरशतमहोत्तुंगशिखरप्रासादसमुद्धरणे धीरः त्रिलोकश्रीजिनमहाबिंबौद्धारक अष्टोत्तरशतश्रीजिनमहाप्रतिष्ठाकारक अष्टादशस्थाने अष्टादशकोटिश्रुतभंडारसंस्थापक सवालमबंदी मोक्षकारक मेदपाटदेशे चित्रकूटनगरे श्रीचंद्रप्रभजिनेंद्रचैत्यालयस्याग्रे निजभुजोपार्जितवित्तबलेन श्रीकीर्तिस्तंभ आरोपक साहजिजा सुत साहपूनसिंहस्य ।
लेखांक २२ – पट्टावली
तत्पट्टोदयाचलप्रभाकरवादीभसिंहाभिनवविद्याश्रीमच्छ्रीसोमसेनभट्टारकाणाम् ॥ ३७
(म. १३१) लेखांक २३ - पट्टावली
गुणभद्र तत्पट्टवार्धिवर्धनैकपूर्णचंद्रायमान ..श्रीमद्गुणभद्रभट्टारकाणाम् ।। ३८
( उपर्युक्त) लेखांक २४ - जलयंत्र
मं. १५७९ मगसरमासे शुक्ले पक्षे १० शुक्रवारे श्रीमूलमंघे महरिषभ
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१. सनगण
सनगणधरान्वये पुष्करगच्छे सेनगणे भ. श्रीगुणभद्रोपदेशात् हुबडज्ञातीये साह वदा भार्यारीगाद... ||
( फतेहपुर, अ. ११ पृ. ४०८ ) . लेखांक २५ - पट्टावली
वीरसेन नत्पद्रोदयाद्रिदिवाकरायमाणश्रीमत्कर्णाटकदेशस्थापितधर्मामृतवर्षणजलदायमानधीरतपश्चरणाचरणप्रवीणश्रीवीरसेनभट्टारकाणाम् ।। ३९
(म. १३१)
लेखांक २६ - पट्टावली
श्री युक्तवीर विगताभिमानतपगतकषायांगादिविविधग्रंथकरणैककुशलताभिमानश्रीयुक्तवीरभट्टारकाणाम् ॥ ४०
( उपर्युक्त) लेखांक २७ - पट्टावली
माणिकसेन तत्पढे सर्वज्ञवचनामृतस्वादकृतात्मकाय....श्रीमाणिकसेनभट्टारकाणाम् ॥४१
( उपयुक्त ) लेखांक २८ - अरहंत मूर्ति
सके १४२४ मूलसंधे सेनगणे भ. माणिकसन उपदेशात् गुजर पल्लीवाल ज्ञाति...संघवी नेमा ।।
( ना. १८) लेखांक २९ - पट्टावली
गुणसेन • तत्पटोदयाचदिवाकरायमाणश्रीगुणसनभट्टारकाणाम् ॥ ४२
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भट्टारक संप्रदाय
[ ३० --
लेखांक ३० - पट्टावली
लक्ष्मीसेन तदनु सकलविद्वज्जनपूजितचरणकमलभव्यजनचित्तसरोजनिवासलक्ष्मीसदृशलक्ष्मीसेनभट्टारकाणाम ॥
[ उपर्युक्त ] लेखांक ३१ -
मूलसंघ साखा प्रबर सेनगण संघाभरण । सोमविजय एवं वदति लक्ष्मीसेन तारणतरण ॥ गुणभद्र गुण गच्छादिभरण उदधिचंद्र जगि जानिये । सोमविजय एवं वदति लक्ष्मीसेन बखानिये ॥
( ना. १४) लेखांक ३२ - नंदीश्वरमूर्ति
[शके १५०० ] सर्वजीतसंवत्सरे माघमासे शुकुपक्षे १३ दिने श्रीमूलसंधे सेनगणे पुष्करगच्छे वृषभसेनगणधरान्वये भ. श्रमण(श्रीगुण)भद्र तत्पट्टे श्रीलक्ष्मीसेनोपदेशात् बघेरवालज्ञातीय... ॥
[ कारंजा, भा. १३ पृ. १२८]] लेखांक ३३ - अनंत यंत्र
सं. १५-- श्रीमूलसंधे सेनगणे भ. श्रीगुणभद्रस्तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीसेन उपदेशात कसिमवास्तव्य घरको ज्ञातीये संघई हेमासा भार्या अंबा...॥
[ मैनपुरी, भा. प्र. पृ. १७] लेखांक ३४ - पट्टावली
सोमसेन विबुधविविधजनमनइंदीवरविकाशनपूर्णशशिसमानानां...श्रीसोमसेनभट्टारकाणाम् ॥ ४४
[म. १३१ ]
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-- ३९ ]
लेखांक ३५ - कृष्णपुरपार्श्वनाथस्तोत्र
लेखांक ३६ - १ मूर्ति
संघवी ...
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अविरलकविलक्ष्मीसेनशिष्येण लक्ष्मीविभरणगुणपूतं सोमसेनेन गीतं । पठति विगतकामः पार्श्वनाथस्तवं यः सुकृतपदनिधानं स प्रयाति प्रधानम् ॥ ९
१. सनगण
लेखांक ३८ - पट्टावली
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संवत १५९७ श्रीमूल संघे सेनगणे भ. सोमसेन उपदेशात कालवाडे
. II
लेखांक ३९ - रामपुराण
१३
[ अ. १२ पृ. ३२९ ]
लेखांक ३७ - पट्टावली
मिथ्या मत तमो निवारणमाणिक्यरत्नसमदिव्यरूप श्री माणिक्य सेनभट्टारकाणाम् ।। ४५
[ आर्वी, अ. ४ पृ. ५०३ ]
माणिक्यसेन
[म. १३१ ]
गुणभद्र
आशीविषदुष्ट कर्कशमहारोगमद् गजके सरिसिंहसमानानां अनेकनरपति
सेवितपादपद्मश्रीगुणभद्रभट्टारकाणाम् ॥
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[ उपर्युक्त ]
सोमसेन
विषये रम्ये जिरे ( जिन्तुरे ) नगरे वरे ।
मन्दिरे पार्श्वनाथस्य सिद्धो ग्रन्थो शुभे दिने ॥ २६
श्रीमूलसंधे वरपुष्कराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः । पट्टे च तस्यैव सुसोमसेनो भट्टारको भूद् विदुषां शिरोमणिः ॥ २३३ fareer in शाके पोडशशतवर्षके ।
पंचाशनसमायुक्ते मासे आणिक तथा ॥ २१७
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भट्टारक संप्रदाय
[३९ --
शुक्लपक्षत्रयोदश्यां बुधवारे शुभे दिने । निष्पन्नं चरितं रम्यं रामचन्द्रस्य पावनं ।। २१८
[ कारंजा ] लेखांक ४० - ( शद्धरत्नप्रदीप )
शुभमस्तु कल्याणं ॥ संवत् १६६६ शाके १५३१ वार्षे श्रावणकृष्णपक्षे तिथि प्रतिपदा ॥१॥ शुक्रवाशरे ग्रंथ लिखिते ठा. गोपिचंद उदयपुरस्थाने तिष्ठत्ये॥ कल्याणं भवेत् ।। अभिनव भ. श्रीसोमसेनस्येदं पुस्तकं ॥
[म. ५३] लेखांक ४१ - धर्मरसिक त्रैवर्णिकाचार
अब्दे तत्त्वरस चंद्रकलिते श्रीविक्रमादित्यजे मासे कार्तिकनामनीह धवले पक्षे शरत्संभवे । वारे भास्वति सिद्धनामनि तथा योगे सुपूर्णातिथौ नक्षत्रेश्विनिनाम्नि धर्मरसिको ग्रंथश्व पूर्णीकृतः ॥ २१६ श्रीमूलसंघे वरपुष्कराख्ये गच्छे सुजातो गुणभद्रसूरिः । तस्यात्र पट्टे मुनिसोमसेनो भट्टारकोभूद्विदुषां वरेण्यः ॥२१२ धर्मार्थकामाय कृतं सुशास्त्रं श्रीसोमसेनेन शिवार्थिनापि । गृहस्थधर्मेषु सदा रता ये कुर्वतु तेभ्यासमहो सुभव्याः॥२१३
[ जैनेन्द्र प्रेस, कोल्हापुर १९५० ] लेखांक ४२ - पार्श्वनाथ मूर्ति
शके १५६१ वर्षे प्रमाथीनामसंवत्सरे फाल्गुण सुदी द्वितीया मूलसंघे सेनगणे पुष्करगच्छे भ. श्रीसोमसेन उपदेशात् प्रतिष्टितं ।।
[ सैतवाल मन्दिर, नागपुर ] लेखांक ४३ -- संभवनाथ मूर्ति
शक १५६१ प्रमाथीसंवत्सरे फाल्गुन शुद्ध ५ भ. श्रीसोमसेनेन प्रतिष्ठापितं ॥
( कारंजा, भा. १६ पृ. १२८. )
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- ४८ ]
लेखांक ४४ - रवित्रत कथा
लेखांक ४६ - पद्मावती मूर्ति
रतन... ॥
१. सेनगण
पुष्करगछे अभिनव रंग ॥ ७२
गुणभद्र पटे पामे जय संघ सोमसेन गुरु दान दाता । तत्शिष्य अभयपंडित चंग करी कथा मनतनी रंग ॥ ७३
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लेखांक ४५ - पार्श्वनाथ मूर्ति
शके १५७७ क्रोधनामसंवत्सरे मार्गशिर्ष सुदी १० बुधे मूलसंघे पुष्करगच्छे सेनगणे भ. सोमसेनदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीजिन सेनगुरूपदेशात बघेरवाळ ज्ञात सावला गोत्रे वीरासाह भार्या हिराई... ॥
[ पा. १ ]
शके १५८० मूलसंघे सेनगणे भ. जिनसेनोपदेशात् कारंजात्रामे सा
१५
लेखांक ४७ - ( समवशरणपीठिका - रत्नाकर )
||"
[ ना. ५५ ]
जिनसेन
( पा. ने. जोहरापुरकर, नागपुर )
शके १५८१ विकारीनाम संवत्सरे फाल्गुण शुदि १३ दिने श्रीमूलसंघे पुष्करगच्छे सेनगणे वृषभसेनान्वये भ. श्री सोमसेन तत्पट्टे भ. श्रीजिनसेनोपदेशात् कारंजामा सुपार्श्वनाथचैत्यालये चवर्या गोत्रे सं. श्रीमाणिक भार्ये पदमाई अंबाई पुत्र सं. श्रीसोयरा भा. रूपाई एतैर्ज्ञानावर्णिकर्मक्षयार्थ लिखाप्य दत्तं पुस्तकं ॥
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लेखांक ४८ - पार्श्वनाथ मूर्ति
सके १५८२ फाल्गुण शुद्ध ७ तिलक सेन भ. श्रीजिनसेन बघेरarmarat चवरिया गोत्रे सा...
( मा. स. महाजन, नागपुर. )
( ना. ८० )
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लेखांक ५०
भट्टारक संप्रदाय
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१६.
लेखांक ४९ - १ मूर्ति
शके १६०७ क्रोधनामसंवत्सरे सुदि १० बुधे पुष्करगच्छे सेनगणे वृषभसेनान्वये भ. सोमसेनदेवाः तत्पट्टे भ. जिनसेनगुरूपदेशात् जालीग्रामे धाकडज्ञातीय कन्हा नित्यं प्रणमति ॥ ( कोंढाळी, अ. ४ पृ. ५०५ )
[ ४९ -
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नगर अचलपुरमांहि जैन सासन गछनायक । को चमास आइ कहत सिद्धांत सुलायक | रुसी सरप पग डस्यो खस्यो विष सर्व सरीरह । ध्यान धरी मुनिराड़ पठ्यो पुनि विषापहारह || निर्विष तन छिनमे भयो सकल विघ्न दूरे कन्यो । भट्टारक जिनसेनको प्रताप भारी धन्यो || १ | श्रावकके घर जाइ भावरी भोजन कीन्हो । शाक परोस बचनाग नाग धोके बहु लीनो 11
जब सर्वांग सावधानी मन आनी । विषापहार सुचिति चित्त नहि चिंता मानी | वमन करी विष टालियो सहियो परिसह जोर । भट्टारक जिनसेनकी कीरति भइ बहु ठौर ॥ २ ॥ रायमलसा पुत्र वंस हुंबड बडमंडन । राना देस विख्यात नगर सावलि सुभ स्तंभन || पद्मनंदि गुरु राय पाय सेवे बालापन | चौदह विद्यानिधान बहोतरी कलाभूषण ॥ कारंजे नगरे सुभग सोमसेन पट उद्धयो । जिनसेन नाम परगट भयो भट्टारक जग उद्घप्यो || ३ || संघप्रतिष्ठा पाच धर्म उपदेस सु कारी ।
श्री गिरनार समेदशिखर तीरथ कियो भारी ॥ संघपति सोयरासाह निवासा माधवसंगवी | गनबा संगवी रामटेकमा कान्हा संगवी || जिनसेन नाम गुरुरायणे संघतिलक एते दिय । माणिक्यस्वामी यात्रा सफल धर्म काम बहु बहु किय ॥ ४ ॥
( ना. ६३ )
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--- ५५]
१. सेनगण
लेखांक ५१ -
मूलसंघ कुलतिलक गछ पुष्करमे सोहे। चारिय गणमे मुख्य सेनगण महिमा मोहे ॥ भट्टारक जिनसेन गुरु मोरपीछ हस्ते धरे । पूरनमल यों कहे भव्यलोक तारण तरण ॥
( ना. ६३) लेखांक ५२ – पार्श्वनाथ मूर्ति
छत्रसेन संवत १७५४ मूलसंघे सेनगणे पुष्करगच्छे भ. छत्रसेनोपदेशात् प्रतिष्ठितं ।।
( केळीबाग मन्दिर, नागपुर) लेखांक ५३ - द्रोपदीहरण
उत्तम देश वराड मझारमे कारंज रंजक हे पुर नीको। सत्य सुपारसदेव महा मूलनायक मूलसुसंघ सजीको ।। सेनगणाश्रीत पुष्करगच्छ प्रधान सदा अति ग्राह गुणीको । श्रीछत्रसेन रचै कवि चौषद द्रौपदीहरण चरित्र सुलीकौ ॥ २६
(ना.६१) लेखांक ५४ - समवशरणषट्पदी
कारंजा शुभ नगरमे श्रीपार्श्वनाथ चैत्यालये। छत्रसेन गछाति कहे खैरासा वचने किये ।। ५१
(ना. ८.७) लेखांक ५५ - मेरुपूजा
इति त्रिभुवनसंस्थं श्रीजिनबिंब योर्चति पुष्पभृतांजलिकैः। सो ना जगतीष्टं लभति विशिष्टं छत्रसेनमुनिना कथितं ।।
(म. १०)
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१८
लेखांक ५६ - पार्श्वनाथ पूजा
लेखांक ५७
भट्टारक संप्रदाय
इत्याद्यगणित अतिशय क्षेत्रं पार्श्वजिनं वंदे सुपवित्रं । पूज्यं सेनगणे वरचित्रं छत्रसेन संततवरमित्रं ॥
Suda
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झूलना
महबूब शरीर सहरमे जी पातिसाहि बडा परब्रह्म है रे । पातिसा अंदर बैठि रहा अपने रस रंगमे खेलत रे || मनराय बुलाय दीवान किया अखत्यार दिया सब तिसके रे । छत्रसेन जती बारबार कहे बडा सोर हुवा सव नगरमे रे ॥ १ ॥
( म. ७९ )
लेखांक ५९ - पद्मावती स्तोत्र
लेखांक ५८ - अनंतनाथ स्तोत्र
भुवनविदितभावं देवदेवेंद्रवंद्यं परमजिनमनंतं स्तौति यो शुद्धभावैः । भवति सुभगसर्गी मुक्तिनाथश्च नित्यं स्तवनमिदमनिंद्यं भाषितं छत्र सेनैः ॥ ११ ( कारंजा )
पुत्रो तब मात मामक परि कृत्वा कृपा मंबिके देयं वांछितवस्तु चिंतितफलं यत्प्रार्थनेयं मम । विघ्नानिष्टकरान् स्वपापजनितान् दुःखप्रदान् संततं शीघ्रं संहर संहर प्रियतमे श्रीछत्रसेनस्य वै ॥ १४
लेखांक ६० - अनिरुद्ध छप्पय
[ ५६
कारंज रंजक नगर मे मूल जिनेश्वर देव । छत्रसेन गछति कहे हीर करे तस सेव ।। १ चतुर पंच सप्तैक वामगति गणिजो दक्षं ।
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( ना. ७८ )
( उपर्युक्त )
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- ६३ ]
१. सेनगण
संवत एतु जाणि माघ असिताष्टमी वक्षं ॥ वृधणपुर सुभ नगर चोक माणिक तहा सोभ 1 मणिमणिमुक्तादि देखता जनमन थोभे || कडतसाह वचणे कन्यो अनिरुद्ध हरण उदार । श्रीछत्रसेन पंडित कहे हीरा जगि जयकार ।। ९९
लेखांक ६१ - छत्रसेन गुरु आरती
लेखांक ६२
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मूलसंघाचे गंगार पुष्कर गछ मनोहार । सुरस्थ गण विस्तार ऋषभ सेनान्वय सार ॥ २ सेनसंघाचे आभूषण समंतभद्र जाण । तयाच्या पटी छत्रसेन वादीमदभंजन || ३
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लेखांक ६३ -
श्रीमूल संघ गछ मनोहर सोभत हे जु अतिही रसाला । पुष्करगछ सुसेन गणाश्रित पूज रचे जिनकी गुणमाला || समंतभद्र के पट प्रगट भयो छत्रसेन सुवादि विसाला । अर्जुनत कहे भवि सुपरवादीको मान मिटे ततकाला ||
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( ना. १४ )
१९
(ना. ८७ )
सेनगणेश रणेश महामुनि उज्ज्वल कीरति है अतिभारी । सुंदर रूप सुजान मनोहर संजम बार धुरंधरकारी ॥ काव्य पुराण महाशुभ भासित आगम ग्रंथ कथे सुविचारी । छत्रयति छत्रसेन विराजित दास बिहारी कहे गुणधारी ॥१२
( ना. ८७ )
( म. ११९ )
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भट्टारक संप्रदाय
२०
[ ६४
लेखांक ६४ - ज्ञानयंत्र
नरेंद्रसेन
शके १६५२ साधारण संवत्सरे भ. श्रीनरिंद्रसेनाज्ञया गोपालजी inter सेनगणे पुष्करगच्छे आश्विनमासे ||
लेखांक ६६ - नरेंद्रसेन गुरु पूजा
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लेखांक ६५ - ( यशोधर चरित - पुष्पदंत )
शके १६५६ मिति आसोज वदि मंगला त्रयोदश्यां बुधवासरे श्रीमूल• संधे सूरस्थगणे पुष्करगच्छे ऋषभ सेनगणधरान्वये पारंपर्यागते भ. श्री १०८ सोमसेन तत्पट्टे भ. जिनसेन तत्पट्टे भ. समंतभद्र तत्पट्टे भ. श्री १०८ छत्रसेन तलोदयादिवर्तमान भ. नरेंद्र सेनैर्लिखितोयं जसोधरचरित्रं श्रीसूरतList आदिनाथचैत्यालये । संवत १७९० ।।
( कळमेश्वर, जिला नागपुर )
लेखांक ६७ - पार्श्वनाथ पूजा
श्रीमज्जैनमते पुरंदर श्रीमूलसंघे वरे । श्रीशूरस्थगणे प्रताप साहेते सभूदस्तुते ॥ गच्छे पुष्करनाम के समभवत् श्री सोमसेनो गुरुः । तलट्टे जिनसेन सन्मतिरभूत् धर्मामृतादेशकः ॥ १ तज्जभूद्धि समंतभद्रगुणवत् शास्त्रार्थपारंगतः । तलोदयतर्कशास्त्रकुशलो ध्यानप्रमोदान्वितः ।। सद्विद्यामृतवर्षणैकजलदः श्रीछत्रसेनो गुरुः । तत्पट्टे हि नरेंद्र सेनचरणौ संपूजयेहं मुदा ॥ २
( म. प्रा. पृ. ७४७ )
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( ना. ८७ )
नगर कारंजा सेनगणेसी श्रीमूलसंघ जयो गुणदेसी । मंगलपूरण ज्ञान सुभारी भविजनको बहु संपतिकारी ॥
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- ७१ ]
लेखांक ६८
१. सेनगण
अमरावलि पूजे सदा जिनवरके पद जाम । नरेंद्र सेन इम स्तुति करे हम हिरदे तुम नाम ||
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लेखांक ६९ - कैलास छप्पय-सोयरा
लेखांक ७०
वृषभनाथ पाळणा
गछपति मुनियों कहे मनुजेंद्र सुसेन । आवागमन निवारियो कर्मक्षय करि दीन ।। १९
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ww
तस पट्टे सुखकार नाम भट्टारक जानो । नरेंद्र सेन पधार तेजे मार्तंड बखानो ||
जीती वाद पवित्र नगर चंपापुरमाहे । करियो जिनप्रासाद ध्वजा गगने जइ सोहै ॥ २६ देवलगाव पवित्र तिहा जिनमंदिर सोहे |
चंद्रनाथ मूर्ति देखि सुर नर मन मोहे ॥ सोलह सेतितरे अष्टापद वर्णन कियो ।
अर्जुनसुत इम उच्च सुगंध दशमी पुरो थयो । २७
लेखांक ७१ - षोडशकारण यंत्र
( ना. ७८ )
२१
( म. १२१ )
चंद्रप्रभ मूर्ति
शांतिसेन
शके १६७३ फाल्गुण बढ़ी १२ रविवारे सेनगणे वृषभसेन गणधरान्वये भ. शांतिसेनोपदेशात कारंजा महानगरे प्रतिष्ठापितं ॥
( कारंजा, भा. १३ . १२८ )
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( ना. १४ )
शके १६७५ वर्षे भाद्रपद मासे सीत १२ मूलसंघे पुष्करगच्छे सेन
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भट्टारक संप्रदाय
[ ७२ - गणे भ. श्रीशांतिसेनोपदेशतः का. व. चिंतामण ॥
( ना. ६१) लेखाक ७२ - पार्श्वनाथ मूर्ति
शक १६७८ माघ सुद १४ मूलसंघे भ. शांतिसेनोपदेशात् प्रतिष्ठितं कारंजा ग्रामवास्तव्येन नेवाज्ञाति फु. गोत्र पु. चिंतामणसा नित्यं प्रणमंति ॥
(पा. ५०) लेखांक ७३ - [हरिवंश रास]
संवत १८१६ परमाथी नाम संवत्सरे श्रीदेवलग्राम श्रीचंद्रप्रभचैयालये श्री भ. श्रीनरेंद्रसेन तत्पट्टे श्रीशांतिसेनजी म. सार्थकनामधेय तस्य शिष्य श्री अर्जका श्री शिखरश्रीजी तस्य शिष्य पंडित बानार्शिदासजी स्वहस्ते लिख्यतं पठनार्थ श्रीरस्तु ॥
(ना. २०) लेखांक ७४ - शांतिनाथ विनंति
झारखंड एसो हर देस तस मध्य ए नगरी विसेस । अमरपुरी सम सोभे ठाम रामटेक दिसे अभिराम ॥२ हंसा सुत सितलमा नाम खटबढ गोत धरमको धाम । सकल स्वन्यात कुटुंब सहित यात्रा करि मनमा धरि प्रीत ॥ १४ मूलसंघ पुष्करगछ धनी शांतिसेन विद्यागुणमनी। तत सेवक नित चरने रहे गोमासा सुत रतन कहे ।। १६ सके सोलसेने उसार चइत्र कृष्ण नवमी रविवार । ए. विनती जे भणे नरनार तेह घर मंगल जयजयकार ।। १७
लेखांक ७५ - .
...तानु कहे शांतिसेन गछपति संघ चतुर्विध सोभत पासे ।। २ ...पाट नरेंद्रसुसेनके राजन दर्शनथी सुखसंपति पावे ॥ ३ .
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- ७८] १. सेनगण
२३ ...मूलकि बेदरीके जिनमंदिर बंदतही मन हर्ख न माये । सागरस्नान करायो महामुनि पुण्यप्रताप भले जु तहाये ॥ ५ ...फूटान सेठिको नंदन धन्य सु मांत चंदाबाई कूख विराजे ।। ६
( म. १२३) लेखांक ७६ - बिरुदावली
__अनेकदेशाधिपतिपारसकेश्वरसभारंजितविद्वज्जनसेवितचरणारविंदश्रीगुणभद्र-बीरसेन-श्रुतवीर-माणिकसेन-गुणसेन-लक्ष्मीसेनभट्टारकाणाम् ।। निखिलतार्किकशिरोमणि--श्रीसोमसेन-माणिक्यसेन-गुणभद्र-अभिनवसोमसेनभट्टारकाणाम् ॥ तत्पदे निखिलजनरंजनगुणात्मविद्यानिधिश्रीजिनसेनभट्टारकाणाम् ॥ तदन्वये श्रीसमंतभद्रभट्टारकाणाम् ।। तद्वंशे श्रीछत्रसेनभट्टा रकाणाम् । तत्पट्टे श्रीमन्नरेंद्रसेनभट्टारकाणाम् ।। स्वस्तिश्रीमद्रायराजगुरुश्रीमदभिनवशांतिसेनतपोराज्याभ्युदयसमृद्धयर्थे ।।
(प. ८) लेखांक ७७ - ? मूर्ति
सिद्धसेन संवत १८२६ ( शाके १६१८ ) वैसाख वदि ११ सेनगणे श्रीसिद्धसेनगुरूपदेशात्... ॥
(आर्वी, अ. ४ पृ. ५०५) लेखांक ७८ - सिद्धसेन गुरु आरती
श्रीमूळसंघाचे मंडन सकळकळापरिपूर्ण । पुष्करगच्छाचे निधान गुरुगौतमसम जाण ॥ २ शांतिसेनजीचे कर सिरी करवीर कोलापुरी। तेथुन चालले निरधारी कार्यरंजकपुरी ॥ ३ सेनगणाचे पटधारी सर्वासी अधिकारी। श्रीसिद्धसेन गुरु सुखकारी तत्त्वातत्त्व विचारी ॥४ संमत अठरासे सवीस वैशाख कृष्ण पक्ष । द्वादशि तिथीस चरणासी रतनचा लय लक्ष ॥१०
( ना. १२४)
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भट्टारक संप्रदाय लेखांक ७९ - पार्श्वनाथ मूर्ति शाके १६९२ श्रीसिद्धसेनगुरूपदेशात् वैशाख बदि १२ सेनगण ।।
(कारंजा, भा. १४ पृ. २८) लेखांक ८० - मुनिसुव्रत मूर्ति
संवत १८४६ कार्तिक सुद १४ मूलसंधे सेनगणे पुष्करगच्छे भ. शांतिसेनजी तत्पट्टे भ. सिद्धसेनजी प्रतिष्ठितं सा भिकासा जोहरापुरकर प्रणमितं ।।
( ना. ६२) लेखांक ८१ - उपदेशरत्नमाळा
...... शुभचंद्र भट्टारक थोरी ॥ ४४ तत्पट्टधारी दिव्यमूर्ति । नामे असे सुमतिकीर्ति ॥ ४५ तद्गुरुभ्रात सकलभूषण | उपदेशरत्नमालाभिधान ॥ संस्कृत केले असे पुराण । ते ज्ञानिया कारण सुगम असे ॥ ४६ या पंचमकालामाजि मती । उत्तरोत्तरहीन होती ॥ ४८ या संस्कृताचे नवि जाति वाटे । म्हणोनिया श्लोक करी महाटे ॥४९ अमरावती पुण्यनगरी। श्रीआदिनाथ जिनमंदिरीं । ग्रंथ आरंभिला थोरी । साह्यकारी असे शारदा ॥ ६३ मंमत अठरासे एकोन्याहत्तर । श्रीमुखनामे संवत्सर ।। चैत्र शुद्ध नवमी शुक्रवार । पावला ग्रंथ सार पूर्णता ॥ ६४
इति श्रीभट्टारक श्रीसिद्धसेन प्रियसिष्याचार्यरत्नकीर्तिरचित उपदेशरत्नमाळा ग्रंथे षट्कर्मधर्मनिरूपण नाम प्रसंग चाळिसावा ॥ ४० ॥
__ (ना. ९१) लेखांक ८२ – सिद्धसेनगुरु पूजा-माधव
विद्वज्जनाभीष्ठतमप्रमेयं गुणाकरं सर्वजनैकवंद्यं । श्रीशांतिसेनस्य पदाधिसेवं श्रीसिद्धसेनाख्यगुरुं यजेहं ।।
(ना. ६१)
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१. सेनगण
२५
लेखांक ८३ - सिद्धसेन स्तुति
महानगर कारंजकपूर मनोहर विश्रांती । भट्टारक श्रीसिद्धयती महंत अधिपती ॥ सेनगणाम्नाये पट्टधारि जो परम गुरू निपुन । पुष्करगच्छ निवासे नामे पार्श्वनाथ जिन ।। शांतिसेन पट्टांबुज महिवरि जाला उद्योत । षट्शास्त्रादिक पूर्ण मनोहर गुणस्थानी श्रुत ।। मिळोनिया श्रीसंघ सदोदित जिनभुवना जाती। त्रिकाळ पूजा विधिविधान न्हवनासी करिती ।। सहस्रकूट चैत्यालय मांडन काढोनि रंगविती। ॐ हीं बीजाक्षर हे दोन्ही अक्षर मध्ये वरती ।। या दो वचने जे प्रियकर ते वदा कृपामूर्ती । कर जोडोनि म्हणे राघव करुणा असु द्यावी चित्ती ।।
( म. ९८)
लेखांक ८४ -
कामधेनुको ध्यान कामना पूर्णज कहि है। ऐसे श्रीसिद्धसेन सेनगण गच्छपति है ।। पुष्कर सागर नगर कारंजा खासा । अर्जुनसा हीरेका पारखी साच कहे येमासा ।।
( ना. ६३)
लेखांक ८५ - चरणपादुका
लक्ष्मीसेन सं. १८९५ का वर्षे मित्ति चैत्र सुदि १८ सौम्यवासरे गौतमस्वामी गणधरजीकी चरणपादुका स्थापिता नागपुरमध्ये कारंजा पट्टाधीश भ. श्रीलक्ष्मीसेनजी प्रतिष्ठापिता सेनगणे ।
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सेनगण
सेनगण भट्टारक-परंपरा के दो प्राचीनतम रूपोंमें से एक है। इस का सर्व प्रथम स्पष्ट उल्लेख उत्तरपुराण की प्रशस्ति मे पाया जाता है [लेखांक ८]। इस प्रशस्ति के साथ पूर्ववर्ती साधनों की तुलना करने से स्पष्ट होता है कि सेन गण का पूर्वरूप पंचस्तूपान्वय था [ ले. १] । कुछ उत्तर कालीन लेखों मे सूरस्थ या शूरस्थ गण ऐसा इस का नामान्तर मिलता है ! ले. ६१, ६५ ] । यदि शूरस्थ का अर्थ शूरसेन देश अर्थात् मथुरा के पास से निकला हुआ लिया जाय तो मथुरा के पांच स्तूपों के आधार पर पंचस्तूपान्वय नाम से इस का सामंजस्य हो सकता है। किन्तु सूरस्थ गण के प्राचीन उल्लेखों से वह एक पृथक् ही गण मालूम होता है [ले. १०, १५] जिस का संबंध संभवतः सौराष्ट्र से है [ले. १३ ] ।
प्राचीन लेखों में सेन गण के साथ पोगरि गच्छ का उल्लेख आता है [ले. ११, १२]। उत्तर कालीन लेखों मे इस का स्थान पुष्कर गच्छ ने लिया है [ले. २१, २४, ३२ आदि। ये दोनों नाम एक ही नाम के दो रूप हैं। पुष्कर शुद्ध संस्कृत रूप है, और पोगरि कनड़ी रूप है। आंध्र प्रदेश मे पोगिरि नामक स्थान है किन्तु उस के पुरातत्त्व का संशोधन नहीं हुआ है। राजस्थान के पुष्कर सरोवर का लोकभाषा में पोखर ऐसा रूपांतर हुआ है। इन दोनों में मूल रूप कौन सा है यह अनुसंधान की अपेक्षा रखता है।
सेनगण के साथ जुड़ा हुआ एक विशेषण ऋषभसेनान्वय है (ले. २१, २४, ३२ आदि ] जो स्पष्टतः कुंदकुंदाचार्यान्वय का अनुकरण मात्र है । इतिहास से ज्ञातकालमें ऋषभसेन नाम के कोई प्रसिद्ध आचार्य सेनगण में नहीं हुए हैं।
इस परंपरा का पहला उल्लेख आचार्य वीरसेन विरचित धवला टीका
१ दुसरा प्राचीन रूप पुन्नाट संघ है।
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१. सेनगण
२७
की प्रशस्ति में आता है [ ले. १ ] | आचार्य धरसेन से उपदेश पाकर आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने दूसरी सदी में महाकर्मप्रकृतिप्राभृत अथवा षट्खंडागम की रचना की थी। इस पर कुंदकुंद, समंतभद्र, तुम्बुर, शामकुण्ड, बप्पभट्टि आदि आचार्योंने व्याख्याएं लिखीं थीं । चित्रकूट पुर के आचार्य एलाचार्य से इस सिद्धान्तशास्त्र का अध्ययन कर के तथा अनेक सूत्र पुस्तकों का अवलोकन कर के उस के पहले पांच खंडों पर आचार्य वीरसेन
संस्कृत तथा प्राकृत की मिश्र शैली में विशाल टीका लिखी तथा उपरितम निबंधन आदि प्रकरणों का एक छठा खण्ड उसे जोड दिया । इस पूरे ग्रंथ का विस्तार ७२ सहस्र लोकों जितना हुआ । आचार्य वीरसेन के प्रगुरु आचार्य चंद्रसेन थे और गुरु आर्य आर्यनन्दि थे । उन के इस ग्रंथ की समाप्ति शक ७३८ की कार्तिक शुक्ल १३ को हुई जब महाराज बोदणराय सम्राट थे' |
आचार्य वीरसेन के बाद संभवतः आचार्य पद्मनंदि पट्टाधीश हुए थे [ ले. ५ ] | इन का कोई दूसरा उल्लेख नही मिलता ।
वीरसेन के ज्येष्ठ शिष्य विनयसेन थे [ले. ४ ] | किन्तु उन के प्रमुख शिष्य जिनसेन थे । आप की तीन कृतियां उपलब्ध हैं । आचार्य गुणधर ने दूसरी सदी मे लिखे हुए कसायपाहुड ग्रंथ पर आचार्य वीरसेन ने टीका लिखना आरंभ किया था जिसे वें पूरी नहीं कर सके। जिनसेन ने शक ७५९ की फाल्गुन शुक्ल १० को नंदीश्वर महोत्सव मे वाटग्राम मे रहते हुए सम्राट अमोघवर्ष के राजत्व काल मे उसे समाप्त किया और आचार्य श्रीपाल द्वारा उस का संपादन कराया [ ले. २ ] | इस की संज्ञा जयधवला है ।
"
२ प्रशस्ति का पाठ अशुद्ध है जिस का संपादक डॉ. जैन द्वारा किया गया रूपान्तर यहां दिया है। आप के अनुसार उस समय राष्ट्रकूट सम्राट जगत्तुंग का साम्राज्य काल पूरा हो कर सम्राट अमोघवर्ष ने हाल ही राज्य भार ग्रहण किया था तथा बोदराय अमोघवर्ष का ही नामान्तर था । बाबू ज्योतिप्रसाद जैन ने प्रशस्ति का दूसरा अर्थ प्रस्तुत करते हुए उस का समाप्ति काल संवत ८३८ माना हैं तथा उस समय जगत्तुंग गोविन्द सम्राट थे ऐसा सूचित किया है ( अनेकान्त ८५. ९७ ) ।
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२८
भट्टारक संप्रदाय
आ. जिनसेन की दूसरी महत्त्वपूर्ण कृति आदिपुराण है जो महापुराण का पूर्वार्ध है । भगवान् ऋषभदेव और चक्रवर्ती भरत के इस पुराण के ४३ पर्व लिखने के बाद आप का स्वर्गवास हुआ था। इस पुराण के तीसरे पर्व में आप ने उस के उपदेश की परंपरा का विस्तार से वर्णन किया है जिस से प्रतीत होता है कि आप की रचना का मुख्य आधार कवि परमेश्वर रचित वागर्थसंग्रह पुराण रहा था [ ले. ३ ] । आदिपुराण बहुत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है । पुराण, काव्य, धर्मशास्त्र, योगशास्त्र आदि का इस में सुंदर समन्वय मिलता है। समकालीन समाजजीवनका नेतृत्व करने की क्षमता उस में पद पद पर व्यक्त हुई है।
कालिदास विरचित मेघदूत के चरणों की समस्यापूर्ति कर के भगवान् पार्श्वनाथ की केवलज्ञान प्राप्ति का वर्णन करनेवाला पार्श्वभ्युदय काव्य आ. जिनसेनने गुरुबंधु विनयसेन की प्रेरणा से लिखा । तब अमोघवर्ष सम्राट थे [ले. ४] ।
आ. जिनसेन की अधूरी कृति महापुराण उन के शिष्य गुणभद्र ने पूरी की ले. ७ ] । आदिपुराण के ५ और उत्तरपुराण के ३० पर्व इतना उन की रचना का विस्तार है । आत्मानुशासन यह आप की दूसरी रचना है जो वैराग्यपर मुभाषितों का अच्छा संग्रह है ले. ६ ।' देवसेन कृत दर्शनसार के अनुसार आप महातपस्वी, पक्षोपवासी और भावलिंगी मुनि थे [ले. ५] । उत्तर पुराण की प्रशस्ति में आप के गुरु के रूप में जिनसेन और दशरथगुरु का स्मरण किया गया है [ले. ८] ।
आचार्य गुणभद्र के शिष्य लोकसेन थे। उत्तर पुराण की प्रशस्ति संभवतः आप की ही रची हुई है। यह प्रशस्ति शक- ८२० के आश्विन
३ आ. वीरसेन, जिनसेन और गुणभद्र का विस्तृत परिचय पं. नाथूरामजी प्रेमी द्वारा दिया गया है (जैन साहित्य और इतिहास)।
४ गुणभद्र की एक और रचना जिनदत्तचरित्र, जो ९ सर्गों का संस्कृत काव्य है, प्रकाशित हो चुकी है ( मा. दि. जै, ग्रंथमाला ७, बम्बई १९१६ ।
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१. सेनगण
शुक्ल ५ को अकालवर्ष के सामन्त लोकादित्य की राजधानी बंकापुर मे लिखी गई थी [ले. ८ ] । इस के अनुसार उत्तर पुराण की रचना में लोकसेन का भी साहाय्य मिला था।
लोकसेन के बाद सेनसंघ का उल्लेख शक ८२४ के एक दान शासन में हुआ है | ले. ९]। यह दान श्रीकृष्ण वल्लभ के सामन्त विनयांबुधि के प्रदेश धवल में मुळगुंद नगर के जिनमंदिर के लिए अरसार्य ने दिया था। यह मंदिर उस के पिता चिक्कार्य ने बनाया था । दान कुमारसेन के प्रशिष्य तथा वीरसेन के शिष्य कनकसेन को दिया गया था।
सूरस्थ गण के वज्रपाणि पंडितदेव को पोयसळ वंशीय विनयादित्य के राजत्व काल में शक ९२४ की चैत्र शुक्ल १० को कुछ दान दिया गया था वह इस परंपरा का अगला उल्लेख है [ ले. १०। __इस के अनंतर ब्रह्मसेन के प्रशिष्य तथा आर्यसेन के शिष्य महासेन का उल्लेख मिलता है । इन्हें कोम्मराज के पुत्र चांकिराज ने पोनवाड नगर में स्वनिर्मित शांतिनाथमंदिर के लिए चालुक्य वंशीय त्रैलोक्यमल्ल महाराज की सम्राज्ञी केतलदेवी से विज्ञप्ति कर के शक ९७६ की वैशाख अमावास्या को सूर्यग्रहण के निमित्त कुछ दान दिया [ले. ११ ।
इन के अनंतर चालुक्य वंशीय राजा त्रिभुवनमल्ल के समय संवत् ११३४ की पौष शुक्ल ७ को उत्तरायण संक्रांति के दिन चालुक्य--गंगपेर्मानडि जिनालय के लिए राजधानी बळ्ळिगावे में सेनगण के रामसेन पंडितदेव को कुछ दान दिया गया [ ले. १२ ] । इसी लेख में किन्ही गुणभद्रदेव की मूर्ति का उल्लेख है।
सुराष्ट गण के रामचंद्रदेव की शिष्या अरसवे का उल्लेख शक १०१७ की भाद्रपद शुक्ल ७ के एक लेख में किया है [ ले. १३] ।
सेन गण के चंद्रप्रभ सिद्धान्तदेव के शिष्य माधवसेन भट्टारक को संवत् ११८१ की माघ शुद्ध ५ को कुछ दान दिया गया था ले. १४ ] ।
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३०
भट्टारक संप्रदाय
A
सूरस्थ गण के पल्लपंडित का उल्लेख शक १०४६ के एक लेख में हुआ है जिस में उन्हें पाल्य कीर्ति के समान प्रसिद्ध कहा है [ ले. १५ ] । इनकी गुरुपरंपरा अनंतवीर्य - बाळचंद्र - प्रभाचंद्र - कल्नेले देव -अटोपवासीहेमनंदि - विनयनंदि - एकवीर ऐसी है । पलपंडित एकबीर के गुरुबंधु थे ।
मुनिसेन के शिष्य श्रीधरसेन ने संस्कृत शब्दों का एक कोष लिखा है जिस का नाम मुक्तावली या विश्वलोचन कोष है [ ले. १६ ] । इस कोश की विशेषता यह है कि इस मे अकारान्त क्रम से शब्दों की रचना की गई है। श्रीरसेन का समय संभवतः १४ वीं सदी है ।
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सेन गण की पट्टावली में उल्लिखित आचार्यों में सोमसेन से कुछ ऐतिहासिक स्वरूप दिखाई देता है । सोमसेन का वर्णन कर्णाटकराज द्वारा पूजित ऐसा किया गया है [ ले. १७ ] ।
इन के बाद श्रुतवीर का उल्लेख है [ ले. १८ ] | आप अलकेश्वरपुर से भौच गये थे जहां आप ने महमदशाह की सभा मे समस्यापूर्ति की थी। इस के कारण सारे लोगों की नजर लग जाने से सिर्फ अठारह साल की आयु में ही आप स्वर्गस्थ हो गये ।
५ शाकटायन व्याकरण, स्त्रीमुक्तिकेवलिभुक्ति प्रकरण आदि के कर्ता जो ९ वीं सदी मे हुए थे ।
६ इन के समय तथा मेदिनी और हेमचंद्र के प्रभाव के लिए देखिए जैन सि. भा. वर्ष पृ. ९ मे श्री. गोडे का लेख ।
७ इस की प्रकाशित प्रति के लिए देखिए जैन सि. भा. वर्ष ९ पृ. ३८ । यहाँ उपयुक्त प्रति कुछ भिन्न और अधिक अच्छी मालूम होने से उसी का उपयोग किया गया है ।
८ पहले जिन का उल्लेख आ चुका है उन के अतिरिक्त पट्टावली में इस के पहले लक्ष्मीसेन, रविषेण, रामसेन, कनकसेन, बंधुषेग, विष्णुसेन, मलिषेण, शिवायन, महावीर, भावसेन, अरिष्टनेमि, अर्हल, अजितसेन, गुणसेन, सिद्धसेन, समन्तभद्र, शिवकोटि, नेमिसेन, छत्रसेन, लोहसेन, सूरसेन, कमलभद्र, देवेंद्र सेन, दुर्लभसेन, श्रीषेण और लक्ष्मीसेन इन का वर्णन किया गया है ।
९ अलकेश्वर शायद अंकलेसर का रूपान्तर है जो गुजरात में है । उल्लिखित
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१. सेनगण
इन के अनंतर धारसेन का उल्लेख है [ले. १०]। इन का भंभेरी के धनेश्वर भट्ट के साथ कुछ विवाद हुआ था।"
इन के बाद देवसेन का उल्लेख है । इन के एक शिष्य ने समयसार की एक प्रति लिखि थी। इस का लेखन स्थान खानदेश जिले का धरणगांव था [ ले. २० ] ।
इन के पट्ट पर सोममेन अधिष्ठित हुए [ले. २१,२२]। विदर्भ स्थित कारंजा शहर में इन के शिष्य बबेरवाल ज्ञातीय साह पूनाजी खटोड रहते थे। आप ने १०८ मंदिर बनवाये थे और १८ स्थानों पर शास्त्र भांडार स्थापित किये थे। चित्तौड किले पर चंद्रप्रभमंदिर के सामने आप ने एक कीर्तिस्तम्भ स्थापित किया था ।" आप का यह वृत्तान्त जिस लेख से मिलता है उस में संवत् १५४१ और शक १४९१ के अंक है जो गलत हैं क्यों कि इन दोनों में उक्त क्रोधित संवत्सर नहीं आता है। यह विषय अनुसंधान की अपेक्षा रखता है।
इन के पट्ट पर गुणभद्र विराजमान हुए [ले. २३, २४ ] । आप ने संवत् १५७९ में एक जलयंत्र प्रतिष्ठापित किया था।
आप के बाद क्रमशः वीरसेन और युक्तवीर पट्ट पर आए। वीरसेन ने कर्णाटक में उपदेश दिया था ले. २५, २६ ] ।
शासक संभवतः सुलतान महमदशाह वेगडा है जिसका राज्य काल सन १४५८१५११ ईसवी है।
१० यह गांव विदर्भ के अकोला जिले मे है।
११ यह प्रति संवत १५१० की लिखी है। उस के ८० वें पृष्ठ पर यह लेख है। इस की पूरी प्रशस्ति के लिए (ले. ५६५ ) देखिए ।
१२ इस के विषय मे मतान्तरों की चर्चा के लिए अनेकान्त वर्ष ८ पृ. १४२ में . मुनि कान्तिसागर का लेख देखिए।
१३ संभवतः इन्ही का उल्लेख भ. सोमकीर्ति के एक लेख में हुआ है (ले. ६५१)। इनके एक और सम्भव उल्लेत्र के लिए देखिए नोट ८४ ।
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भट्टारक संप्रदाय
युक्तवीर के पट्ट पर माणिकसेन प्रतिष्ठित हुए । इन ने शक १४२४ में एक अरहंत मूर्ति स्थापित की [ ले. २७, २८ ] ।
इन के बाद क्रमशः गुणसेन और लक्ष्मीसेन पट्टाधीश हुए। गुणसेन का नामान्तर गुणभद्र था । लक्ष्मीसेन ने एक नंदीश्वर मूर्ति और एक अनंत यंत्र प्रतिष्ठापित किया किन्तु इन दोनों पर संवत् का निर्देश ठीक नहीं है [ले. २९-३३ ] । सोमविजय ने आप की स्तुति की है ।
आप के बाद सोमसेन पट्टाधीश हुए । कृष्णपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र इन्ही की रचना है । इन ने संवत १५९७ में कोई मूर्ति प्रतिष्ठापित की (ले. ३४-३६)।
___ इन के बाद क्रमशः माणिक्यसेन और गुणभद्र भट्टारक हुए (ले. ३७-३८)।
गुणभद्र के शिष्य सोमसेन दीर्घकाल तक पट्टाधीश रहे। इन ने संवत १६५६ के श्रावणमें रविषेण कृत पद्मचरित के आधार पर संस्कृत में रामपुराण की रचना की (ले. ३९)। शब्दरत्नप्रदीप नामक संस्कृत कोश की संवत् १६६६ मे उदयपुर मे लिखी गई एक प्रति पर आप का नाम अंकित है (ले. ४०)। धर्मरसिक त्रैवर्णिकाचार नामक संस्कृत ग्रंथ आप ने संवत् १६६७ की कार्तिक पौर्णिमा को पूरा किया (ले. ४१)। शक १५६१ की फाल्गुन शुक्ल ५ को आप ने पार्श्वनाथ और संभवनाथ की मूर्तियां प्रतिष्ठापित की (ले. ४२, ४३ ) । आप के शिष्य अभय पंडित ने रविव्रत कथा लिखी है (ले. ४४ )।
सोमसेन के पट्ट पर जिनसेन आसीन हुए। आप ने शक १५७७ की मार्गशीर्ष शुक्ल १० को पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की (ले. ४५)। शक १५८० में आप ने पद्मावती की मूर्ति प्रतिष्ठित की (ले. ४६ )। यह
१४ अगले लेख को देखते हुए कृष्णपुर कालवाडा का संस्कृत रूप प्रतीत होता है । यह सूरत जिले में है।
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सेनगण
३३
प्रतिष्ठा कारंजा मे हुई थी । शक १५८१ की फाल्गुन शुक्ल १३ को चवर्या माणिक ने रत्नाकर विरचित समवशरण पाठ की एक प्रति आप को अर्पण की (ले. ४७ ) । शक १५८२ की फाल्गुन शुक्ल ७ को आपने एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की (ले. ४८ ) । इसी प्रकार शक १६०७ मे जाली ग्राम मे आप ने एक मूर्ति प्रतिष्ठित की ( ले. ४९ ) । अचलपुर मे आप को एक बार सर्पदंश हुआ और दूसरी बार धोखे से भोजन में बचनाग की बाधा हुई किन्तु दोनों बार विषापहार स्तोत्र के पठन से ही आप नीरोग हो गये । आप हूंबड जाति के रायमल साह के पुत्र थे । आप की जन्मभूमि खंभात थी । आप का विद्याभ्यास पद्मनंदिजी के पास और पट्टाभिषेक कारंजा मे हुआ था । आप ने गिरनार, सम्मेद शिखर, माणिक्यस्वामी आदि यात्राएं कीं । आप के द्वारा सोयरासाह, निवासाह, माधव साह, गनबासाह और कान्हासाह इन पांच व्यक्तियों को संघपति पद प्राप्त हुआ। अंतिम समारोह रामटेक मे हुआ था (ले. ५० ) । पूरनमल ने आप की स्तुति की है. ( ले. ५१ ) और आप की मयूरपिच्छी का उल्लेख किया है ।
जिनसेन के उत्तराधिकारी समन्तभद्र हुए। इन का कोई उल्लेख नही मिला है। इन के बाद छत्रसेन भट्टारक हुए। आप ने संवत १७५४ मे एक पार्श्वनाथमूर्ति स्थापित की (ले. ५२ ) । आप का निवास कारंजा मे था (ले. ५३ ) | द्रौपदीहरण, समवशरण षट्पदी, मेरुपूजा, पार्श्वनाथपूजा, झूलना, अनंतनाथ स्तोत्र और पद्मावती स्तोत्र ये कृतियां आप ने लिखीं (ले. ५३-५९) । आप के शिष्य हीरा ने संवत् १७५४ मे कडतसाह से प्रेरणा पाकर वृधणपुर मे अनिरुद्धहरण की रचना की (ले. ६० ) । छत्रसेन की एक आरती भी उपलब्ध है ( ले. ६१ ) | अर्जुनसुत और बिहारीदास ने आप की प्रशंसा की है (ले. ६२, ६३ ) ।
१५ संभवत: बलात्कार गण-३ ग-ईडर शाखा के रामकीर्ति के पट्टशिष्य पद्मनंदि ही यहां उल्लिखित हैं ।
१६ यह संभवत: बुम्हाणपुर का संस्कृत रूपांतर है ।
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भट्टारक संप्रदाय
इन के अनंतर नरेंद्रसेन पट्टाधीश हुए। आप ने शक १६५२ मे एक ज्ञानयंत्र प्रतिष्ठित किया [ले. ६४ । सूरत मे रहते हुए आप ने संवत् १७९० मे आश्विन कृष्ण १३ को यशोधरचरित की प्रति लिखी (ले. ६५] । आप की पूजा से आप की गुरुपरंपरा की नामावली मिलती है [ले. ६६] । आप ने पार्श्वनाथ पूजा और वृषभनाथ पाळणा ये रचनाएं लिखी [ले. ६७, ६८ ] | आप के शिष्य अर्जुनसुत सोयरा ने कैलास छप्पय लिखे जिन मे आप की चंपापुर यात्रा का भी उल्लेख है । कैलास छप्पय की रचना देवलगांव मे हुई थी [ ले. ६९] ।
नरेन्द्रसेन के पट्ट पर शान्तिसेन प्रतिष्ठित हुए। आप ने कारंजा मे शक १६७३ की फाल्गुन कृष्ण १२ को एक चंद्रप्रभ मूर्ति स्थापित की (ले. ७० )। शक १६७५ की भाद्रपद शुक्ल १२ को आप ने एक षोडश कारण यंत्र प्रतिष्ठित किया (ले. ७१ ) । शक १६७८ की माघ शुक्ल १४ को पार्श्वनाथ की एक मूर्ति आप के द्वारा प्रतिष्टित हुई (ले. ७२ )। आप की शिष्या शिखरश्री के शिष्य वानार्शिदास ने संवत् १८१६ मे देवलगांव मे हरिवंश रास की एक प्रति लिखी (ले. ७३ )। आप के शिष्य रतन ने रामटेक यात्रा के समय" शान्तिनाथ की एक विनती बनाई थी (ले. ७४) । आप के एक शिष्य तानू के कवित्तों से पता चलता है कि आप फूटानसेठ और चंदाबाई के पुत्र थे तथा आप ने सागरस्नान किया और बिदर के जिन मंदिर के दर्शन किये थे (ले. ७५)।
शान्तिसेन के बाद सिद्धसेन पट्टाधीश हुए। आप ने संवत् १८२६ की वैशाख कृष्ण ११ को कोई मूर्ति प्रतिष्टित की ( ले. ७७ )।" इस के दूसरे ही दिन साह रतन ने आप की एक आरती बनाई जिस मे कहा
१७ इन की रचना का शक प्रशस्ति मे दिया है। किन्तु उस का अर्थ स्पष्ट नही है।
१८ इस का शक निर्देश भी स्पष्ट नहीं है । १९ इस का शक निर्देश गलत है ।
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सेनगण
३५
गया है कि शान्तिसेन से आप की मुलाकात कोल्हापुर मे हुई और वहां से आप कारंजा पधारे थे ( ले. ७८ ) । इसी समय आप के द्वारा एक पार्श्वनाथ मूर्ति भी स्थापित हुई थी (ले. ७९ ) । संवत् १८४६ की कार्तिक शुक्र १४ को आप ने एक मुनिसुव्रत मूर्ति स्थापित की ( ले. ८० ) । आप के प्रिय शिष्य रत्नकीर्ति ने संवत् १८६९ की चैत्र शुक्ल ९ को सकलभूषण कृत षट्कर्मोपदेश रत्नमाला ग्रन्थ का मराठी श्लोकबद्ध अनुवाद अमरावती मे पूरा किया (ले. ८१ ) | आप की एक पूजा माधव द्वारा और एक स्तुति राघव द्वारा बनाई गई है (ले. ८२-८३ ) । मासाह ने आप की प्रशंसा की है (ले. ८४ ) ।
सिद्धसेन के पट्ट पर लक्ष्मीसेन अभिषिक्त हुए। आप ने संवत् १८९९ की चैत्र शुक्ल १० को नागपुर मे गौतम गणधर पादुकाओं की स्थापना की ।"
२० स्थानिक अनुश्रुति से पता चलता है कि लक्ष्मीसेन का स्वर्गवास संवत् १९२२ मे हुआ। उन के कोई तेरह वर्ष बाद मुडबिद्री से आए हुए कुमार चंद्रय्या पट्टाभिषिक्त किये गये तथा आप का नूतन नाम वीरसेन रखा गया । आप की आयु उस समय २८ वर्ष थी । कोई ६० वर्ष तक पट्टाधीश रह कर आप ने कई मूर्ति प्रतिष्ठाएं कीं। इन मे नागपुर, कलमेश्वर, कारंजा, पिंपरी, भातकुली आदि स्थानों की प्रतिष्ठाएं विशेष महत्त्वपूर्ण रहीं । आचार्य कुंदकुंद कृत समयसार पर आप की बहुत श्रद्धा थी तथा उस विषय पर आप के प्रवचन बहुत अच्छे हुआ करते थे । आप का स्वर्गवास ज्येष्ठ शुक्ल द्वितीया संवत् १९९५ मे हुआ । आप की समाधि कारंजा में है ।
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Achan
भट्टारक संप्रदाय
(सेनगण-कालानुक्रम) चन्द्रसेन आर्यनन्दि
वीरसेन ( संवत् ८७३)
गुणभद्र
विनयसेन ५जिनसेन (संवत् ८९४) ६ गुणभद्र ७ लोकसेन (संवत् ९५४) ८ कुमारसेन
वीरसेन
१० कनकसेन ( संवत् २५८ ) ११ वज्रपाणि ( संवत् १०५८) १२ ब्रह्मसेन १३ आर्यसेन
१४ महासेन ( संवत् १११०) १५ रामसेन ( संवत् ११३४ ) १६ रामचंद्र ( संवत् ११५१) १७ चंद्रप्रभ
१८ माधवसेन ( संवत् ११८१ ) १९ अनन्तवीर्य
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सेनगंणं
२० बाळचन्द्र
२१ प्रभाचन्द्र
२२ कल्नेले देव
२३ अष्टोपवासि देव
२४ हेमनन्दि
२५ विनयनन्दि
२६ एकवीर २७ पल्ल पण्डित ( संवत् ११८०) २८ मुनिसेन
२९. श्रीधरसेन ३० सोमसेन
३१ श्रुतवार
३२ घारसेन
३३ देवसेन ( संवत् १५१०)
३४ सोमसेन ( संवत् १५४१)
३५ गुणभद्र ( संवत् १५७२)
३६ वीरसेन
३७ युक्तवीर
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ma
भट्टारक संप्रदाय
३८ माणिकसेन ( संवत् १५५८ ,
३९ गुणसेन ( गुणभद्र )
४० लक्ष्मीसेन
४१ सोमसेन ( संवत् १५९७ ) ४२ माणिक्यसेन
४३ गुणभद्र
४४ सोमसेन (सं. १६५६--१६९६) ४५ जिनसेन (सं.१७१२--१७४२) ४६ समन्तभद्र ४७ छत्रसेन ( संवत् १७५४) ४८ नरेन्द्रसेन (सं.१७८७.-१७९०) ४९ शान्तिसेन (सं.१८०८-१८१६) ५० सिद्धसेन (सं.१८२६.-१८६९) ५१ लक्ष्मीसेन (सं.१८९९-.१९२२) ५२ वीरसेन (सं.१९३६--१९९५)
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२. बलात्कार गण - प्राचीन
श्रीचद्र
लेखांक ८६ - पुराण सार
धारायां पुरि भोजदेवनृपते राज्ये जयत्युच्चकैः श्रीमत्सागरसेनतो यतिपतेात्या पुराणं महत् । मुक्त्यर्थं भवभीतिभीतजगतां श्रीनंदिशिष्यो बुधो कुर्वे चारु पुराणसारममलं श्रीचंद्रनामा मुनिः । श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे सप्तत्यधिकवर्षसहस्रे पुराणसाराभिधानं समाप्तम् ।।
[अ. २ पृ. ५८ ] लेखांक ८७ - उत्तरपुराण टिप्पण
श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्रे महापुराणविषमपदविवरणं सागरसेन परिज्ञाय मूलटिप्पणं चालोक्य कृतमिदं समुच्चयटिप्पणं आज्ञापातभीतेन श्रीमद् बलात्कारगणश्रीनंद्याचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचंद्रमुनिना निजदोर्ददण्डाभिभूतरिपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य राज्ये ।।
[ उपर्युक्त ] लखांक ८८ - पद्मचरित टिप्पण
बलात्कारगणश्रीश्रीनंद्याचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचंद्रमुनिना श्रीमद्विक्रमादित्यसंवत्सरे सप्ताशीत्यधिकवर्षसहस्र श्रीमद्धारायां श्रीमतो भोजदेवस्य राज्ये पद्मचरिते...॥
[उपर्युक्त ] लेखांक ८९ - बेळगामि शिलालेख
केशवनंदि स्वस्ति समस्तभुवनाश्रयश्रीपृथ्वीवल्लभमहाराजाधिराजपरमेश्वर भट्टा रक-सत्याश्रयकुळतिळकं-चालुक्याभरणं श्रीमत् त्रैलोक्यमल्लदेवर विजयराज्य प्रवर्तिसे तत्पादपल्लवोपशोभितोत्तमांगं स्वस्ति समधिगतपंचमहाशब्द-महामंडलेश्वरं वनवासिपुरवरेश्वरं महालक्ष्मीलब्धवरप्रसादं श्रीमन्महामंडलेश्वरं चा-ण्डरायरसर वनवासिपन्निर् छासिरमनालुत्तमिरल राजधानिबलिगावेय
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४०
भट्टारक संप्रदाय
[९० - नेले वीडिनोळ् शक वर्ष ९७० नेय सर्वधारीसंवत्सरद ज्येष्ठशुद्धत्रयोदशी आदित्यवारदन्दु जजाहुति-श्रीशांतिनाथसंबंधियप्प बळगारगणद मेघनंदिभट्टारक शिष्यरप्प केशवनंदि अष्टोपवासिभट्टारर बसदिगे पूजानिमित्तदि धारापूर्वकं जिड्डुळिगे ७० र बळिय राजधानिबन्ळिगावेय पुल्लेय बयलोळू भेरुण्डगळेयोळ् कोट्ट गळ्दे मत्तरयदु अदर सीमे ॥
[जैन शिलालेख संग्रह भा. २ पृ. २२० ] लेखांक ९० - बलगाम्बे शिलालेख .
केशवदेव - स्वस्ति श्रीचित्रकूटानायदावलि मालवद शांतिनाथदेवसंबंध श्रीबलास्कारगण मुनिचंद्रसिद्धांतदेवर शिसिनु अनंतकीर्तिदेवरु हेग्गडे केसवदेवंगे धारापूर्वकं माडिकोटेवु प्रथिष्टे पुण्य सांतिः ॥
[ उपर्युक्त पृ. २६५] लेखांक ९१ - कोणूर शिलालेख
पद्मप्रभ श्रीरमणीभासि बलत्कारगणांभोधि कोण्डनूरोळ निधिगं । भूरमणीमकुटाळंकारदि नेसेदोप्पि तोर्प जिनमंदिरमं ॥ १२ उदयगिरींद्रदोळेसेवरतुदितोदयवागिबळेप चंद्रन तेरदन्तुदियिसिदं कुत्रळयकभ्युदयकरं तद्गणाद्रियोळ गणचंद्रं ।। १७ पक्षोपवासिदेवनपक्षय तन्मुनिपदाब्जमधुकरशीळं । रक्षितगुणगणनिळयमुमुक्षुजनानंदियप नयनंदिबुधं ॥ १८ आ नयनंदिय शिष्यं नानाविद्याविलासनूर्जितते । श्रीनारीनाथनबोल् भनुतना श्रीधरार्ययतिपतितिळकं ।। १९ तन्मुनिपदान्जमधुकरनुन्मदमिथ्याकथाविमथनं मुनिपं । सन्मार्गिचंद्रकीर्ति वियन्मार्गद चंद्रनंते कुवळयपूज्यं ॥ २० अतिचतुरकविचकोर प्रततिदरम्मेरनयनमींटिदपुदुदंबितकर्णचंचुपुढदि श्रुतिकीर्तिमुनींद्रचंद्रवाक्चद्रिकेय ।। २१ श्रीधरदेव सुयश: श्रीधरनधिगतसमस्तजिनपतितत्त्वश्रीधरनेसेदं सद्वाक् श्रीधरना चंद्रकीर्तिदेवन तनयं ॥ २२ आ मुनिमुख्यन शिष्यं श्रीमचारित्रचक्रिसुजनविळासं
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२. बलात्कार गण-प्राचीन
४१
भूमिपकिरीटताडितकोमळनखरश्मिनेमिचंद्रमुनींद्रं ।। २३ श्रीधरवनजदसिरियं साधिपेनेबतिरेसेव मधुपन तेरनं श्रीधरपदसरसिजदोळ् साधिपवोलेसेदु वासुपूज्यं पोल्तं ।।२४ बृंहितपरमतमदकरिसिंहं त्रैविद्यवासुपूज्यानुजनुद् घांसस्संहरनेसेद संहृतकामं यशस्विमलयाबुधं ।। २७ अतिचतुरकविकदंबकनुतपद्मप्रभमुनीशराद्धांतेशं । श्रुतकीर्तिप्रियनेसेसं यतिपत्रविद्यवासुपूज्यतनुजं ॥ २८
स्वस्ति श्रीमच्चालुक्यविक्रमकालद १२ नेय प्रभवसंवत्सरद पौषकृष्णचतुर्दशी वड्ड वारदुत्तरायण संक्रांतियंदुः ॥
( उपर्युक्त पु. ६३६ ) लेखांक ९२ - नेसर्गी शिलालेख
कुमुदचंद्र श्रीमूलसंघद बलात्कारगणद श्रीपार्श्वनाथदेवर श्रीकुमुदचंद्रभट्टारकदेवर गुड बाडिगसान्ति सेहियरु मुख्यवागिनखरंगळु माडिसिद नखर जिनालय ।।
( उपर्युक्त पृ. ३६४ ) लेखांक ९३ - संभवनाथ मूर्ति
देशनंदी संवत १२५८ श्रीबलात्कारगणे पंडित श्रीदेशनंदी गुरुवर्यवरान्वये साधु सीलेण तस्य भार्या हर्षिणी तयोः सुत साधु गासूल सांतेण प्रणमति नित्यं ।।
( पावागिरि, अ. १२ पृ. १९२) लेखांक ९४ - सोनागिरि शिलालेख
कनकसेन मंदिर सह राजत भये चंद्रनाथ जिन ईस । पोश सुदी पूनम दिना तीन सतक पैतीस ॥ मूलसंघ अर गण करो बलात्कार समुझाय । श्रवणसेन अरु दूसरे कनकसेन दुइ भाय ॥ चीजक अक्षर बांचक कियो सुनिश्चय राय। और लिख्यो तो बहुतसो नहि पयो लखाय ॥
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४२
भट्टारक संप्रदाय
लेखांक ९५ - विंध्यगिरि शिलालेख
श्री मूल संघपयः पयोधिवर्धनसुधाकराः श्रीबलात्कारगणकमलकलिकाकलापविकचन दिवाकराः बनवा त कीर्तिदेवाः तत्शिष्याः रायभुजसुदाम ''आचार्य महावादिवादीश्वर रायवादिपितामह-सकलविद्वज्जनचक्रवर्ति-देवेंद्रविशालकीर्तिदेवाः तत्शिष्याः भट्टारक श्री शुभकीर्तिदेवास्तत्शिष्याः कलिकालसर्वज्ञभट्टारक-धर्म भूषणदेवाः तत्शिष्याः श्रीअमरकीर्त्याचार्याः तत्शिष्याः मालि तिनृपाणां प्रथमानल 'रसित नुतपा यमुल्लासकदेमक ...चार्यपट्टविपुलाचला. करणमार्तण्डमण्डलानां भट्टारकधर्म भूषणदेवानां... तत्वार्थवार्धिवर्धमान हिमांशुना वर्धमान स्वामिना कारितोहं आचार्याणां ...स्वस्ति शकवर्ष १२८५ परिधावि संवत्सरे वैशाख शुद्ध ३ बुधवारे || ( जैन शिलालेख संग्रह १ पृ. २२३ )
लेखांक ९६ - विजयनगर शिलालेख
धर्मभूषण
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[ ९५
वर्धमान
श्रीमूल संघ जनि नंदिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणोतिरम्यः । तत्रापि सारखतनानि गच्छे स्वच्छाशयो भूदिह पद्मनंदी || ३ केचित्तदन्वये चारुमुनयः खनयो गिराम । जलधाविव रत्नानि बभूवुर्दिव्यतेजसः ॥ ५ तत्रासीच्चारुचारित्ररत्नरत्नाकरो गुरुः । धर्म भूषणयोगीन्द्रो भट्टारकपदांचितः ॥ ६ शिष्यस्तस्य मुनेरासीदनर्गलतपोनिधिः । श्रीमानमरकीर्त्याय देशिका प्रेसरः शमी ॥ ८ श्रीधर्मभूपोजनि तस्य पट्टे श्रीसिंहनंद्यार्यगुरोः सधर्मा | भट्टारकः श्रीजिनधर्म हर्म्यस्तम्भायमानः कुमुदेंदुकीर्तिः ॥ ११ पट्टे तस्य मुनेरासीद् वर्धमानमुनीश्वरः । श्रीसिंहनंदियोगींद्रचरणांभोजपट्पदः ।। १२ शिष्यस्तस्य गुरोरासीद् धर्मभूषणदेशिकः । भट्टारकमुनिः श्रीमान् शल्यत्रयविवर्जितः || १३ आसीदसीममहिमा वंशे यादवभूभृताम् । अखंडितगुणोदारः श्रीमान् बुक्कमहीपतिः || १५
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-- ९७]
बलात्कार गण--प्राचीन
उदभूद् भूभृतस्तस्माद् राजा हरिहरेश्वरः। कलाकलापनिलयो विधुः क्षीरनिधेरिव ॥ १६ आसीत्तस्य महीजानेः शक्तित्रयसमन्वितः। कुलक्रमागतो मंत्री चैचदण्डाधिनायकः ॥ १९ तस्य श्रीचैचदण्डाधिनायकस्योर्जितश्रियः। आसीदिरुगदण्डेशो नंदनो लोकनंदनः ॥ २० स्वस्ति शकवर्षे १३०७ प्रवर्तमाने क्रोधनवत्सरे फाल्गुनमासे कृष्णपक्षे द्वितीयायां तिथौ शुक्रवासरे। अस्ति विस्तीर्णकर्णाटधरामंडलमध्यगः । विषयः कुंतलो नाना भूकांताकुंतलोपमः ॥ २५ विचित्ररत्नरुचिरं तत्रास्ति विजयाभिधं । नगरं सौधसंदोहदर्शिताकांडचंद्रिकम् ॥ २६ तस्मिन्निरुगदंडेशः पुरे चारु शिलामयम् । श्रीकुन्थुजिननाथस्य चैत्यालयमचीकरत् ॥ २८ भद्रमस्तु जिनशासनाय ।
(भा. १ कि. ४ पृ. ९.) लेखांक ९७ - न्यायदीपिका
मद्गुरोर्वर्धमानेशो वर्धमानदयानिधेः ।
श्रीपादस्नेहसंबंधात् सिद्धेयं न्यायदीपिका ॥ १ इति श्रीमद्वर्धमानभट्टारकाचार्यगुरुकारुण्यसिद्ध-सारस्वतोदयश्रीमदभिनवधर्मभूषणाचार्यविरचितायां न्यायदीपिकायामागमप्रकाशः समाप्तः ।
(अ. १ पृ. २७२)
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बलात्कार गण-प्राचीन इस गण का नामकरण सबसे प्राचीन लेखोंमें ( ले. ८७,८८ | बलात्कार गण यही पाया जाता है। किन्तु इस का मूल रूप बळगार गण यही मालूम पडता है [ले. ८९ । इसके दूसरे रूप बळात्कार और बळकार भी हैं [ ले. ९१ ] इस गण के प्राचीन उल्लेख ज्यादातर कर्णाटक के मिले हैं किन्तु इन्ही में एकसे इस का सम्बन्ध चित्रकूट और मालवसे जोडा गया है [ले. ९०] । चौदहवीं सदी से इस के साथ सरस्वती गच्छ और उस के पर्यायवाची भारती, वागेश्वरी, शारदा आदि नाम जुडे हैं ले. ९६,१६७,१८१, आदि । इस नाम का सम्बन्ध उस वादसे जोडा जाता है जिसमे दिगम्बर संघ के आचार्य पद्मनन्दिने श्वेताम्बरोंसे विवाद कर पाषाणकी सरस्वती मूर्तिसे मन्त्रशक्ति द्वारा निर्णय कराया था । यह वाद गिरनार पर्वत पर हुआ कहा जाता है । ये पद्मनन्दि सम्भवतः आचार्य कुंदकुंद ही हैं । इन्हीं से इस गण का तीसरा विशेषण कुंदकुंदान्धय प्रचलित हुआ है ! ले. १०८ आदि । कहीं कहीं इसे नन्दिसंघ या नंद्याम्नाय भी कहा है (ले. २६७ आदि)।
बलात्कार गण का सब से प्राचीन उल्लेख आचार्य श्रीचन्द्र ने किया है । आप के दीक्षागुरु आ. श्रीनन्दि और विद्यागुरु आ. सागरसेन थे । आप का निवास धारा नगरी में था जहां उस समय महाराज भोज राज्य कर रहे थे । आपने संवत् १०७० मे पुराणसार, संवत १०८० मे उत्तरपुराण टिप्पण और संवत् १०८७ मे ,पद्मचरित टिप्पण की रचना की [ले. ८६-८८ ।।
इस गण के दूसरे आचार्य केशवनन्दि थे । चालुक्य वंशीय लोक्यमल्ल देव के राज्यकाल में शक ९७० की ज्येष्ठ शुक्ल १३ को जजाहुति के शान्तिनाथ मन्दिर के लिए मंडलेश्वर चावुण्डराय ने राजधानी बळ्ळिगावे से आप को कुछ दान दिया । आप अटोपवासी थे तथा मेधनन्दि भट्टारक के शिष्य थे (ले. ८९ ) ।
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बलात्कार गण-प्राचीन
इन के अनंतर चित्रकूटाम्नाय के मुनिचंद्र के प्रशिष्य तथा अनन्तकीर्ति के शिष्य केशवदेव को दिये गये दान का उल्लेख मिलता है । इस लेखका समय १२ वीं शताब्दी माना गया है [ ले. ९० ।
इन के बाद पद्मप्रभ आचार्य का उल्लेख आता है। आप की गुरुपरम्परा पक्षोपवासिमुनि-नयनन्दि-श्रीधर-चन्द्रकीर्ति-श्रीधर-नेमिचन्द्र-सहपाठी वासुपूज्य-पद्मप्रभ इस प्रकार कही गई है। संवत् ११४४ की पौष कृष्ण १४ को उत्तरायण संक्रान्ति के अवसर पर आप को कुछ दान दिया गया था [ ले. ९१ ।"
अगला उल्लेख भट्टारक कुमुदचंद्र की एक मूर्ति का है। जो पार्श्वनाथ के नगरजिनालय मे स्थापित की गई थी। इस का समय भी बारहवीं सदी माना गया है [ ले. १२ ] ।
__इन के बाद पंडित देशनंदि का उल्लेख मिलता है। आप ने संवत् १२५८ में एक संभवनाथ मूर्ति प्रतिष्ठापित की [ ले. ९३ ] ।
श्रवणसेन और कनकसेन इन दो बन्धुओं के द्वारा संवत् ३३५ की पौष शुक्ल १५ को प्रतिष्ठापित किये गये चन्द्रप्रभ मन्दिर का उल्लेख एक उत्तरकालीन लेख में मिलता है [ले. ९४ ] पं. प्रेमीजी का अनुमान है कि ये अंक १३३५ होंगे।
इन के अनन्तर स्वामी वर्धमान का शक १२८५ का उल्लेख प्राप्त होता है [ले. ९५] । आप की गुरुपरम्परा बनवा(सिवम)तकीर्ति-देवेंद्रविशालकीर्ति-शुभकीर्ति-धर्मभूषण-अमरकीर्ति धर्मभूषण वर्धमान इस प्रकार
२१ कुंदकुंदाचार्य विरचित नियमसार की संस्कृत टीका सम्भवत: इन्ही पद्मप्रभदेव की बनाई है।
२२ बलात्कार गण में सेनान्त नाम नहीं पाये जाते । संभवतः ये गृहस्थों के नाम हैं। २३ वर्धमान विरचित वरांगचरित के परिचय के लिये जयसिंहनंदि कृत वरांगचरित की डॉ. उपाध्ये लिखित प्रस्तावना देखिए ।
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भट्टारक संप्रदाय
वर्धमान के शिष्य धर्मभूषण हुए। इन के समय शक १३०७ की फाल्गुन कृष्ण द्वितीया को राजा हरिहर के मंत्री चैच दंडनायक के पुत्र इरुगप्प ने विजयनगर में कुन्थुनाथ का एक मन्दिर बनवाया [ले. ९६] । धर्मभूषण ने न्यायशास्त्रमें प्रवेश पाने के इच्छुक विद्यार्थियों के लिए न्यायदीपिका नामक ग्रंथ की रचना की। इस के प्रथम प्रकाश में प्रमाणलक्षण का, दूसरे प्रकाश में प्रत्यक्ष प्रमाणों का तथा तीसरे प्रकाशमें परोक्ष प्रमाणों का अच्छा विवेचन किया गया है [ ले. ९७] ।
-
बलात्कार गण-प्राचीन-कालपट
१ श्रीनन्दि
२ श्रीचन्द्र [संवत् १०७०-१०८७) ३ मेघनन्दि
४ केशवनन्दि (संवत् ११०४) ५ मुनिचन्द्र
६ अनन्तकीर्ति
७ केशवदेव ८ पक्षोपवासी
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बलात्कार गण--प्राचीन
९ नयनन्दि
१० श्रीधर
११ चन्द्रकीर्ति
१२ श्रीधर
१३ वासुपूज्य १४ नेमिचन्द्र
१५ पद्मप्रभ [ संवत् ११४४ ] १६ कुमुदचन्द्र १७ देशनन्दी [ संवत् १२५८] १८ श्रवणसेन-कनकसेन सिं.१३३५] १९ वनवासि वसन्तकीर्ति २० देवेंद्र विशालकीर्ति
२१ शुभकीर्ति
२२ धर्मभूषण
२३ अमरकीर्ति
२४ सिंहनन्दि २५ धर्मभूषण २६ वर्धमान [ संवत् १४१९] २७ धर्मभूषण [संवत् १४४२)
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३. बलात्कार गण - कारंजा शाखा लेखांक ९८ - पट्टावली
अमरकीर्ति श्रीनंदिसंघ-सरस्वतीगच्छ-बलात्कारगणाग्रगण्यानां आचार्यवरेण्यानां परंपराप्रवर्तितमहासिंहासनयोग्यानां श्रीमदमरकीर्तिराउलप्रियाप्रमुख्यानां ।
[ ना. ८८] लेखांक ९९ - दशभक्त्यादि महाशास्त्र विशालकीर्ति
भट्टारको बलात्कारगणाधीशो महाताः । विशालकीर्तिवादींद्रः परमागमकोविदः ।। सिकंदरसुरित्राणप्राप्तसत्कारवैभवः । महावादिजयोद्भूतयशोभूषितविष्टपः ॥ श्रीविरूपाक्षरायस्य श्रीविद्यानगरेशिनः । सभायां वादिसंदोहं निर्जित्य जयपत्रकम् ॥ स्वीकृत्य च महाप्रज्ञाबलेन बुधभूभुजैः । मतं सरस्वतीमूलशासनं वा सदोज्ज्वलम् ।। देवप्पदंडनाथस्य नगरे श्रीमदारगे। प्रकाशितमहाजैनधर्मोभाद्भूसुरार्चितः ।।
( भा. प्र. पृ. १२५) लेखांक १०० - पट्टावली
विद्यानंद प्रचंडाशेषतुरखराजाधिराजअल्लावदीनसुलतानमान्यश्रीमदभिनववादिविद्यानंदस्वामिनां ।
( म. ५७) लेखांक १०१ - दशभक्त्यादि महाशास्त्र
विशालकीर्तेः श्रीविद्यानंदस्वामीति शद्वितः । अभवत्तनयः साधुमल्लिरायनृपार्चितः ॥ कावेरीसरिदंबुवेष्टनलसच्छ्रीरंगसत्पत्तने
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-- १०२] ३. बलात्कार गण-कारंजा शाखा
लक्ष्मीवल्लभरंगनाथमहिते श्रीवीरपृथ्वीपतेः । आस्थाने विबुधवजं विजयवाग्वृत्तेर्विजित्यावनौ विद्यानंदमुनीश्वरो विजयते साहित्यचूडामणिः ॥ वीरश्रीवरदेवरायनृपतेः सद्भागिनेयेन वै पद्मांयाकलगर्भवाधिविधुना राजेंद्रवंद्यांघ्रिणा । श्रीमत्सालुवकृष्णदेवधरणीकांतेन भक्त्यार्चितो विद्यानंदमुनीश्वरो विजयते स्याद्वादविद्यापतिः ।। यो विद्यानगरीधुरीणविजयश्रीकृष्णरायप्रभोरास्थाने विदुषां गणं समजयत्पंचाननो वा गजम् । सद्वाग्भिनखरैरुदात्तविमलज्ञानाय तस्मै नमो विद्यानंदसुधीश्वराय जगति प्रख्यातसत्कीर्तये ॥ शाके वह्निखराब्धिचंद्रकलिते संवत्सरे शार्वरे शुद्धश्रावणभाक्कृतान्तधरणीतुग्मैत्रमेषे रवौ । फर्किस्थे सुगुरौ जिनस्मरणतो वादींद्रवृन्दार्चितः विद्यानंदमुनीश्वरः स गतवान् स्वर्ग चिदानंदकः ।
(भा. ग्र. पृ. १२६) लेखांक १०२ - दशभक्त्यादि महाशास्त्र देवेंद्रकीर्ति
स्वामिविद्यादिनंदस्य भारतीभाललोचनं । सूनुर्देवंद्रकीार्यो जातो भट्टारकाग्रणीः ॥ बलात्कारगणांभोजभास्करस्य महाद्यतेः । श्रीमद्देवेंद्रकीाख्यभट्टारकशिरोमणेः ॥ शिष्येण ज्ञातशास्त्रार्थस्वरूपेण सुधीमता । जिनेंद्रचरणाद्वैतस्मरणाधीनचेतसा ।। वर्धमानमुनींद्रेण विद्यानंदार्यबंधुना । कथितं दशभक्त्यादिशासनं भव्यसौख्यदं ॥ शाके वेदखराब्धिचंद्रकलिते संवत्सरे श्रीप्लवे सिंहश्रावणिके प्रभाकरशिवे कृष्णाष्टमीवासरे । रोहिण्यां दशभक्तिपूर्वकमहाशास्त्रं पदार्थोज्ज्वलं विद्यानंदमुनिस्तुतं व्यरचयत् सद्वर्धमानो मुनिः ।।
(भा. प्र. पृ. १२२)
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भट्टारक संप्रदाय
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लेखांक १०४ - पट्टावली
५०
लेखांक १०३ - पट्टावली
तत्पट्टोदयाद्रिदिवाकरायमान- नित्याद्येकांतवाद - प्रथमवचनखंडन प्रवचनरचना डंबर- षड्दर्शनस्थापनाचार्य पट्तर्कचक्रेश्वर श्रीमद्देवेंद्र कीर्तिदेवानां ॥
( म. ५७ )
सार्थकनामभट्टारकश्रीमद्धर्मचंद्रदेवानां ॥
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लेखांक १०६ - पट्टावली
[ १०३ -
तत्पट्टोदयदेवगिरिपरमताभिव्यंजनतिमिरनिर्नाशनदिनकरसमानानां
धर्मचंद्र
लेखांक १०५ - पद्मावती मूर्ति
सक १४८७ प्रजापत संवत्सरे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भ. धर्मचंद्राणाम उपदेशात् ज्ञाति बघेरवाल भुरा गोत्रे सा रतन भार्या पुतली ॥
( उपर्युक्त )
( र. सुं. खेडकर, नागपुर )
धर्मभूषण
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तत्पट्टोदयाचलदिवाकरायमानभट्टारक श्रीधर्म भूषणदेवानां ॥
[म. ५७ ]
लेखांक १०७ - चंद्रप्रभ मूर्ति
सके १५०३ वृषनाम संवत्सरे फागुण सुदि ७ श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे भ. धर्मभूषणोपदेशात् बघेरवालज्ञाति ठवला गोत्रे सं. पासुसा ॥ [ अं. गु. मिश्रीकोटकर, नागपुर ]
देवेंद्रकीर्ति
लेखांक १०८ - नेमिनाथ मूर्ति
शके १५०३ वृषनानि संवत्सरे फाल्गुणमासे शुकपक्षे ६ बुधवासरे श्रीमूल संघ सरस्वती गच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीधर्म
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- ११३ ]
३. बलात्कार गण- कारंजा शाखा
चंद्रस्तत्पट्टे भ. श्रीधर्म भूषणस्तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्त्यपदेशात् श्रीव्याघ्ररेवालज्ञातीय खंडोरिया गोत्रे ॥
( अ. १ )
लेखांक १०९ - अंबिका रास
संवत १६४१ वर्षे कार्तग वदि ५ दिने श्रीएरंडवेलसुभस्थाने श्रीधर्मनाथचैत्यालये मुनिश्री देवेंद्रकीर्ति लक्षितं बाई हरषमती पठनार्थं ॥
[ना. ३५]
लेखांक १११ - नेमिनाथ पूजा
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लेखांक ११० - द्वादशानुप्रक्षा
शके १५१४ नंदननाम संवत्सरे पौषमासे शुक्लपक्षे त्रयोदसितिथौ गुरुवारे वराडदेशे श्रीमूलसंघे भ. धर्मचंद्र तत्पट्टे भ. धर्मभूषण तत्पट्टे भ. देवेंद्र कीर्ति.. 'गंगराडाज्ञाति लघु नंदिग्रामे आदशेटी - ताभ्यां स्वहस्ते
लिखितं ॥
[ना. १५]
जलाद्यैर्यजेहं मुदार्घेण देवं सुधर्मादिभूषं गुरुं भूपसे । परं प्राप्तकैवल्यराज्यं विशालं सुदेवेंद्रकीर्तिस्तुतं शर्मशालं ||
लेखांक ११२ - नंदीश्वर पूजा
५१
सुभक्तिभाव पूजये परापरं जिणालये । सुधर्मभूष सायरं सुरेंद्रकीर्तिचर्चितं ॥
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( म. १० )
( म. ८ )
लेखांक ११३ - १ मूर्ति
कुमुदचंद्र
शक १९२२ सर्वरि नाम संवत्सरे मूलसंघे वैसाख सुदि १३ दिने श्रीमूलसंघे भ. धर्मचंद्र तत्पट्टे भ. श्रीधर्मभूषण तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्ति
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५२
भट्टारक संप्रदाय
[११४ - तत्पट्टे भ. श्रीकुमुदचंद्र । भ. श्रीदेवेंद्रकीर्ति उपदेशात् सं. वसराज नित्यं प्रणमंति ॥
( आर्वी, अ. ४ पृ. ५०२) लेखांक ११४ – ? मूर्ति
शक १५३५ प्रमादि संवत्सरे फाल्गुण सुदि ५ श्रीमूलसंघे .... 'भ. श्रीधर्मचंद्रः धर्मभूषणः देवेंद्रकीर्तिः तत्पट्टे कुमुदचंद्रोपदेशात् सैतवालज्ञातीय रत्नसाह समरासाह नित्यं प्रणमंति ॥
(बाळापुर, अ. ४ पृ. ५०२) लेखांक ११५ - पार्श्वनाथ पूजा
मलयादिमृगपतिपीठमंडितधर्मभूषणवंदितं देवेंद्रकीर्तिमुनींद्रसंभवकुमुदचंद्रसुवंदितं । श्रीसंघसारविशेषवरकृतभावभूतिविभूवरं भजतु भावजनाशकारणपार्श्वनाथजिनेश्वरं ॥
[ ना. ७८ ] लेखांक ११६ - (पंचस्तवनावचूरि ) भ, श्रीकुमुदचंद्रैः ब्रह्मश्रीवीरदासाय दत्तमिदं पुस्तकं ॥
[ ना. ४८ ] लेखांक ११७ - सुदर्शन चरित्र
धर्मचंद्र
श्रीमूलसंघ बलात्कारगण । सरस्वतिगछ प्रमाण ।। विश्वास वंश कुल मंडन । वृषभ चिन्ह गोत्रासी ॥ ५३ सोहितवाल प्रथम याती। ते वंसी जया जन्म स्थिती ।। धर्मचंद्र गुरु दीक्षापती । नाम स्थिती वीरदास ॥ ५४ पुढती दीक्षा महाव्रती। गुरु धर्मचंद्र समर्थ ॥ मस्तकी ठेऊनी हस्त । पासकीर्ति नामना ॥ ५५ शके पंधरासे एकुनवचास । प्रभव संवत्सर नाम वर्ष ॥ फाल्गुण वद्य दशमी दिवस । गुरु वासर ते दिनी ॥ ५६
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- १२२ ]
३. बलात्कार गण- कारंजा शाखा
श्रवण नक्षत्र ते प्रमाण | सिद्धयोग तो शुद्ध जाण ॥ भद्रा सप्त नाम करण । ग्रंथ जाण समाप्त ॥ ५७
लेखांक १९८ - बहुतरी
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11
नमिला म्या गुरु । सत्य धर्मचंद्रु ॥
त्रीसुद्धी हा वरु | मज त्याचा ४० येने पंथे पासकीर्ति म्हने जना ॥ सिद्ध सोहं गुना । सुअष्टभावे ।। ४५
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लेखांक १२० - पद्मावती मूर्ति
प्रसंग २५ [ ना. ४]
लेखांक ११९ - कलिकुंड यंत्र
संवत १६८६ श्रीमूलसंघे भ. श्रीधर्मचंद्र तदानीय आ. पासकीर्ति तदुपदेशात् संघवी बरहर साह गोलसिंघारा रामटेक सांतिनाथ प्रसादेनू ज्येष्ठ वद्य ५...
( पा. २७)
५३
लेखांक १२२ - पार्श्वनाथ मूर्ति
[ ना. ५१]
संमत १६९२ मिती वैशाख वदी १९ सोमवासरे भ. धर्मचंद्रजी ॥ ( सैतवाल मन्दिर, नागपुर )
लेखांक १२१ - चरणपादुका
सं. १६९३ वर्ष शके १५५९ मनु नाम संवत्सरे मागसिर शुक्ला २ शनै शुभमुहूर्ते श्रीमूलसंघे.भ. कुमुद चंद्रास्तत्पट्टे भ. श्रीधर्मचंद्रोपदेशात् जयपुरशुभस्थाने बघेरवालज्ञाति सं. श्रीपासा... |
[ चम्पापुर, भा. १९ पृ. ५९ ]
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शके १५६१ प्रमाथीनाम संवत्सरे फाल्गुण शुवि २ बृहस्पतिवार
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भट्टारक संप्रदाय
[१२२ --- श्रीमूलसंधे. भ. श्रीधर्मचंद्रोपदेशात् बघेरवालज्ञातीय ..॥
(का. ४) लेखांक १२३ - चौवीसी मूर्ति
___ शके १५६७ पार्थिव नाम संवत्सरे श्रीमूलसंधे भ. धर्मचंद्रोपदेशात् बघेरवालज्ञातीय खंडारिया गोत्रे श्रावण · · |
(दे. मा. दर्यापुरकर, नागपुर ) लेखांक १२४ - ? मूर्ति
शके १५६९ सर्व · 'जेष्ठ श्रीमूलसंघे भ. श्रीधर्मभूषण तत्पट्टे भ. देवेंद्रकीर्नि तत्यहे भ. कुमुदचंद्र तत्प? भ. श्रीधर्मचंद्र तदानाये धर्माचार्य पासकीर्ति तदुपदेशात् साहितवालज्ञातीय ॥
(बाळापुर, अ. ४ पृ. ५०४) लेखांक १२५ - चौबीसी मूर्ति
वों नम सिद्धेभ्यः गोमटस्वामी आदीश्वरमूलनाईक चोवीस तीर्थकरकि परतीमा चारकीरति पंडित धरमचंद्र बलातकार उपदसा शके १५७० सर्वधारी नाम संवत्सरे वैशाख वदी २ सुकुरवार देहरांकी पत्ती स्यहै गेरवाल चवरे गोत्र जीनासा... ||
श्रवणबेलगुल, [जैनशिलालेख संग्रह १ पृ. २२९ ] लेखांक १२६ - धर्मचंद्र गुरु पूजा ( पूजा-) कुमुदचंद्रपदे प्रयजे वरं ।
सुगुणधर्मसुचंद्रमुनीश्वरं ॥ १॥ (स्तुति-) स भवतु वरभूत्यै धर्मचंद्रो मुनींद्रो द्विजकुलमहितोसौ वासुदेवेन बंद्यः ॥ १० ॥
[म. ६३]
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Anh
-- १३२] ३. बलात्कार गण-कारंजा शाखा लेखांक १२७ - पार्श्वनाथ मूर्ति
धर्मभूषण शाके १५७२ विकृती संवत्सरे फाल्गुण शुद्ध ११ शुक्र भ. श्रीधर्मभूषणैः प्रतिष्ठितं ।।
[का. ५] लेखांक १२८ - षोडशकारण यंत्र
शक १५७६ वर्षे जयनाम संवत्सरे मार्गशिर्ष सुद १० श्रीमूलसंघे... श्रीधर्मचंद्र भ. श्रीधर्मभूषणोपदेशात् नेवाज्ञातीय नहिया गोत्रे सा गणसा सुत ढदुसा एते षोडशकारण यंत्र नित्यं प्रणमंति ।।
[अ. ४ पृ. ५.३] लेखांक १२९ – ? मूर्ति
शके १५७७ वैसाख सुदि ९ शुक्रे मूलसंघे 'भ. कुमुदचंद्र तत्पट्टे भ. धर्मचंद्र तत्पट्टे भ. धर्मभूषणोपदेशात् मीन सेठ भार्या चाणइ...॥
[कोंढाळी, अ. ४ पृ. ५०५ ] लेखांक १३० - पार्श्वनाथ मूर्ति सक १५७८ मूलसंघे भ. धर्मभूषण ।
[. हि. जोहरापुरकर, नागपुर ] लेखांक १३१ - चौवीसी मूर्ति
___ शके १५७९ वर्षे मार्गसिर सुदि १४ बुधे श्रीमूलसंघे भ. देवेंद्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. कुमुदचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. धर्मचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. धर्मभूषणगुरूपदेशात् बघेरवालज्ञातीय हरसौरा गोत्रे सा गंगासा भार्या चांगाबाई ।।
[नांदगांव, अ. ४ पृ. ५०५ ] लेखांक १३२ - नेमिनाथ मूर्ति
सके १५८० वर्षे विरोधिनाम संवत्सर मार्गशिर शुदि ५ शुक्ने श्रीमूलसंघे .. 'भ. श्रीदेवेंद्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. कुमुदचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. धर्मचंद्रदेवा'
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५६ भट्टारक संप्रदाय
[१३३ - तत्पट्टे भ. श्रीधर्मभूषणोपदेशात् बघेरवालज्ञातीय हरसौरा गोत्रे सं. मेघ तस्य भार्या... ||
[का २] लेखांक १३३ - पार्श्वनाथ मूर्ति
शके १५८६ वर्षे क्रोधनाम संवत्सरे तिथी फागुण सुद ५ श्रीमूलसंघे... भ. धर्मचंद्र तत्पट्टे भ. धर्मभूषण महाराज प. नेमाजी भार्या राजाई पुत्र सोकराजी ता प्रतिष्ठितं ॥
[पा. ४३] लेखांक १३४ - श्रेयांस मूर्ति
शके १५९७ मूलसंघे बलात्कारगणे भ. धर्मभूषण - 'ॐ हरीसाव पुत्र फकीचंद प्रणमंति ॥
[पा. १०६] लेखांक १३५ - रत्नत्रयउद्यापन
इग्बोधादिकशुद्धवृत्तजनितं रत्नत्रयं सद्वतं तत्पूजा रचिता मुनेंद्रगणिना पुण्यात्मना सूरिणा। सद्भट्टारकधर्मचंद्रपदभृद्धर्मादिभूषात्मना भव्योपासकशीतलेशविहितप्रश्नात् निजार्थात् वरं ।
[ना. ९] लेखांक १३६ - चौवीसी मूर्ति
धर्मचंद्र शके १६०७ प्रभाव नाम संवत्सरे फाल्गुण वदि १० भ. धर्मचंद्र उपदेशात् । 'नगरे ज्ञाते उज्बेली पल्लीवार गोदसा भार्या सेमाई प्रणमंति ॥
(पा. १७) लेखांक १३७ - [ श्रुतस्कंध कथा]
सं. १७४३ वर्षे श्रावण शुदि ७ शुक्रे भ. श्री ६ धर्मचंद्रः तस्य पंडित गंगादास लिखितं । श्रीकार्यरंजकनगरे श्रीचंद्रप्रभचैत्यालये ॥
(प. १)
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३. बलात्कार गण- कारंजा शाखा
- १४२ ]
लेखांक १३८ - पद्मावती मूर्ति
शके १६१२ ज्येष्ठ वदि ७ श्रीमूलसंघे भ. धर्मभूषण तत्पट्टे भ. विशालकीर्ति तत्पट्टे भ. धर्मचंद्रोपदेशात् बघेरवालज्ञाति खडासो गोत्रे सा राघुसा सुत लपुसा अंबिकां नित्यं प्रणमति ॥
( मा. बा. आगरकर, नागपुर )
लेखांक १३९ - पार्श्वनाथ भवांतर
लेखांक १४० - आदितवार कथा
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सके सोलाशे वर बारा सुध पुस मास । प्रमोद संवत्सरे सुक्रवार त्रयोदस || कीर्तन पूर्ण जाले धर्मचंद्रचा आदेस | त्याहांचा पंडित मेती गंगादास || जिनगुणाचे कीर्तन | भवांतर केले डफगाण | कवित्व केले गंगादासान | तुम्ही आयिका चित्त देऊन ॥ ४७ ( ना. ६)
लेखांक १४१ - मेरुपूजा
विशालकीर्ति विमलगुण जाण जिनशासनकज प्रगट्यो भाण । तत्पदकमलदलमित्र धर्मचंद्र धृतधर्म पवित्र ।। ११२ तेहन पंडित गंगादास कथा करी भवियण उल्लास । शक सोला शत पन्नर सार शुदि आषाढ बीज रविवार ।। ११३
[ ना. ५४ ]
जलचंदनशालिजपुष्पचरुप्रमुखेन सदर्घभरेण वरं । वृषचंद्रपदांबुजभृंगसुगंगबुधेन सदा नमितं सुकरं ॥
लेखांक १४२ - क्षेत्रपाल पूजा
५७
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सूरिश्रीधर्मचंद्रप्रवरपदपयोजाप्रभृंगोपमानः
श्रीमान् सोभाभिधानो जिनभजनरतः पद्मसंघेशपुत्रः ।
( म. १२ )
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५८
भट्टारक संप्रदाय
[१४३ - तद्वाक्याद्नंगदासैः प्रविरचितमिदं क्षेत्रपालार्चनं तत् भक्त्या कुर्वतु तेषां वरतरकुशलं क्षेत्रपाला दिशतु ।।
(ना. ८५) लेखांक १४३ - संमेदाचलपूजा
... ततोभवत् सूरिविशालकीर्तिः
पट्टे तदीये गुरुधर्मचंद्रः ।। . . 'तत्पादाब्जयरागलोलुपलस गोतिभक्तेर्भरात् चक्रे स्वापरचिंतितार्थफलदां गंगादिदासो बुधः ।।
(च. ३०) लेखांक १४४ - त्रेपन क्रिया विनती
कारंजे सुख करण चंद्र जिन गेह विभूषण । मूलसंघ मुनिराय धर्मभूषण गतदूषण ॥ विशालकीर्ति तस पाट निखिलवंदितनरनायक । तस पट्टाबुजसूर धर्मचंद्रह सुखदायक ।। तस पत्कज षट्पद मुदा गंगदास वाणी वदे। त्रिपंचास क्रिया सदा भवियन जन राखो हृदे ॥ ११
(ना. ४२) लेखांक १४५ - जटामुकुट
धर्मचंद्र गुरु पद नमी गंगादास वानी वदे । संघपति मेघा वचनथी जिन चिंतन चिंत्यो हृदे ।। ६
(म. ९९) लेखांक १४६ - कैलास छप्पय
कीर्ति विशाल विशाल पदपंकज दल भासन । धर्मचंद्र भवतार सार शोभित जिनशासन ॥
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- १५१] ३ बलात्कार गण--कारंजा शाखा
कारंजे करुणानिधान चंद्रनाथ चित्ते धरी । हीरासाह आग्रह थकी अष्टापदनी स्तुति करी ।। २१
( ना. ६७) लेखांक १४७ - बिरुदावली
__.. भट्टारकश्रीविशालकीर्तिदेवानां । तत्पट्टे 'श्रीमलयखेडसिंहासनाधीश्वरभट्टारकश्रीधर्मचंद्रदेवानां तपोराज्याभ्युदयसिद्धिरस्तु श्रीखोलापूरग्रामे श्रीसुपार्श्वनाथचैत्यालये श्रीसंघपुण्यार्थ · · ॥
(च. १३) लेखांक १४८ - चौवीसी मूर्ति
देवेंद्रकीर्ति संमत १७५६ मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे देवेंद्रकीर्ति प्रतिष्ठा मिती माघ सुद ५॥
(पा. ३७) लेखांक १४९ - यात्रापूर्ति लेख
सके १६४३ पौस वदि १२ शुक्रवारे भ. देवेंद्रकीर्ति सहित बघेरवाल जाती हिरासाह सुत हाससा सुत चागेवा सोनाबाई राजाई गोमाई राधाई मन्नाई सहित जात्रा सफल करी कारंज कर ॥
श्रवणबेलगुल ( जैन शिलालेख संग्रह १ पृ. ३४५) लेखांक १५० - कल्याणमंदिर पूजा
गुणवेदांगचंद्राब्दे शाके १६४३ फाल्गुनमास्यदं । कारंजाख्यपुरे दृष्टं चंद्रनाथदेवार्चनं । इति श्रीबलात्कारगळेयं भ. देवेंद्रकीर्ति विरचितं । कल्याणमंदिरपूजा संपूर्ण ।।
(ना.७४) लेखांक १५१ - विषापहारपूजा
साहारे निर्मितचारुशुभ्रा सद्विठलाख्याग्रहतो विचित्रा ।
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६०
भट्टारक संप्रदाय
[१५१ -- श्रीशांतिनाथस्य गृहे गुणाढ्यं जीयात्सुपूज्या गुणधामसुद्धा । इति भ. देवेंद्रकीर्तिकृत विषापहारस्तोत्रपूजा संपूर्णा ।।
(ना. ७४) लेखांक १५२ -
नासिक त्रिंबक गाम समीप महागजपंथ धराधर सारं । ध्यान बले वसु कोडि मुनीस गया जिह कर्मजिती भवपारं ॥
षोडश पन्नास पोस समुज्ज्वल बीज तिथी दिननायकवारं । · देवेंद्रकीर्ति नमे जिनरत्नचंद्रांबुधिरूपविद्यार्थी संवारं ।।
(म. ७८) लेखांक १५३ -
भागलदेस महेंद्रपुरी तस संनिधि मांगि गिरी तुंगि तुंगं । हलधर माधव कोडि तपोधन मुक्ति बरी करी कल्मषभंग ॥ शून्यशरान्वितषड्विधु पौष त्रयोदश शुक्ल गुरूदिन चंगं । देवेंद्रकीर्ति नमे जिनरत्नचंद्रांबुधिरूपवीरादिकसंग ॥
( उपर्युक्त ) लेखांक १५४ - णायकुमार चरिउ
संवत १७८५ वर्षे शाके १६५८ कीलक नाम संवत्सरे माघमासि प्रतिपत्तिथौ सोमधूसे नवमससंपदे सूरति बंदिरे वासुपूज्यचैत्यालये गिरचारयात्रागमनसमये भ. श्रीधरमचंद्रपट्टधारिदेवेंद्रकीर्तिभ्यः रामजी संघाधिप पुत्र आणंदनाना हूंबढ श्रावकेण दत्तमिदं पुस्तकम् ॥
(प्रस्तावना पृ. १३, कारंजा जैन सीरीज ) लेखांक १५५ -
देश खडकमे धूलिय गाम युगादि जिनाधिप पुण्यपवित्रा। जाकी दिगंतर विश्रुतउज्वलकीर्ति जपे नर देव कलत्रं ॥ रूप शरान्वित षोडश वैशाख कृष्ण त्रयोदशि चंद्रमपुत्रं । देवेंद्रकीर्ति नमे जिनरत्नचंद्रांबुधि रूपजी वीरजी छात्रं ॥
(म. ७८ )
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- १५९] ३. बलात्कार गण-कारंजा शाखा लेखांक १५६ -
गुजर देश सुतारंग पर्वत कोडिशिलोपरि कोडि मुनीसा । कोडि अउद्र वली वरदत्त पुरःसर भेदि जवंजव खासा ।। चंद्र शराधिक षोडश उज्ज्वल पंचमि भार्गव मार्गक वासा । देवेंद्रकीर्ति भट्टारक संग समेत नमे करि भूतल सीसा ।।
(उपर्युक्त ) लेखांक १५७ -
सोरट देश सुरेवतकाचल नेमि मुनीश बहत्तर कोडी। काम पुरोग ऋषीशत योगी शिवंगय संसृति वल्लरि तोडी ।। पुष्प रवी व बारसि इंदुशरतुकलेश समा अतिरूडी । देवेंद्रकीर्ति भट्टारक संग समेत नमे करपंकज जोडी ॥
( उपर्युक्त ) लेखांक १५८ -
सोरट देश अरिंजय भूधर भूरिजिनेश्वर बिंब अनूपा । पांडु सुत त्रय मोक्ष गया वसु कोडि तथा वर लाड सुभूपा ॥ एकशरान्वित षोडश वत्सर कालिम माघ चतुर्थि उडूपा । देवेंद्रकीर्ति भट्टारक भाव समेत नमे शांतिसागररूपा ॥
[ उपर्युक्त ] लेखांक १५९ - कथाकोष
श्रीचंद्र संवत १७८७ वर्षे भादवा शुदि ५ शुक्रे ।। श्रीरस्तु । श्रीसुरति बंदरे वासुपूज्यचैत्यालये लिखापितमिदं पुस्तकं श्रीमूलसंघे मलयखेडसिंहासनाधीश्वर-कार्यरंजक-पुरवासि भ. श्रीधर्मचंद्रदेवास्तत्पट्टे भ. देवेंद्रकीर्तयस्तैर्लिखापितं आर्यिका श्रीपासमतिपरोक्षदत्तवित्तेन ।
[म. प्रा. पृ. ७२७]
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भट्टारक संप्रदाय
[१६१ - लेखांक १६० - नंदीश्वर आरती
नर्तत पूजन सहित इंद्रादिक यात्रा प्रति वर्षे । श्रीवृषचंद्र पदेश्वर देवेंद्रकीर्ति नमे हर्षे ॥ ३
(आरती संग्रह २, च. १९२५) लेखांक १६१ -- देवेंद्रकीर्ति गुरु पूजा
सत्शब्दागमशास्त्रपाटनपटुश्रीकुंदकुंदो यती तत्पट्टान्वयके वृषेदुरभवद्धर्मादिभूषस्ततः । विख्यातः सुविशालकीर्तिरतुलः श्रीधर्मचंद्रस्ततः तत्पट्टे जयति प्रसन्नहृदयो देवेंद्रकीर्तिर्मुनिः । .. 'धर्मचंद्र पटि रयन गणित सुभ शास्त्र वखाणो ।
देवेंद्रकीर्ति गछराज आंगि तृणांवर धरण ॥ वाग्वादिनी कंठी वसी गोतम सम गुरु अवतन्यो। बुद्धिसागर एवं वदति विकट भवार्णवते तन्यो ।। ''देवेंद्र कीर्ति मुनिपति परिग्रह तसु बहु अंगे। कह गुणवर्णन करू नही आवे मन संगे । आत्मध्यान मोहित सदा सिव साधन आशा करी । सुरत शहर चवमासमे रूपचंदने स्तुति करी ॥ . . 'ज्याको पिता बनारसी आगराको वासी ।
सुरत शहरमे उदीमके लीयते । वराडके मुनिंद आये रहे बरखाकालमाहे.
वंदना नही कीनही देखी परीग्रहते ॥ सुद्धज्ञानसो निहार तुर्य काल मन विचार
काय मन वचनसो चिदानंद लहेते । ऐसे दवेंद्रकीर्ति जिवनदास करत बिनती संभाल लेवो परभवमे मोह निकट आयते ।।
( म. १२७) लेखांक १६२ - अनंत आरती
रस सिंधु षट् चंद्र शकेसी।
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- १६६ ]
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३ बलात्कार गण- कारंजा शाखा
शीतचतुर्दशीसी भाद्रपद मासी । शशिप्रभु भुवनी । रतली जिनचरणी ॥ ४ ॥ पंचमकाली सम यती । गुरु देवेंद्रकीर्ति । लघुशिष्य श्रीमानिकनंदि । मंडलाचार्यपदी ॥ ५
लेखांक १६३ - आदित्यव्रत कथा
लेखांक १६४ - जिनकथा
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श्रीमत् सुकारंजकपूरवासी देवेंद्रकीर्ति प्रिय सज्जनासी । त्याचा लघू पंडित जैनदास त्याने कथेचा रचिला विलास ॥ ४३ रसान्धिषट्चंद्र जदा सकासी तई मधू मास सुकृष्णपक्षी । सुपंचमी तो गुरुवार जेव्हा कथा असी हे परिपूर्ण तेव्हा ॥ ४४ ( ना. १६ )
लेखांक १६५ - पद्मावती कथा
श्रीमत्कारंजपुरवासी | देवेंद्रकीर्ति गुरूसी ॥ अंतरी स्मरोनी आदरेसी । रचिली कथा || २०७ नृप सालिवाहन सके गनित । सोळासे एकोन पंचाशत || लवंग नाम संवत्सरांत | पूर्ण कथा || २०८ Ers देस कारंजनगर । श्रीमचंद्रनाथ मंदिर || तेथ कथा हे सुंदर | संपूर्ण केली ॥ २१०
( आरती संग्रह २, च. १९२५ )
लेखांक १६६ - पुष्पांजलि कथा
६३
• श्री कुंदकुंदान्त्रय वंशि जाला । देवेंद्रकीर्ति जिनसागराला ॥ ६४ नेत्र बाण रस इंदु सकेसी आश्विनात सित द्वादशि दीसी । पूर्ण हे कथन माझे मतिने अधिक ते करि या जनि शाहने ।। ६५
(अ. ५२ )
श्रीकुंदकुंदान्वय त्याच वंसी देवेंद्रकीर्ति प्रिय सज्जनासी ।
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( ना. १२ )
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भट्टारक संप्रदाय
[१६७ - ऐसी कथा हे बरवी विधीने सांगीतली हो जिनसागराने ।। १०२ इति श्रीदेवेंद्रकीर्तिप्रिय सिष्य जिनसागर कृत पुस्पांजलि व्रतकथा संपुर्ण ॥ शके सोलाशे साठ १६६० ।।
. (म. ९१) लेखांक १६७ - लवणांकुश कथा
खस्तिश्री वर मूलसंघ गन हा श्रीकुंदकुंदाग्रनी श्रीमच्छारद गच्छ मंगल बलात्कारादि नामाग्रनी। या वंसी सुभ सक्रकीर्ति मुनि हा जाला जसा हो रवी.. त्याचे सेवक जैनसागर कथा सांगे बुधाला नवी ॥ ७८
आहे बरा सीरढ ग्राम जेथे राहे बहू श्रावक लोक तेथे।. त्रिपुत्रषट्चंद्र शकासि जेव्हा कथा असी हे परिपूर्ण तेव्हा ।। ७९
लेखांक १६८ - अनंत कथा उपर्युक्त प्रशस्ति के समान ।
(ना. ८) लेखांक १६९ - सुगंधदशमी कथा
देवेंद्रकीर्ति गुरु पुण्यराशी जैनादि हो सागर शिष्य त्यासी। ऐसी कथा परिपूर्ण सांगे श्रोत्यासि द्या चित्त म्हणौनि मागे ॥ १३६
(ना. ८.) लेखांक १७० - जीवंधर पुराण
श्रीमत् देवेंद्रकीर्ति मुनि । भावे वंदिला कर जोडूनि ।। जिनसागराच्या ध्यानी मनी । जिवाहून आवडे ॥ १९० कांही गुजराती रास । पाहून केले कथेस ॥ कांही उत्तरपुराणास । पाहोनि ग्रंथास रचिलें ॥ १९२ शके सोव्यशे सहासष्ट जाण । आनंद नाम संवत्सर महान॥ वैशाखमास द्वादशी दिन । कथा पूर्ण ही झाली ॥ १९३ जेथे शिरड नाम नगर । शांतिनाथाचे मंदिर ।।
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- १७५]
३. बलात्कार गण- कारंजा शाखा
६५
श्रावक लोक वसती अपार । सांगे जिनसागर श्रोतियांसी ॥। १९४. [ अध्याय १०, च. १९०४ ]
लेखांक १७१९ - नंदीश्वर उद्यापन
लेखांक १७२ - आदिनाथ स्तोत्र
इति जैनेश्वरीं पूजां द्वीपे नंदीश्वराभिधे । देवेंद्रकीर्तिप्राप्त्यर्थं करोति जिनसागरः ॥
या परी जिनराज चिंतुनि शक्रकीर्तिहि वंदिला | जाहला जिनसागराप्रति तोष अंतरि दाटला || १०
लेखांक १७३ - शांतिनाथ स्तोत्र
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लेखांक १७५
लेखांक १७४ - पार्श्वनाथ स्तोत्र
( अटकपूजासंग्रह, प्र. गो. गं. राऊळ, कारंजा )
या स्तोत्रपाठासि विसेस घोका । तुटेल हो संसृति पाप धोका ।। पावाल त्यानंतर सककीर्ति । जैनाविध पापासि करा निवृत्ती ॥ १०
( ना. ६४ )
( म. ५४ )
-
श्रीशकीर्ति गुरु पत्कजषट्पदाने । केली स्तुती न कळता मतिमंदनेने ||१७
.. अत्यंत तोष हृदयी जिनपंडितासी ॥ श्री पार्श्वनाथ विभु दे वर सज्जनासी ॥। १८
पद्मावती स्तोत्र
... आतामौन्य बरे विचार विसरे मी तो नसे शाहना ऐसे है जिनसागरे विनविले माझी असो वंदना ॥ १४
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( म. १२६ )
( उपर्युक्त )
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भट्टारक संप्रदाय
[१७६ -
लेखांक १७६ - क्षेत्रपाळ स्तोत्र
हे जो स्तोत्र पढे अहो प्रतिदिनी काळत्रये जागृती याचे दुर्घट रोग शोक पळती हे मी वदू पा किती। ऐसे सांगतसे जिनाब्धि सुजना सद्भाव जे आदरी शास्त्री देव गुरूसि भाव धरितो तोही फळे त्यापरी ।। ९
( ना. ६४) लेखांक १७७ - ज्येष्ठजिनवर पूजा
द्रव्य पूजा सुपरि स्तुति छंद रचू मनसा । देवेंद्रकीर्ति म्हणे जिनसिंधु धीहीन पिसा॥
लेखांक १७८ - शांतिनाथ आरती
सुंदर शिरडपूर जिनभुवनी शांतीश्वर मूर्ती। सद्गुणकीर्ति दिगंतरि व्यापक मुनि वासबकीर्ति । देव गुरू वंदुनि जिनसागर मन भावे गाती । दारिद्रभंजन कमलारंजन ऐसी आरती ॥३
( आरतीसंग्रह २, च. १९२५)
धर्मचंद्र
लेखांक १७९ - पद्मावती मूर्ति
संमत १७९३ प्रवर्तमाने श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भ. श्रीधर्मचंद्रना उपदेशात् ज्ञातबघेरवाल भोजसा भार्या नावाई...।
___ (हि. प. खोरणे, नागपुर) लेखांक १८० - पार्श्वनाथ मूर्ति सके १६९२ मिती वैसाख वद ११ श्रीमूलसंघे ‘‘भ.धर्मचंद्र प्रतिष्ठितं ।
( केळी बाग मन्दिर, नागपुर) लेखांक १८१ - रविव्रत कथा
मूलसंघ भारति गछराज कुंदकुंदान्वय क्षितितल गाज ।
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- १८४] ३. बलात्कार गण-कारंजा शाखा
शक्रकीर्ति गनधर सम मुनी तत्पट धर्मचंद्र गुनमनी ॥ २३ शांतमतींदुमती अर्जिका इन आग्रह वृषभे करी कथा । संवत अठरासे विस आठ केतुत्साह तिथी दिन पाट ॥ २४
लेखांक १८२ – निर्दोष सप्तमी कथा
.. 'नानाशास्त्रविशारदः परप्रवादीभेद्रपंचाननः
श्रीभट्टारककुंजरो गुणनिधिः सद्धर्मचंद्रोजनि ।। वर्षे शून्यकृशानुनागविधुसंख्ये नीलपक्षे तिथौ पंचम्यां शुचि मासि चंद्रजदिने श्रुत्पक्षसंस्थे विधौ ।। सद्भव्याश्रितकार्यरंजकपुरेनल्पोपमालंकृते श्रीचंद्रप्रभदेवचैत्यनिलये पापौघविध्वंसिनि ॥ तच्छिष्यर्षभदासनामविदुषातीवाल्पबुद्धथा शुभं यन्निर्दूषणसप्तमीव्रतवरिष्ठोद्यापनं निर्मितं ।।
( प. २) लेखांक १८३ - ऋषिमंडल यंत्र
संवत् १८३१ शके १६९६ श्रावण सुदि १३ शुक्र वासरे श्रीमूलसंघे भ. श्रीधर्मचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. देवेंद्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टधुरंधरश्रीमद्भट्टारकधर्मचंद्रजि उपदेशात् ।।
(व. ३) लेखांक १८४ - नववाडी
कुंदकुंदमुनिवंश वास कारंज इक पुरी। धर्मचंद्रपदमित्र शक्रकीरति अनगारी ॥ तस पट्टे गुणसद्म धर्मचंद्राभिध स्वामी । तेह शिष्य मतिमंद विशद बुध वृषभ सुनामी ।। तिणे शील छप्पय मुदा रच्या भाद्र सुदि पंचमी । नग नव रस चंद्रम शके पढ़त भव्य सुखसंगमी ॥ २५
(म. ७२)
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भट्टारक संप्रदाय
[१८५ -
लेखांक १८५ - रविवारव्रतकथा
विषय वराड मझारि सुनग्र कर्णखेट धनधान्य समग्र । सुपार्श्वदेव चैत्यालय तुंग दर्शन पेखत पातकभंग ।। १२० तपपट्टोदयशिखरि सूर्य शक्रकीर्ति भूमंडल वर्य । तत्पद्रभूषण श्रीगुरुराज धर्मचंद्र गछपति क्षिति गाज ॥ १२२ तस सेवक बुध ऋषभ धुरीन रची कथा व्यंजन स्वर हीन । संवत अष्टादश तेतीस श्रावण सुदि बारसि रवि दीस ।। १२३ गंगेरवाल सु आंबड्या हीरवा रघुजी भ्रात । ते वचने कीधी कथा सुणता मंगल ख्यात ।। १२५
[ब. ५२] लेखांक १८६ - अकृत्रिम चैत्यालय जयमाला देवेंद्रकीर्ति
श्रीमद्धर्मसुचंद्रपट्टविलसद्देवेंद्रकीर्तिस्तुतान ये ध्यायति सदार्चयंति च बुधास्ते स्युः शिवश्रीप्रियाः ॥ ६४ वर्षे नभोजलधिनागहिमांशुमाने सार्धे सिते प्रवरपंचमिकां तिथौ वै। कर्ताद्यसाख्यसदुपासकपुत्रवाक्यात् संनिर्मितावतु जनान् जयमालिकेयम् ॥ ६५
( ना. १२०) लेखांक १८७ - नंदीश्वरपूजा
संमत १८४१ शके १७०६ मिति कार्तिक कृष्ण एकादशी तिथौ सोमवारे भ. देवेंद्रकीर्तिना लिखितेयं पूजा स्वहस्तेन ॥
[ ना. ४३] लेखांक १८८ - अकृत्रिम चैत्यपूजा
शाके रसाभ्रनगचंद्रमिते सहर्जे मासे सिताष्टमितिथौ गुरुवासराये । श्रीधर्मचंद्रमुनिशक्रसुकीर्तिनामा
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* १९०] ३. बलात्कार गण-कारंजा शाखा संनिर्ममेस्तु सुखदा जयमालिकेयम् ॥ ४८
( म. १०३) लेखांक १८९ - चरणपादुका
संवत १८५० शके १७१५ कार्तिकमासे कृष्णपक्षे १० बुद्ध माध्याह्ने उत्तराफाल्गुनीनक्षत्रे प्रीतियोगे अस्यां शुभवेलायां श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे कुंदकुंदाचार्यान्वये मलखेडसिंहासनाधीश्वरकार्यरंजकपुरवासी भ. श्रीधर्मचंद्रस्तत्पट्टे भ. श्रीमद्देवेंद्रकीर्तिनां देवलोकप्राप्ति जाता तत्पादुकेदं प्रतिष्टापिता॥
( का. ८) लेखांक १९० - लावणी
मलयखेड सिंहासनपति जनतारक सन्मूर्ति । पंचमकाळी अवतरला श्रीमुनि शक्रकीर्ति ॥धृ.॥ तौलव देशामध्ये शोभे लवनपुरी टीका। श्रेष्ठि असे पायापा त्याची वनिता नेमाका ॥ तिचे उदरीं उद्भवला जो ताराया लोका । बाळदशा मग गेली असता पाहे विवेका ॥ धर्मचंद्र भट्टारक पदि तो करि सेवा भक्ति ॥ पंचम. ॥ १ ब्रह्मचारी तो कुशल कवि गुणसागर जाणून | मुहर्त पाहुनि चतुर्विध श्रीसंघ मिळवून ॥ उत्सव करुनी कळश ढाळुनी निज पदि सद्गुरुन । स्थापुनिया भट्टारक केला जनानंदपूर्ण ॥ बळात्कारगणनायक नामे देवेंद्रकीर्ति ॥ पंचम. ॥ ३ कवित्व करुनी कथिला ज्याने पूजादिक धर्म । बोधुनिया जन मार्गि लाविला दिधले व्रत नेम ॥ हारुनि पंडित वादी ज्यासी भजती सप्रेम । देश विदेश विजयी होउनि सज्जन विश्राम ॥ करोनिया जिनयात्रा जाला उदास तो चित्ती ।। पंचम. ॥ ५ • ''सिरड ग्रामोद्यानी बैसुनि करि संयमवृत्ति ॥ पंचम ॥ ६
वस्त्ररहित नग्न मुद्रा पद्मासन युक्त ।
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७०
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लेखांक १९१ - रविवारव्रतकथा
भट्टारक संप्रदाय
धूळ करोनि धूसर दीसे दिगंबर शांत || आत्मस्वरूपी मन लावुनी वचन करी गुप्त || निश्चळ काया केली ते सत्तपा करुनी तप्त | मृगादि वनचर विस्मय करुनी पाहाया येती ॥ पंचम ॥ ७ समाधि साधुनि धर्मध्यानी देह विसर्जीला | देवगतीशी जाउनि उत्तम देव तो जाला || भक्तजनांचे वांछित सर्वहि पुरवू लागला । जन दूर दूरचे ति पादुका बंदावयाला || महतिसागर म्हणतो धन्य गुरुपद संप्राप्ति ।। पंचम ॥। १० ( महतिकाव्य कुंज पु. ९२ )
लेखांक १९२
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कीर्ति गुरु मज भेटला तो कृपा करुनी बवी मला ॥ २७ हे कथा महती जलधी वदे ऐकिता सुजना सुख ठाव दे ॥ आहा करि पूतळसंघवी त्यास्तवे कथिली अतिलाघवी ॥ २८ रिद्धिपूर शिवांगजधामनी शाक वन्हियमाद्रिनिशामणी । मास भाद्र शुक्ल पंचमी अर्कवारि कथा करि पूर्ण मी ।। २९ ( उपर्युक्त पू. ११८ )
-
[१९१ -
पंचकल्याणक कथा
मलखेड सुकेशरिविष्टरी अधिप भारति गच्छपति सुरी । सुगुरु तो मज वासवकीर्तिही वदवि भारति देउन उक्ति ही ।। १४३ महतिजलनिधीने पंचकल्याणिकाची ।
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शुभ कथिलि कथा हे पूर्ण त्या उत्सवाची ॥ ॥ १४६ बाळापुरी नाभिजमंदिराते यमानिसप्तेंदु शकाब्द पाते । माघांव चातुर्दशि जीववारी केली कथा हे परिपूर्ण सारी || १४७
( उपर्युक्त पृ. ६१ )
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बलात्कार गण-कारंजा शाखा कारंजा शाखा की उपलब्ध पट्टावलीमें पहले उल्लेख योग्य आचार्य अमरकीर्ति हैं [ले. ९८]
इन के शिष्य वादीन्द्र विशालकीर्ति हुए । आपने सुलतान सिकन्दर", विजयनगर के महाराज विरूपाक्ष और आरगनगर के दण्डनायक देवप्प की सभाओं में सत्कार पाया था [ ले. ९९]
विशालकीर्ति के शिष्य विद्यानन्द हुए | आपने श्रीरंगपट्टण के वीर पृथ्वीपति, सालुव कृष्णदेव, विजयनगर के सम्राट् श्रीकृष्णराय आदि शासकों से सम्मान पाया था । आप का सम्मान सुलतान अल्लाउद्दीन ने भी किया था" । आप का स्वर्गवास शक १४६३ में हुआ । [ले. १००,१०१ ]
विद्यानंद के शिष्य देवेंद्रकीर्ति हुए । आप के शिष्य वर्धमान ने शक १४६४ में दशभक्त्यादि महाशास्त्र की रचना की। [ले. १०२-३ ]
देवेंद्रकीर्ति के पट्टशिष्य धर्मचन्द्र हुए। आप ने शक १४८७ में एक पद्मावती मूर्ति स्थापित की [ले. १०४-५] ।
इन के अनन्तर धर्मभूषण भट्टारक हुए । आप ने शक १५०३ की फाल्गुन शुक्ल ७ को एक चन्द्रप्रभ मूर्ति स्थापित की [ ले. १०६-७ ] । ... इन के पट्टशिष्य देवेंद्रकीर्ति हुए । उपर्युक्त प्रतिष्ठा में आप ने भी नेमिनाथ की एक मूर्ति स्थापित की [ले. १०८ ] । एरंडवेल में रहते हुए संवत् १६४१ में आपने हर्षमती के लिए आम्बिका रास की एक प्रति
___ २४ इन के पूर्व गुप्तिगुप्त, कुंदकुंद, मयूरपिच्छ, गृध्रपिच्छ, जटासिंहनंदि, लोहाचार्य, उमास्वाति, माघनंदि, मेघनंदि, जिनचंद्र, प्रभाचन्द्र, विद्यानंद, अकलंक, अनंतकीर्ति, माणिक्यनंदि, नेमिचन्द्र और चारुकीर्ति का उल्लेख है।
२५ ये दोनों लोदी वंश के दिल्ली के सुलतान थे। विद्यानंद के विषय में एक अन्य शिलालेख के विवेचन के लिए देखिए Jain Antiquary IV P. Iff.
२६ वर्धमान ने इस ग्रन्थ में कोणूर गण, देशीय गण आदि अन्य परम्पराओं के विषय में भी पर्याप्त लिखा है ।
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भट्टारक संप्रदाय
लिखी [ले. १०९] । इन के शिष्य आदशेटी ने नंदिग्राम में शक १५१४ की पौष शुक्ल १३ को मराठी द्वादशानुप्रेक्षा की एक प्रति लिखी (ले. ११०)। इन के लिखे हुए नेमिनाय पूजा और नन्दीश्वरपूजा ये दो पाठ उपलब्ध हैं (ले. १११-१२)।
इन के पट्टशिष्य कुमुदचन्द्र हुए। आप ने शक १५२२ की वैशाख सुदी १३ को तथा शक १५३५ की फाल्गुन शुक्ल ५ को कोई मूर्तियां स्थापित की (ले. ११३-१४ )।" आप की पार्श्वनाथ पूजा में मलयखेड के भट्टारकपीठ का उल्लेख है (ले. ११५)। आप ने ब्रह्म बीरदास को पंचस्तवनावचूरि की एक प्रति दी थी (ले. ११६ )।
इन के बाद धर्मचन्द्र भट्टारक हुए । इन के शिष्य पार्श्वकीर्ति ने शक १५४९ की फाल्गुन वद्य १० को मराठी ग्रन्थ सुदर्शनचरित पूरा किया (ले. ११७)। पार्श्वकीर्ति का पहला नाम वीरदास था। उन की दूसरी रचना बहुतरी नामक मराठी कविता है (ले. ११८ ) । उन ने संवत् १६८६ में एक कलिकुंड यंत्र स्थापित किया था (ले. ११९) इन ने एक और प्रतिष्ठा शक १५६९ में कराई थी (ले. १२४ )। भ. धर्मचन्द्र ने संवत् १६९२ की वैशाख कृष्ण १२ को एक पद्मावती मूर्ति स्थापित की, संवत् १६९३ की मार्गशीर्ष शुक्ल २ को जयपुर में किन्ही चरणपादुकाओं की स्थापना की, शक १५६१ की फाल्गुन शुक्ल २ को एक पार्श्वनाथमूर्ति स्थापित की, शक १५६७ में एक चौवीसी मूर्ति प्रतिष्ठित की, तथा शक १५७० में श्रवणबेलगोल में एक चौवीसी मूर्ति प्रतिष्ठित की। अन्तिम प्रतिष्ठा के समय पंडिताचार्य चारुकीर्ति भी उपस्थित थे [ले. १२०-१२५] । द्विज बासुदेव ने आप की एक पूजा लिखी है [ ले. १२६] ।
२७ मुनि कान्तिसागरजी ने इन दोनों में गलती से संवत् शब्द लिखा है । संवत्सरों के नामों से ये दोनों शक ही सिद्ध होते हैं ।
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बलात्कार गण-कारंजा शाखा
७३
धर्मचन्द्र के बाद धर्मभूषण पट्टाधीश हुए | आप ने शक १५७२ की फाल्गुन शुक्ल ११ को एक पार्श्वनाथ मूर्ति प्रतिष्ठित की, शक १५७६ की मार्गशीर्ष शुक्ल १० को एक षोडशकारण यंत्र स्थापित किया, शक १५७७ की वैशाख शुक्ल ९ को कोई मूर्ति स्थापित की, शक १५७८ में एक पार्श्वनाथमूर्ति स्थापित की, शक १५७९ में मार्गशीर्ष शुक्ल १४ को एक चौवीसी मूर्ति स्थापित की, शक १५८० की मार्गशीर्ष शुक्ल ५ को एक नेमिनाथमूर्ति स्थापित की, शक १५८६ की फाल्गुन शुक्ल ५ को एक पार्श्वनाथमूर्ति स्थापित की तथा शक १५९७ में एक श्रेयांसमूर्ति स्थापित की। (ले. १२७–१३४ ) । शीतलेश की प्रार्थना पर आप ने रत्नत्रय व्रत के उद्यापन की रचना की [ ले. १३५ ।
भट्टारक धर्मभूषण के पट्ट पर विशालकीर्ति अभिषिक्त हुए। इन का कोई स्वतन्त्र उल्लेख नहीं मिला है । इन के गुरुबन्धु अजितकीर्ति तथा शिष्य पद्मकीर्ति और इन दोनों की शिष्यपरम्परा का वृत्तान्त लातूर शाखा के प्रकरणमें संगृहीत किया है ।
विशालकीर्ति के पट्टशिष्य धर्मचन्द्र हुए । आप ने शक १६०७ की फाल्गुन कृष्ण १० को एक चौवीसी मूर्ति स्थापित की, शक १६१२ की ज्येष्ठ कृष्ण ७ को एक पद्मावती मूर्ति स्थापित की [ ले. १३६,१३८] । आप के शिष्य गंगादास ने संवत् १७४३ की श्रावण शुक्ल ७ को श्रुतस्कन्ध कथा की एक प्रति लिखी [ ले. १३७ ] । उन ने शक १६१२ की पौष शुक्ल १३ को पार्श्वनाथ भवान्तर की तथा शक १६१५ की आषाढ शुक्ल २ को आदितवार कथा की रचना की [ ले. १३९-४०] । सम्मेदाचलपूजा, त्रेपनक्रियाविनती, जटामुकुट और क्षेत्रपालपूजा ये गंगादास की अन्य रचनाएं हैं । इन में अन्तिम दो संघपति मेघा और शोभा की प्रार्थना पर लिखी गई थीं [ले. १४२-४५] । धर्मचन्द्र ने हीरासाह के आग्रह से कैलास पर्वत की स्तुति रची [ ले. १४६ ] । उन के खोलापुर निवासी शिष्यों के लिए लिखी गई बिरुदावली में उन्हे मलयखेड सिंहासन के आचार्य कहा है [ ले. १४७ ] किन्तु यह पुराने बिरुद
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भट्टारक संप्रदाय
का अनुकरण मात्र है । वास्तव में इन के प्रगुरु धर्मभूषण के समय से ही भट्टारक पीठ कारंजा में स्थापित हो चुका था।
धर्मचन्द्र के बाद देवेन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए । आप ने संवत् १७५६ में एक चौवीसी मूर्ति स्थापित की [ ले. १४८ ] । कारंजानिवासी बघेरवाल शिष्यों के साथ आप ने शक १६४३ की पौष कृष्ण १२ को श्रवणबेलगोल की यात्रा की ( ले. १५९ । इसी वर्ष आप ने कल्याणमन्दिर पूजा लिखी तथा विट्टल के आग्रह से विषापहार पूजा भी लिखी । ये रचनाएं क्रमशः कारंजा और साहार में हुई [ले, १५०-५१]। शक १६५० की पौष शुक्ल २ को आप ने नासिक के पास त्रिंबक ग्राम के पास के गजपंथ पर्वत की वंदना की । ले. १५२ ] ब ग्यारह दिन के बाद मांगीतुंगी पर्वत की यात्रा की [ ले. १५३ ] । इस समय जिनसागर, रत्नसागर, चंद्रसागर, रूपजी, वीरजी आदि छात्र आप के साथ थे । इस के बाद गिरनार की यात्राके लिए जाते हुए आप सूरत ठहरे जहां माघ शुक्ल १ को आणंद नामक श्रावकने णायकुमार चरिउ की एक प्रति आपको अर्पित की [ ले. १५४ ] । शक १६५१ की वैशाख कृष्ण १३ को आपने केशरियाजी की बंदना की [ ले. १५५ ] तथा उसी वर्ष मार्गशीर्ष शुक्ल ५ को तारंगा पर्वत और कोटिशिला की वंदना की (ले. १५६ ) । इसी वर्ष पौष कृष्ण १२ को गिरनारकी और माघ कृष्ण ४ को शत्रुजय पर्वतकी यात्रा आपने पूरी की ले. १५७-५८ ] । सूरत में आप ठहरे थे उस समय संवत् १७८७ की भाद्रपद शुक्ल ५ को आर्यिका पासमती के लिए आपने श्रीचन्द्र विरचित कथाकोष की एक प्रति लिखवाई [ले. १५९ ] । आपकी लिखी एक नन्दीश्वर आरती उपलब्ध है ले. १६० ] । आगरा निवासी बनारसीदास के पुत्र जीवनदास को पहले आपके विषय में अनादर था, किन्तु सूरत के चातुर्मास में आप की विद्वत्ता देख कर वे आप के शिष्य बन गये । बुद्धिसागर और रूपचंद ने भी आपकी स्तुति की ले. १६१]। आप के शिष्य
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बलात्कार गण- कारंजा शाखा
७५
माणिकनन्दि ने शक १६४६ की भाद्रपद शुक्ल १४ को अनन्तनाथ आरती की रचना की [ ले. १६२ ]
म. देवेंद्रकीर्ति के शिष्यों में जिनसागर प्रमुख थे । इनने शक १६४६ की चैत्र कृष्ण ५ को आदित्यव्रत कथा लिखी, शक १६४९ मै कारंजा में जिनकथा की रचना की, शक १६५२ की आश्विन शुक्ल १२ को पद्मावती कथा तथा शक १६६० में पुष्पांजलि कथा पूरी की [ ले. १६३-६६ ] । लवणांकुश कथा, अनन्त कथा और सुगन्धदशमी कथा ये इनकी अन्य कथाएं शिरड ग्राम में लिखी गई थीं [ले. १६०-६९ ] । वहीं शक १६६६ की वैशाख शुद्ध द्वादशी को आप ने जीवंधरपुराण लिखा [ ले. १७० ] | नन्दीश्वर उद्यापन, आदिनाथ स्तोत्र, शान्तिनाथस्तोत्र, पार्श्वनाथस्तोत्र, पद्मावतीस्तोत्र, क्षेत्रपालस्तोत्र, ज्येष्ठ जिनवर पूजा, और शान्तिनाथ आरती ये आप की अन्य रचनाएं हैं [ ले. १७११७८ ] ।
देवेंद्रकीर्ति के पट्ट पर धर्मचन्द्र भट्टारक हुए। आप ने संवत् १७९३ में एक पद्मावती मूर्ति स्थापित की तथा शक १६९२ की वैशाख कृष्ण १२ को एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की ( ले. १७९-८० ) । संवत् १८३१ की श्रावण शुक्ल १३ को एक ऋषिमंडल यंत्र भी आप ने स्थापित किया [ ले. १८३ ] | आप के शिष्य वृषभ ने शांतमती और इंदुमती के आग्रह पर संवत् १८२८ में रवित्रत कथा लिखी तथा संवत् १८३० की ज्येष्ठ कृष्ण ५ को निर्दोषसप्तमीत्रत का उद्यापन लिखा (ले. १८१-८२ ) । इन ने शक १६९६ की भाद्रपद शुक्ल ५ को नववाडी नामक स्फुट कविता रची तथा संवत् १८३३ में कर्णखेट में पुनः रविवार व्रत कथा की रचना की [ ले. १८४-८५ ] ।
२८ पहली दो कथाओं में रचनाशक दिया है किन्तु पुत्र शब्द से कौनसा अंक लिया जाय यह स्पष्ट नहीं है ।
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भट्टारक संप्रदाय
धर्मचन्द्र के पट्ट शिष्य देवेंद्रकीर्ति हुए । आप ने कडतासाह के पुत्र की प्रार्थना पर अकृत्रिम चैत्यालय जयमाला की रचना संवत् १८४० में की [ ले. १८६ ] । आप ने शक १७०६ में नन्दीश्वर पूजा और अकृत्रिम चैत्यपूजा की रचना की [ ले. १८७-८८ ]। आप के पिता पायापा और माता नेमाका तौलव देश के लवनपुर में रहते थे । अन्त समय शिरड ग्राम में रहते हुए आपने दिगम्बर मुद्रा धारण की थी ले. १९०] । आप का स्वर्गवास संवत् १८५० की कार्तिक कृष्ण १० को हुआ ( ले. १८९ )। आप के प्रमुख शिष्य महतिसागर थे । आपकी मराठी रचनाओंका एक संग्रह ' महति काव्यकुंज' नाम से प्रकाशित हो
चुका है । आप ने रिद्धिपुर में शक १७२३ की भाद्रपद शुक्ल ५ को पुतळसंघवी के आग्रह पर रविवार व्रत कथा लिखी तथा शक १७३२ की माघ कृष्ण १४ को आदिनाथ पंचकल्याणिक कथाकी रचना पूर्ण की (ले. १९१-९२ ) ।
२९ स्थानिक अनुश्रुति से पता चलता है कि देवेंद्रकीर्ति के बाद भ. पद्मनन्दि पट्टाधीश हुए । सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि की वन्दना करते हुए अपघात से इन की मृत्यु हुई । इन की समाधि मुक्तागिरि के पास ही खरपी नामक गांव में है। इन ने संवत् १८७९ में ही कालुराम नामक शिष्यका पट्टाभिषेक कर उन का नाम देवेन्द्रकीर्ति रखा था। देवेन्द्रकीर्ति कोई साठ वर्ष पट्टाधीश रहे । नागपुर, विदर्भ और मसठवाडाकी बघेरवाल, खंडेलवाल, परवार, नेवी, सैतवाल आदि सभी जैन जातियों के प्रमुख व्यक्तियोंसे आपका सम्पर्क रहा । नागपुर, रामटेक, कारंजा आदि स्थानोंमें आप के द्वारा विशाल मूर्तियों की स्थापना हुई थी। तेरापंथी सम्प्रदाय के क्षुल्लक धर्मदासजी अमरावती में आप से मिल कर बडे प्रभावित हुए । बाद में उनने सम्यग्ज्ञानदीपिका आदि आध्यात्मिक ग्रन्थों का निर्माण किया । देवेन्द्रकीर्ति ने संवत् १९३६ में रुखबदास नामक शिष्यका पट्टाभिषेक कर उन का नाम रत्नकीर्ति रखा था । इस के कोई ५ वर्ष बाद संवत् १९४१ में उन का स्वर्गवास हुआ । भ. रत्नकीर्ति ने गुरु की समाधि अच्छी तरह निर्माण कर उसके चारों ओर बगीचा लगाने की व्यवस्था की थी। रत्नकीर्तिका स्वर्गवास अचलपुर में संवत् १९५३ में हुआ। उन के कोई चार वर्ष बाद देवेन्द्रकीर्ति
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बलात्कार गण-कारंजा-कालपट
१
अमरकीर्ति
२ विशालकीर्ति
३ विद्यानंद संवत् १५९८] ४ देवेंद्रकीर्ति (संवत् १५९९) ५ धर्मचन्द्र सिंवत् १६२२] ६ धर्मभूषण [संवत् १६३८] ७ देवेंद्रकीर्ति [सं. १६३८-१६४९] ८ कुमुदचन्द्र [सं. १६५६-१६७० ९ धर्मचन्द्र [सं. १६८४-१७०४] १० धर्मभूषण [सं.१७०७-१७३२] ११ विशालकीर्ति अजितकीर्ति,
लातूर शाखा
१२ धर्मचन्द्र पद्मकीर्ति (सं.१७४२-१७४९) लातूर शाखा १३ देवेंद्रकीर्ति[सं.१७५६--१७८६]
इस पट्टपर संवत् १९५७ में अभिषिक्त हुए । इन का स्वर्गवास संवत् १९७३ में हुआ । इन के बाद कारंजाकी भट्टारक पीठ पर कोई भट्टारक नहीं हुए। कारंजाका बलात्कार गण मन्दिर का शास्त्र भाण्डार बडा समृद्ध है।
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भट्टारक संप्रदाय
१४ धर्मचन्द्र [सं. १७९३- १८३३
I
१५ देवेंद्रकीर्ति (सं. १८४० - १८५० )
1
१६ पद्मनन्दि [सं. १८५०-१८७९ ]
I
१७ देवेंद्र कीर्ति (सं. १८७९-१९४१]
१८ रत्नकीर्ति (सं. १९३६ - १९५३)
1
१९ देवेंद्रकीर्ति (सं. १९५७-१९७३)
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Ach
४. बलात्कार गण - लातूर शाखा
लेखांक १९३ - १ मूर्ति
अजितकीर्ति शके १५७३ खर नाम संवत्सरे फाल्गुणमासे शुक्लपक्षे पंचम्यां तिलकदान श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीधर्मचंद्र तत्पट्टे भ. धर्मभूषण तदानाये भ. अजितकीर्तिउपदेशात् जैन ज्ञाति कनयातुक सेटी च ताहु सेटी कुटुंबसहितेन नित्यं प्रणमंति ।।
(बाळापुर,अ. ४ पृ. ५०५) लेखांक १९४ - नंदीश्वर मूर्ति
विशालकीर्ति शके १५९२ वैसाख मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. कुमुदचंद्र तत्पट्टे भ. अजितकीर्ति तत्पट्टे भ. विशालकीर्ति उपदेशात् सोनो पंडित रोडे ।।
(पा. ४) लेखांक - १९५ आदिपुराण
शके सोळाशे अष्टादश । धाता नाम संवत्सर सुरस । माघ वद्य पंचमी तिथीस । वार रवि पै ।। भरतक्षेत्रामध्ये जाण । आशापुर पुण्यपावन ।। मूळनायक शांतिजिन । चैत्याला पै ।। विशाळकीर्तिचे कृपेण । महीचंद्रे अज्ञानपण ॥ ग्रंथ केला संपूर्ण । स्वहस्ते पै ॥
[विविध ज्ञान विस्तार, मे १९२४ ] लेखांक १९६ - गरुडपंचमीकथा
कुंदकुंदाचार्यान्वय सूरि । धर्मचंद्र पटाचारि ॥ तदा आम्नाय धर्माचारी । अजितकीर्ति पै।। ८६ तत्पट्टोधर विशालकीर्ति । विशाल आहे तयाची मति ॥ तत्पदपंकजसेवक यति । महिचंद्र ॥ ८७
महीचंद्र
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भट्टारक संप्रदाय
[ १९७ - कथा केली अज्ञानपने । मज नाही वाचा ज्ञान ॥ श्रोते असती जे सज्ञान । तेहि सोधिजे ॥ ८९
[ ना. ८] लेखांक १९७ - अठाईव्रतकथा
तदानाय गुरु अजितकीर्ति । तत्पटी सूरि विशालकीर्ति ॥ महाविशाल तयाची मति । धर्म स्थापिला ॥ १४६ महीचंद्र म्हणे मी रंक।
र ना. ८) लेखांक १९८ - नेमिनाथ भवांतर
सूरि विशालकीर्ति । धर्मस्थापक मूर्ति ।। तस्य सिष्य महीचंद्र । म्हने हो तया प्रति ॥ नेमिनाथभवांतर । याची आयका फलश्रुती॥ निश्चय श्रवण केलिया । अपुत्रिका पुत्रप्राप्ति ।। ७१
[ना. १७] लेखांक १९९ - काली गोरी संवाद
आदि अंत नमूं जिन चतुर्विंशति जान
चौदासे बावन गण बंदे भाव धरिके । सारदा स्वामिनी मोरी अज्ञान तिमिर हरि
- पूजे मन भाव धरि भ्रांति दूर करिके ।। गुरुचरण सिर धरि ध्याय चित सुद्ध करि
विशालकीर्ति सूरि महामुनिरायके ॥ कालि गोरी सांवलीको वाद सुनो ताको महीचंद्र सूरि नीको कहे भव्यलोकके ।। १
[म. ७३] लेखांक २०० - [ कौतुक सार ]
सके १६३३ खर नाम समसरे भाद्रपदमासे बद पक्षे पंचमी वार गुरु . आसापुरनगरे श्रीशांतिनाथचैत्यालये भ. श्रीमहिचंद्र तस्य सीसे ब्रह्म गोमट
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- २०४] ४. बलात्कार गण-लातूर शाखा सागर लीखीतं स्वयं पठनार्थ सुभं भवतु ॥
[पा. १] लेखांक २०१ - शीलपताका
कुंदकुंदाचार्यान्वये बोलती । अजितकीर्ति महायती ॥ तत्पटी विसालकीर्ती । धर्मस्थिति चालवी सदा ॥ ५४६ तत्पटी महीचंद्र महामुनी । सदा समताभाव त्याहाचे मनीं ॥ अबोध जिवासी धर्म ठेवनी । दाविती सदा ।। ५४७ महीचंद्र माझी माउली । थोर कृपेची साउली ।। महाकीर्तिस ठेवणी दाविली । शीलपताकेची ॥ ५५१
(म. ८९) लेखांक २०२ - [ पद्मावती सहस्रनाम ] महीभूषण - सके १६४० विलंबि नाम संवत्सरे वैसाक वद पंचमि ५ गुरुवारे संपूर्ण लिखितं । कारंजा माहानगरे श्रीचंद्रप्रभचैत्यालय लिखितं । श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्री५महीभूसनगुरुः ॥
[पा. २] लेखांक २०३ – ( बाला पूजा)
सक १६४३ पल्लव नाम संवत्सरे माघ वदि चउति बुधवार तहिने भ. श्रीमहिभूषण तस्य सिस्य गौतमसागर स्वहस्तेन लिखितं स्वयं पठनार्थ ॥ सुभमस्तु ।
[पा. ३] लेखांक २०४ - श्रेणिक चरित्र
चंद्रकीर्ति श्रीशीलाचार्याचे अंशी । विशाळकीर्ति ज्ञानराशी ॥ २६७ त्याचे अंशी महिचंद्र । इंदु दुजा करविंद्र ॥ महीभूषण शांतींद्र । शिष्य होती जयाचे ॥ २६८ शांतिकीर्तीचे अंशी । कल्याणकीर्तिं महाऋषी॥
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८२
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लेखांक २०५ - हरिवंश पुराण
भट्टारक संप्रदाय
त्याचे अंशी ज्ञानराशी । गुणकीर्ति सागर ।। २६९ त्याचा शिष्य क्षमाशील । जो चंद्रकीर्ति विशाळ || त्याचे मम माथा करकमळ । गुरु दयाळ तो माझा || २७० त्याचे अंशी महारत्न | मानिकनंदी निग्रंथ पूर्ण | त्याचा सजन जनार्दन । श्रावक जैन गृहाश्रमी || २७१ शके सोळाशे सत्याण्णव | वद्य पक्ष माघ अपूर्व ॥ सप्तमी वार शनि राव । तिसरा याम जाण पा । २७८
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लेखांक २०६ - आदितवार कथा
[२०४ -
[ अध्याय ४०, च. १९०४ ]
अजितकीर्ति
गुरु अन्वय झाले भट्टारक | मुनि देवेंद्रकीर्ति सुरेख || त्याचे पट्टी जाले भट्टारक । कुमुदचंद्र || ५५ कुमुदचंद्राचे पटधारी । धर्मचंद्र झाले बागेस्वरी || तयाचे पट्टी उद्योतकारी । जाहाले गुरु || ५६ गुरु जाले हो धर्मभूषण । तयाची आम्नाय विचक्षण || भट्टारक विशालकीर्ति जाण । गुरु आमुचे ।। ५७ तयाचे पटी हो ज्ञानजोती । भट्टारक श्रीअजितकीर्ती ॥ माउली आमुची पुण्यमूर्ती । ते व्हावी आम्हा ।। ५८ तयाचा शिष्य जो ब्रह्मचारी | पुण्यसागर कवित्व करी ॥ महाष्ट भाषा टीका उच्चारी | हरिवंश कथा ॥ ५९
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( ना. १ )
श्रीमूलसंघ वागेश्वरी गछ । बलात्कार गण जाणिजे प्रत्यक्ष || गुरु अजितकीर्तीने केली साक्ष | श्रवणमात्रे ।। १७९ सिक्ष विनति करितो तुम्हा | कवि बोले पुण्य ब्रह्मा || स्वामी कृपा करावी आम्हा | जन्मोजन्मी || १८०
[ना. १६]
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- २१२ ]
८३
लेखांक २०७ - सम्यग्दर्शन यंत्र
पद्मकीर्ति
सके १६०१ फाल्गुन सुदि ११ श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे भ. श्रीपद्मकीर्ति सदुपदेशात् श्रीपद्मावतीपल्लीवालज्ञातौ अडनाव कुस्तानी पानसी भार्या मगनाई ......||
( पा. १२५ )
४. बलात्कार गण-लातूर शाखा
लेखांक २०८ - १ मूर्ति
शके १६०७ वर्षे मार्गसिर सुद १० मूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भ. विशालकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. पद्मकीर्तिगुरूपदेशात् पाससा सेठ भार्या पसाई......॥
( नांदगांव, अ. ४ पृ. ५०५ )
--
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लेखांक २०९ - १ यंत्र
•
शक १६०७ मार्गशिर शुक्ल १० बुधे श्रीमूलसंघे भ. श्रीविशालकीर्तितपट्टे भ. श्रीपद्मकीर्ति तयोः उपदेशात् जाती सोहितवाल......॥
( अहार, अ. १० पु. १५६ )
विद्याभूषण
.भ. श्रीविशालकीर्ति
॥
लेखांक २१०
चारित्र यंत्र
सके १६०८ फागण वदी १० श्रीमूलसंघे तत्पट्टे भ. श्रीपद्मकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीविद्याभूषण
लेखांक २११ - आदिनाथ मूर्ति
( पा. १२० )
मकीर्ति
"
सं. १७५२ माघ वदी ८ श्रीमूलसंघे भ. श्रीहेमकीर्ति ॥
( ति. ये. खेडकर, नागपुर )
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लेखांक २१२ - चौवीसी मूर्ति
शक १६२६ तारण संवत्सरे माह सुद १३ मूलसंघ बलात्कारगण भ. हेमकीर्ति उपदेशात् सितळसंगई प्रतिष्ठितं ॥
[ पा. १६ ]
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भट्टारक संप्रदाय
[ २१३ - लेखांक २१३ - चौवीसी मूर्ति
- शक १६२६ तारण नाम संवत्सरे माहो सुद १३ शुक्रे मूलसंघे भ. पद्मकीर्ति तत्पट्टे भ. विद्याभूषण तत्पट्टे भ. हेमकीर्तिउपदेशात् उज्जैनी पल्लीवाल ज्ञातीय सिंगवी लखमप्रसादजी भार्या गोमाई 'प्रतिष्ठित भीसीनगरे चंदनाथचैत्यालये......॥
[पा. ४८] लेखांक २१४ - जिनपूजा छप्पय
सोलसके अडतालिसमे सुध आषाढमे छठिके दिन रंगं । हेमसुकीरति की कृति येह जिनेश्वर अष्ट प्रकारिय चंगं ॥ ९
[ ना. १२४] लेखांक २१५ - दशलक्षण यंत्र
सक १६५३ वैसाख सुद १४ श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे भ. हेमकीर्तिउपदेशात् श्रीश्रीमालज्ञातौ महासा नित्यं प्रणमंति ।।
(गो. स. नाकाडे, नागपुर) लेखांक २१६- पोडशकारण यंत्र
शक १६५३ वर्षे वैसाख सुदि १ मूलसंघे बलात्कारगणे भ. पद्मकीर्ति तत्पट्टे भ. विद्याभूषण तत्पट्टे भ. हेमकीर्ति उपदेशात् ॥
[सिंदी, अ. ४ पृ. ५०४ ] लेखांक २१७ - रामटेक छंद
देवगडचा दहे परगणा । विद्याभूसनाचि आमना ।। गछ बाळगत्कार जाना । समस्त लोक ॥ १४ पाछाव झाडीचा म्हनती । धन्य धन्य हेमकीर्ति ।। मकरंद पाड्या त्याहचे चित्ती । नाव धारक ॥ १५
( म. १२५)
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- २२२ ]
लेखांक २१८ - शांतिनाथ मूर्ति
भ.
संमत १८३२ मन्मथ नाम संवत्सरे मूलसंघे बलात्कारगणे पद्मकीर्ति तत्पट्टे भ. विद्याभूषण तत्पट्टे भ. हेमकीर्ति तत्पट्टे भ. अजितकीर्ति फाल्गुण मासे शुद्ध २ ॥
[पा. १०२]
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लेखांक २१९ - पार्श्वनाथ मूर्ति
सुद २ ॥
लेखांक २२१ -
wonde
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४. बलात्कार गण- लातूर शाखा
शक १६९७...... नाम संवत्सरे भ. अजितकीर्ति उपदेशात् फाल्गुण
( पा. ३९ )
लेखांक २२२ -
लेखांक २२० - पार्श्वनाथ मूर्ति
संमत १८५७ शके १७२२ भादवा सुदी १० सोमवासरे कुंदकुंदाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भ. श्रीअजितकीर्ति तस्य उपदेशात् ... परवारज्ञाते.
Il
अजितकीर्ति
८५
नाम घेतले गुरु दाखले चंद्रकीर्ति पदी लीन झाला । नागेंद्रकीर्ति पद करोनी सभेमाजी बोलिला ॥ ४
( परवार मन्दिर, नागपुर )
नागेन्द्र कीर्ति
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( जिन पद्यरत्नावली, पृ. २०)
चंद्रकीर्ति निर्वाण स्वामी जग वंदनीय झाला । नागेंद्रकीर्ति दीक्षित होउनि नमोकार त्या दिधला ॥४
( उपर्युक्त, पृ. २१ )
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बलात्कार गण - लातूर शाखा इस शाखा का आरम्भ भ. अजितकीर्ति से हुआ । इन के दीक्षागुरु कारंजा शाखा के भ. कुमुदचन्द्र थे (ले. १९४)। किन्तु कुमुदचन्द्र की मुख्य पट्टपरम्परा में धर्मचन्द्र और धर्मभूषण ये भट्टारक हुए इस लिए अजितकीर्ति ने धर्मभूषण का भी आचार्यरूप में उल्लेख किया है (ले.१९३)। अजितकीर्ति ने शक १५७३ की फाल्गुन शु. ५ को कोई मूर्ति स्थापित की (ले. १९३)।
इनके बाद विशालकीर्ति भट्टारक हुए। आप ने शक १५९२ के वैशाख में एक नन्दीश्वर मूर्ति स्थापित की ( ले. १९४ ) ।
विशालकीर्ति के पट्टशिष्य महीचन्द्र हुए। आप ने शक १६१८ की माघ वद्य ५ को आशापुर में मराठी ग्रन्थ आदिपुराण पूर्ण किया (ले. १९५)। गरुडपंचमी कथा, अठाई व्रत कथा, नेमिनाथ भवांतर और काली गोरी संवाद ये इन की अन्य रचनाएं हैं (ले. १९६-९९)। इन के शिष्य गोमटसागर ने शक १६३३ की भाद्रपद कृ. ५ को कौतुकसार नामक ग्रन्थ की एक प्रति लिखी (ले. २००)। इन के दूसरे शिष्य महाकीर्ति ने शीलपताका नामक कथाग्रन्थकी रचना की थी (ले. २०१)।
महीचन्द्र के पट्टशिष्य महीभूषण हुए। इन ने शक १६४० की वैशाख कृ. ५ को पद्मावती सहस्रनाम की एक प्रति कारंजा में लिखी (ले. २०२ )। इन के शिष्य गौतमसागर ने शक १६४३ की माघ कृ. ४ को बाला पूजा की प्रति लिखी (ले. २०३)।
महीभूषण के बाद इस परम्परा में क्रमशः शान्तिकीर्ति, कल्याणकीर्ति, गुणकीर्ति, चंद्रकीर्ति और माणिकनन्दि ये भट्टारक हुए । चंद्रकीर्ति के शिष्य जनार्दन ने शक १६९७ की माघ कृ. ७ को मराठी श्रेणिक चरित्र पूरा किया (ले. २०४ )।
लातूर शाखा की दूसरी परम्परा कारंजा शाखा के भ. विशालकीर्ति (द्वितीय ) से आरंभ होती है । इन के शिष्य अजितकीर्ति के शिष्य पुण्य
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बलात्कार गण-लातूर शाखा
८७
सागर ने मराठी हरिवंशपुराण पूर्ण किया (ले. २०५)। पुण्यसागर की दूसरी रचना आदितबार कथा है (ले. २०६ )।
विशालकीर्ति के दूसरे शिष्य पद्मकीर्ति हुए । आप ने शक १६०१ की फाल्गुन शु. ११ को एक सम्यग्दर्शन यन्त्र स्थापित किया (ले.२०७), शक १६०७ में एक मूर्ति तथा एक यन्त्र स्थापित किया (ले. २०८-९)।
पद्मकीर्ति के बाद विद्याभूषण पट्टाधीश हुए । इन ने शक १६०८ को फाल्गुन व. १० को एक सम्यक्चारित्र यंत्र स्थापित किया (ले. २१०)।
विद्याभूषण के पट्टशिष्य हेमकीर्ति हुए। आपने संवत् १७५२ की माघ व. ८ को एक आदिनाथ मूर्ति तथा शक १६२६ की माघ शु. १३ को दो चौवीसी मूर्ति स्थापित की (ले. २११-१३)। शक १६४८ की आषाढ शु. ६ को आप ने जिनपूजा की रचना की (ले. २१४ ) । शक १६५३ के वैशाख में आपने एक षोडशकारण यंत्र और एक दशलक्षण यंत्र भी स्थापित किया (ले. २१५-१६)। मकरन्द की एक कविता से ज्ञात होता है कि रामटेक क्षेत्र के विभाग में हेमकीर्ति का शिष्यवर्ग रहता था (ले. २१७) तथा यह क्षेत्र उस समय देवगढ राज्य के अन्तर्गत था।
हेमकीर्ति के बाद अजितकीर्ति पट्टाधीश हुए। आप ने शक १६९७ की फाल्गुन शु. २ को एक शान्तिनाथ मूर्ति तथा एक पार्श्वनाथ मूर्ति प्रतिष्ठित की (ले. २१८-१९)। आप ने शक १७२२ की भाद्रपद शु. १० को एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की (ले. २२०)।
अजितकीर्ति के बाद चन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए। इन के पट्टशिष्य नागेन्द्रकीर्ति ने मराठीमें कई पदोंकी रचना की है (ले. २२१-२२)।"
३० यह पुराण उज्जतकीर्ति के शिष्य जिनदास ने देवगिरिपर आरंभ किया था लेकिन उनका बीच में ही स्वर्गवास हो जानेसे पुण्यसागरने उसे पूरा किया।
३१ नागेन्द्रकीर्ति के बाद विशालकीर्ति भट्टारक हुए। तक्त लातूर, गादी नागपुर, मठ पूना ऐसी इन की व्यवस्था थी। इन का स्वर्गवास संवत् १९४८ की
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भट्टारक संप्रदाय
बलात्कार गण-लातूर शाखा-काल पट
धर्मभूषण
१ अजितकीर्ति [ संवत् १७०८ ]
विशालकीर्ति २ विशालकीर्ति [ संवत् १७२६ ] पद्मकीर्ति[सं.१७३६-४३] अजितकीर्ति
३ महीचन्द्र [ संवत् १७५३] ४ महीभूषण [ संवत् १७७४ }
विद्याभूषण [ संवत् १७४४ ] हेमकीर्ति (सं. १७५२-१७८७] अजितकीर्ति [संवत् १८३२-१८५७]
५ शान्तिकीर्ति
६ कल्याणकीर्ति
चन्द्रकीर्ति
७ गुणकीर्ति
नागेन्द्रकीर्ति
८ चन्द्रकीर्ति
विशालकीर्ति
९ माणिकनन्दि [संवत् १८३२] विशालकीर्ति [वर्तमान ]
दीपावली को हुआ। इस के २२ वर्ष बाद संवत् १९७१ की कार्तिक शु. १ को वर्तमान भ. विशालकीर्तिजी का पट्टाभिषेक हुआ। आप ने 'भावांकुर' नामक संस्कृत और मराठी कविताओं का एक संग्रह लिखा है। इस समय लातूर पीठ सैतवाल जैन समाज का गुरुपीठ माना जाता है।
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भट्टारक-संप्रदाय
स्व. भ. विशालकीर्तिजी (लातूर)
(स्वर्गवास सं. १९४८)
संदर्भ-पृष्ठ ८८
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भट्टारक-संप्रदाय
बलात्कार गण-लातूर शाखा के वर्तमान भट्टारक श्रीविशालकीर्ति ( पट्टाभिषेक संवत् १९७१ )
संदर्भ-पृष्ठ ८८
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५. बलात्कार गण - उत्तर शाखा
लेखांक २२४ - गुर्वावली
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लेखांक २२३ - पट्टावली
वसंतकीर्ति
संवत १२६४ माह सुदि ५ वसंतकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष १२ दीक्षा वर्ष २० पट्ट वर्ष १ मास ४ दिवस २२ अंतर दिवस ८ सर्व वर्ष ३३ मास ५ बघेरवाल जाति पट्ट अजमेर ||
( ब्र. १० )
सैद्धान्तिको भयकीर्तिर्वनवासी महातपाः । वसंत कीर्तिर्व्याघ्रांहि सेवितः शीलसागरः ।। २१
लेखांक २२६ - गुर्वावली
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लेखांक २२५ -
कलौ किल म्लेच्छादयो नग्नं दृष्ट्रोपद्रवं यतीनां कुर्वन्ति तेन मण्डपदुर्गे श्री वसन्तकीर्तिना स्वामिना चर्यादिवेलायां तट्टीसादरादिकेन शरीरमाच्छाद्य चर्यादिकं कृत्वा पुनस्तन्मुञ्चन्तीत्युपदेशः कृतः संयमिनां इत्यपवादवेषः ।
[ षट्प्राभृतटीका पृ. २१ ]
विशालकीर्ति
लेखांक २२७ - गुर्वावली
( भा. १ कि. ४ पृ. ५२ )
तस्य श्रीवनवासिनस्त्रिभुवनप्रख्यातकीर्तेरभूत् शिष्योनेक गुणालयः शमय मध्यानापसागरः । वादीन्द्रः परवादिवारणगणप्रागल्भ्यविद्रावणः सिंह: श्रीमति मण्डपेतिविदितस्त्रैविद्यविद्यास्पदम् ॥ २२ विशालकीर्तिर्वरवृत्तमूर्तिः |
( भा. १ कि. ४
ततो महात्मा शुभकीर्तिदेवः ।
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४ पृ. ५२ )
शुभकीर्ति
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९०
लेखांक २२८ - १ मूर्ति ?
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भट्टारक संप्रदाय
एकान्तराद्युग्रतपोविधाता धातेव सन्मार्गविधेर्विधाने ।। २३
लेखांक २२९ – गुर्वावली
संवत् १३८० वर्षे माघ सुदि ७ सनौ श्रीनंदिसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे मूलसंघे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. शुभकीर्तिदेव तत्शिष्य सर्वीति ॥
--
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[ २२७ -
लेखांक २३१ - गुर्वावली
श्रीधर्मचन्द्रोजनि तस्य पट्टे हमीरभूपाल समर्चनीयः । सैद्धान्तिकः संयमसिन्धुचन्द्रः प्रख्यातमाहात्म्यकृतावतारः ॥ २४ [ भा. १ कि. ४ पृ. ५३ ]
( उपर्युक्त )
लेखांक २३०
पट्टावली
संवत १२७१ श्रावण सुदि १५ धर्मचंद्रजी गृहस्थ वर्ष १८ दीक्षा वर्ष २४ पट्ट वर्ष २५ दिवस ५ अंतर दिवस ८ सर्व वर्ष ६५ दिवस १२ जाति हूंब पट्ट अजमेर ||
लेखांक २३२ - पट्टावली
( चूलगिरि, अ. १२ पृ. १९२ )
धर्मचंद्र
तत्पट्टेजनि रत्नकीर्तिरनघः स्याद्वादविद्यांबुधिः । नानादेशविवृत्तशिष्यनिवहः प्रायात्रियुग्मो गुरुः ॥
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(ब. १९ )
रत्नकीर्ति
( भा. १ कि. ४ पृ. ५३ )
संवत १२९६ भादवा वदि १३ रत्नकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष १९ दीक्षा
वर्ष २५ पट्ट वर्ष १४ दिवस ११ अंतर दिवस ६ सर्व वर्ष ५५ दिवस १९
हूं
पट्ट
अजमेर
||
( ब. १० )
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--- २३६]
५. बलात्कार गण-उत्तर शाखा
-
प्रभाचंद्र
लेखांक २३३ - पट्टावली
संवत १३१० पौष सुदि १५ प्रभाचंद्रजी गृहस्थ वर्ष १२ दीक्षा वर्ष १२ पट्ट वर्ष ७४ मास ११ दिवस १५ अंतर दिवस ८ सर्व वर्ष ९८ मास ११ दिवस २३ प्रभाचंद्रजीकै आचार्य गुजरातमै छो सो वठै एकै श्रावक प्रतिष्ठानै प्रभाचंद्रजीनै बुलाया सो वै नाया तदि आचार्यनै सूरिमंत्र दे भट्टारककरि प्रतिष्ठा कराई तदि भ. पद्मनंदिजी हुवा पाषाणकी सरस्वती मुढे बुलाई। जाति ब्राह्मण पट्ट अजमेर ॥
(ब. १०) लेखांक २३४ - गुर्वावली
पट्टे श्रीरत्नकीर्तेरनुपमतपसः पूज्यपादीयशास्त्रव्याख्याविख्यातकीर्तिर्गुणगणनिधिपः सक्रियाचारुचंचुः । श्रीमानानन्दधाम प्रतिबुधनुतमामानसंदायिवादो जीयादाचन्द्रतारं नरपतिविदितः श्रीप्रभाचंद्रदेवः ॥ २७
[भा. १ कि. ४ पृ. ५३] लेखांक २३५ - ( आराधना पंजिका )
संवत १४१६ वर्षे चैत्र सुदि पंचम्यां सोमवासरे सकलराजशिरोमुकुटमाणिक्यमरीचिपिंजरीकृतचरणकमलपादपीठस्य श्रीपेरोजसाहेः सकल-- साम्राज्यधुरीबिभ्राणस्य समये श्रीदिल्ल्यां श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भ. श्रीरत्नकीर्तिदेवपट्टोदयाद्रितरुणतरणित्वमुर्वीकुर्वाण भ. श्रीप्रभाचंद्रदेव तत्सिष्याणां ब्रह्म नाथूराम इत्याराधनापंजिकाया ग्रन्थ आत्मपठनार्थ लिखापितं ॥
[ पूना, अ. १ पृ. २१३ ] लेखांक २३६ -
सिरि पहचंदु महागणि पावणु बहुसीसेहि सहिउ य विरावणु।
· 'पट्टणे खंभायच्चे धारणयरि देवगिरि । मिच्छामय विहुणंतु गणि पत्तउ जोइणिपुरि ॥ तहि भव्वहि सुमहोच्छउ विहियउ सिरिरयणकित्तिपट्टे णिहियउ ।
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भट्टारक संप्रदाय
[२३६ - ___ महमदसाहिमणु रंजियउ विजहि वाइयमणु मंजियउ ॥
(बाहुबलि चरित of धनपाल, अ. ७ पृ. ८३) लेखांक २३७ - पट्टावली
पद्मनंदी संवत १३८५ पोस सुदि ७ पद्मनंदीजी गृहस्थ वर्ष १५ मास ७ दीक्षा वर्ष १३ मास ५ पट्ट वर्ष ६५ दिवस १८ अंतर दिवस १० सर्व वर्ष ९९ दिवस २८ जाति ब्राह्मण पट्ट दिल्ली ।।
[व. १०] लेखांक २३८ - गुर्वावली
श्रीमत्प्रभाचंद्रमुनींद्रपट्टे शश्वत्प्रतिष्ठः प्रतिभागरिष्ठः । विशुद्धसिद्धान्तरहस्यरत्न-रत्नाकरो नंदतु पद्मनंदी ।। २८
(भा. १ कि. ४ पृ. ५३) लेखांक २३९ -- आदिनाथ मूर्ति
ॐ संवत १४५० वर्षे वैशाख सुदी १२ गुरौ श्रीचाहुवानवंशकुशेशयमार्तण्डसारवै विक्रमन्य श्रीमत् सरूप भूपग्वान्वय झुंडदेवात्मजस्य भूवजशक्रस्य श्रीसुवरनृपतेः राज्ये वर्तमान श्रीमूलसंघे भ. श्रीप्रभाचंद्रदेव तत्पदे श्रीपद्मनंदिदेव तदुपदेशे गोलाराडान्वये ....
(भा. प्र. पृ. ८) लेखांक २४० - भावनापद्धति
श्रीमत्प्रभेन्दुप्रभुवाक्यरश्मिविकाशिचेतःकुमुदप्रमोदात् । श्रीभावनापद्धतिमात्मशुद्धथै श्रीपद्मनंदी रचयांचकार ।। ३४
[अ. ११ पृ. २५९] लेखांक २४१ - जीरापल्ली-पार्श्वनाथ स्तोत्र
श्रीमत्प्रभेन्दुचरणाम्बुजयुम्मभृगश्चारित्रनिर्मलमतिर्मुनिपद्मनंदी। पार्श्वप्रभोविनयनिर्भरचित्तवृत्तिर्भक्त्या स्तवं रचितवान् मुनिपद्मनंदी ॥१०
[अ. ९ पृ. २५० ]
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बलात्कार गण - उत्तर शाखा
बलात्कार गण की उत्तर भारत की पीठों की पट्टावलियोंमें वसन्तकीर्ति पहले ऐतिहासिक भट्टारक प्रतीत होते हैं। पट्टावलियों के अनुसार ये संवत् १२६४ की माघ शु. ५ को पट्टारूढ हुए [ ले. २२३ ] तथा १ वर्ष ४ मास पट्ट पर रहे। इन्हें बनवासी और शेर द्वारा नमस्कृत कहा गया है ले. २२४ ।। श्रुतसागर सूरि के कथनानुसार ये ही मुनियों के वस्त्रधारणके प्रवर्तक थे। यह प्रथा इन ने मण्डपदुर्ग मे आरम्भ की (ले. २२५)। इनकी जाति बघेरवाल और निवासस्थान अजमेर कहा गया है (ले. २२३ )। इनका बिजौलियाके शिलालेखमें भी उल्लेख हुआ है (ले. २४४ )।
___ वसन्तकीर्ति के बाद विशालकीर्ति" और उन के बाद शुभकीर्ति पट्टाधीश हुए [ ले. २२६-२७ ] शुभकीर्ति एकान्तर उपवास आदि कठोर
३२ इनके पहले क्रमशः गुप्तिगुप्त, माघनन्दि, जिनचन्द्र, पद्मनन्दि कुन्दकुन्द, उमास्वाति, लोहाचार्य, यशःकीर्ति, यशोनन्दि, देवनन्दि, गुणनन्दि, वज्रनन्दि, कुमारनन्दि, लोकचन्द्र, प्रभाचन्द्र, नेमिचन्द्र, भानुनन्दि, जटासिंहनन्दि, वसुनन्दि, वीरनन्दि, रत्ननन्दि, माणिक्यनन्दि, मेघचन्द्र, शान्तिकीर्ति, मेरुकीर्ति, महाकीर्ति, विश्वनन्दि, श्रीभूषण, शीलचन्द्र, श्रीनन्दि, देशभूषण, अनन्तकीर्ति, धर्मनन्दि, विद्यानन्दि,रामचन्द्र, रामकीर्ति, अभयचन्द्र, नरचन्द्र, नागचन्द्र, नयनन्दि, हरिश्चन्द्र, महीचन्द्र, माधवचन्द्र, लक्ष्मीचन्द्र, गुणकीर्ति, गुणचन्द्र, वासवचन्द्र, लोकचन्द्र, श्रुतकीर्ति, भानुचन्द्र, महाचन्द्र, माघचन्द्र, ब्रह्मनन्दि, शिवनन्दि, विश्वचन्द्र, हरिनन्दि, भावनन्दि, सुरकीर्ति, विद्याचन्द्र, सुरचन्द्र, माघनन्दि, ज्ञाननन्दि, गंगनन्दि, सिंहकीर्ति, हेमकीर्ति, चारनन्दी, नेमिनन्दी, नाभिकीर्ति, नरेन्द्रकीर्ति, श्रीचन्द्र, पद्मकीर्ति, वर्धमान, अकलंक, ललितकीर्ति, केशवचन्द्र, चारुकीर्ति और अभयकीर्ति का उल्लेख हुआ है ।
३३ राजस्थान के अन्तर्गत माण्डलगढ ।
३४ पट्टावलियोंमें वसन्तकीर्ति के बाद प्रख्यातकीर्तिका उल्लेख है किन्तु (ले. २४४ ) में इनका नाम नहीं है। शायद गुर्वावलीके श्लोकके विशेषणको विशेष नाम मान लेनेसे पट्टावली में यह गलती हुई है।
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भट्टारक संप्रदाय तपश्चर्या करते थे। इनने संवत् १३८० में कोई मूर्ति स्थापित की थी (ले. २२८ )।
शुभकीर्ति के बाद धर्मचन्द्र पट्टाधीश हुए। ये संवत् १२७१ की श्रावण शुक्ल ७ को पट्टारूढ हुए तथा २५ वर्ष पट्ट पर रहे। इनकी जाति हूंबड और निवास स्थान अजमेर था। हमीर राजाने इन्हें प्रणाम किया था (ले. २२९-३०)।
इनके बाद रत्नकीर्ति संवत् १२९६ की भाद्रपद कृ. १३ को पट्टारूढ हुए। ये १४ वर्ष पट्ट पर रहे। ये भी हूंबड जाति के और अजमेर निवासी थे (ले. २३१-३२ )।
रत्नकीर्तिके पट्ट पर दिल्लीमे संवत् १३१० की पौष शु. १५ को भट्टारक प्रभाचन्द्रका अभिषेक किया गया। ये ब्राह्मण जातिके थे। खंभात, धारा, देवगिरि आदि स्थानोंमें आपने विहार किया तथा दिल्लीमें महमदशाँहँको प्रसन्न किया (ले. २३३, २३६)। गुर्वावलीके अनुसार आपहीने पूज्यपादकृत समाधितन्त्रपर टीका लिखी थी किन्तु यह प्रश्न विवादास्पद है (ले. २३४ )। प्रभाचन्द्र ७४ वर्ष तक पट्टाधीश रहे ।
आप के शिष्य ब्रह्म नाथूरामने दिल्लीमें संवत् १४१६ की माघ शु. ५को फिरोजसाहैके राज्यकालमें आराधनापंजिकाकी एक प्रति लिखी (ले.२३५)। ___३५ सम्भवतः संवत्का अंक यहां गलत है।
३६ संस्कृत साहित्यमे हमीर शब्दका प्रयोग मुसलमान राजा इस सामान्य अर्थमे हुआ है उसीका यह उदाहरण है। चित्तौडके राणा हमीर सन् १३०१ मे अधिकारारूढ हुए इस लिए यह उनका उल्लेख नही हो सकता ।
३७ नासिरुद्दीन महम्मदशाह (सन् १२४६-६६)
३८ इस प्रश्नकी चर्चाके लिए न्यायकुमुदचन्द्रकी प्रस्तावना देखिए। एक मतके अनुसार प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचन्द्र तथा समाधितन्त्रटीका, रत्नकरण्डटीका और प्राभृतत्रयटीकाके कर्ता एक ही प्रभाचन्द्र हैं जो ११ वीं सदीमें हुए। दूसरे मतके अनुसार इन टीकाग्रन्थोंके कर्ता ही प्रस्तुत प्रभाचन्द्र हैं।
३९ फिरोजशाह तुघलक [ सन् १३५१-८८ ]
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बलात्कार गण-उत्तर शाखा
एक बार एक प्रतिष्ठा महोत्सबके समय व्यवस्थापक गृहस्थ उपस्थित नहीं रहे तब प्रभाचन्द्रने उसी उत्सवको पट्टाभिषेकका रूप देकर भ. पद्मनन्दिको अपने पद पर स्थापित किया (ले. २३३)। पद्मनन्दि संवत् १३८५ की पौष शु. ७ से ६५ वर्ष तक पट्टाधीश रहे । ये ब्राह्मण जातिके थे (ले. २३७)। भावनापद्धति और जीरापल्ली-पार्श्वनाथ-स्तोत्र ये आपकी कृतियां हैं (ले. २४०-४१)। आपने संवत् १४५० की वैशाख शु. १२ को एक आदिनाथ मूर्ति प्रतिष्ठित की [ले. २३९ ] ।"
भ. पद्मनन्दिके तीन प्रमुख शिष्योंद्वारा तीन भट्टारकपरम्पराएं आरंभ हुई जिनका आगे अनेक प्रशाखाओंमें विस्तार हुआ। इनमें शुभचन्द्रका वृत्तान्त दिल्ली-जयपुर शाखामें, सकलकीर्तिका वृत्तान्त ईडर शाखामें तथा देवेन्द्रकीर्तिका वृत्तान्त सूरत शाखामें देखना चाहिए। इनके अतिरिक्त मदनदेव (ले. २४५), नयनन्दि (ले. २५१), तथा मदनकीर्ति (ले. २५५) ये पद्मनन्दिके अन्य शिष्योंके उल्लेख मिले हैं । इनमें मदनदेव और मदनकीर्ति सम्भवतः एक ही हैं।
४० पद्मनन्दीकी एक और कृति वर्धमानचरित है। आपके शिष्य हरिचन्द्रने मल्लिनाथ काव्य लिखा है। [अनेकान्त वर्ष १२, पृष्ठ २९५ ]
४१ इस प्रतिष्ठाके समयके शासकका नाम मूलमें बहुत ही अशुद्ध छपा है इस लिए उसका इतिहासमें निर्देश नहीं पाया गया ।
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भट्टारक संप्रदाय
बलात्कार गण - उत्तर शाखा - काल पट
१ वसन्तकीर्ति [ संवत् १२६४ ] २ विशालकीर्ति [ संवत् १२६६] ३ शुभकीर्ति ४ धर्मचन्द्र [सं. १२७१-१२९६] ५ रत्नकीर्ति [सं. १२९६-१३१० ६ प्रभाचन्द्र [सं. १३१०-१३८४] ७ पद्मनन्दी [सं. १३८५-१४५०] ८ शुभचन्द्र ९ सकलकीर्ति १० देवेंद्रकीर्ति [दिल्ली-जयपुर [ईडर शाखा] [सूरत शाखा
शाखा
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६. बलात्कार गण - दिल्ली-जयपुर शाखा लेखांक २४२ - शारदास्तवन
शुभचंद्र श्रीपद्मनंदींद्रमुनींद्रपट्टे शुभोपदेशी शुभचंद्रदेवः । विदां विनोदाय विशारदायाः श्रीशारदायाः स्तवनं चकार ॥९
[ अ. १२ पृ. ३०३ ] लेखांक २४३ - शिलालेख
.. 'श्रीमत्प्रभेन्दुपट्टेस्मिन् पद्मनंदी यतीश्वरः ।
तत्पट्टांबुधिसेवीव शुभचंद्रो विराजते । .. शिष्योयं शुभचंद्रस्य हेमकीर्तिमहान् सुधीः ।
येन वाक्यामृतेनापि पोषिता भव्यपादपाः ।। .: विशुद्धा श्रीहेमकीर्तियतिनः सुसिद्धः ।
आस्तां च तावजगतीतलेस्मिन् यावस्थिरौ चंद्रदिवाकरौ च ॥ संवत् १४६५ वर्षे फाल्गुण सुदि २ बुधौ ।।
___बिजौलिया [ अ. ११, पृ. ३६६ ] लेखांक २४४ - निषीदिका लेख
श्रीबलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीमहि(नंदि) संघे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीवसंतकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीविशालकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीदमन(?) कीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीधर्मचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीरत्नकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः ॥
.. पद्मनंदिमुनेः पट्टे शुभचंद्रो यतीश्वरः।
तकोदिकविद्यासु (पद)धारोस्ति सांप्रतम् ।। ..'आर्या बाई लोकसिरि विनयसिरि तस्याः शिक्षणी बाई चारित्रसिरि बाई चारित्रकी शिक्षणी बाई आगमसिरिः । तस्या इयं निषेधिका आचंद्रतारकाक्षयं संवत् १४८३ वर्षे फाल्गुन सुदि ३ गुरौ ।।
[ उपर्युक्त पृ. ३६५ ]
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भट्टारक संप्रदाय
[२४५ --
लेखांक २४५ - (प्रवचनसार)
अथ संवत्सरे श्रीविक्रमादित्यगताब्दाः संवत् १४९७ वर्षे ज्येष्ठ सुदि १३ शनिवासरे श्रीटोडा महादुर्गे श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे भ. पद्मनंदिदेवा तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवा गुरुभ्राता श्रीमदनदेवास्तत्सिष्य ब्रह्म नरसिंह तत् पुस्तकात् मया सुंदरलालेन लिपिकृता इंदोरमध्ये स्वपठनार्थः संवत् १९३० ॥
(रायचन्द्र शास्त्रमाला, बम्बई, १९३५, प्रशस्ति ) लेखांक २४६ - पट्टावली
संवत् १४५० माह सुदि ५ भ. शुभचंद्रजी गृहस्थ वर्ष १६ दिक्षा वर्ष २४ पट्ट वर्ष ५६ मास ३ दिवस ४ अंतर दिवस ११ सर्व वर्ष ९६ मास ३ दिवस २५ ब्राह्मण जाति पट्ट दिल्ली ॥
(ब. १०)
लेखांक २४७ - सिद्धांतसार
जिनचंद्र पवयणपमाणलक्खणछंदालंकाररहियहियएण । जिणइंदेण पउत्तं इणमागमभत्तिजुत्तेण ॥ ७८
(माणिकचंद्र ग्रंथमाला, बम्बई) लेखांक २४८ - पट्टावली
संवत् १५०७ जेष्ट वदि ५ भ. जिनचंद्रजी गृहस्थ वर्ष १२ दिक्षा वर्ष १५ पट्ट वर्ष ६४ मास ८ दिवस १७ अंतर दिवस १० सर्व वर्ष ९१ मास ८ दिवस २७ बघेरवाल जाति पट्ट दिल्ली ॥
[च. १०] लेखांक २४९ - पार्श्वनाथ मूर्ति
सं. १५०२ वर्षे वैसाख सुदी ३ श्रीमूलसंघे भ. श्रीजिनचंद्र वाकुलिया गोने साहु प्रमसी तत्पुत्र राजदेव नित्यं प्रणमंति ॥
(भा. प्र. पृ. १३)
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- २५३] ६. बलात्कार गण-दिल्लीजयपुर शाखा लेखांक २५० - शांतिनाथ मूर्ति
सं. १५०९ वर्षे चैत्र सुदी १३ रविवासरे श्रीमूलसंधे भ. पद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे श्रीशुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे श्रीजिनचंद्रदेवाः श्रीधौपे ग्राम स्थाने महाराजाधिराज श्रीप्रतापचंद्रदेव राज्ये प्रवर्तमाने यदुवंशे लंबकंचुकान्वये साधु श्रीउद्धर्ण तत्पुत्र असौ .... ।
( उपर्युक्त ) लेखांक २५१ - [नेमिनाथचरित ]
__ संवत १५१२ आषाढ वदि ११ वर्षे शाका १३७७ प्रवर्तमाने फा वसंतऋतौ पारवानुमासं शुकुपक्षे पंचम्यां तिथौ सोमदिने श्रीघोघा वेलाकूले श्रीनेमिसुर चरिमइ लिखितं । श्रीमूलसंधे 'भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. शुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. जिनचंद्रदेवाः तत्र भ. पद्मनंदिदेवाः तत्शिष्य नयणंदिदेव तस्मै श्रीहूंबडवंश ज्ञातीय गोत्र खरीयान श्रेष्ठि गजभाई...... श्रीजिनदास धनदत्तेन श्रीनेमिनाथचरितं लिखापितं श्रीनयनंदिमुनये दत्तं ॥
[अ. ११ पृ. ४१४] लेखांक २५२ - पार्श्वनाथ मूर्ति
सं. १५१५ वर्षे माघ सुदी ५ भौमे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे भ. जिनचंद्रदेव गोलाराडान्वये सा. अभू भार्या हडो .... ।
(भा. प्र. पृ. ८) लेखांक २५३ - [ मूलाचार]
वर्षे षडेकपंचैकपूरणे विक्रमे नतः । शुक्ले भाद्रपदे मासे नवम्यां गुरुवासरे ॥ श्रीमद्वट्टेरकाचार्यकृतसूत्रस्य सद्विधेः ।
मूलाचारस्य सद्वृत्तेर्दातुर्नामावली ब्रुवे । .."विद्यते तत्समीपस्था श्रीमती योगिनीपुरी।
यां पाति पातिसाहिश्रीबहलोलाभिधो नृपः ॥ तस्याः प्रत्यग्दिशि ख्यातं श्रीहिसारपिरोजकं ।
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भट्टारक संप्रदाय
[२५३ --
नगरं नगरंभादिवल्लीराजिविराजितं ॥ तत्र राज्यं करोत्येष श्रीमान कुतबखानकः । तथा हैबतिखानश्च दाता भोक्ता प्रतापवान् ॥ अथ श्रीमूलसंघेस्मिन् नंदिसंघेनघेजनि । बलात्कारगणस्तत्र गच्छः सारस्वतस्त्वभूत् ॥ तत्राजनि प्रभाचंद्रः सूरिचंद्रो जितांगजः । दर्शनज्ञानचारित्रतपोवीर्यसमन्वितः ॥ श्रीमान् बभूव मार्तडस्तत्पट्टोदयभूधरे । पद्मनंदी बुधानंदी तमश्छेदी मुनिप्रभुः ॥ तत्पट्टांबुधिसच्चंद्रः शुभचंद्रः सतां वरः।। पंचाक्षवनदावाग्निः कषायक्ष्माधराशनिः ।। तदीयपट्टांबरभानुमाली क्षमादिनानागुणरत्नशाली ।
भट्टारकश्रीजिनचंद्रनामा सैद्धांतिकानां भुवि योस्ति सीमा। .. तच्छिष्या बहुशास्त्रज्ञा हेयादेयविचारकाः ।
शयसंयमसंपूर्णा मूलोत्तरगुणान्विताः ।। जयकीर्तिश्चारुकीर्तिर्जयनंदी मुनीश्वरः ।।
भीमसेनादयोन्ये च दशधर्मधरा वराः ॥ ... श्रीमान् पंडितदेवोस्ति दाक्षिणात्यो द्विजोत्तमः ।
यो योग्यः सूरिमंत्राय वैयाकरणतार्किकः ॥ अग्रोतवंशजः साधुर्लवदेवाभिधानकः । तत्सुतो धरणः संज्ञा तद्भार्या भीषुही मता ॥२५ तत्पुत्रो जिनचंद्रस्य पादपंकजषट्पदः । मीहाख्यः पंडितस्त्वस्ति श्रावकवतभावकः ॥२६ तदन्वयेथ खंडेलवंशे श्रेष्ठीयगोत्रके । पद्मावत्याः समाम्नाये यक्ष्याः पार्श्वजिनेशिनः ।। २७
साधुः श्रीमोहणाख्योभूसंघभारधुरंधरः । .. एतैः श्रीसाधुपार्श्वस्य चोषाख्यस्य च कायजैः । वसद्भिर्ट्सझणूस्थाने रम्ये चैत्यालयैर्वरैः ।। ५० चाहमानकुलोत्पन्ने राज्यं कुर्वति भूपतौ । श्रीमत्समसखानाख्ये न्यायान्यायविचारके ॥५१
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Ach
-- २५६] ६. बलात्कार गण-दिल्लीजयपुर शाखा
• • कारितं श्रुतपंचम्यां महदुद्यापनं च तैः ।
श्रीमद्देशव्रताधारिनरसिंहोपदेशतः ।। ५३ .. "एतच्छास्त्रं लेखयित्वा हिसारा
दानाय्य स्वोपार्जितेन स्वराया। संघेशश्रीपद्मसिंहेन भक्त्या सिंहान्ताय श्रीनराय प्रदत्तं ॥ ६० ... 'सूरिश्रीजिनचंद्रांहिस्मरणाधीनचेतसा । प्रशस्तिर्विहिता चासौ मीहाख्येन सुधीमता ।। ६९
माणिकचंद्र ग्रंथमाला, २३, बम्बई १९२२ ] लेखांक २५४ - (तिलोयपण्णत्ती)
स्वस्तिश्रीसंवत् १५१७ वर्षे मार्ग सुदि ५ भौमवारे श्रीमूलसंघे भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः मुनिश्रीमदनकीर्ति तच्छिष्य ब्रह्म नरसिंहकस्य । श्रीझुंझुणपुरे लिखितमेतत्पुस्तकम् ।।
(जीवराज ग्रंथमाला, शोलापुर १९५१) लेखांक २५५ - [पउमचरिय]
संवत १५२१ वर्षे ज्येष्ठमासे सुदि १० बुधवारे श्रीगोपाचलदुर्गे श्रीमूलसंघे .... 'भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. पद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. जिनचंद्रदेवाः। तत्र श्रीपद्मनंदिशिष्यश्रीमदनकीर्तिदेवाः तत्शिष्य श्रीनेत्रनंदिदेवाः तन्निमित्ते खंडेलवाल लुहाडिया गोत्रे संगही धामा भार्या धनश्री ..... ||
(अ. ४ पृ. ५४०) लेखांक २५६ - ( अध्यात्मतरंगिणी टीका)
त्रयस्त्रिंशाधिके वर्षे शतपंचदशप्रमे । शुक्लपक्षेश्विने मासे द्वितीयायां सुवासरे। श्रीहिसाराभिधे रम्ये नगरे ऊनसंकुले । राज्ये कुतुबखानस्य वर्तमानेथ पावने ।।
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भट्टारक संप्रदाय
[२५७ -- अथ श्रीमूलसंघेस्मिन्ननघे मुनिकुंजरः । सूरिः श्रीशुभचंद्राख्यः पद्मनंदिपदस्थितः॥ तत्पट्टे जिनचंद्रोभूत् स्याद्वादांबुधिचंद्रमाः । तदंतेवासिमेहाख्यः पंडितो गुणमंडितः ॥ तदानाये सदाचारक्षेत्रपालीयगोत्रके।
सुनामपुरवास्तव्ये खंडेलान्वयकेजनि ।। .. एतन्मध्ये धनश्रीर्या श्राविका परमा तया । लिखापितमिदं शास्त्रं निजाज्ञानतमोहतौ ।। पूजयित्वा पुनर्भक्त्या पठनाय समर्पितं । मेहाख्याय सुशास्त्रज्ञपंडिताय सुमेधसे ।।
( झालरापाटन, अ. १२ पृ. ३१) लेखांक २५७ - महावीर मूर्ति
सं. १५३७ वर्ष वैसाख सुदि १० गुरौ श्रीमूलसंघे भ. जिनचंद्रानाये मंडलाचार्यविद्यानंदी तदुपदेशं गोलारारान्वये पियू पुत्र......।
( भा. प्र. पृ. ५) लेखांक २५८ - [ नीतिवाक्यामृत ]
अथ संवत्सरेस्मिन् विक्रमादित्यराज्यात् संवत् १५४१ वर्षे कार्तिक सुदि ५ शुभदिने श्रीचंद्रप्रभचैत्यालयविराजमाने श्रीहिसारपेरोजाभिधानपत्तने सुलतानबहलोलसाहिराज्यप्रवर्तमाने श्रीमूलसंघे ... भ. जिनचंद्रदेवाः । तच्छिष्योष्टाविंशतिमूलगुणरत्नरत्नाकरमंडलाचार्यमुनिश्रीरत्नकीर्तिः। तस्य शिष्यो निष्प्रावरणमूर्तिर्मुनिश्रीविमलकीर्तिः। भ. श्रीजिनचंद्रांतेवासि पं. श्रीमहाख्यः । एतदानाये क्षेत्रपालीयगोत्रे खंडेलवालान्वये सुनामपुरवास्तव्ये . . 'एतेषां मध्ये या साध्वी कमलश्रीस्तया निजपुत्रसं. भीवावच्छूकयोायोपार्जितवित्तेनेदं सोमनीतिटीकापुस्तकं लिखापितं । पुनः पंडितमेहाख्याय पठनार्थ भावनया प्रदत्तं निजज्ञानावरणकर्मक्षयाय ।।
(माणिकचंद ग्रंथमाला, बम्बई १९२२)
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-- २६१] ६. बलात्कार गण-दिल्लीजयपुर शाखा १०३ लेखांक २५९ - धर्मसंग्रह
सूरिश्रीजिनचंद्रकस्य समभूद्रत्नादिकीर्तिर्मुनिः शिष्यस्तत्त्वविचारसारमतिमान् सद्ब्रह्मचर्यान्वितः । · · तच्छिष्यो विमलादिकीर्तिरभवन्निग्रंथचूडामणिः
यो नानातपसा जितेंद्रियगणः क्रोधेमकुंभे शृणिः । . . 'दीक्षां श्रौतमुनीं बभार नितरां सक्षुल्लकः साधकः
आर्यो दीपद आख्ययात्र भुवनेसौ दीप्यतां दीपवत् ॥ १६ छात्रोभूज्जैनचंद्रो विमलतरमतिः श्रावकाचारभव्यः स्वग्रोतानूकजातोद्धरणतनुरुहो भीषुहीमातृसूतः । मीहाख्यः पंडितो वै जिनमतनयनः श्रीहिसारे पुरेस्मिन् ग्रंथः प्रारंभि तेन श्रीमहति वसता नूनमेष प्रसिद्धे ॥ १७ सपादलक्षे विषयेतिसुंदरे श्रिया पुरं नागपुरं समस्ति तत् । पेरोजखानो नृपतिः प्रपाति यन्न्यायेन शौर्येण रिपून्निहन्ति च ॥१८ . . . मेधाविनामा निवसन्नहं बुधः
पूर्वा व्यधां ग्रंथमिमं तु कार्तिके । चंद्राब्धिबाणैकमितेत्र वत्सरे कृष्णे त्रयोदश्यहनि स्वभक्तितः ॥ २१
(प्रकाशक- उदयलाल काशलीवाल, बनारस १९१०) लेखांक २६० - ? मूर्ति
संवत १५४२ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ८ शनौ भ. श्रीजिनचंद्र रा. भ. श्रीज्ञानभूषण सा. ऊहड ... ||
(भा. ७ पृ. १६) लेखांक २६१ - दर्शन यंत्र
सं. १५४३ मगसर वदि १३ गुरुवार श्रीमूलसंघे श्रीकुंदकुंदान्वये भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः . तद आनाये सेतवालान्वये नवग्रामपुरवास्तव्य. ... . एतेषां मध्ये चौधरी सुरजवने श्रीसम्यग्दर्शन यंत्र करापितं प्रतिष्ठापितं ॥
(फतेहपुर, अ. ११ पृ. ४०८).
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१०४
भट्टारक संप्रदाय [२६२ - लेखांक २६२ - ऋषभ मूर्ति ___ संवत् १५४५ वर्षे वैशाख सुदि १० चंद्रदिने श्रीमूलसंघे ... भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः बरहिया कुलोद्भव साहु लखे भार्या कसुमा । तेन अर्जुनेनेदं आदीश्वरबिंबं स्वपूजनार्थ करापितं ।।
(भा. प्र. पृ. १) लेखांक २६३ - पार्श्वमूर्ति
सं. १५४८ वैशाख सुदि ३ श्रीमूलसंघे भ. जिनचंद्रदेव साहु जीवराज पापडीवाल नित्यं प्रणमंति सौख्यं शहर मुडासा श्रीराजा स्योसिंघ रावल ।।
(फतेहपुर, अ. ११ पृ. ४०६) लेखांक २६४ - [ नागकुमारचरित ] ___ संवत १५५८ वर्षे श्रावण सुदि १२ भौमे श्रीगोपाचलगढदुर्गे तोमरवंशे श्रीमानसिंघदेवाः तद्राज्यप्रवर्तमाने श्रीमूलसंघे 'भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः तदाम्नाये जैसवालान्वये एतेषां मध्ये द्योमा इंद नागकुमारपंचमी लिखापितं ज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ ॥
[प्र. पृ. १४, कारंजा जैन सीरीज १९३३ ] लेखांक २६५ - पट्टावली
प्रभाचंद्र संवत् १५७१ फाल्गुन वदि २ भ. प्रभाचंद्रजी गृहस्थ वर्ष १५ दिक्षा वर्ष ३५ पट्ट वर्ष ९ मास ४ दिवस २५ अंतर दिवस ८ सर्व वर्ष ५९ मास ५ दिवस २ एकै वार गछ दोय हुवा चीतोड अर नागोरका सं. १५७२ का अध्वाल ॥
(व. १०) लेखांक २६६ - दशलक्षण यंत्र
सं. १५७३ फाल्गुन वदि ३ श्रीमूलसंघे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. जिनचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तदानाये खंडेलवालान्वये ठोल्या गोत्रे
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-- २७०] ६. बलात्कार गण--दिल्लीजयपुर शाखा पं. मूना भार्या सामू नित्यं प्रणमंति।
(फतेहपुर, अ. ११ पृ. ४०८) लेखांक २६७ - ( नागकुमारचरित ) .
संवत १६०३ वर्षे शाके १४६७ प्रवर्तमाने महामांगल्य आषाढमासे कृष्णपक्षे द्वितीयातिथौ उत्तराषाढनक्षत्रे तैतलकरणे श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाये
'भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तत् शिष्य मंडलाचार्य श्रीधर्मचंद्रदेवास्तदाम्नाये तक्षकपुरवास्तव्ये सोलंकीराजाधिराज श्रीरामचंद्रराज्ये श्रीआदिनाथचैत्यालये खंडेलवालान्वये 'सा. ठाकुर भार्या दाडिमदे तया इदं शास्त्रं पंचमीव्रत उद्योतनार्थ लिखापितं धर्मचंद्राय दत्तं ।।
[प्र. पृ. १५, कारंजा जैन सीरीज, १९३३ ] लेखांक २६८ - [ यशोधर चरित ]
संवत १६१५ वर्षे भादव सुदि ५ वी सप्त (?) वारे पुष्यनक्षत्रे तोडागढमहादुर्गे महाराजाधिराजराउश्रीकल्याणराज्यप्रवर्तमाने श्रीमूलसंधे ... भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीप्र (भाचंद्र)
(प्र. पृ. १५, कारंजा जैन सीरीज १९३१) लेखांक २६९ - [ मूलाचार ]
नरेंद्रकीर्ति श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीचंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीमन्नरेंद्रकीर्तिजी तत् भ्रात पं. राजश्रीतेजपाल तस्य वर्णी चोखचंद्रेण आत्मपठनीयनिमित्तं लिखापितं। श्रीसमरपुरमध्ये। श्रीरस्तु। श्रीसंवत् १७३० मिति मार्गसिर सित त्रयोदस्यां लिपीकृतं ॥
( का. ५२९) लेखांक २७०- पार्श्वनाथ मूर्ति
जगत्कीर्ति सं. १७४६ माह सुदी श्रीमूलसंघे भ. श्रीजगत्कीर्ति संघई श्रीकृष्णदास......॥
( भा. प्र. पृ. ६)
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१०६
लेखांक २७१ - हरिवंशपुराण
भट्टारक संप्रदाय
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[२७१ -
देवेंद्रकीर्ति
तहां श्रीजिनदास जू ग्रंथ रच्यो इह सार । सो अनुसार खुयालले कौ भविक सुखकार || देश ढुंढाढ जानौ सार तामे धर्मतनो विस्तार | बिसनसिंह सुत जैसिंहराय राज करें सबको सुखदाय || ...जामै पुर शांगावति जानि धर्म उपावनकौ वर थान । ...संघ मूलसंघ जानि गछ सारदा बखानि गण जु बलात्कार जाणौ मन लायके || कुंदकुंद मुनीकी आमनाय मांहि भये देवइंद्रकीरत सुपट्टसार पायके | पंडित सु भए तहां नाम लछिमीसुदास चतुर विवेकी श्रुतज्ञानको उपायके || तिनै थकी मै भी कछू अल्पसो सुज्ञान लयो फेरि मै atit जिहानाबाद मध्य आयकै ॥ "महमदशा पातिशाह राज करि है सुचकत्थौ । नीतिवंत बलवान न्याय विन ले न अरत्थौ ॥ ...संवत सतरास अरु असी सुदि वैसाख तीज वर लसी । सुक्रवार अतिही शुभ जोग सार नखत्तरकौ संजोग ॥
( भा. ६ पृ. १२७ )
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लेखांक २७२
१ मूर्ति
संवत्सरे वह्निवसुमुनदुमिते १७८३ वैशाखमा से कृष्णपक्षे अष्टमीतिथौ बुधवारे श्रवणनक्षत्रे बांसखोहनगरे अंबावती सामी कुछाहागोत्रीय महाराजाधिराज श्रीजयसिंघ जित्तत्सामंत कुंभाणीगोत्रीय राजिश्री चूहडसिंहजी राज्य प्रवर्तमाने श्रीमूलसंघे नंद्यान्नाये भ. श्रीजगत्कीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्तिदेवाः तदाम्नाये खंडेलवालान्वये लहाड्या गोत्रे साहश्री रामदासजी तद्भार्या रायवदे ॥
[ भा. ७ पृ. १३]
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६. बलात्कार गण - दिल्ली जयपुर शाखा
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- २७६ ]
लेखांक २७३ - षोडशकारण यंत्र
सं. १७८३ वर्षे वैशाख वदि ८ बुधवार श्रीमूलसंघे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्ति स्तदाम्नाये या सपाह कटे लहाड्या गोत्रे संघही श्रीहृदयराम बिंबप्रतिष्ठा पं. भामनि ॥
लेखांक २७५ १ मूर्ति
EDMO
१०७
लेखांक २७४ - [ पट्कर्मोपदेशरत्नमाला ]
संवत् १७९७ वर्षे श्रावण सुदि १४ शनिवासरे श्रीमूलसंघे श्री देवेंद्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीमहेंद्रकीर्तिस्तदाम्नाये सवाईजयपुरमध्ये श्रीपार्श्वनाथ चैत्यालये विलालागोत्रे साह श्रीहरराम तस्य भार्या हीरादे... एतेषां मध्ये साहजी श्रीगोपीरामजी इदं पुस्तकं षट्कर्मोपदेशरत्नमालानामकं आचार्य श्री क्षेमकीर्तिजी तच्छिष्य पंडित गोवर्धनदासाय लिखापि घटापितं ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थ ||
(भा. प्र. पृ. १२ )
महेंद्रकीर्ति
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'भ.
( जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५४२ )
सुखेंद्रकीर्ति
संवत् १८६१ वर्षे वैशाखशुक्ल पंचम्यां श्रीसवाईजयसिंहनगरे भ. श्रीसुखेंद्रकीर्तिगुरुवर्युपदेशात् छावडा गोत्रे संग ( ही ) दी (वान) रायचंद्रेण प्रतिष्ठा कारिता ||
( जयपुर, अ. १२ पृ. ३८ )
लेखांक २७६ - बृहत् कथाकोष
संवत १८६८ मासोत्तममासे जेठ मास शुक्ल पक्ष चतुर्थ्यां तिथौ सूर्यबारे श्रीमूलसंघे नंग्राम्नाये बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यावये भ. श्रीमहेंद्रकीर्तिजी तत्पट्टे भ. श्रीक्षेमेंद्रकीर्तिजी तत्पट्टे भ. श्रीसुरेंद्रकीर्तिजी तत्पट्टे भ. श्री सुखेंद्र कीर्तिजी तदाम्नाये सवाईजयनगरे श्रीमन्नेमिनाथचैत्यालये गोधाख्यमंदिरे बखतरामकृष्णचंद्राभ्यां ज्ञानावरणी कर्मक्षयार्थं वृहदाराधनाकथाकोशाख्यं ग्रंथं स्वशयेन लिखितं ।
( प्रस्तावना पृ. १, सिंधी जैन ग्रंथमाला, १९४३ )
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बलात्कार गण - दिल्ली-जयपुर शाखा
होता हैं । इन के गुरु
प्रकरण में आ चुका है ।
शारदा
इस शाखा का आरम्भ भ. शुभचन्द्र से पद्मनन्दी थे जिनका वृत्तान्त उत्तर शाखा के शुभचन्द्र का पट्टाभिषेक संवत् १४५० की माघ शु. ५ को हुआ और ५६ वर्ष पट्ट पर रहे। वे ब्राह्मण जाति के थे [ ले. २४६ ] । स्तवन यह उन की एक कृति है [ ले. २४२ ] । उन के शिष्य हेमकीर्ति की प्रशंसा संवत् १४६५ के बिजौलिया लेख में की गई है । संवत् १४८३ की फाल्गुन शु. ३ को उन की परम्परा की आर्यिका आगमश्री की समाधि बनाई गई [ले. २४३, २४४ ] । संवत् १४९७ की ज्येष्ठ शु. १३ को उनके गुरुबन्धु मदनदेव के शिष्य ब्रह्म नरसिंह ने प्रवचनसार की एक प्रति लिखी थी [ले. २४५ ] ।
शुभचन्द्र के बाद जिनचन्द्र भट्टारक हुए । संवत् १५०७ की ज्येष्ट कृ. ५ को आप का पट्टाभिषेक हुआ तथा आप ६४ वर्ष पट्टाधीश रहे । आप बघेरवाल जाति के थे [ ले. २४८ ] | सिद्धान्तसार यह आप की एक कृति है [ ले. २४७ ] । प्रतापचन्द्र के राज्य काल में संवत् १५०९ की चैत्र शु. १३ को धौपे ग्राम में आप ने एक शान्तिनाथ मूर्ति स्थापित की [ले. २५० ] | आप की आम्नाय में संवत् १५१२ की आषाढ कृ. ११ को नेमिनाथ चरित की एक प्रति लिखाई गई जो जिनदास ने घोघा बंदरगाह में नयनन्दि मुनि को अर्पित की [ ले. २५१ ]। संवत् १५१५ की माघ शु. ५ को आप ने एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की [ले. २५२ ] । आप की आम्नाय में संवत् १५१७ को मार्गशीर्ष शु. ५ को झुंझुणपुर में तिलोय पण्णत्ती की एक प्रति लिखाई गई [ले. २५४ ] | इसी प्रकार संवत् १५२१ की ज्येष्ठ शु. ११ को ग्वालियर में पउमचरिय की प्रति लिखाई गई जो नेत्रन्दि मुनि को अर्पण की गई [ ले. २५५ ] । संवत् १५३७ वैशाख शु. १० को जिनचन्द्र की आम्नाय में विद्यानन्द ने एक महावीर
४२ प्रतापचन्द्र का राज्य काल ज्ञात नही हो सका। इस समय के करीब झांसी विभाग मे रुद्रप्रताप नामक राजा का उल्लेख मिलता है ।
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बलात्कार गण-दिल्लीजयपुर शाखा मूर्ति स्थापित की [ ले. २५७ ] । इसी प्रकार संवत् १५४२ की ज्येष्ठ शु. ८ को आप की आम्नाय में भ. ज्ञानभूषण ने एक मूर्ति स्थापित की ले. २६०] । संवत् १५४३ की मार्गशीर्ष कृ. १३ को जिनचन्द्र ने सम्यग्दर्शन यन्त्र स्थापित किया तथा संवत् १५४५ की वैशाख शु. १० को ऋषभदेव की एक मूर्ति स्थापित की [ले. २६१-६२]। मुडासा शहर में सेठ जीवराज पापडीवाल ने संवत् १५४८ की वैशाख शु. ३ को भ. जिनचन्द्र के द्वारा कई मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई [ले. २६३ ] |" संवत् १५५८ की श्रावण शु. १२ को आप की आम्नाय में ग्वालियर में मानसिंह तोमर के राज्यकाल में नागकुमारचरित की एक प्रति लिखी गई [ले. २६४ ।
भ. जिनचन्द्र के शिष्यों में पण्डित मीहा या मेधावी प्रमुख थे। ये अग्रवाल जाति के सेठ उद्धरण और उन की पत्नी भीषुही के पुत्र थे। संवत् १५१६ की भाद्रपद शु. ९ को दिल्ली में बहलोलशाह और हिसार में कुतुबखाँ का राज्य था तब झुंझुणपुर में साह पार्थ के पुत्रों ने श्रुतपंचमी उद्यापन किया और उस अवसर पर वट्टकेर कृत मूलाचार की एक प्रति ब्रह्म नरसिंह को अर्पित की। इस शास्त्रदान की प्रशस्ति पण्डित मेधावी ने लिखी [ले.२५३] । संवत् १५३३ की आश्विन शु. २ को हिसार में खंडेलवाल साबी धनश्री ने अध्यात्मतरंगिणी टीका की एक प्रति मेधावी को अर्पित की [ले. २५६ ] इसी प्रकार संवत् १५४१ को कार्तिक शु. ५ को खंडेलवाल साध्वी कमल श्री ने नीतिवाक्यामृत टीका की एक प्रति आप को अर्पित की
४३ ये विद्यानन्दि सम्भवतः सूरत शाखा के दूसरे भट्टारक हैं। किन्तु उन से पृथक् भी हो सकते हैं । इस दशा में ले. ५२३] में उल्लिखित विद्यानन्दि ये ही हैं। ___४४ ये ज्ञानभूषण ईडर शाखा के भ, भुवनकीर्ति के शिष्य हैं।
४५ ये मूर्तियां अमृतसर से मद्रास तक प्रायः सभी गांवों के दिगम्बर जैन मन्दिरों में पाई जाती हैं । सिर्फ नागपुर के जैन मन्दिरों में ही इन की संख्या सौ से अधिक है। यहां यह लेख सिर्फ नमूने के तौर पर लिया गया है। इस प्रतिष्ठा में भानुचन्द्र और गुणभद्र इन भट्टारकों के भी उल्लेख मिलते हैं।
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११०
भट्टारक संप्रदाय
[ले. २५८) । मेधावी ने संवत् १५४१ की कार्तिक कृ. १३ को नागौर में फिरोजखान के राज्य काल में धर्मसंग्रह श्रावकाचार नामक संस्कृत ग्रन्थ की रचना पूर्ण की [ले. २५९ ] ।
पं. मेधावी की इन प्रशस्तियों से भ. जिनचन्द्र के शिष्य परिवार पर अच्छा प्रकाश पडता है। इन में रत्नकीर्ति और सिंहकीर्ति इन का वृत्तान्त क्रमशः नागौर तथा अटेर शाखा मे संगृहीत किया गया है । इन के अतिरिक्त जयकीर्ति, चारुकीर्ति, जयनन्दी, भीमसेन, दक्षिण के पण्डितदेव, [ले. २५३ ], विमलकीर्ति [ ले. २५८ ], श्रुतमुनि द्वारा दीक्षित आर्य दीपद [ले. २५९ ] आदि शिष्यों का उल्लेख मेधावी ने किया है ।
भ. जिनचन्द्र के बाद प्रभाचन्द्र पट्ट पर बैठे । संवत् १५७१ की फाल्गुन कृ. २ को उन का अभिषेक हुआ तथा वे ९ वर्ष भट्टारक पद पर रहे। इन के समय मुख्य पट्ट दिल्ली से चित्तौड में स्थानान्तरित हुआ तथा संवत् १५७२ से नागौर पट्ट के मंडलाचार्य रत्नकीर्ति मुख्य परम्परा से पृथक् हुए ( ले. २६५ ) | प्रभाचन्द्र ने संवत् १५७३ की फाल्गुन कृ. ३ को एक दशलक्षण यन्त्र स्थापित किया ( ले. २६६ ) । संवत् १६०३ की आषाढ कृ. २ को रामचन्द्र सोलंकी के राज्य काल में तक्षकपुर निवासी साह ठाकुर ने नागकुमारचरित की एक प्रति आप के शिष्य धर्मचन्द्र को अर्पित की ( ले. २६७ ) । इसी प्रकार तोडागढ में कल्याणराज के राज्यकाल में संवत् १६१५ की भाद्रपद शु. ५ को आप की आम्नाय में यशोधरचरित की एक प्रति लिखी गई (ले. २६८ ) |
प्रभाचन्द्र के बाद क्रमशः चन्द्रकीर्ति और देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए । इनका कोई स्वतन्त्र उल्लेख नही मिला है। इन के बाद नरेन्द्रकीर्ति
४६ रामचंद्र का राज्यकाल सन् १५५५-१५९२ था । कल्याणराज का राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सका ।
४७ चन्द्रकीर्ति के समय का एक उल्लेख (ले. २८६ ) मिला है। यह संवत् १६५४ का है ।
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बलात्कार गण-दिल्लीजयपुर शाखा १११ हुए । इन के आम्नाय में संवत् १७३० की मार्गशीर्ष शु. १३ को वर्णी चोखचन्द्र ने समरपुर में मूलाचार की एक प्रति लिखी ( ले. २६९)।
___ नरेन्द्रकीर्ति के पट्टशिष्य सुरेन्द्रकीर्ति संवत् १७२२ की श्रावण शु. ८ को पट्टारूढ हुए । इन का कोई स्वतन्त्र उल्लेख नहीं मिला है। .
इन के अनन्तर संवत् १७३३ की श्रावण कृ. ५ को भ. जगत्कीर्ति पट्टाधीश हुए। आपने संवत् १७४६ की माघ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति प्रतिष्ठित की [ले. २७०] ।
इन के बाद संवत् १७७० की श्रावण कृ. ५ को भ. देवेन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए । इन की आम्नाय में जयसिंह के राज्यकाल में सांगावत शहर में पण्डित लक्ष्मीदास हुए ।" इन के उपदेश से कवि खुशालचंद ने संवत १७८० में जहानाबाद में महमदशाह के राज्यकाल में हिन्दी हरिवंशपुराण की रचना की [ ले. २७१ ] । संवत् १७८३ की वैशाख कृ. ८ को बांसखोह नगर में जयसिंह के राज्यकाल में देवेंद्रकीर्ति के द्वारा एक प्रतिष्ठामहोत्सव हुआ [ ले. २७२ ] ।
देवेन्द्रकीर्ति के बाद संवत् १७९० की श्रावण कृ. ५ को महेन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए । इन की आम्नाय में संवत् १७९७ की श्रावण शु. १४ को साह गोपीराम ने सवाईजयपुर में षट्कर्मोपदेशरत्नमाला की एक प्रति पंडित गोवर्धनदास को अर्पित की [ ले. २७४ ] ।
महेन्द्रकीर्ति के बाद संवत् १८१५ की श्रावण कृ. ५ को क्षेमेन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए । उन के बाद संवत् १८२२ की फाल्गुन शु. ४ को सुरेन्द्रकीर्ति का पट्टाभिषेक हुआ । इन के समय भट्टारकपीठ जयपुर में
__ ४८ यहाँ से इस शाखा के भट्टारकों की पट्टाभिषेक तिथियाँ ‘बृहद् महावीर कीर्तन' पृ. ५९७ के आधार पर दी गई हैं ।
४९ जयसिंह का राज्यकाल १६६९-१७४३ था । ५० दिल्ली के बादशाह-राज्यकाल १७१९-४८ ई. ।
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भट्टारक संप्रदाय
स्थानान्तरित हुआ तथा अतिशय क्षेत्र महावीरजी से इस पीठ का सम्बन्ध स्थापित हुआ।
सुरेन्द्रकीर्ति के बाद संवत् १८५२ की फाल्गुन शु. ४ को पट्टाधीश हुए । आपने संवत् १८६१ की वैशाख शु. ५ को सवाईजयपुर में कोई मूर्ति स्थापित की [ ले. २७५ ] । इन्ही के समय संवत् १८६८ की ज्येष्ठ शु. ४ को बृहत् कथाकोष की एक प्रति वहीं लिखी गई (ले. २७६ )।
सुरेन्द्रकीर्ति के बाद क्रमशः संवत् १८८० में नरेन्द्रकीर्ति, संवत् १८८३ में देवेन्द्रकीर्ति, संवत् १९३९ में महेन्द्रकीर्ति और संवत् १९७५ मे चन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए।
बलत्कार गण-दिल्लीजयपुर शाखा-कालपट
१ पद्मनन्दी २ शुभचन्द्र(संवत् १४५०--१५०७) ३ जिनचन्द्र(संवत्१५०७-१५७१)
रत्नकीर्ति सिंहकीर्ति
(नागौर शाखा) (अटेर शाखा) ४ प्रभाचन्द्र [संवत् १५७१-८०] ५ चन्द्रकीर्ति [ संवत् १६५४ ]
६ देवेन्द्रकीर्ति
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बलात्कार गण - दिल्ली - जयपुर शाखा
७ नरेन्द्रकीर्ति
i
८ सुरेन्द्रकीर्ति [ संवत् १७२२ ]
'
९ जगत्कीर्ति [ संवत् १७३३ ]
!
१० देवेन्द्र कीर्ति [ संवत् १७७० ]
११ महेन्द्रकीर्ति [ संवत् १७९० ]
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१२ क्षेमेन्द्र कीर्ति [ संवत् १८१५ ]
१३ सुरेन्द्रर्कीर्ति [ संवत् १८२२ ]
I
१४ सुखेन्द्र कीर्ति [ संवत् १८५२ ]
I
१५ नरेन्द्रकीर्ति [ संवत् १८८० ]
I
१६ देवेन्द्र कीर्ति [ संवत् १८८३ ]
I
१७ महेन्द्रकीर्ति [ संवत् १९३९ ]
I
१८ चन्द्रकीर्ति [ संवत् १९७५ ]
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११३
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लेखांक २७९
७. बलात्कार गण - नागौर शाखा
लेखांक २७७ - पट्टावली
संवत् १५८१ श्रावण सुदि ५ भ रत्नकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष वर्ष ३१ पट्ट वर्ष २१ मास ८ दिवस १३ अंतर दिवस ५ मास ८ दिवस १८ पट्ट दिल्ली ||
--
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( ब. १० )
लेखांक २७८ - पट्टावली
भुवनकीर्ति
संवत् १५८६ माह वदि ३ भुवनकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष ११ दीक्षा . वर्ष २६ पट्ट वर्ष ४ मास ९ दिवस २६ अंतर मास २ दिवस ४ सर्व वर्ष ४२ दिवस २१ जाति छावडा पट्ट अजमेर |
[ अणुव्रत रत्न प्रदीप ]
रत्नकीर्ति
९ दीक्षा सर्व वर्ष ६१
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( ब. १० )
सं. १५९५ वर्षे वइसाख खुदि द्वइज सोमवासरे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीपद्मनंदिदेव तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेव तत्पट्टे भ. श्रीजिणचंद्रदेव मुनि मंडलाचार्य श्रीरत्नकीर्ति देव तत् सिक्षमुनि मंडलाचार्य श्रीहेमचंद्रदेव द्वितीय सिक्ष मुनि मंडलाचार्य श्रीभुवनकीर्ति देव तत्सिक्ष मुनि पुण्यकीर्ति मेडता सुभस्थानात् राजश्री मालदे राउड राजे खंडेलवालान्वये पाटणीगोत्रे संघभारधुरंधरान् साह दोदा... इदं सात्र अगोत्ररत्नप्रदीपकं लिखावितं कर्मक्षयनिमित ||
( भा. ६ प्र. १५५ )
धर्मकीर्ति
लेखांक २८० - पट्टावली
संवत् १५९० चैत्र वदि ७ भ. धर्मकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष १३ दीक्षा वर्ष ३१ पट्ट वर्ष १० मास १ दिवस २० अंतर मास १ दिवस १० सर्व वर्ष ५५ मास १ दिवस ४ जाति सेठी पट्ट अजमेर ||
( ब. १० )
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~ २८५] ७. बलात्कार गण-नागौर शाखा लेखांक २८१ - चंद्रप्रभ मूर्ति
सं. १६०१ फाल्गुन सुदि ९ मूलसंघे धर्मकीर्ति आचार्य सा. महन भार्या भानुमती पुत्र सर्वन ॥
( भा. प्र. पृ. ६) लेखांक २८२ - पट्टावली
विशालकीर्ति संवत् १६०१ वैशाख सुदि १ विशालकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष ९ दिक्षा वर्ष ५८ पट्ट वर्ष ९ मास १० दिवस २० अंतर मास १ दिवस १० सर्व वर्ष ७७ दिवस २३ जाति पाटोधी पट्ट जोवनेर ॥
[व, १०] लेखांक २८३ - पट्टावली
लक्ष्मीचंद्र संवत् १६११ असौज वदि ४ लक्ष्मीचंद्रजी गृहस्थ वर्ष ७ दिक्षा वर्ष ३७ पट्ट वर्ष १९ मास ११ दिवस २० अंतर दिवस १० सर्व वर्ष ६४ मास २ दिवस १ जाति छावडा पट्ट जोवनेर ।।
(ब. १०) लेखांक २८४ - पट्टावली
सहस्रकीर्ति संवत् १६३१ जेष्ट सुदि ५ सहस्रकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष ७ दिक्षा वर्ष २५ पट्ट वर्ष १८ मास २ दिवस ८ अंतर मास ९ दिवस २२ सर्व वर्ष ५१ मास ११ दिवस ७ जाति पाटणी पट्ट जोवनेर ।
(च. १०) लेखांक २८५ - पट्टावली
नेमिचंद्र संवत् १६५० श्रावण सुदि १३ नेमिचंद्रजी गृहस्थ वर्ष ११ दिक्षा वर्ष ५२ पट्ट वर्ष ११ मास ६ दिवस २२ अंतर मास ५ दिवस ८ सर्व वर्ष ९५ मास १ दिवस २५ जाति ठोल्या पट्ट जोबनेर ।।
(व. १०)
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११६
भट्टारक संप्रदाय
लेखांक २८६ - ( वसुनंदि श्रावकाचार )
सं. १६५४ वर्षे आषाढमासे कृष्णपक्षे एकादश्यां तिथौ ११ भौमवासरे अजमेरगढमध्ये श्रीमूलसंघे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीचंद्रकीर्तिदेवाः तदाम्नाये मंडलाचार्यश्रीभुवनकीर्तिदेवाः तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीधर्मकीर्ति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीविशालकीर्ति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीलिखिमीचंद्र तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीसहस्रकीर्ति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीनेमिचंद्र तदाम्नाये खंडेलवालान्वये पहाड्या गोत्रे साह नानिग एतेषां मध्ये शाह श्रीरंग तेन इदं वसुनंदि उपासकाचार ग्रंथ ज्ञानावरणी कर्म क्षयनिमित्तं लिखापितं मंडलाचार्य श्रीनेमिचंद्र तस्य शिष्यणी बाई सवीरा जोग्य घटापितं ॥
( प्र. पु. १५, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९४४ )
लेखांक २८७ - (पांडवपुराण )
-
लेखांक २८९ - पट्टावली
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श्रीमूलसंघे भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभ चंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीधर्मकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. विशालकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. लक्ष्मीचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. सहस्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीनेमिचंद्रस्तस्मै सत्पात्राय पुराणमिदं लेखित्वा प्रदत्तं ॥
[ २८६ -
( भा. १ कि. ४ पृ. ३९ )
यशःकीर्ति
लेखांक २८८
पट्टावली
संवत् १६७२ फागुन सुदि ५ यशः कीर्तिजी गृहस्थ वर्ष ९ दिक्षा वर्ष ४० पट्ट वर्ष १७ मास ११ दिवस ८ अंतर दिवस २ सर्व वर्ष ६७ जाति पाटणी पट्ट रेवा ||
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( ब. १०
भानुकीर्ति
संवत् १६९० भानुकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष ७ दिक्षा वर्ष ३७ पट्ट वर्ष
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- २९३] ७. बलात्कार गण-नागौर शाखा १४ मास ७ दिवस २१ सर्व वर्ष ५९ मास ४ दिवस ३ अंतर दिवस ७ जाति गंगवाल पट्ट नागौर ॥
(व. १०) लेखांक २९० - रविवार व्रत कथा
आठ सात सोला के अंग रविदिन कथा रचियो अकलंक । . . 'भावसहित सत सुख लहे भानुकीर्ति मुनिवर जो कहे ॥ २५
( म. ६६) लेखांक २९१ - पट्टावली
श्रीभूषण संवत् १७७५ आश्विन सुदि ३ श्रीभूषणजी गृहस्थ वर्ष १३ दिक्षा वर्ष १५ पट्ट वर्ष ७ पाछै धर्मचंद्रजीनै पट्ट दीयो पाछै १२ वर्ष जीया संवत् १७२४ ताई जाति पाटणी पट्ट नागौर ॥
[च. १०] लेखांक २९२ - पट्टावली
धर्मचंद्र ___ संवत १७१२ चैत्र सुदि ११ धर्मचंद्रजी गृहस्थ वर्ष ९ दिक्षा वर्ष २० पट्ट वर्ष १५ सर्व वर्ष ४४ दिवस २४ जाति सेठी पट्ट महरोठ ॥
[ब. १०] लेखांक २९३ - गौतम चरित्र
गच्छेशो नेमिचंद्रोखिलकलुहषरोभूद् यशःकीर्तिनामा तत्पट्टे पुण्यमूर्तिर्मुनिनृपतिगणैः सेव्यमानांद्वियुग्मः । श्रीसिद्धांतप्रवेत्ता मदनभटजयी ग्रीष्मसूर्यप्रतापः श्रीमच्छ्रीभानुकीर्तिः प्रशमभरधरो मानस्तोभादिजेता ॥ २६५ सिद्धध्याननुतिप्रणामनिरतः क्रोधादिशैलाशनिः श्रीमच्छूरिगणाधिपो विजयतां श्रीभूषणाख्यो मुनिः ॥ २६६ पट्टे तदीये मुनिधर्मचंद्रोभूच्छीबलात्कारगणे प्रधानः । श्रीमूलसंघे प्रविराजमानः श्रीभारतीगच्छसुदीप्तिभानुः ॥ २६७
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११८ भट्टारक संप्रदाय
[२९३ - राजच्छ्रीरघुनाथनामनृपतौ ग्रामे महाराष्ट्रके नाभेयस्य निकेतनं शुभतरं भाति प्रसौख्याकरम । श्रीपूजादिमहोत्सवव्रजयुतं भूरिप्रशोभास्पदं सद्धर्मान्वितयोगिमानुषगणैः सेव्यं प्रमोदाकरं ॥ २६८ तस्मिन् विक्रमपार्थिवाद् रसयुगाद्रींदुप्रमे वर्षके ज्येष्ठे मासि सितद्वितीयदिवसे कांते हि शुक्रान्विते । श्रीमच्छूरिकदंबकाधिपतिना श्रीधर्मचंद्रेण च । तद्भक्त्या चरितं शुभं कृतमिदं श्रेयस्करं प्राणिनां ।। २६९
[सर्ग ५, प्र. मू. कि. कापड़िया, सूरत १९२६ ] लेखांक २९४ - पट्टावली
देवेंद्रकीर्ति संवत् १७२७ देवेंद्रकीर्तिजी गृहस्थवर्ष ९ दिक्षा वर्ष १९ पट्ट वर्ष १० मास ७ दिवस ९ अंतर मास ४ दिवस २१ सर्व वर्ष ३९ मास ३ दिवस ४ जाति सेठी पट्ट महरोठ ॥
[च. १०] लेखांक २९५ - पट्टावली
सुरेंद्रकीर्ति संवत् १७३८ जेष्ट सुदि ११ अमरेंद्रकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष १५ दिक्षा वर्ष २५ पट्ट वर्ष ६ मास ११ अंतर मास १ दिवस २ सर्व वर्ष ५१ मास २ दिवस ७ जाति पाटणी पट्ट महरोठ ॥
(ब. १०) लेखांक २९६ - रविवार व्रतकथा
गढ गोपाचल नगर भलो शुभथान बखानो । देवेंद्रकीर्ति मुनिराज भये तपतेज निधानो ॥ तिनके पट्ट विराजहि सुरेंद्रकीर्ति जु मुनींद्र । कलश धरे पनियार में सकल सिद्धि आनंद ॥९३ संवत विक्रम राय भले सत्रह मानो। ता ऊपर चालीस जेष्ठ सुदि दशमी जानो ॥
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- ३०० ]
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७. बलात्कार गण
- नागौर शाखा
वार जु मंगलवार हस्त नक्षत्र जु परियो रविव्रतकथा सुरेंद्रकीर्ति रचना यह करियो || ९४ .
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लेखांक ३००
-
लेखांक २९७ - पट्टावली
रत्नकीर्ति
संवत् १७४५ वैशाख सुदि ९ रत्नकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष ३० दिक्षा वर्ष ४७ पट्ट वर्ष २१ सर्व वर्ष ९८ मास १ दिवस ४ अंतर मास १ दिवस ३ जाति गोधा पट्ट काला डहरा ॥
११९
[ प्रकाशक- वीरसिंह जैन, इटावा १९०६ ]
लेखांक २९८ - पट्टावली
विद्यानंद
संवत् १७६६ फागुन वदि ४ विद्यानंदजी गृहस्थ वर्ष ११ दिक्षा वर्ष २५ पट्ट वर्ष २ मास ९ अंतर दिवस ४ सर्व वर्ष ३९ मास १ दिवस ३ जाति झाझरी पट्ट रूपनगर ॥
( ब. १० )
लेखांक २९९ - पट्टावली
महेंद्रकीर्ति
संवत् १७६९ मगसिर वदि ८ महेंद्रकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष ९ दिक्षा वर्ष २८ पट्ट वर्ष ४ मास २ दिवस २८ सर्व वर्ष ४१ अंतर मास २ दिवस २६ जाति झाझरी पट्ट काला डहरा ||
[ ब. १० ]
( ब. १० )
पट्टावली
अनंतकीर्ति
संवत् १७७३ फागुन दि ३ अनंतकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष १७ दिक्षा वर्ष १७ पट्ट वर्ष २४ मास ४ दिवस १२ सर्व वर्ष ४९ दिवस ३ जाति पाणी पट्ट अजमेर ||
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( ब. १० )
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१२०
[३०१ -
लेखांक ३०१ - पट्टावली
भवनभूषण
संवत् १७९७ असाढ सुदि १० भवनभूषणजी गृहस्थ वर्ष ११ दिक्षा वर्ष २५ पट्ट वर्ष ४ मास ६ दिवस १२ अंतर मास ४ दिवस १६ सर्व वर्ष ४१ जाति छावडा पट्ट काला डहरा ||
भट्टारक संप्रदाय
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[ ब. १०]
लेखांक ३०२ - पट्टावली
विजयकीर्ति
संवत् १८०२ असाढ सुदि १ विजयकीर्तिजी गृहस्थ वर्ष ९ दिक्षा वर्ष २८ पटस्थ विराजमान है अजमेर ||
[ ब. १० ]
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बलात्कार गण-नागौर शाखा इस शाखा का आरम्भ भ. रत्नकीर्ति से होता है। आप भ. जिनचन्द्र के शिष्य थे जिन का वृत्तान्त दिल्ली-जयपुर शाखा में आ चुका है । आप का पट्टाभिषेक संवत् १५८१ की श्रावण शु. ५ को हुआ तथा आप २१ वर्ष पट्ट पर रहे (ले. २७७ ) ।
इन के बाद भ. भुवनकीर्ति संवत् १५८६ की माघ कृ. ३ को पट्टारूढ हुए तथा ४ वर्षे पट्ट पर रहे । आप जाति से छावडा थे (ले. २७८ )। आप के शिष्य मुनि पुण्यकीर्ति के लिए संवत् १५९५ की वैशाख शु. २ को मेडता शहर में राठौड राव मालदेव के राज्यकाल में अणुव्रतरत्नप्रदीप की एक प्रति लिखाई गई (ले. २७९ )।
इन के बाद भ. धर्मकीर्ति संवत् १५९० की चैत्र कृ. ७ को पट्टारूढ हुए तथा १० वर्ष पट्ट पर रहे । आप जाति से सेठी थे (ले. २८० ) । संवत् १६०१ की फाल्गुन शु. ९ को आप ने एक चंद्रप्रभ मूर्ति स्थापित की ( ले. २८१ )।
आप के बाद संवत् १६०१ की वैशाख शु. १ को भ. विशालकीर्ति पट्टारूढ हुए तथा ९ वर्ष पट्ट पर रहे । आप जाति से पाटोदी थे तथा आप का निवास जोवनेर में था ( ले. २८२ )। आप के पट्टशिष्य भ. लक्ष्मीचन्द्र संवत् १६११ की आश्विन कृ. ४ को पट्टाधीश हुए तथा २० वर्ष पट्ट पर रहे । ये जाति से छावडा थे ( ले. २८३ )। इन के बाद संवत् १६३१ की ज्येष्ठ शु. ५ को भ. सहस्रकीर्ति पट्टाधीश हुए तथा १८ वर्ष भट्टारक पद पर रहे । ये पाटणी गोत्र के थे (ले. २८४ )। इन तीनों भट्टारकों के कोई स्वतन्त्र उल्लेख नहीं मिले हैं।
सहस्रकीर्ति के पट्ट पर संवत् १६५० की श्रावण शु. १३ को नेमिचन्द्र अभिषिक्त हुए जो ११ वर्ष भट्टारक पद पर रहे। इन का गोत्र ठोल्या था (ले. २८५) । संवत् १६५४ की आषाढ कृ. ११ को __५१ जोधपुर के राजा-सन १५११-१५६२ ।
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भट्टारक संप्रदाय अजमेर में इन की शिष्या बाई सवीरा के लिए बसुनंदि श्रावकाचार की एक प्रति लिखाई गई । इस समय दिल्ली-जयपुर शाखा में भ. चन्द्रकीर्ति पट्टाधीश थे (ले. २८६ ) । नेमिचन्द्र के लिए पांडवपुराण की भी एक प्रति लिखी गई थी ( ले. २८७ )।
नेमिचन्द्र के बाद संवत् १६७२ की फाल्गुन शु. ५ को पाटणी गोत्र के भ. यशःकीर्ति रेवा शहर में पट्टाधीश हुए तथा १८ वर्ष पट्ट पर रहे (ले. २८८ )।
इन के शिष्य भानुकीर्ति संवत् १६९० में पट्टारूढ हुए तथा १४ वर्ष भट्टारक पद पर रहे । ये गंगवाल जाति के तथा नागौर निवासी थे (ले. २८९ ) । संवत् १६७८ में इन ने रविव्रत कथा की रचना की (ले. २९० )।
भानुकीर्ति के शिष्य भ. श्रीभूषण संवत् १७०५ की आश्विन शु. ३ को पट्टाधीश हुए और १९ वर्ष पद पर रहे । ये पाटणी गोत्र के थे । पदप्राप्ति के बाद ७ वें वर्ष में संवत् १७१२ की चैत्र शु. ११ को इन ने अपने शिष्य धर्मचन्द्र को भट्टारक पद पर स्थापित कर दिया था । धर्मचन्द्र सेठी गोत्र के थे और १५ वर्ष पट्ट पर रहे । इन का निवास महरोठ मे था (ले. २९१-२ )। इन ने संवत् १७२६ की ज्येष्ठ शु. २ को गौतमचरित्र की रचना पूर्ण की । उस समय महरोठ में रघुनाथ का राज्य था (ले. २९३ ) " ।
धर्मचन्द्र के पट्ट पर संवत् १७२७ में देवेन्द्रकीर्ति अभिषिक्त हुए ये १० वर्ष पट्टाधीश रहे । इनका गोत्र सेठी तथा निवासस्थान महरोठ था (ले. २९४ ) । इन के बाद संवत् १७३८ की ज्येष्ठ शु. ११ को सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए तथा ७ वर्ष पद पर रहे । ये पाटणी गोत्र के थे । ग्वालियर में संवत् १७४० की ज्येष्ठ शु. १० को आप ने रविवार व्रत कथा लिखी ( ले. २९५-९६ )।
५२ महाराष्ट्रक महोठ का संस्कृत रूपान्तर है ।
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बलात्कार गण-ग - नागौर शाखा
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१२३
1
इन के बाद संवत् १७४५ मे भ. रत्नकीर्ति पट्टाधीश हुए तथा २१ वर्ष पर रहे। ये गोधा गोत्र के तथा काला डहरा के निवासी थे ( ले. २९७ ) । इन के उत्तराधिकारी भ. विद्यानंद झाझरी गोत्र के तथा रूपनगर निवासी थे । ये संवत् १७६६ से २ वर्ष पट्ट पर रहे (ले. २९८ ) । इन के शिष्य महेन्द्रकीर्ति संवत् १७३९ से ४ वर्ष तक पट्टाधीश रहे । ये झाझरी गोत्र के तथा काला डहरा के निवासी थे ( ले. २९९ ) । इन के बाद अनन्तकीर्ति संवत् १७७३ से २४ वर्ष तक भट्टारक पद पर रहे । ये पाटणी गोत्र के तथा अजमेर निवासी थे । इन के अनंतर भ. भवनभूषण संवत् १७९७ से ४ वर्ष तक पट्टाधीश रहे । ये छावडा गोत्र के तथा काला डहरा निवासी थे ( ले. ३००- - १ ) । इन के शिष्य विजयकीर्ति अजमेर में संवत् १८०२ की आषाढ शु. १ को पट्टाभिषिक्त हुए थे (ले. ३०२ ) । "
५३
५३ नागौर के पट्टाधीशों की प्रकाशित नामावली ( जैन सि. भा. १ पृ. ८० ) मैं रत्नकीर्ति (द्वितीय) के बाद क्रमशः ज्ञानभूषण, चन्द्रकीर्ति, पद्मनन्दी, सकलभूषण, सहस्रकीर्ति, अनन्तकीर्ति, हर्षकीर्ति, विद्याभूषण, हेमकीर्ति, क्षेमेन्द्रकीर्ति, मुनीन्द्रकीर्ति तथा कनककीर्ति के नाम दिये हैं। इन के कोई स्वतन्त्र उल्लेख प्राप्त नहीं हो सके । वर्तमान समय में इस गद्दी पर भ. देवेन्द्रकीर्तिजी विराज1 मान हैं । आप ने नागपुर, अमरावती आदि विदर्भ के नगरों में भी विहार किया है ।
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बलात्कार गण-नागौर शाखा-काल पट
१ जिनचन्द्र ( दिल्ली जयपुर शाखा] २ रत्नकीर्ति [ संवत् १५८१ ] ३ भुवनकीर्ति [ संवत् १५८६ ] ४ धर्मकीर्ति ( संवत् १५९० ] | ५ विशालकीर्ति [ संवत् १६०१ ] ६ लक्ष्मीचन्द्र [ संवत् १६११] ७ सहस्रकीर्ति [ संवत् १६३१ ] ८ नेमिचन्द्र [ संवत् १६५० ] ९ यशःकीर्ति | संवत् १६७२ ] १० भानुकीर्ति [ संवत् १६९० ] ११ श्रीभूषण [ संवत् १७०५१ १२ धर्मचन्द्र [ संवत् १७१२ ] १३ देवेन्द्रकीर्ति [ संवत् १७२७ ] १४ सुरेन्द्रकीर्ति ( संवत् १७३८
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- नागौर शाखा
बलात्कार गण
१५ रत्नकीर्ति [ संवत् १७४५ ]
I
1
१ विद्यानन्द [ संवत् १७६६ ] ज्ञानभूषण
!
I
२
महेन्द्र कीर्ति [ संवत् १७६९ ] चन्द्रकीर्ति
1
३ अनन्तकीर्ति [ संवत् १७७३ | पद्मनन्दी
1
1
४ भवनभूषण [ संवत् १७९७ ] सकलभूषण
|
1
५ विजयकीर्ति [ संवत् १८०२ ] सहस्रकीर्ति
1
अनन्तकीर्ति
1
कीर्ति
I
विद्याभूषण
I
कीर्ति
।
क्षेमेन्द्र कीर्ति
I
मुनीन्द्रकीर्ति
1
कनककीर्ति
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1
देवेन्द्रकीर्ति ( वर्तमान )
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१२५
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८. बलात्कार गण - अटेर शाखा लेखांक ३०३ - महावीर मूर्ति
सिंहकीर्ति सं. १५२० वर्षे आषाढ सुदी ७ गुरौ श्रीमूलसंघे भ. श्रीजिनचंद्र तत्पट्टे भ. श्रीसिंहकीर्ति लंबकंचुकान्वये अउलीवास्तव्ये साहु श्रीदिपौ भार्या ईदा 'इष्टिकापथ प्रतिष्ठितं ॥
( भा. प्र. पृ. १३) लेखांक ३०४ - श्रेयांस मूर्ति
सं. १५२५ चैत्र शुक्ले ३ बुधे श्रीमूलसंघे भ, श्रीसिंहकीर्ति प. ह. पु. लंबकंचुकान्वये साये मिण्डे भार्या सोना पुत्र सा. जल्लू भार्या मना प्रणमंति ॥
( भा. प्र. पृ. ५) लेखांक ३०५ – १ मूर्ति सं. १५२७ माघ वदि ५ श्रीमूलसंघे भ. सिंहकीर्ति नित्यं प्रणमंति॥
[नांदगांव, अ. ४ पृ. ५०२ ] लेखांक ३०६ - पार्श्वनाथ मूर्ति
सं. १५२८ वर्षे वैशाख सुदी ७ श्रीमूलसंघे भ. श्रीजिनचंद्र तत्पट्टे श्रीसिंहकीर्तिदेव महियवंश साधु ह्य भार्या वैसा... ।।
(भा. प्र. पृ. २) लेखांक ३०७ - महावीर मूर्ति
सं. १५२९ वर्षे वैसाख सुदि २ बुधे मूलसंघे भ. सिंहकीर्तिदेवा सा सहरदा पुत्र मोदिक लल्लू दिगंबर मूर्ति जू सदा सहाई विलसी ।
[ भा. प्र. पृ. ४] लेखांक ३०८ - कलिकुंड यंत्र
सं. १५३१ वर्षे फागुण सुदि ५ श्रीमूलसंघे भ. श्रीजिणचंद श्रीसिंहकीर्तिदेवा प्रतिष्ठितं । श्रीआगमसिरि क्षुल्लकी कमी सहित श्रीकलिकुंड यंत्र कारापितं । श्रीकल्याणं भूयात् ।
(भा. ७ पृ. १३)
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-- ३१२] ८. बलात्कार गण-अटेर शाखा १२७ लेखांक ३०९ - [ यशोधरचरित ]
- शीलभूषण अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपतिविक्रमादित्यराज्ये संवत् १६२१ वर्षे श्रावण वदि २ सोमवासरे श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः तत्पढे भ. श्रीसिंहकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीधर्मकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशीलभूषणदेवाः तदानाये आर्या श्रीचारित्रश्री तत्सिष्यणी व्रत गुणसुंदरी एकादशप्रतिपालिका तपगुणराजीमती शीलतोयप्रक्षालितपापपटला । बाई हीरा तथा चंदा पठनार्थ इदं यशोधरचरित्रं लिखापितं कर्मक्षयनिमित्तं लिखितं पंडित वीणासुत गरीवा अलवरवासिनः ।।
[ प्रस्तावना पृ. १५, कारंजा जैन सीरीज १९३१ ] लेखांक ३१० - सम्यक्चारित्र यंत्र
जगद्भूषण ___संवत् १६८६ ज्येष्ठ वदि ११ शुक्रे श्रीमूलसंघे 'भ. श्रीधर्मकीर्तिदेवाः भ. श्रीशीलभूषणदेवाः भ. श्रीज्ञानभूषणदेवाः भ. श्रीजगद्भूषणदेवाः तदानाये गोलारान्वये खरौआ जातीये कुलहा गोत्रे पंडिताचार्य पं. भोजराज भार्या प्यारो ॥
[ भा. प्र. पृ. १७ ] लेखांक ३११ – ? मूर्ति
सं. १६८८ वैशाख सुदी ३ श्रीमूलसंघे भ. जगतभूषणः तदानाये सभासिंघः प्रणमति ॥
( आगरा, भा. १९ पृ. ६३) लेखांक ३१२ – श्रेयांस मूर्ति
. सं. १६८८ वर्षे फाल्गुण सुदी ८ शनौ श्रीमूलसंघे भ. श्रीज्ञानभूषणदेवाः तत्प? भ. श्रीजगद्भूषणदेवाः तदानाये पुले ज्ञातिये खेमिज गोत्रे साधु तारण तद्भार्या मैना...॥
[ भा. प्र. पृ. १५]
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१२८ भट्टारक संप्रदाय
[३१३ - लेखांक ३१३ - हरिवंश पुराण
संवत् सोरहिसै तहां भये तापरि अधिक पचानवै गये । माघ मास किसन पक्ष जानि सोमवार सुभवार बखानि ॥ ' ' 'भट्टारक जगभूषण देव गनधर साद्रस वाकि जु एह । - 'नगर आगिरी उत्तम थानु साहिजहां तपै दूजो भानु । . . 'वाहन करी चौपई बंधु हीनबुधि मेरी मति अंधु ॥
( भा. ६ पृ. १२६) लेखांक ३१४ - सम्यग्दर्शन यंत्र
विश्वभूषण _सं. १७२२ वर्षे माघ वदि ५ सौमे श्रीमूलसंघे भ. श्रीजगद्भूषण तत्पट्टे भ. श्रीविश्वभूषण तदानाये यदुवंशे लंबकंचुक पचोलने गोत्रे सा भावते हीरामणि ॥
[ भा. प्र. पृ. १८] लेखांक ३१५ - मंदिर लेख
श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये श्रीजगत्भूषण श्रीम. विश्वभूषणदेवाः स्वरीपुरमै जिनमंदिरप्रतिष्ठा सं. १७२४ वैशाख वदि १३ को कारापिता ॥
( भा. १९ पृ. ६४) लेखांक ३१६ - ज्योतिप्रकाश
श्रीजैनदृष्टितिथिपत्रमिह प्रणष्टं स्पष्टीचकार भगवान् करुणाधुरीणः । बालावबोधविधिना विनयं प्रपद्य
श्रीज्ञानभूषणगणेशमभिष्टुमस्तं ।।
ज्ञानभूषण जगदिभूषण विश्वभूषण गणाग्रणी थी चिन्मयी स्वविनयी हिताश्रयी स्ताद् यतो भवति मे विधिर्जयी
(भा. २१ पृ. १३)
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- ३२१] ८. बलात्कार गण-अटेर शाखा १२९ लेखांक ३१७ - सुगंधदशमी कथा
व्रत सुगंध दशमी विख्यात ता फल भयो सुरभियुत गात्र ॥ ३७ शहर गहेली उत्तम वास जैनधर्मको जहां प्रकास ।। ३८ उपदेशो विश्वभूषण सही हेमराज पंडितने कही ।। ३९
(प्र. हीरालाल प. जैन, दिल्ली १९२१ ) लेखांक ३१८ - ऋषिपंचमी कथा
सुरेंद्रभषण सत्रहसौ सत्तावन जान मिती पौष सुदि दशमी मान ।। ७८ हती कंतपुरमे रचि कथा श्रीसुरेंद्रभूषण मुनि यथा । . श्रावक पढो सुनो धर ध्यान जासे होइ परम कल्याण ॥ ७९
(प्र. हीरालाल प. जैन, दिल्ली १९२१) लेखांक ३१९ - सम्यग्ज्ञान यंत्र
सं. १७६० वर्षे फाल्गुण सुदी १ गुरौ श्रीमूलसंघे 'भ. श्रीसुरेंद्रभूषणदेव तदानाए लंबकंचुकान्वये रपरियागोत्रे सा कुमारसेनि भार्या जीवनदे॥
[भा. प्र. पृ. १८ ] लेखांक ३२० - पोडशकारण यंत्र
__सं. १७६६ वर्षे माघ सुदी ५ सोमवासरे श्रीमूलसंघे भ. श्रीविश्वभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रभूषणदेवाः तत्पट्टे श्रीसुरेंद्रभूषणदेवाः तदानाए लंबकंचुकान्वये बुढेलेज्ञातीये रावत गोत्रे साहु बदलूदास भार्या सुधी ।।
( उपर्युक्त ) . लेखांक ३२१ - सम्यग्दर्शन यंत्र
सं. १७७२ वर्षे फाल्गुण वदि ९ चंद्रे श्री मूलसंघे भ.श्रीदेवेंद्र. भूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीसुरेंद्रभूषणदेवाः तस्मात् ब्रह्म जगतसिंह गुरूपदेशात् तदानाए लंबकंचुकान्वये बुढेले ज्ञातीये ककौआ गोत्रे श्री सा सिवरामदास भार्या देवजावी...॥
( भा. प्र. पृ. ११)
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भट्टारक संप्रदाय
•
१३०
लेखांक ३२२ - दशलक्षण यंत्र
.भ.
सं. १७९१ वर्षे फागुण सुदी ९ बुधवासरे शुभ दिने मूलसंघे... श्रीविश्वभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्री सुरेंद्रभूषणदेवाः तदान्नाए बुढेलान्वये गृगगोत्रे साहु तुलाराम.. अटेरपुरे साहु तुलारामेण यंत्रप्रतिष्ठा कारित तत्र प्रतिष्ठितम् ॥
( उपर्युक्त )
लेखांक ३२३ - (मूलाचार )
मुनींद्रभूषण
संवत् १८४२ वर्षे मासोत्तममासे वैसाखमासे शुक्लपक्षे तिथौ १० भौमवासरे ग्राम पलाइथा मध्ये श्रीमत् पार्श्वनाथ चैत्यालये वा श्रीवर्धमानचैत्यालये श्रीमूलसंघे हस्तनागपुरपटे तदुत्तरभदावरदेशात् भ. श्री १०८ श्रीविस्वभूषण तत्पट्टे भ. श्रीदेविंद्रभूषण तत्पट्टे श्रीसुरिंद्रभूषण तत्पट्टे भ श्रीलक्ष्मीभूषण तत्पट्टे भ. श्रीमुनिंद्रभूषणजीकुं पुस्तक दान ग्रंथ मूलाचार समर्पयेत् साहजी श्रीलालचंदजी पुस्तकदान दातव्यं ज्ञानप्राप्तार्थे ज्ञात बघेरवाल गोत्र सेट्या इदं शुभं ॥
[ का. ५२७]
लेखांक ३२४ - मुनींद्रभूषण पूजा
पापतापनाशनाय सर्वसौख्यसिद्धये । श्रीलक्ष्मीभूषणपट्टे मुनींद्रभूषणं यजे ॥
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[ ३२२ -
(ना. ८७ )
लेखांक ३२५ - जिनेंद्र माहात्म्य
महेंद्रभूषण
संवत् १८५२ कार्तिक शुक्ल १ गुरुवार श्रीमूलसंघे श्री भ. विश्वभूषणदेवा तत्शिष्य ब्रह्म श्रीविनासागरजी एतेषां मध्ये भ. जिनेंद्रभूषणस्य शिष्य श्री भ. महेंद्रभूषणेन इयं पुस्तिका लिखावितं ॥
[ वीर ३ पृ. ३६४ ]
.
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-- ३२८] ८. बलात्कार गण-अटेर शाखा लेखांक ३२६ - ( पद्मनंदि पंचविंशति) .
संवत् १८५८ श्रीचंद्रप्रभचैत्यालये गढगोपाचले श्रीमूलसंघे भ. ज्ञानभूषणजीदेवाः तत्पट्टे भ. जगद्भूषणजीदेवाः तत्पट्टे भ. विश्वभूषणजीदेवाः तत्पट्टे भ. देवेंद्रभूषणजीदेवाः तत्पट्टे भ. सुरेंद्रभूषणजीदेवाः तत्पट्टे भ. लक्ष्मीभूषणजीदेवाः तत्पट्टे भ. जिनेंद्रभूषणजीदेवाः तत्पट्टे भ. महेंद्रभूषणेन लिखापितं श्रीआचार्यदेवेंद्रकीर्तेरध्ययनार्थे ।
___ [B. 0. R. I., 567 of 1876-76] लेखांक ३२७ - पार्श्वमूर्ति
संवत् १८७६ वैशाख शुक्ल ६ शुक्र कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. विश्वभूषण 'तदानाये भ. जिनेंद्रभूषणजी भ. महेंद्रभूषण प्रोतकारान्वये कांसिल गोने शाहजी दवनावरसिंघस्य पुत्रश्रीजी तस्य पुत्राश्चत्वारः ... ॥
(मसाढ, भा. १ कि. ४ पृ. ३५ ) लेखांक ३२८ - नेमिनाथ मूर्ति
राजेंद्रभूषण शुभ सं. १९२० फाल्गुण वदि ३ गुरुवासरे श्रीमूलसंघे श्रीमद्भद्वारकजिनेंद्रभूषणजिदेव तत्पट्टे श्रीमहेंद्रभूषणजिदेव तत्पट्टे श्रीराजेंद्रभूषणजिदेव तदुपदेशात् । प्रतिष्ठाकर्ता आरानगयों केलिरामस्तत्पुत्र डालचंद अग्रवार गरगगोत्रोत्पन्नस्य मस्तके कृता ॥
( भा. प्र. पृ. ९)
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बलात्कार गण अटेर शाखा
B
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इस शाखा का आरम्भ भ. सिंहकीर्ति से होता है । ये भ. जिनचन्द्र के शिष्य थे जिन का वृत्तान्त दिल्ली - जयपुर शाखा में आ चुका है। आप ने संवत् १५२० की आषाढ शु. ७ को एक महावीर मूर्ति प्रतिष्ठापित की (ले. ३०३ ) | यह प्रतिष्ठा इष्टिकापथ" में हुई । आप ने संवत् १५२५ की चैत्र शु. ३ को एक श्रेयांस मूर्ति, संवत् १५२७ की माघ कृ. ५ को एक अन्य मूर्ति, संवत् १५२८ की वैशाख शु. ७ को एक पार्श्वनाथ मूर्ति तथा संवत् १५२९ की वैशाख शु. २ को एक महावीर मूर्ति स्थापित की ( ले. ३०४ -७ ) । संवत् १५३१ की फाल्गुन शु. ५ को क्षुल्लिका आगमश्री के लिए आप ने एक कलिकुंड यन्त्र स्थापित किया (ले. ३०८ ) ।
सिंहकीर्ति के बाद धर्मकीर्ति और उन के बाद शीलभूषण भट्टारक हुए । आप के अम्नाय में संवत् १६२१ की श्रावण कृ. २ को अलवर निवासी गरीबदास ने हीराबाई के लिए यशोधरचरित की एक प्रति लिखी ( ले. ३०९ ) ।
शीलभूषण के पट्टशिष्य ज्ञानभूषण हुए । ज्योतिः प्रकाश के एक उल्लेख से पता चलता है कि आप ने चिरकाल से लुप्त हुए जैन तिथिपत्र की पद्धति को स्पष्ट किया (ले. ३१६ ) ।
इन के बाद जगदुभूषण भट्टारक हुए। आप ने संवत् १६८६ की ज्येष्ठ क्र. ११ को एक सम्यक्चारित्र यंत्र, संवत् १६८८ की फाल्गुन शु. ८ को एक श्रेयांस मूर्ति तथा इसी वर्ष की वैशाख शु. ३ को एक अन्य मूर्ति स्थापित की ( ले. ३१०-१२ ) । आप की आम्नाय में संवत् १६९५ की माघ में शाहजहाँ के राज्य काल में आगरा शहर में शालिवाहन ने हिन्दी हरिवंशपुराण की रचना की ( ले. ३१३ ) ।
५४ यह सम्भवतः इटावा का संस्कृत रूपान्तर है ।
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-अटेर शाखा
बलात्कार गण
१३३
इन के बाद विश्वभूषणभट्टारक हुए। आप ने संवत् १७२२ की माघ कृ. ५ को एक सम्यग्दर्शन यंत्र स्थापित किया (ले. ३१४ ) । संवत् १७२४ की वैशाख कृ. १३ को आप ने शौरीपुर में एक मन्दिर की प्रतिष्ठा की ( ले. ३१५ ) । ५७ ज्योतिः प्रकाश के उक्त उल्लेख में विश्वभूषण की भी प्रशंसा की गई है ( ले. ३१६ ) । आप के उपदेश से पंडित हेमराज ने गहेली शहर में सुगंधदशमी कथा लिखी (ले. ३१७ )
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इन के बाद देवेन्द्रभूषण और उन के बाद सुरेन्द्रभूषण भट्टारक हुए | आप ने संवत् १७५७ में ऋषिपंचमी कथा की रचना की ( ले. ३१८ ) । आप ने संवत् १७६० की फाल्गुन शु. १ को एक सम्यग्ज्ञान यंत्र, संवत् १७६६ की माघ शु. ५ को एक षोडशकारण यंत्र, संवत् १७७२ की फाल्गुन कृ. ९ को एक सम्यग्दर्शन यंत्र तथा संवत् १७९१ की फाल्गुन कृ. ९ को अटेर में एक दशलक्षण यंत्र की स्थापना की (ले. ३१९-२२ ) ।
सुरेन्द्रभूषण के शिष्य लक्ष्मीभूषण हुए । इन के शिष्य मुनीन्द्रभूषण को संवत् १८४२ की वैशाख शु. १० को साह लालचंद ने मूलाचार की एक प्रति अर्पित की ( ले. ३२३ ) ।
५६
लक्ष्मीभूषण के दूसरे शिष्य जिनेन्द्रभूषण हुए। इन के शिष्य महेन्द्रभूषण ने संवत् १८५२ की कार्तिक शु. १ को जिनेन्द्रमाहात्म्य की एक प्रति लिखी (ले. ३२५ ), संवत् १८५८ में ग्वालियर में इन ने पद्मनन्दि पंचविंशति की एक प्रति आचार्य देवेन्द्रकीर्ति के लिए लिखी (ले.३२६ ) । संवत् १८७६ की वैशाख शु. ६ को आप ने एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की ( ले. ३२७ ) ।
५५ मूल में संवत् १२२४ छपा है जो स्पष्टतः गलत है ।
५६ इन की परम्परा में सोनागिरि के पट्ट पर क्रमशः जिनेन्द्रभूषण, देवेन्द्रभूषण, नरेन्द्रभूषण, सुरेन्द्रभूषण, चन्द्रभूषण, चारुचन्द्रभूषण, हरेन्द्रभूषण, जिनेन्द्रभूषण और चन्द्रभूषण भट्टारक हुए ( अनेकान्त व. १० पृ. ३७१ ) ।
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भट्टारक संप्रदाय
इन के बाद भ. राजेन्द्रभूषण हुए । इन के उपदेश से आरा में केलिराम के पुत्र डालचंद ने संवत् १९२० में एक नेमिनाथ मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई (ले. ३२८ ) ।
बलात्कार गण- अटेर शाखा - काल पट
१ जिनचन्द्र ( दिल्ली जयपुर शाखा )
I
२ सिंहकीर्ति ( संवत् १५२० - १५३१ )
I
३ धर्मकीर्ति
1
४ शीलभूषण ( संवत् १६२१ )
1
५ ज्ञानभूषण
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६ जगभूषण ( संवत् १६८६ - १६९५ )
|
७ विश्वभूषण ( संवत् १७२२ - १७२४ )
८ देवेन्द्रभूषण
९ सुरेन्द्रभूषण ( संवत् १७५७ - १७९१ )
I
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बलात्कार गण-अटेर शाखा
१० लक्ष्मीभूषण
११ जिनेन्द्रभूषण
मुनीन्द्रभूषण ( संवत् १८४२ )
( सोनागिरि शाखा ) १२ महेन्द्रभूषण (सं. १८५२-१८७६) जिनेन्द्रभूषण १३ राजेन्द्रभूषण (सं. १९२०)
देवेन्द्रभूषण
नरेन्द्रभूषण
सुरेन्द्रभूषण
चन्द्रभूषण
चारुचन्द्रभूषण
हरेन्द्रभूषण जिनेन्द्रभूषण
चन्द्रभूषण
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९. बलात्कार गण
लेखांक ३२९ - पट्टावली
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ईंडर शाखा
सकलकीर्ति
श्रीकुंदकुंदान्वयभूषणाप्तः भट्टारकाणां शिरसः किरीट: । षट्तर्कसिद्धांतरहस्यवेत्ता पयोजनुर्नद्यभवद्धरित्र्याम् ॥ ३२ ॥ तत्पट्टभागी जिनधर्मरागी गुरूपवासी कुसुमेषुनाशी । तपोनुरक्तः समभूद्विरक्तः पुण्यस्य मूर्तिः सकलादिकीर्तिः ॥ ३३ ॥
( जैन सिद्धांत १७ पृ. ५८ )
लेखांक ३३० - ऐतिहासिक पत्र
आचार्य श्री सकलकीर्ति वर्ष २५ छविसनी संस्थाह तथा तीवारे संयम लेई वर्ष ८ गुरा पासे रहीने व्याकरण २ तथा ४ भण्या श्रीवाग्वर गुजरात माहे गाम खोडेणे पधान्या वर्ष ३४ नी संस्था थई तीवारे सं. १४७१ ने वर्षे... ...साहा श्रीयौचाने गृहे आहार लीधो वर्ष २२ पर्यंत स्वामी नग्न हता जुमले वर्ष ५६ छप्पन.सं. १४९९ श्रीसागवाड जुने देहरे आदिनाथनो प्रसाद करावीने पीछे श्रीनोगामे संघे पदस्थापन करीने सागवाडे जईने पोताना पुत्रकने प्रतिष्ठा करावी पोते सूरमंत्र दीधो ते धर्मकीर्ति वर्ष २४ पाट भोगव्यो ||
[ भा. १३ पृ. ११३ ]
लेखांक ३३१ - चौवीसी मूर्ति
सं. १४९० वर्षे वैसाख सुदी ९ सनौ श्रीमूलसंघे नंदीसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. पद्मनंदी तत्पट्टे श्रीशुभचंद्र तस्य भ्राता जगविख्यात मुनि श्री सकलकीर्ति उपदेशात् हुंबडज्ञातीय ठा. नरवद भार्या वला तयोः पुत्र ठा. देपाल अर्जुन भीमा कृपा चासण चांपा कान्हा श्री आदिनाथ प्रतिमेयं ॥
( सूरत, दा. ५३ )
लेखांक ३३२ - पार्श्वनाथ मूर्ति
संवत् १४९२ वर्षे वैशाख वदि १० गुरु श्रीमूलसंघे भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे श्रीशुभचंद्रदेवाः ततभ्राता श्री सकलकीर्ति उपदेशात् हुंबड
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- ३३६ ]
९. बलात्कार गण - ईडर शाखा
१३७
न्याति उत्रेश्वर गोत्रे ठा. लींबा भार्या फह श्रीपार्श्वनाथ नित्यं प्रणमति सं. तेजा टोई श्री. ठाकरसी हीरा देवा मूडलि वास्तव्य प्रतिष्ठिता ॥
[ भा. ७ पृ. १५ ]
लेखांक ३३३ - शिलालेख
स्वस्तिश्री १४९४ वर्षे वैशाख सुदी १३ गुरौ मूलसंघे भ. श्रीपद्मनंदी तत्पट्टे श्रीशुभचंद्र भ. श्रीसकलकीर्ति उपदेशे द्यौव्याव (?) कृत्वा संघवै नरपाल • समस्त श्रीसंघ दिगंबर श्रीअर्बदाचले आगि तीर्थ सीतांबरु प्रासाद दिगंबर पाछि दछाव्या श्रीआदिनाथ बडा दीकीजी श्रीनेमिनाथजी जिह श्रीसीतल हरबुधप्रसाद दिगंबर पाछिह पेहरी तिन वहणरी महापूज धज अवास करी संघवी गोव्यंद प्रशस्ति लिखाती... ॥
( आबू, जैन मित्र ३- २ - १९२१ )
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लेखांक ३३४ - आदिनाथ मूर्ति
सं. १४९७ मूलसंघे श्रीसकलकीर्ति हुबड ज्ञातीय शाह कर्णा भार्या भोली सुता सोमा भात्री भोदी भार्या पासी आदिनाथं प्रणमति ॥
[ सूरत, दा. पृ. ५२]
लेखांक ३३५ - प्रश्नोत्तर श्रावकाचार
उपासकाख्यो विबुधैः प्रपूज्यो ग्रंथो महाधर्मकरो गुणाढ्यः । समस्तकीर्त्यादिमुनीश्वरोक्तः सुपुण्यहेतुर्जयताद्धरित्र्याम् ॥ १४२
( अध्याय २४, प्र. मू. कि. कापडिया, सूरत १९२६ )
लेखांक ३३६ - पार्श्वपुराण
अवगमजलधिश्रीपार्श्वनाथस्य दिव्यं सकलविशदकीर्तेः प्रादुरासीन्मुनींद्रात् । यदि वरचरित्रं तद्धि दक्षाः स्मरंतु यतिसुजनसुसेव्यं जैनधर्मोस्ति यावत् ॥
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( भा. प्र. पू. १९५ )
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भट्टारक संप्रदाय
|३३७लेखांक ३३७ - सुकुमार चरित्र
सञ्चरित्रमिदमाप्तयतींद्रा ज्ञानिनो निहतदोषसमग्राः। शोधयंतु तनुशास्त्रभरेण सर्वकीर्तिगणिना कृतमत्र ।। ८८ ॥ सुकुमारचरित्रस्यास्य श्लोकाः पिंडिता बुधैः । विज्ञेया लेखकैः सर्वे ोकादशशतप्रमाः ॥ ९४ ॥
(अध्याय ९, प्र. रा. स. दोशी, सोलापुर) लेखांक ३३८ - मूलाचार प्रदीप
रहितसकलदोषा ज्ञानपूर्णा ऋषींद्रात्रिभुवनपतिपूज्याः शोधयंत्वेव यत्नात् । विशदसकलकीर्त्याख्येम चाचारशास्त्रमिदमिह गणिना संकीर्तितं धर्मसिद्धथै ॥ २२३ ॥
(अध्याय १२, का. ५२८) लेखांक ३३९ - आराधना
जे भणे सुणे नरनारी ते जाए भवतरि पार । श्रीसकलकीरति कह्यो आराधना प्रतिबोध सार ॥५४॥
(ना. ९४) लेखांक ३४० - पंचपरमेष्ठि मूर्ति
संवत् १५१० वर्षे माह मासे शुक्लपक्षे ५ रवौ श्रीमूलसंघे भ. पद्मनंदि तत्पट्टे भ. श्रीसकलकीर्ति तत्शिष्य ब्र. जिनदास हुंबडज्ञातीय सा. तेजु भा. मलाई...॥
[ना. ५३ ] लेखांक ३४१ - गुणस्थान गुणमाला
श्रीसकलकीरति पाय पणमीने कियो रास मै सार । गुणस्थानक गुण वरणव्या त्रिभुवनतारणहार ॥ ४३ दुइ कर जोडि विनवे ब्रह्मचारि जिनदास ।
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- ३४५] ९. बलात्कार गण-ईडर शाखा १३९ भविभविनि ग्रंथ सेविसुं मागिसुं चरणेहु वास ।। ४४
(म, ४५) लेखांक ३४२ - ज्येष्ठ जिनवर पूजा
श्रीसकलकीरति गुरु प्रणमिने जिनवर पूज रयं । ब्रह्म भणे जिनदास तो आतमा निर्मलयं ॥१४
[च. १९०५] लेखांक ३४३ - पार्श्वनाथ मूर्ति
भुवनकीर्ति संवत् १५२७ वर्षे वैशाख वदि ११ बुधे श्रीमूलसंघे भ. श्रीसकलकीर्तिस्तत्पट्टे भ. श्रीभुवनकीर्ति उपदेशात् हुँबुध गोत्रे ॥
(भा.७ पृ. १६) लेखांक ३४४ - रामायण रास
श्रीमूलसंघ अति निरमलो सरसतीगछ गुणवंत । श्रीसकलकीरति गुरु जाणीइ जिणसासणि जयवंत ॥ तास पाटि अति रूवढा श्रीभुवनकीर्ति भवतार । गुणवंत मुनि गुणि आगला तप तणा भंडार । तीहु मुनिवर पाय प्रणमीने किया रास ए सार । ब्रह्म जिनदास भणे रूवडो पढतां पुण्य अपार ॥ शिष्य मनोहर रूवडा ब्रह्म मलिदास गुणदास । पढो पढावो विस्तरे जिम होइ सौख्य निवास ॥ संवत पंनर अठोत्तरा मागसिर मास विशाल । शुक्ल पक्ष चउ दिन रास कियो गुणमाल ।
(ना. २२) लेखांक ३४५ - हरिवंश रास
उपर्युक्त के समान, सिर्फ अन्तिम पद्य भिन्न हैसंवत पंनर वीसोत्तरा वैशाख मास विशाल । सुकल पक्ष चौदासि दिन रास कियो गुणमाल ।
[ना. २०]
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१४०
भट्टारक संप्रदाय
[३४६ -
लेखांक ३४६ - कर्मविपाक रास
सरस्वति स्वामिणि सरस्वति स्वामिणि तणइ पसाइ । रास कियो मि निरमलो करमविपाकतणो निरमलो।
ते कर्मक्षय कारणि ।। सुणो भवियण तम्हे मनोहार । श्रीसकलकीरति पाय प्रणमीनि मुनि भुवनकीरति भवतार । ब्रम्ह जिणदास म्हणे वांदिस्यु मागिस्यु तम्ह गुण सार ।।
[ना. ७] लेखांक ३४७ - धर्मपरीक्षा रास
श्रीगणधर स्वामी नमसकरू श्रीसकलकीरति भवतार । मुनि भुवनकीरति पाय प्रणमीनि कहिलूं रासहु सार ॥१ धरमपरीक्षा करूं निरमली भवियण सुणो तम्हे सार । ब्रम्ह जिणदास कहि निरमलो जिम जाणो विचार ॥ २
[ना. ३८] लेखांक ३४८ - जंबूस्वामी रास
श्रीसकलकीरति गुरु प्रणमीने हो भुवनकीरति गुरु वांदि ।
रास कियो मई निरमलो हो जंबूकुंअरनु आदि । .. 'पढइ गुणइ जे सांभलि तेह घरि ऋद्धि अनंत । . ब्रम्ह जिणदास इणि परि भणि मुगति रमणी होइ कंत ॥
[ना. ३७] लेखांक ३४९ - जीवंधर रास
जीवंधर स्वामी तणो मि रास कीधो सरस सोहावणो । सरस्वति तणइ पसाइ निरमल कामदेव गुरु वरणव्या । श्रीसकलकीरति गुरु प्रणमीने वली भुवनकीरति भवतार । ब्रम्ह जिणदास भणे निरमलो पढो तम्हे भवियण सार ।
[ना, ३६]
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- ३५४ ] ९. बलात्कार गण-ईडर शाखा लेखांक ३५० - जसोधर रास
गणधरस्वामि नमसकरु श्रीसकलकीरति भवतार। भुवनकीरति गुरु प्रणमीने ब्रम्ह जिणदास भणे सार ॥ . भवियण भावइ सुणउ आज मनि निश्चयो आणि । राय जसोधर तणउ रास हुं कहिसु वखाणि ॥
(ना. ३९) लेखांक ३५१ - श्रेणिकचरित्र
शिष्यु सकलकीर्ति देवाचा । तो जीणदासु गुरु आमुचा । प्रसादु लाधला त्याचा । गुणदासे खा ॥ ९५॥ त्या जिनब्रम्हाच्या चरनी । गुणब्रम्हें नमन करौनि । वोवीबंध ग्रंथु करुनि । वेगळा ठेला ।। ९६ ॥
[अ. ४, ना.७] लेखांक ३५२ - चारित्र यंत्र
ज्ञानभूषण सं. १५३४ श्रीमूलसंघे भ. जिनचंद्रानाये भ. श्रीभुवनकीर्तिस्तत्पट्टे श्रीज्ञानभूषणगुरूपदेशात् लंबेचू सा उजागर · ॥ .
( भा. प्र. पृ. १७) लेखांक ३५३ - रत्नत्रय मूर्ति ___संवत १५३५ श्रीमूलसंघे भ. श्रीभुवनकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीज्ञानभूषणोपदेशात् .. ।
( बाळापुर, अ. ४ पृ. ५०२) लेखांक ३५४ - पद्मप्रभ मूर्ति
संवत १५४२ वर्षे ज्येष्ठ सुदि ८ शनौ श्रीमूलसंघे भ. सकलकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीभुवनकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीज्ञानभूषणगुरूपदेशात् जांगडा पोरवाडज्ञातीय स. वाजु मानेजुः ।।
(अ. ४ पृ. ५०२)
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भट्टारक संप्रदाय लेखांक ३५५ - रत्नत्रय मूर्ति
सं. १५४३ श्रीमूलसंघे भ. श्रीभुवनकीर्ति तत्प? भ. श्रीज्ञानभूषणगुरूपदेशात् ॥
( सुं. हि. जोहरापुरकर, नागपुर) लेखांक ३५६ - १ मूर्ति
संवत १५४४ वर्षे वैसाख सुदि ३ सोमे श्रीमूलसंघे भ. श्रीविद्यानंदि भ. श्रीभुवनकीर्ति भ. श्रीज्ञानभूषण गुरूपदेशात् हूंबड साह चांदा भार्या रेमाई...॥
(अ. ४ पृ. ५०३) लेखांक ३५७ - सुमतिनाथ मूर्ति
सं. १५५२ वर्षे ज्येष्ठ वदि ७ शुक्रे श्रीमूलसंघे भ. भुवनकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीज्ञानभूषण गुरूपदेशात् हुंबड श्रेष्ठी पर्वत भार्या देऊ ॥
(ना. ५१) लेखांक ३५८ - तत्वज्ञान तरंगिणी
जातः श्रीसकलादिकीर्तिमुनिपः श्रीमूलसंघेप्रणीस्तत्पट्टोदयपर्वते रविरभूद्भव्यांबुजानंदकृत् । विख्यातो भुवनादिकीर्तिरथ यस्तत्पादकंजे रतः । तत्त्वज्ञानतरंगिणीं स कृतवानेतां हि चिद्भूषणः ॥ २१ यदैव विक्रमातीताः शतपंचदशाधिकाः । षष्टिः संवत्सरा जातास्तदेयं निर्मिता कृतिः ।। २३
(अध्याय १८, सनातन ग्रंथमाला, कलकत्ता १९१६) लेखांक ३५९ - पट्टावली
दिल्लीसिंहासनाधीश्वराणां, प्रतापाक्रान्तदिङमण्डलाखण्डनसमानभैरवनरेन्द्रविहितातिभक्तिभाराणां, अष्टाङ्गसम्यक्त्वाद्यनेकगुणगणालंकृत
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- ३६३] ९. बलात्कार गण-ईडर शाखा श्रीमदिन्द्रभूपालमस्तकन्यस्तचरणसरोरुहाणां, 'श्रीदेवरायसमाराधितचरणवारिजानां, जिनधर्माराधकमुदिपालराय-रामनाथराय-बोमरसराय-कलपराय-पाण्डुरायप्रभृतिअनेकमहीपालार्चितक्रमकमलयुगलानाम् ..." भट्टारकवर्यश्रीज्ञानभूषण-भट्टारकदेवानाम् ॥
( भा. १ कि. ४ पृ. ४४) लेखांक ३६० - विषापहार टीका
....... विषापहार इति व्यपदेशभाजोतिगहनगंभीरस्य सुखावबोधार्थ बागडदेशमंडलाचार्यज्ञानभूषणदेवैर्मुहुरुपरुद्धः कर्णाटादिराजसभाप्रसिद्धः प्रवादिगजकेसरी विरुदकविमदविदारी सदर्शनज्ञानधारी नागचंद्रसूरिः धनंजयसूर्यभिमतार्थ व्यक्तीकर्तुमशक्नुवन्नपि गुरुवचनमलंघनीयमिति न्यायेन तदभिप्रायं विवरीतुं प्रतिजानीते ।।
(हि. १२ पृ. ८७) लेखांक ३६१ - ऋषिमंडलपूजा
श्रीमचारुचरित्रपात्रगुणवच्छ्रीज्ञानभूषांघ्रिभाग । अर्हच्छासनभक्तिनिर्मलरुचिः पद्माजनुर्वा शुचिः ॥ वीरांतःकरणश्च चारुचरणे बुद्धिप्रवीणोरचत् । पूजां श्रीऋषिमंडलस्य महंती नंदी गुणादिर्मुनिः ।
(जैन ग्रंथ रत्नाकर, बम्बई १९२६ ) लेखांक ३६२ - शांतिनाथ मूर्ति
विजयकीर्ति सं. १५५७ वर्षे माघ वदि ५ गुरौ श्रीमूलसंधे 'भ. श्रीसकलकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीभुवनकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीज्ञानभूषण तत्पट्टे भ. श्रीविजयकीर्तिगुरूपदेशात् हूंबडजातीय ..॥
(वीसनगर, जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५३१ ) लेखांक ३६३ - शांतिनाथ मूर्ति
संवत १५६० वैसाख सुदि २ बुधे श्रीमूलसंघे भ. ज्ञानभूषण तत्पट्टे
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भट्टारक संप्रदाय
[३६४ - भ. विजयकीर्तिगुरूपदेशात् हूंबड ज्ञातीय श्रेष्ठी सालिंग भार्या ताकू... ॥
(अ. ४ पृ. ५०३) लेखांक ३६४ - रत्नत्रय मूर्ति ___ संवत १५६१ वर्षे वैसाख सुदि १० बुधे श्रीमूलसंघे भ. श्रीज्ञानभूषण तत्पट्टे भ. श्रीविजयकीर्तिगुरूपदेशात् लाडण · · ॥
(ना. ५४) लेखांक ३६५ - [ पद्मनंदि पंचविंशतिका] ___सं. १५६८ वर्षे फागुणमासे शुक्लपक्षे १० दिन गुरौ श्रीगिरिपुरे श्रीआदिनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे · 'भ. श्रीज्ञानभूषण तत्पट्टे भ. श्रीविजयकीर्ति तत्भगिनि आर्यिका देवश्री तस्यै पद्मनंदिपंचविंशतिका श्रीसंघेन लिखाप्य दत्ता ॥
( बडौदा, दा. पृ. ३४) लेखांक ३६६ – पट्टावली
यः पूज्यो नृपमल्लिभैरवमहादेवेंद्रमुख्यैर्नृपैः षटतर्कागमशास्त्रकोविदमतिर्जाग्रद्यशश्चंद्रमाः । भव्यांभोरुहभास्करः शुभकरः संसारविच्छेदकः सोव्याच्छ्रीविजयादिकीर्तिमुनिपो भट्टारकाधीश्वरः ॥ ३६
( भा. १ कि. ४ पृ. ५४) लेखांक ३६७ - अध्यात्मतरंगिणी टीका
शुभचंद्र विजयकीर्तियतिर्जगतां गुरुर्विधृतधर्मधुरोध्दृतिधारकः । जयतु शासनभासनभारतीमयमतिदलितापरवादिकः ॥ शिष्यस्तस्य विशिष्टशास्त्रविशदः संसारभीताशयो भावाभावविवेकवारिधितरः स्याद्वादविद्यानिधिः । टीको नाटकपद्यजां वरगुणाध्यात्मादिस्रोतस्विनी श्रीमच्छ्रीशुभचंद्र एष विधिवत् संचर्कसति स्म वै ॥ त्रिभुवनवरकीर्तेर्जातरूपात्तमूर्तेः शमदमयमपूर्तेराग्रहान्नाटकस्य ।
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- ३७० ]
९. बलात्कार गण - ईडर शाखा
१४५
विशदविभववृत्तो वृत्तिमाविश्वकार गतनयशुभचंद्रो ध्यानसिद्धयर्थमेव ॥ विक्रमवरभूपालात् पंचत्रिशते त्रिसप्ततिव्यधिके । वर्षे श्विमासे शु पक्षेथ पंचमीदिवसे ॥
[ सनातन ग्रंथमाला, १५, कलकत्ता ]
लेखांक ३६८ - पंचपरमेष्ठि मूर्ति
संवत १६०७ वर्षे वैसाख वदी ३ गुरु श्रीमूलसंघे भ. श्रीशुभचंद्रगुरूपदेशात् हुंबड संखेस्वरा गोत्रे सा. जिना... |
( पा. ने. जोहरापुरकर, नागपुर )
लेखांक ३६९ - करकंडुचरित्र
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व्यष्टे विक्रमतः शते समइते चैकादशाब्दाधिके भाद्रे मासि समुज्ज्वले समतिथौ खंगेजवाछे पुरे । श्रीमच्छ्रीवृषभेश्वरस्य सदने चक्रे चरित्रं त्विदं राज्ञः श्रीशुभचंद्रसूरियतिपश्चंपाधिपस्याद्भुतम् ||
लेखांक ३७० - कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका
[ अ. ११, पृ. २६५ ]
श्रीमद्विक्रमभूपतेः परिमिते वर्षे शते षोडशे माघे मासि दशाश्रवह्निसहिते ख्याते दशम्यां तिथौ । श्रीमच्छ्रीम हिसारसारनगरे चैत्यालये श्रीगुरोः श्रीमच्छ्रीशुभचंद्रदेवविहिता टीका सदा नंदतु ॥ ६ वर्णिश्रीक्षेमचंद्रेण विनयेनाकृत प्रार्थना । शुभचंद्रगुरो स्वामिन् कुरु टीकां मनोहराम् ॥ ७ तथा साधुसुमत्यादिकीर्तिनाकृत प्रार्थना । सार्थीकृता समर्थेन शुभचंद्रेण सूरिणा ॥ ९ भट्टारकपदाधीशा मूलसंघे विदां वराः । रमावीरेन्दु चिद्रपगुरवो हि गणेशिनः ।। १०
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[ जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५२८ ]
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भट्टारक संप्रदाय
[३७१ -
लेखांक ३७१ - संशयिवदनविदारण
अ. १ क्षुद्वाधारहितत्वं हि जिनस्यानंतशर्मणः ।
एष्टव्यं भव्यसद्वगैः शुभचंद्रैश्विदावहैः ॥ अ. २ इत्यवादि च संवादात् स्त्रीनिर्वाणनिवारणम् ।
शुभचंद्रेण संक्षेपाद् विस्तारोन्यत्र लोक्यताम् ।। अ. ३ श्रीमतो वर्धमानस्याहतेभ्रंणस्य वारणम् । प्रणीतं शुभचंद्रेण जीयादाचंद्रतारकम् ॥
(हरीभाई देवकरण ग्रंथमाला, कलकत्ता १९२२) लेखांक ३७२ - षड्दर्शनप्रमाणप्रमेयानुप्रवेश
जयति शुभचंद्रदेवः कंडूगणपुंडरीकवनमार्तडः । चंडत्रिदंडदूरो राद्धांतपयोधिपारगो बुधविनुतः ।।
(भा.न.पृ. २१) लेखांक ३७३ -- अंगपण्णत्ती
सिरिसयकलकित्तिपट्टे आसेसी भुवणकित्तिपरमगुरू । तप्पट्टकमलभाणू भडारओ बोहभूसणओ॥ सिरिविजयकित्तिदेओ गाणासत्थप्पयासओ धीरो । बुहसेवियपयजुअलो तप्पयवरकलभसत्तो य ।। तप्पयसेवणसत्तो तेवेज्जो उहयभासपरिवेई । सुहचंदो तेण इणं रइयं सत्थं समासेण ॥
[सिद्धांतसारादिसंग्रह, माणिकचंद्र ग्रंथमाला, बम्बई ] लेखांक ३७४ - नंदीश्वर कथा
जगति जयति दक्षः पालितानेकपक्षः सुगुरुविजयकीर्तिः प्रस्फुरत्सूरिमूर्तिः । चरणनलिनरक्तस्तस्य सद्भक्तियुक्तः समकृत शुभचंद्रः सत्कथां भव्यचंद्रः ।।
(ना. २५)
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-- ३७५] ९. बलात्कार गण-ईडर शाखा लेखांक ३७५ - पांडवपुराण
विजयकीर्तियतिर्मुदितात्मको जितनतान्यमनःसुगतैः स्तुतः । . अवतु जैनमतं सुमतो मतो नृपतिभिर्भवतो भवतो विभुः ।। ७० पट्टे तस्य गुणांबुधिर्वतधरो धीमान् गरीयान् वरः श्रीमच्छ्रीशुभचंद्र एष विदितो वादीभसिंहो महान् । तेनेदं चरितं विचारसुकरं चाकारि चंचद्रचा पाण्डोः श्रीशुभसिद्धिसातजनक सिद्धथै सुतानां सदा ॥ ७१ चंद्रनाथचरितं चरितार्थ पद्मनाभचरितं शुभचंद्रम् । मन्मथस्य महिमानमतंद्रो जीवकस्य चरितं च चकार ॥ ७२ चंदनायाः कथा येन दृब्धा नांदीश्वरी तथा । आशाधरकृताचारवृत्तिः सवृत्तिशालिनी ॥ ७३ त्रिंशञ्चतुर्विंशतिपूजनं च सद्वृत्तसिद्धार्चनमाव्यधत्त । सारस्वतीयार्चनमत्र शुद्धं चिंतामणीयार्चनमुञ्चरिष्णुः ॥ ७४ श्रीकर्मदाहविधिबंधुरसिद्धसेवां नानागुणौघगणनाथसमर्चनं च । श्रीपार्थनाथवरकाव्यसुपंजिकां च यः संचकार शुभचंद्रयतींद्रचंद्रः।। उद्यापनमदीपिष्ट पल्योपमविधेश्च यः।। चारित्रशुद्धितपसश्चतुस्त्रिद्वादशात्मनः ॥ ७६ संशयवदनविदारणमपशब्दसुखंडनं परमतर्क । सत्तत्त्वनिर्णयं वरस्वरूपसंबोधिनी वृत्ति ॥ ७७ अध्यात्मपद्यवृत्ति सर्वार्थापूर्वसर्वतोभद्रम् । योकृत सद्वथाकरणं चिंतामणिनामधेयं च ॥ ७८ कृता येनांगप्रज्ञप्तिः सर्वागार्थप्ररूपिका । स्तोत्राणि च पवित्राणि षड़ादाः श्रीजिनेशिनाम् ।। ७९ श्रीमद्विक्रमभूपतेर्द्विकहते स्पष्टाष्टसंख्ये शते रम्येष्टाधिकवत्सरे सुखकरे भाद्रे द्वितीयातिथौ । श्रीमद्वाग्वरनिर्वृतीदमतुले श्रीशाकवाटे पुरे श्रीमच्छ्रीपुरुषाभिधे विरचितं स्यात् पुराणं चिरम् ॥ ८६
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१४८ भट्टारक संप्रदाय
[३७५ - श्रीपालवर्णिना येनाकारि शास्त्रार्थसंग्रहे । साहाय्यं स चिरं जीयाद् वरविद्याविभूषणः ।। ८२
(भा. १ कि. ४ पृ. ३७) लेखांक ३७६ - ? मूर्ति
___ सुमतिकीर्ति संवत १६२२ वैशाख सुदि ३ सोमे श्रीकुंदकुंदान्वये 'भ. श्रीविजयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. सुमतिकीर्तिगुरूपदेशात् हूमडज्ञातीय गां. रामा भार्या वीरा ॥
[अ. ४ पृ. ५०३] लेखांक ३७७ - वेदी लेख
सं. १६२५ वर्षे पौष वदी ५ शुक्के श्रीमूलसंघे 'भ. शुभचंद्र तत्पट्टे भ. श्रीसुमतिकीर्तिगुरूपदेशात् हूमडज्ञातीय गांधी नरपति ॥
[तारंगा, दा. पृ. ७५] लेखांक ३७८ - अजितनाथ मूर्ति
गुणकीर्ति ___ श्रीमूलसंघे संमत १६३१ वर्षे फाग सुदी १० सोमे भ. श्रीगुणकीर्तिगुरूपदेशात् सं....॥
( परवार मन्दिर, नागपुर) लेखांक ३७९ ? मूर्ति
सं. १६३७ वर्षे वैसाख वदि ८ श्रीमूलसंघे भ. श्रीगुणकीर्तिउपदेशात् ब्र. अलवा भार्या शहा सुत कदूवा नाकरठा 'प्रणमति ।।
[ भा. ७ पृ. १४] लेखांक ३८० – ( जीवंधर रास )
सं. १६३९ वर्षे कार्तिकमासे सुक्लपक्षे पंचमी रवौ। श्रीवाग्वरदेशे श्रीसागवाडाशुभस्थाने श्रीआदिनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीपभनंदीदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीसकल
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- ३८५ ]
९. बलात्कार गण - ईडर शाखा
१४९
कीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीभुवनकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीज्ञान भूषणदेवाः तत्पट्टे भ. विजयकीर्तिदेयाः तत्पट्टे भ. श्रीशुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे श्रीसुमतिकीर्तिदेषाः तत्पट्टे भ. गुणकीर्तिदेवाः तत्शिष्य ब्रम्ह श्रीहरषा तत्शिष्य ब्रम्ह श्रीशंकर लख्यतं आत्मपठनार्थं ॥
[ ना. ३६ ]
लेखांक ३८१ - श्रेणिक पृच्छा कर्मविपाक
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शुभचंद्र जशचंद्रज कही सुमतिकीरति गुरु वंदू सही । श्रीगुनकीरति भट्टारक भने भणे सुणे इच्छित तेहने ।। ७१
लेखांक ३८२ - [ अध्यात्मतरंगिणी ]
वादिभूषण
संवत् १६५२ वर्षे ज्येष्ठ द्वितीय कृष्ण दशम्यां शुक्रे मूलसंघे... भ. श्रीसुमतिकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीवादिभूषणगुरुस्तच्छिष्य पं. देवजी पठनार्थ ॥
[ जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५२९]
( ना. ६ )
लेखांक ३८३ - वासुपूज्य मूर्ति
संवत १६५५ वर्षे वैसाख शुदी ६ शुक्रे भ. श्रीवादीभूषण गुरु उपदेशात्'' ॥
( का . १ )
लेखांक ३८४ - १ मूर्ति
सं. १६५६ फागुण शुदि ३ गुरौ श्रीमूलसंघे भ. श्रीवादिभूषणोपदेशात् श्रीमालज्ञातौ ...
लेखांक ३८५ – सुपार्श्वनाथ मूर्ति
[ का. ३]
रामकीर्ति
संमत १६७० वर्षे फाल्गुण वदी ५ शुभे श्रीमूलसंधे भ. श्रीरामकीर्ति
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१५०
भट्टारक संप्रदाय
[३८५ - प्रतिष्टितं सेनगणे बघेरवाल ज्ञातिय चवरिया गोत्रे सा. धाऊजी भार्या बोपाई...॥
( परवार मन्दिर, नागपुर) लेखांक ३८६ - पद्मप्रभ मूर्ति
___ संमत १६७० वर्षे फागुन वदी ५ शुक्रे श्रीमूलसंघे भ. श्रीवादीभूषण तत्पट्टे भ. श्रीरामकीर्तिगुरूपदेशात् अगरवालज्ञातीय सं... ॥
(भा. १३ पृ. १३०) लेखांक ३८७ - पार्श्वनाथ मूर्ति
पद्मनंदी संवत १६८३ वर्षे माघ शु. ५ गुरौ श्रीमूलसंघे 'भ. श्रीरामकीर्ति तत्पट्टे पद्मनंदिगुरूपदेशात् हूमड ज्ञातीय लघुशाखा खरजा गोत्रे सं. नाकर ।।
___ (भा. १४ पृ. २९) लेखांक ३८८ - शांतिनाथ मूर्ति
संवत १६८६ वर्षे वैशाख सुदी ५ बुधे शाके १५५१ वर्तमाने श्रीमूलसंघे .... भ. श्रीवादिभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीरामकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीपद्मनंदिगुरूपदेशात् पादशाह श्रीसाहजहां विजयराज्ये श्रीगुर्जरदेशे श्रीअहमदाबादवास्तव्य-हुंबड--ज्ञातीय-बृहच्छाखीय-वाग्वरदेशस्यांतरीयनगर-नौतनभद्र-प्रासादोद्धरणधीर-जाज सं. भोजा भार्या लकु. एतेषां महासिद्धक्षेत्र-श्रीसे@जयरत्नगिरी-श्रीजिनप्रासाद-श्रीशांतिनाथबिंब कारयित्वा नित्यं प्रणमति । शुभं भवतु ॥
___(जैनमित्र, २७-१-१९२०) लेखांक ३८९ - ( गणितसार संग्रह )
संवत १७०२ वर्षे माह शुदि ३ शुक्ले श्रीमूलसंघे भ. श्रीसकलकीर्ति. देवाः तदन्वये भ. श्रीवादिभूषण तत्पट्टे भ. श्रीरामकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीपद्मनंदी विराजमाने आचार्यश्रीनरेंद्रकीर्ति तच्छिष्य ब्रम्ह श्रीलाड्यका तच्छिष्य ब्रम्ह कामराज तच्छिष्य ब्रम्ह लालजी ताभ्यां श्रीरायदेशे श्रीभीलोडानगरे श्रीचंद्रप्रभचैत्यालये दोसी कुहा · 'दत्तं श्रीरस्तु ।
[का. ६३]
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-- ३९३ ] ९. बलात्कार गण-ईडर शाखा १५१ लेखांक ३९० - [शब्दार्णवचंद्रिका ] देवेंद्रकीर्ति
संवत् १७१३ वर्षे कार्तिक शुदि अष्टमी बुधे वाग्वरदेशे सागवाडानगरे श्रीआदीश्वरनवीनचैत्यालये राउल-श्रीपुंजराजविजयराज्ये श्रीमूलसंघे भ. श्रीरामकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्तिदेवाः तदानाये मुनि श्रीश्रुतकीर्तिस्तच्छिष्य-मुनि श्रीदेवकीर्तिस्तच्छिष्याचार्यश्रीकल्याणकीर्ति तच्छिष्य ब्रम्ह तेजपालेन स्वज्ञानावरणीयकर्मक्षयार्थ स्वपरपठनार्थ जैनेंद्रमहाव्याकरणं सवृत्तिकं लिखितं शोधितं च ॥
[सनातन ग्रन्थमाला, बनारस १९१५ ] लेखांक ३९१ - [गणितसारसंग्रह ]
__संवत १७२५ वर्षे कार्तिक सुदि १० भौमे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भ. श्रीसकलकीर्त्यन्वये भ. श्रीवादिभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्प? भ. श्रीदेवेंद्रकीर्तिगुरूपदेशात् मुनिश्रीश्रुतकीर्ति तच्छिष्य मुनिश्रीदेवकीर्ति तच्छिष्याचार्य-श्रीकल्याणकीर्ति तच्छिष्य मुनिश्री त्रिभुवनचंद्रेणेदं षट्त्रिंशतिका गणितशास्त्र कर्मक्षयार्थ लिखित ॥
(का. ६५) लेखांक ३९२ - १ मूर्ति
क्षेमकीर्ति सं. १७३४ वर्षे मूलसंघे श्रीपद्मनंदी तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीक्षेमकीर्ति शुद्धाम्नाये बागड देश शीतलवाडानगरे हुमड ज्ञातीय लघुसाखाया कमलेश्वरगोने दोशीश्रीसूरदास ॥
[दा. पृ. ७४] लेखांक ३९३ - [ अष्टसहस्त्री]
नरेंद्रकीर्ति वत्से नेत्रषडश्वसोम १७६२ निहिते ज्येष्ठे च मासेनघे शुभ्रे पक्ष इति त्रयोदशदिने श्रीतक्षकाख्ये पुरे । नेमिस्वामिगृहे व्यलीलिखदिदं देवागमालंकृतेः पुस्तं पूज्यनरेंद्रकीर्तिसुगुरोः श्रीलालचंद्रो बटुः ।।
[अ. १० पृ. ७३]
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-
१५२
[ ३९४ -
लेखांक ३९४
चंद्रकीर्ति
स्वस्तिश्री संवत १८३२ शाके १६८७ प्रवर्तमाने शुभकारक कल्याणमासे कृष्णपक्षे ३ तृतीया शुभस्थ तिथि शुक्रवासरे श्रीखङ्गदेशे धूलेवग्रामे श्री ऋषभदेव चैत्यालये श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीसकलकीर्ति तत्पट्टे भुवनकीर्ति तदनुक्रमेण भ. श्रीक्षेमकीर्ति पट्टे श्रीनरेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीविजयकीर्ति तत्पट्टे भ. नेमिचंद्र तत्पट्टे भ. श्री १०८ श्रीचंद्रकीर्ति प्रतिष्ठिते बाईजी श्रीसजूबाईके चतुरविंशति जिनपादुका स्थापितं शुभं ।
भट्टारक संप्रदाय
चरण पादुका
लेखांक ३९५ - शिलालेख
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( केशरियाजी, वीर २ पृ. ४६० ) यशः कीर्ति
देडार देश मेवाडमे उदयापुर सुजान । राज करे तिह राजवी भीमसिंह राजान || संवत १८६३ मे अषाड सुदी ३ तीज । गुरुवारे मुहूर्त कन्यो भली तरे पूजा कीध ।। मूलसंघ गछ सरस्वती बलात्कार गण धरबुडौ । कुंदकुंद सूरिवर भलौ सकलकीर्ति गछ । ते पाढे गुरु शोभतो भुवनकीर्ति नमूं पाय । ज्ञानभूषण ते पाटे प्रगट विजयकीर्ति सूरि दृश्य ॥ शुभचंद्र सूरियर सदा सुमतिकीर्ति गुणकीर्ति गुरु | गुपातिल वादिभूषण तस पाट रामकीर्ति पाट शोभतो ॥ राख्यो धर्मन ठाठ पद्मनंदि पाठे सुजस । देवेंद्रकीर्ति गुणधार खेमकीर्ति पर उज्ज्वलो ॥ नरेंद्रकीर्ति मनुहार विजयकीर्ति पट्टे गुरु | नेमिचंद्र भवतार चंद्रकीर्ति चंद्र समो ॥ रामकीर्ति सुखकार यशःकीर्ति सूरिवर सिंह । उदयो पुन्य अंकुर करी प्रतिष्ठां दुर्ग तणी ॥ जस व्याप्यो भरपूर बागडदेश सुहावनो । सागलपुर वर ग्राम संघपति साहर लिया |
( केशरियाजी, वीर २ पृ. ४६१ )
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बलात्कार गण - ईडर शाखा इस शाखा का आरम्भ भ. सकलकीर्ति से हुआ । आप भ. पद्मनन्दी के शिष्य थे जिन का वृत्तान्त उत्तर शाखा में आ चुका है । आप ने आयु के २५ वें वर्ष में दीक्षा ग्रहण की तथा २२ वर्ष दिगम्बर मुनि के रूप में रहे । आप ने संवत् १४९० की वैशाख शु. ९ को एक चौवीसी मूर्ति, संवत् १४९२ की वैशाख कृ. १० को एक पार्श्वनाथ मूर्ति, संवत् १४९४ की वैशाख शु. १३ को अबू पर्वत पर एक मन्दिर, संवत् १४९७ में एक आदिनाथ मूर्ति तथा संवत् १४९९ में सागवाडा में आदिनाथ मन्दिर की प्रतिष्टा की । सागवाडा में ही आप ने भ. धर्मकीर्ति का पट्टाभिषेक किया [ ले. ३२९-३४ ] । आप ने प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, पार्श्वपुराण, सुकुमारचरित. मूलाचारप्रदीप, आराधना आदि ग्रन्थों की रचना की [ ले. ३३५-३९ ।" आप के शिष्य ब्रह्म जिनदास ने संवत् १५१० की माघ शु. ५ को एक पंचपरमेष्ठी मूर्ति स्थापित की तथा गुणस्थान गुणमाला और ज्येष्ठ-जिनवरपूजा की रचना की [ ले. ३४०-४२ ] ।
सकलकीर्ति के पट्ट पर भुवनकीर्ति भट्टारक हुए | आप ने संवत् १५२७ की वैशाख कृ. ११ को एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की [ ले. ३४३ ] । आप के शिष्य ब्रह्म जिनदास ने संवत् १५०८ की मार्गशीर्ष शु. ४ को रामायणरास की, तथा संवत् १५२० की वैशाख शु. १४ को हरिवंशरास की रचना की । इन रचनाओं में आप ने मल्लिदास और गुणदास इन शिष्यों का भी उल्लेख किया है [ले. ३४४-४५] । कर्मविपाकरास, धर्मपरीक्षारास, जम्बूस्वामीरास, जीवन्धररास, जसोधररास,
५७ सकलकीर्तिकृत महावीरपुराण और सुदर्शनचरित्र के हिन्दी रूपान्तर प्रकाशित हुए हैं । इन के अलावा ग्रन्थसूचियों में इन के अनेक ग्रन्थों के नाम मिलते हैं । किन्तु निश्चितता के खयाल से यहां उन का उल्लेख छोड दिया है। सकलकीर्ति ने किसी ग्रन्थ में लेखनकाल या गुरुपरम्परा का उल्लेख नहीं किया है।
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१५४
भट्टारक संप्रदाय
ये आप की अन्य रचनाएं हैं। आप के शिष्य ब्रह्म गुणदास ने मराठी श्रेणिकचरित्र लिखा है [ ले. ३५१ ] ।
भ. भुवनकीर्ति के बाद भ. ज्ञानभूषण पट्टाधीश हुए। आप ने संवत् १५३४ में एक चारित्रयंत्र, संवत् १५३५ में एक रत्नत्रय मूर्ति, संवत् १५४२ की ज्येष्ठ शु. ८ को एक पद्मप्रभ मूर्ति, संवत् १५४३ में एक रत्नत्रय मूर्ति, संवत् १५४४ में एक अन्य मूर्ति, तथा संवत् १५५२ की ज्येष्ठ कृ. ७ को एक सुमतिनाथ मूर्ति की स्थापना की (ले. ३५२-५७ ) । संवत् १५६० में आप ने तत्त्वज्ञानतरंगिणी की रचना की ( ले. ३५८ )। पट्टावली के अनुसार इन्द्रभूपाल, देवराय, मुदिपालराय, रामनाथराय, बोमरसराय, कलपराय तथा पाण्डुराय ने आप का सन्मान किया था [ ले. ३५९ ] । आप के शिष्य नागचन्द्रसूरि ने विषापहारटीका की तथा गुणनन्दि ने ऋषिमंडलपूजा की रचना की [ ले. ३६०-६१ ] । ६१
____ भ. ज्ञानभूषण के पट्टशिष्य भ. विजयकीर्ति हुए। आप ने संवत् १५५७ की माघ कृ. ५ को तथा संवत् १५६० की वैशाख शु. २ को शान्तिनाथ मूर्तियां तथा संवत् १५६१ की वैशाख शु. १० को रत्नत्रय मूर्ति स्थापित की [ ले. ३६२-६४ ] । संवत् १५६८ की फाल्गुन शु.
५८ सकलकीर्ति के समान ब्रह्म जिनदास के ग्रन्थों की संख्या भी काफी अधिक है । इन के विषय में पं. परमानन्द का एक लेख अनेकान्त वर्ष ११ पृ. ३३३ पर देखिए।
५९ भ. भुवनकीर्ति के शिष्य ज्ञानकीर्ति से भानपुर परम्परा का आरम्भ हुआ था इस लिए उनका वृत्तान्त अगले प्रकरण में संगृहीत किया है।
६. ये कर्णाटक के स्थानीय शासक थे किन्तु इन के पृथक् निश्चित राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सके।
६१ शानभूषण के विषय में देखिए- पं. नाथूराम प्रेमी का लेख ( जैन साहित्य और इतिहास पृ. ५२६ ) तथा पं. परमानन्द का लेख ( अनेकान्त वर्ष
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Achar
बलात्कार गण-ईडर शाखा
१० को श्रीसंघ ने आप की भगिनी आर्यिका देवश्री के लिए पद्मनन्दि पंचविंशति की प्रति लिखवाई थी [ले. ३६५] । पट्टावली के अनुसार मल्लिराय, भैरवराय और देवेन्द्रराय ने ६ विजयकीर्ति का सन्मान किया था [ ले. ३६६] ।
विजयकीर्ति के शिष्य शुभचन्द्र भट्टारक हुए । आप ने त्रिभुवनकीर्ति ५३ के आग्रह से संवत् १५७३ की आश्विन शु. ५ को अमृतचन्द्र कृत समयसार कलशों पर परमाध्यात्मतरंगिणी नामक टीका लिखी ।
आप ने संवत् १६०७ की वैशाख कृ. ३ को एक पंचपरमेष्ठी मूर्ति स्थापित की । संवत् १६११ की भाद्रपद में आप ने करकण्डु चरित्र लिखा । क्षेमचंद्र और सुमतिकीर्ति के आग्रह से संवत् १६१३ की माघ शु. १० को आप ने हिसार में कार्तिकेयानुप्रेक्षा पर टीका लिखी । इस समय लक्ष्मीचन्द्र, वीरचन्द्र और ज्ञानभूषण भट्टारक बलात्कार गण के विभिन्न पीठों पर विराजमान थे [ ले. ३६७-७० ] । ५
संशयिवदनविदारण, षड्दर्शनप्रमाणप्रमेयानुप्रवेश, अंगपण्णत्ती तथा नन्दीश्वर कथा ये आप की अन्य रचनाएं हैं [ले. ३७१-७४ ] । संवत् १६०८ की भाद्रपद द्वितीया को सागवाडा में आप ने पाण्डवपुराण की रचना पूरी की । इस में वर्णी श्रीपाल ने आप को सहायता दी थी [ले. ३७५ ] । इस पुराण की प्रशस्ति से उपर्युक्त रचनाओं के अतिरिक्त आप की १८ अन्य रचनाओं का पता चलता है जो इस प्रकार हैंचन्द्रनाथचरित, पद्मनाथचरित, प्रद्युम्नचरित, जीवन्धरचरित, चन्दना कथा,
६२ ये तीनों कर्णाटक के स्थानीय शासक होंगे। इन का निश्चित राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सका।
६३ ये सम्भवतः जेरहट शाखा के पहले भट्टारक त्रिभुवनकीर्ति ही हैं ।
६४ ये तीनों क्रमशः सूरत के भट्टारक हुए हैं। किन्तु एक ही समय एक ही शाखा के तीन भट्टारकों का उल्लेख होना स्वाभाविक नहीं । अत: ज्ञानभूषण से यहां अटेर शाखा के शानभूषण का अभिप्राय समझना चाहिए ।
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भट्टारक संप्रदाय
आशाधर कृत धर्मामृत की वृत्ति, तीस चौवीसी पूजा, सिद्ध पूजा, सरस्वती पूजा, चिन्तामणि पूजा, कर्मदहनविधान, गणधरवलयपूजा, पार्श्वनाथकाव्य की पंजिका, पल्योपमविधान, चारित्रशुद्धि के १२३४ उपवासों का विधान, स्वरूपसम्बोधन की वृत्ति, चिन्तामणि सर्वतोभद्रव्याकरण, तथा अंगप्रज्ञप्ति ।
. शुभचन्द्र के पट्ट पर सुमतिकीर्ति भट्टारक हुए । आप ने संवत् १६२२ की वैशाख शु. ३ को कोई मूर्ति तथा संवत् १६२५ की पौष कृ. ५ को तारंगा क्षेत्र पर एक वेदी की प्रतिष्ठा की (ले. ३७६-७७ ] ।
इन के बाद गुणकीर्ति भट्टारक हुए । आप ने संवत् १६३१ की फाल्गुन शु. १० को एक अजितनाथ मूर्ति तथा संवत् १६३७ की वैशाख कृ. ८ को एक अन्य मूर्ति प्रतिष्ठित की (ले. ३७८-७९ )। आप के प्रशिष्य शंकर ने सागवाडा में संवत् १६३९ की कार्तिक शु. ५ को जीवंधर रास की एक प्रति लिखी [ ले. ३८० ] | गुणकीर्ति रचित श्रेणिकपृच्छा कर्मविपाक नामक रचना उपलब्ध है [ले. ३८१ ] ।
गुणकीर्ति के पट्ट पर वादिभूषण भट्टारक हुए । आप के शिष्य देवजी के लिए संवत् १६५२ की ज्येष्ठ कृ. १० को अध्यात्मतरंगिणी की एक प्रति लिखी गई [ले. ३८२ ] । आप ने संवत् १६५५ की वैशाख शु. ६ को एक वासुपूज्य मूर्ति तथा संवत् १६५६ की फाल्गुन शु. ३ को एक अन्य मूर्ति स्थापित की [ ले. ३८३-८४] ।
वादिभूषण के बाद रामकीर्ति पट्टाधीश हुए। आप ने संवत् १६७० की फाल्गुन कृ. ५ को एक सुपार्श्व मूर्ति तथा एक पद्मप्रभ मूर्ति प्रतिष्ठित की [ ले. ३८५-८६ ] ।
रामकीर्ति के पट्ट पर पद्मनन्दि भट्टारक हुए । आप ने संवत् १६८३ की माघ शु. ५ को पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की [ ले. ३८७ ] । संवत् १६८६ की वैशाख शु. ५ को शाहजहाँ के राज्य काल में शत्रुजय सिद्धक्षेत्र पर आप ने शान्तिनाथ मन्दिर की प्रतिष्ठा की [ले. ३८८] ।
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. बलात्कार गण-ईडर शाखा १५७ आप की आम्नाय में ब्रह्मलालजी ने संवत् १७०२ की माघ शु. ३ को भीलोडा शहर में गणितसारसंग्रह की एक प्रति लिखी [ले. ३८९] ।
पद्मनन्दि के पट्ट पर देवेन्द्रकीर्ति आरूढ हुए। आप की आम्नाय में ब्रह्म तेजपाल ने संवत् १७१३ की कार्तिक शु. ८ को सागवाडा में रावल पुंजराज के राज्यकाल में ६५ शब्दार्णवचन्द्रिका की प्रति लिखी [ले. ३९० ] । तथा मुनि त्रिभुवनचन्द्र ने संवत् १७२५ की कार्तिक शु. १० को गणितसारसंग्रह की प्रति लिखी [ले. ३९१ ।
देवेन्द्रकीर्ति के बाद क्षेमकीर्ति पट्टाधीश हुए। आप ने संवत् १७३४ में सेटलवाड में एक मूर्ति स्थापित की [ले. ३९२ ] । आप के पट्टशिष्य नरेन्द्रकीर्ति हुए । इन के शिष्य लालचंद ने संवत् १७६२ में तक्षकपुर में अष्टसहस्री की प्रति लिखी [ ले. ३९३ ] ।
नरेन्द्रकीर्ति के पट्ट पर क्रमशः विजयकीर्ति, नेमिचन्द्र और चन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए । चन्द्रकीर्ति ने संवत् १८३२ में केशरियाजी तीर्थक्षेत्र में चौवीस तीर्थंकरों की चरणपादुकाएं स्थापित की [ ले. ३९४ ] ।
चन्द्रकीर्ति के बाद रामकीर्ति और उन के बाद यशःकीर्ति भट्टारक हुए । आप के उपदेश से संवत् १८६३ की आषाढ शु. ३ को केशरियाजी मन्दिर के परकोट का निर्माण पूरा हुआ ( ले. ३९५ ) । ६६
६५ पुंजराज कोई स्थानीय शासक थे । इन का निश्चित राज्यकाल ज्ञात नहीं।
६६ ब. शीतलप्रसादजी ने ईडर के भट्टारकों का जो वृत्तान्त दिया है उस में यशःकीर्ति के बाद क्रमश: सुरेन्द्रकीर्ति, रामकीर्ति कनककीर्ति और विजयकीर्ति का उल्लेख किया है । ईडर का हस्तलिखित शास्त्र भाण्डार बडा समृद्ध है। ( दानवीर माणिकचंद्र पृ. ३३)
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बलात्कार गण-इंडर शाखा-कालपट
१ पमनन्दि [ उत्तर शाखा ] २ सकलकीर्ति [ संवत् १४५०-१५१० ] ३ भुवनकीर्ति [ संवत् १५०८-१५२७ } ४ ज्ञानभूषण [ संवत् १५३४-१५६० ज्ञानकीर्ति [ भानपुर शाखा ५ विजयकीर्ति [ संवत् १५५७-१५६८ ] ६ शुभचन्द्र | संवत् १५७३-१६१३ ) ७ सुमतिकीर्ति [ संवत् १६२२-१६२५] ८ गुणकीर्ति [ संवत् १६३१-१६३९ ] ९ वादिभूषण [ संवत् १६५२-१६५६ ] १० रामकीर्ति संवत् [ १६७० ] ११ पद्मनन्दि [ संवत् १६८३-१७०२ ] १२ देवेन्द्रकीर्ति [ संवत् १७१३-१७२५ ] १३ क्षेमकीर्ति [ संवत् १७३४ ] १४ नरेन्द्रकीर्ति [ संवत् १७६२ ] १५ विजयकीर्ति
१६ नेमिचन्द्र
१७ चन्द्रकीर्ति [ संवत् १८३२ ) १८ रामकीर्ति १९ यशःकीर्ति [ संवत् १८६३ ]
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१०. बलात्कार गण-भानपुर शाखा लेखांक ३९६ - [ पुण्यास्रव कथाकोष] ज्ञानकीर्ति ___संवत् १५३४ वर्षे फाल्गुनमासे शुक्लपक्षे पंचमीदिवसे श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीसकलकीर्तिदेवास्तत्पट्टे भ. श्रीभुवनकीर्तिदेवास्तच्छिष्य स्थिवराचार्यश्रीज्ञानकीर्तिस्तदंते निवासी ब्रह्मदेवदासस्य पठनार्थ चीत्तुडा वास्तव्य नागद्रा ज्ञातीय श्रेष्ठि मदा भार्या पांचू.॥
(पा. ५,१६४ ) लेखांक ३९७ -
बागड देश मे देश सुहामणा जी खडक देश है बहुत ए गुलजारी। जिहां रेणुपुर नग्रवी सोभता है व्हां रिषभनाथका देहरा बहुत भारी ।। च्यार दिस के संघ ए नित्य आवे मंगल गावत है बहुत नर नारी। ज्ञानकीर्ति का सिष्य कुबेर बोले तीन लोकसु गत अद्भुत थारी ।।
[ ना. १७] लेखांक ३९८ - पट्टावली
जयति बोधसुकीर्तियतीश्वरो भुवनकीर्तिगुरुप्रियदीक्षितः । सकलशास्त्रसुशल्यनकोविदोमलहगादिमणित्रयराजितः ।। ३५
__(जैन सिद्धांत १७ पृ. ५८) लेखांक ३९९ - ऐतिहासिक पत्र
रत्नकीर्ति रत्नकीर्ति हता तेणे सं. १५३५ वर्षे श्रीनोगामे दीक्षा लीधी हती... त्यारे रत्नकीर्तिने भट्टारक पदवी आपवानु स्थापन करी ॥
( भा. १३ पृ. ११३) लेखांक ४०० - पट्टावली
तच्छिष्योभाद् रत्नकीर्तिः प्रवृद्धाचार्यो वर्यौदार्यगांभीर्ययुक्तः । ग्रंथैर्मुक्तो योवतीर्णः श्रुताब्धि सोयं भव्यान् पातु संसारवाडौं । ३६
(जैन सिद्धांत १७ पृ. ५८)
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१६० भट्टारक संप्रदाय
[ ४०१ - लेखांक ४०१ - पट्टावली
यश कीर्ति श्रीरत्नकीर्तिपदपुष्करालिरादेष्टमुख्यो यशकीर्तिसूरिः । पादौ भजामि सुहचेष्टमूर्तिर्देदीप्यातां को मुनिचक्रवर्ती ॥ ३८
( उपर्युक्त) लेखांक ४०२ - ऐतिहासिक पत्र
तार पुठे तेणानेक पाटे आचार्य यसकीर्ति नोगामे थाप्या तार पुठे केटलाक मास दिवसे अनंतकीर्ति आदि लेईने जण ६३. दक्षिणदेसे गुरुपासे आज्ञा लेईने विहार को ते आज दिवस सुदी दक्षिणदेशमाही रत्नकीर्तिना पाटधर कहावे छे तेणाना पाट सुदी नग्न चाल्या आवे छे... सं. १६१३ वर्षे जसकीर्तिये बागड माहे गाम भीलोडे काल कन्यो ।
( भा. १३ पृ. ११३) लेखांक ४०३ - पट्टावली
गुणचंद्र जीयाच्छ्रीकीर्तिकीर्तिस्फुरतरगुणयुक् सिंहनंदी यतींद्रो। व्याख्याव्यामोहितार्यत्रिभुवनपतिभिः सेव्यपादारविंदः ।। ३९ तच्छिष्यसूरिर्गुणचंद्रनामा न्यायागमाध्यात्मगुणैकधाम । साहित्यसल्लक्षणशास्त्रसीम जीयाद्धरिच्यां गुणरत्नवेश्म ॥ ४०
___ [जैन सिद्धांत १७ पृ. ५८] लेखांक ४०४ - अनंतनाथ पूजा
संवत् षोडशत्रिंशतैष्यपलके पक्षेवदाते तिथौ .. पक्षत्यां गुरुवासरे पुरजिनेट् श्रीशाकमार्गे पुरे ।
श्रीमध्एंबडवंशपद्मसविता हर्षाख्यदुर्गी वणिक्
सोयं कारितवाननंतजिनसत्पूजां वरे वाग्वरे ॥ श्रीरत्नकीर्तिभगवज्जगतां वरेण्यश्चारित्ररत्ननिवहस्य बभार भारं । तहीक्षितो यतिवरो यशकीर्तिकीर्तिश्चारित्ररंजितजनोद्वहितासुकीर्तिः ॥
तच्छिष्यो गुणचंद्रसूरिरभवञ्चारित्रचेतोहरस्तेनेदं वरपूजनं जिनवरानंतस्य युक्त्यारचि ।।
(हि. १४ पृ. ९६)
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- ४०८] १०. बलात्कार गण-भानपुर शाखा लेखांक ४०५ - ऐतिहासिक पत्र
तेणानो पाटे गाम सावले .... समस्त संघ मिली आचार्य गुणचंद्र स्थापना करवानी 'सं. १६५३ वर्षे आचार्यश्रीगुणचंद्रजी सागवाडे काल को ॥
[ भा. १३ पृ. ११३ ] लेखांक ४०६ - (षडावश्यक)
संवत १६३९ वर्षे मार्गसिर शुदि १ शुक्रे जेष्ठा नक्षत्रे बागडदेसे सागवाडानगरे श्रीसंभवनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे .... श्रीज्ञानकीर्ति तत् शिष्याचार्य श्रीरत्नकीर्ति तत् शिष्याचार्य श्रीयशकीर्ति तत् शिष्याचार्य श्रीगुणचंद्रणेदं पुस्तकं षडावश्यकस्य स्खशिष्य न. डुंगरा पठनार्थ दत्तं ॥
[वीर २ पृ. ४७३ ] लेखांक ४०७ - पट्टावली
सकलचंद्र श्रीमूलसंघे गुणवान् गुणज्ञः श्रीवंशश्रीमान् गुणचंद्रसूरी। तत्पट्टधारी जिनचंद्रदेवः तस्येह पट्टे सकलेंदुसूरी ॥ ४५
(जैन सिद्धांत १७ पृ. ५९) लेखांक ४०८ - भक्तामरवृत्ति
सकलेंदोर्गुरोर्धातुर्यस्येति वर्णिनः सतः । पादस्नेहेन सिद्धेयं वृत्तिः सारसमुच्चया ॥ सप्तषष्ट्यंकिते वर्षे षोडशाख्ये हि संवते । आषाढश्वेतपक्षस्य पंचम्यां बुधवारके । ग्रीवापुरे महीसिंधोस्तटभाग समाश्रिते । प्रोत्तुंगदुर्गसंयुक्ते श्रीचंद्रप्रभसद्मनि ॥ वर्णिनः कर्मसीनाम्नो वचनान्मयकारचि । भक्तामरस्य सद्धृत्तिः रायमल्लेन वर्णिना ।
[ ना. ४६ ]
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भट्टारक संप्रदाय
[ ४०९लेखांक ४०९ - ऐतिहासिक पत्र
गाम नोगामे लघु साजनामो संघ मलीनो आचार्य सकलचंद्र पाट थाप्या सं. १६७० वर्षे आसोज सुदी ८ दिवसे आचार्य सकलचंद्र सागवाडे समाधी मरण कन्यो॥
( भा. १३ पृ. ११३) लेखांक ४१० - जिनचौवीसी
रत्नचंद्र संवत सोल चोत्तरे कवित रच्या संधारे पंचमी शुकर वारे
ज्येष्ठ वदि जाण रे । मूलसंघ गुणचंद्र जिनेंदु सकलचंद्र भट्टारक रत्नचंद्र
बुद्धि गच्छ भाण रे॥ त्रिपुरो पुर विराज खेतु नेतु अमराज भामा सो मोलख सज
त्रिपुरो बखाण रे। पीथो छाजू ताराचंद छीतर मरी बुनंद नाकु खेतु देव
छंद एहां के कल्याण रे ॥ २५
लेखांक ४११ - १ मूर्ति
सं. १६७६ मूलसंघे भ. रत्नचंद्रोपदेशेन सीखप्प पा भाणिक भार्या पाचल्ली सुत पदारथ भार्या दत्ता सुत नोवा हेमा रत्ना प्रणमति ।।
(भा. ७ पृ. १४) लेखांक ४१२ - पुष्पांजलि पूजा
विधुबसुरसद्राकोः प्रयुक्तैक्षतोर्चा शरदि नभसि मासे रत्नचंद्रेश्वतुर्यो । धवलभृगुसुवारे सागवाडे युस्वः जिनवृषभगणादिश्रावकादेशतोव्यात् ।।
(ना. ८७)
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- ४१७] १०. बलात्कार गण-भानपुर शाखा १६३ लेखांक ४१३- पार्श्वनाथ मूर्ति
सं. १६९२ वर्षे वैसाख सुदि ५ गुरु श्रीमूलसंघे भ. श्रीरत्नचंद्रोपदेशात् घोराया गोत्रे सं. रामा भार्या सोनादे...॥
(प. १) लेखांक ४१४ - ऐतिहासिक पत्र ___त्यार पुठे सं. १६७० वैशाख सुदी ५ दिवसे श्रीसागवाडे समस्त संघ मलीने पाट आचार्यनु आपता हता देहरा जुना मध्ये तेणे समे बडे साजने जती तथा श्रावके राजवट करी जे हवे आचार्यनो पाट आपवा देशुं नही... भ. रतनचंद्र जी नता थई फणा महोत्सवसु वीहार को त्यार पुठे सं. १६९९ वर्षे जेठ सुदी ५ सोमवार भ. रत्नचंद्र जीवता भ. हर्षचंद्र थाप्या गाम परतापोरे त्यार पुठे सं. १७०७ भ. रत्नचंद्रजी वैशाख वदी ४ ते नोगामे परोक्ष थया ।
(भा. १३ पृ. ११३) लेखांक ४१५ - पट्टावली
श्रीमूलसंघेजनि रत्नचंद्रो भट्टारकाणामधिपः कृतज्ञः । श्रीहेमकीर्तेर्वरलब्धपट्टः संस्नापितश्चामरजित्प्रमुख्यैः ॥ ४९
(जैन सिद्धांत १७ पृ. ५९) लेखांक ४१६ - पट्टावली
हर्षचंद्र पट्टे तदीये जयताजिताक्षो भट्टारको हर्षसुचंद्रनाम । षट्शास्त्रवेत्ता गुणरत्नवेश्म खंडेरवालान्वयजो व्रतात्मा ॥५१
( उपर्युक्त) लेखांक ४१७ - ऐतिहासिक पत्र
शुभचंद्र त्यार पुठे शुभचंद्र थाप्या सं. १७२३ वैशाख वदी ५ श्रीघाटोल भ. शुभचंद्र थाप्या सं. १७४९ वर्षे आश्विज वदी १३ गाम मेलुडे भ. शुभचंद्र परोक्ष थया ।।
(भा. १३ पृ. ११३)
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भट्टारक संप्रदाय
[४१८ -
लेखांक ४१८ - पट्टावली
श्रीहर्षचंद्रस्य मुनेः सुपट्टे जिनागमात्प्राप्तसमस्ततत्त्वः। शुद्धेन शीलेन विराजमानो भट्टारकः श्रीशुभचंद्र आसीत् ।। ५२
[जैन सिद्धांत १७ पृ. ५९ ] लेखांक ४१९ - पट्टावली
अमरचंद्र ज्ञानेश्वरस्य शुभचंद्रमुनीश्वरस्य सिंहासनेमरनरेश्वरवंद्यमाने । सर्वागमार्थसुमहार्णवपारगामी दिव्यत्यसौ अमरचंद्रमहामुनींद्रः ।।५३
(उपर्युक्त) लेखांक ४२० - ऐतिहासिक पत्र
सं. १७४८ वर्षे माहा शुदी १० सोमवारे गाम मेलुडे भ. अमरचंद्रजी गाम घाटयोल थाप्या।
( भा. १३ पृ. ११३) लेखांक ४२१ -- पट्टावली
___ रत्नचंद्र मणिहर्षशुभेदूनां पट्टेभूदमरेंदुजित्। तत्पादाभोजहंसोस्ति रत्नचंद्रो यतीश्वरः ।। ५५
(जैन सिद्धांत १७ पृ. ६०) लेखांक ४२२ - मंदिर लेख
___ॐ स्वस्ति विक्रमादित्यसमयातीत संवत् १७७४ वर्षे शाके १६३९ प्रवर्तमाने माह सुदी १३ रवि श्रीदेवगढ नगरे महाराजाधिराज महारावत श्रीपृथवीसिंहजी विजयराज्ये कुंवर श्रीपहाडसिंघ विराजमाने श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. रत्नचंद्र तत्पट्टे भ. हर्षचंद्र तत्पट्टे भ. शुभचंद्र तत्पट्टे भ. श्रीअमरचंद्र तत्पट्टे भ. श्रीरत्नचंद्रगुरूपदेशात् श्रीमत् हूंबडज्ञातीय मंत्रीश्वरगोत्रे संघवी वर्षावत भार्या नानी 'श्रीमल्लिनाथ प्रासाद प्रतिष्ठा महामहोत्सवैः सह कराविता ।।
[देवगढ़, दा. पृ. ६८]
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- ४२४] १०. बलात्कार गण-भानपुर शाखा १६५ लेखांक ४२३ - ऐतिहासिक पत्र
सं. १७८६ वर्षे माघ वदी ६ गाम कोठे देश हाडोली माहे भ. रत्नचंद्रजी काल प्राप्त हुवा जी ।।
[ भा. १३ पृ. ११३] लेखांक ४२४ - ऐतिहासिक पत्र
देवचंद्र सं. १७८७ वैशाख शुदी १३ भ. देवचंद्रजी गाम भाणपुर स्थाप्या त्यार पुठे सं. १८०५ वर्षे गाम जांबूचरे भ. देवचंद्रजी माघ वदी ७ दिने काल प्राप्त थया जी॥
पाट खाली छे पण श्रावक धर्मनी थापना दृढ राखी छे कागद लखाववोजी सं. १८०५ वर्ष जेठ वदी ८ शनौ शोभादीने ॥
( उपर्युक्त)
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बलात्कार गण-भानपुर शाखा
इस शाखा का आरम्भ भ. ज्ञानकीर्ति से हुआ। आप भ. भुवनकीर्ति के शिष्य थे जिन का वृत्तान्त ईडर शाखामें आ चुका है । आप के शिष्य ब्रह्म देवदास के लिए संवत् १५३४ की फाल्गुन शु. ५ को पुण्यास्रव कथाकोष की एक प्रति लिखी गई (ले, ३९६ )। आप के दूसरे शिष्य कुबेर ने रेणुपुर के ऋषभनाथ मन्दिर की यात्रा का उल्लेख किया है (ले. ३९७)।
ज्ञानकीर्ति के बाद रत्नकीर्ति भट्टारक हुए । आप ने संवत् १५३५ नोगाम में दीक्षा ली थी (ले. ३९९-४००)। आप के शिष्यों से अनन्तकीर्ति आदि ६३ लोग दक्षिण में गये थे जिन की परम्परा चलती रही (ले. ४०२)।
रत्नकीर्ति के बाद यशःकीर्ति नोगाम में पट्टाभिषिक्त हुए। आप का स्वर्गवास भीलोडा में संवत् १६१३ में हुआ (ले. ४०२)।
यशःकीर्ति के बाद सिंहनन्दी तथा उन के बाद गुणचन्द्र भट्टारक हुए । आप ने संवत् १६३० में सागवाडा में हर्षसाह की प्रेरणा से अनन्तनाथपूजा की रचना की (ले. ४०४ )। आप का पट्टाभिषेक सांवला गांव में तथा स्वर्गवास सागवाडा में संवत् १६५३ में हुआ ( ले. ४०५)। संवत् १६३९ की मार्गशीर्ष शु. १ को षडावश्यक की एक प्रति आप ने अपने शिष्य डुंगरा को दी थी ( ले. ४०६ ) ।
गुणचन्द्र के बाद जिनचन्द्र और उन के पश्चात् सकलचन्द्र पट्टाधीश हुए। इन के बन्धु यश की कृपा से ब्रह्म रायमल्ल ने संवत् १६६७ की आषाढ शु. ५ को ग्रीवापुर में भक्तामरवृत्ति की रचना की (ले. ४०८)। सकलचन्द्र का पट्टाभिषेक नोगाम में और स्वर्गवास सागवाडा में संवत् १६७० में हुआ (ले. ४०९)।
६७ यह धूलिया का संस्कृत रूप है। इसी का प्रसिद्ध नाम केशरियाजी है।
६८ सम्भवतः इन्ही का उल्लेख ब्रह्म नेमिदत्त और ब्रह्म श्रुतसागर ने किया है (ले. ४६६, ४७२)।
६९ यह सम्भवतः मानपुर का संस्कृत रूपान्तर है जो अमरेली जिले में है।
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बलात्कार गण-भानपुर शाखा
१६७
इन के बाद रत्नचन्द्र भट्टारक हुए। आप ने संवत् १६७४ की ज्येष्ठ कृ. ५ को जिन चौवीसी की रचना त्रिपुरा शहर में की। आप ने संवत् १६७६ में कोई मूर्ति स्थापित की तथा संवत् १६८१ में सागवाडा में पुष्पांजलि पूजा लिखी (ले. ४१०-१२ )। संवत् १६९२ की वैशाख शु. ५ को एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की (ले. ४१३ )। आप का पट्टाभिषेक संवत् १६७० में सागवाडा में हुआ उस समय अन्य शाखा के साधुओं ने उस का विरोध करने का प्रयास किया था । आप का स्वर्गवास संवत् १७०७ में नोगाम में हुआ (ले. ४१४)। आप का पट्टाभिषेक भट्टारक हेमकीर्ति ने किया था (ले. ४१५)।
रत्नचन्द्र ने संवत् १६९९ की ज्येष्ठ शु. ५ को अपने पट्ट पर हर्षचन्द्र की स्थापना कर दी थी (ले. ४१४)। ये खण्डेलवाल जाति के थे (ले. ४१६ )।
- इन के पट्ट पर शुभचन्द्र संवत् १७२३ की वैशाख कृ. ५ को घाटोल ग्राम में आरूढ हुए। इन का स्वर्गवास मेलुडा ग्राम में संवत् १७४९ की आश्विन कृ. १३ को हुआ (ले. ४१७-१८)। इन के बाद संवत् १७४८ की माघ शु. १० को मेलुडा में अमरचन्द्र का पट्टाभिषेक हुआ (ले. ४२०)। __अमरचन्द्र के पट्ट पर रत्नचंद्र आरूढ हुए । इन के उपदेश से संवत् १७७४ की माघ शु. १३ को देवगढ में रावत पृथ्वीसिंह के राज्यकाल में मल्लिनाथ मन्दिर का निर्माण संघवी वर्षावत ने किया (ले. ४२२)। रत्नचन्द्र का स्वर्गवास कोठा में संवत् १७८६की माघ कृ.६को हुआ (ले.४२३)।
रत्नचन्द्र के पट्ट पर संवत् १७८७ की वैशाख शु. १३ को भानपुर में भ. देवचन्द्र का अभिषेक हुआ। इन का स्वर्गवास जाम्बूचर ग्राम में संवत् १८०५ की माघ कृ. ७ को हुआ ।
७० संवत् १६७० में कौन हेमकीर्ति भट्टारक थे यह हमें स्पष्ट नहीं हो सका।
७१ बुन्देले छत्रसाल के ये पौत्र थे। इन के पुत्र पहाडसिंह की मृत्यु सन १७६६ में हुई थी।
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बलात्कार गण-भानपुर शाखा-काल पट
१ भुवनकीर्ति ( ईडर शाखा )
२ ज्ञानकीर्ति ( संवत् १५३४ )
३ रत्नकीर्ति ( संवत् १५३५)
४ यशःकीर्ति ( संवत् १६१३ )
५ गुणचन्द्र (संवत् १६३०-१६५३)
६ जिनचन्द्र
७ सकलचन्द्र (संवत् १६६७-१६७०) ८ रत्नचन्द्र (संवत् १६७०-१७०७) ९ हर्षचन्द्र ( संवत् १६९९) १० शुभचन्द्र (संवत् १७२३-१७४९) ११ अमरचन्द्र ( संवत् १७४८) १२ रत्नचन्द्र (संवत् १७७४-१७८६) १३ देवचन्द्र (संवत् १७८७-१८०५)
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Ach
११. बलात्कार गण - सूरत शाखा
लेखांक ४२५ - १ मूर्ति
देवेंद्रकीर्ति संवत् १४९३ शाके १३५८ वर्षे वैशाख वदि ५ गुरौ दिने मूलनक्षत्रे श्रीमूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तत्पट्टे वादिवादीन्द्र भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे श्रीदेवेंद्रकीर्तिदेवाः पौरपाटान्वये अटशाखे आहारदानदानेश्वर सिंघई लक्ष्मण तस्य भार्या अखयसिरी कुक्षिसमुत्पन्न अर्जुन ।
[ देवगढ, अ. ३ पृ. ४४५] लेखांक ४२६ - पट्टावली
त्रैविद्यविद्वज्जनशिखंडमंडनीयभवत्कायधरकमलयुगल-अवंतिदेशप्रतिष्ठोपदेशक-सप्तशतकुटुंबरत्नाकरजाति-सुश्रावकस्थापक-श्रीदेवेंद्रकीर्तिशुभमूर्तिभट्टारकाणाम् ॥
( जैन सिद्धांत १७ पृ. ५०) लेखांक ४२७ - चौवीसी मूर्ति
सं. १४९९ वर्षे वै. सुदी २ सोमे श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे मुनिदेवेंद्रकीर्ति तत्शिष्य श्रीविद्यानंदीदेवा उपदेशात् श्रीहुंबडवंश शाह खेता भार्या रुडी एतेषां मध्ये राजा भनी राणी श्रेया चतुर्विंशतिका कारापिता ।।
(सूरत, दा. पृ. ५४) लेखांक ४२८ - मेरु मूर्ति
सं. १५१३ वर्षे वैशाख सुदी १० बुधे श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीपद्मनंदी तत् सिष्य श्रीदेवेंद्रकीर्ति दीक्षिताचार्य श्रीविद्यानंदि गुरूपदेशात् गांधार वास्तव्य हुंबडज्ञातीय समस्तश्रीसंघेन कारापित मेरु शिखरा कल्याण भूयात् ।।
[ सूरत, दा. पृ. ४३]
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१७०
भट्टारक संप्रदाय
[४२९ -
लेखांक ४२९ - चौवीसी मूर्ति
सं. १५१३ वर्षे वैशाख सुदी १० बु. आचार्यश्रीदेवेंद्रकीर्तिशिष्य श्रीविद्यानंदी देवादेशात् काष्ठासंघे हुमड वंशे श्रेष्टी काना भार्या बार... खश्रेयोय श्रीजिनबिंब कारापितम् श्रीघोघा बेलातट वास्तव्य श्रीमूलसंघीय अर्जिका संयमश्रीश्रेयार्थम् ॥
( सूरत, दा. पृ. ५०) लेखांक ४३० – १ मूर्ति
संवत १५१८ वर्षे श्रीमूलसंघे . आचार्यश्रीविद्यानंदिगुरूपदेशात् सिंहपुराज्ञाति श्रेष्ठी गाई...॥
(बाळापुर, अ. ४ पृ. ५०२) लेखांक ४३१ – १ मूर्ति
(सं.) १५१८ माघ सु. ५ बुधवार देवेंद्रकीर्ति शिष्य विद्यानंदि उपदेशथी हूमडवंसे समघर भार्या जीवीना पुत्री नवकरण · ॥
(रांदेर, दा. पृ. २९) लेखांक ४३२ - चौवीसी मूर्ति
सं. १५२१ वर्षे वैसाख वदि २ श्रीमूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीविद्यानंदिगुरूपदेशात् श्रीराइकवाल ज्ञातीय 'श्रीचंद्रप्रभ चतुर्विंशति नित्यं प्रणमंति॥
(ना. ३७) लेखांक ४३३ - १ मूर्ति
(सं.) १५३७ वैसाख सुदी १२ देवेंद्रकीर्तिपदे विद्यानंदि हूमड ज्ञातीय श्रेष्ठी चांपा ॥
(रांदेर, दा. पृ. २९) लेखांक ४३४ - सुदर्शनचरित
वंदे देवेंद्रकीर्ति च सूरिवयं दयानिधिं । मद्गुरुयों विशेषेण दीक्षालक्ष्मीप्रसादकृत् ॥
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Anh
- ४३७] ११. बलात्कार गण-सूरत शाखा
तमहं भक्तितो वंदे विद्यानंदी सुसेवकः । ग्रंथसंख्या १३६२ संवत १५९१ वर्षे आषाढमासे शुक्लपक्षे लिखितं ।।
[म. प्रा. पृ. ७६० ] लेखांक ४३५ - [पंचास्तिकाय ] ____स्वस्ति श्रीमूलसंघे हुबड ज्ञातीय सा. कान्हा भार्या रामति एतेषां मध्ये सा. लखराजेन मोचयित्वा पंचास्तिकायपुस्तकं श्रीविद्यानंदिने ज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ दत्तं शुभं भवतु ।
(का. ४१२) लेखांक ४३६ - हनुमचरित्र
अजित जैनेंद्रशासनसुधारसपानपुष्टो देवेंद्रकीर्तियतिनायकनैष्ठिकात्मा । तच्छिष्यसंयमधरेण चरित्रमेतत् सृष्टं समीरणंसुतस्य महर्धिकस्य ॥ ९१ गोलाशृंगारवंशे नभसि दिनमणिवीरसिंहो विपश्चित् । भार्या वीधा प्रतीता तनुरुहविदितो ब्रह्मदीक्षाश्रितोभूत् ।। तेनोचैरेष ग्रंथः कृत इति सुतरां शैलराजस्य सूरेः । श्रीविद्यानंदिदेशात् सुकृतविधिवशात सर्वसिद्धिप्रसिद्धयै ॥ ९३ इदं श्रीशैलराजस्य चरितं दुरितापहं । रचितं भृगुकच्छे च श्रीनेमिजिनमंदिरे ॥ ९४ प्रमाणमस्य ग्रंथस्य द्विसहस्रमितं बुधैः । श्लोकानामिह मन्तव्यं हनुमचरिते शुभे ॥ ९७
(भा. प्र. पृ. ७) लेखांक ४३७ - धनकुमारचरित
गुणभद्र ___ संवत १५०१ वर्षे माघमासे शुक्लपक्षे राकायां तिथौ बुधे अद्येह भृगुकच्छपत्तने श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छांभोजदिनमणि भ. श्रीपद्मनंदिदेवास्तच्छिष्यो विख्यातकीर्तिमुनिश्रीदेवेंद्रकीर्तिदेवस्तच्छिष्यः सकलकलोद्भवमुनिश्रीविद्यानंदिदेवस्तच्छिष्यब्रह्मचारिछाहडेन स्वकर्मक्षयार्थ श्रीधनकुमारचरितं लिखापितं ॥
[म. प्रा. पृ. ७३४ ]
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१७२
भट्टारक संप्रदाय
[४३८ -
लेखांक ४३८ - ? मूर्ति ___ संवत १५०५ वर्षे श्रीमूलसंघे भ. पद्मनंदिदेवा शिष्य देवेंद्रकीर्ति तशिष्याः विद्यानंदि शिष्य ब्रह्म धर्मपाल उपदेशात् पल्लीवालज्ञातीय स. राना भार्या रानी सुत पारिसा भार्या हर्ष प्रणमंति ॥
[सिंदी, अ. ४ पृ. ५०२] लेखांक ४३९ -- पट्टावली
. तत्पट्टोदयसूर्य-आचार्यवर्य-नवविधब्रह्मचर्यपवित्र-चर्यामंदिर-राजाधिराजमहामंडलेश्वरवांग-गंग-जयसिंह - व्याघ्रनरेंद्रादिपूजितपादपद्मानां अष्टशाखा-प्राग्वाटवंशावतंसानां षड्भाषाकविचक्रवर्ति-भुवनतलव्याप्तविशदकीर्ति - विश्वविद्याप्रसादसूत्रधार - सद्ब्रह्मचारिशिष्यवरसूरिश्रीश्रुतसागरसेवितचरणसरोजानां श्रीजिनयात्राप्रासादोद्धरणोपदेशनैकजीवप्रतिबोधकानां श्रीसम्मेदगिरिचंपापुरिपावापुरीऊर्जयंतगिरीअक्षयवड आदीश्वरदीक्षासर्वसिद्धक्षेत्रकृतयात्राणां श्रीसहस्रकूटजिनबिंबोपदेशक-हरिराजकुलोद्योतकराणां श्रीविद्यानंदीपरमाराध्यस्वामिभट्टारकाणाम् ॥
(जैन सिद्धांत १७ पृ. ५१) लेखांक ४४० - मेघमाला व्रत कथा
सत्यं वाचि हृदि स्मरक्षयमतिर्मोक्षाभिलाषांतरे । श्रोत्रं साधुजनोक्तिषु प्रतिदिनं सर्वोपकारः करे ॥ यस्यानंदनिधेर्बभूव स विभुर्विद्यादिनंदी मुनिः । संसेव्यः श्रुतसागरेण विदुषा भूयात्सतां संपदे ॥ ५१
(से. १९)
लेखांक ४४१ - सप्तपरमस्थान कथा
सद्भट्टभट्टारकवर्णनीयः चेतो यतीनामभिवंदनीयः । विद्यादिनंदी गुणभृत्तदीयः सम्यग्जक्त्येष गुरुर्मदीयः ॥ १६२ मया तदादेशवशेन धीमतां प्रकाशितेयं महतां बृहत्कथा। पिबंतु तां कर्णसुधां बुधोत्तमा महानुभावाः श्रुतसागरश्रिताः ॥ १६३
(से. २०)
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-- ४४४] ११. बलात्कार गण-सूरत शाखा १७३ लेखांक ४४२ - ज्येष्ठ जिनवर कथा
आसीदसीममहिमा मुनिपभनंदी देवेंद्रकीर्तिगुररस्य पदे सदेकः । तत्पट्टविष्णुपदपूर्णशशांकमूर्तिः विद्यादिनंदिगुरुरत्र पवित्रचित्तः ॥ ७५ गुणरत्नभृतो वचोमृतात्यः स्याद्वादोर्मिसहस्रशोभितात्मा। श्रुतसागर इत्यमुष्य शिष्यः स्वाख्यानं रचयांचकार सूरिः ॥ ७६ अग्रोतकान्वयशिरोमुकुटायमानः संघाधिनाथविमलूरिति पुण्यमूर्तिः । भार्यास्य धर्ममहती बृहतीति नाम्ना सासूत सूनुमनवद्यमहेंद्रदत्तम् ।। ७७ वैराग्यभावितमनाः स जिनूहृदिष्टः श्रीमूलसंधगुणरत्नविभूषणोभूत् । देशव्रतिष्वतितरां व्रतशोभितात्मा संसारसौख्यविमुखः सुतपोनिधिर्वा । पुत्रोस्य लक्ष्मण इति प्रणतीर्गुरूणां कुर्वश्वकास्ति विदुषां धुरि वर्णनीयः । अभ्यर्थ्य कारितमिदं श्रुतसागराख्यमाख्यानकं चिरतरं शुभदं समस्तु॥७९
[से. १] लेखांक ४४३ - रविवार व्रतकथा
भट्टारकघटामध्ये यत्प्रतापो विराजते । तारास्विव रवे: श्रीदो विद्यानंदीश्वरोस्ति मे ॥ १६३ प्रमाणलक्षणच्छंदोलंकारमणिमंडितः । पंडितस्तस्य शिष्योभूत् श्रुतरत्नाकराभिधः ॥ १६४ गुरोरनुज्ञामधिगम्य धीधन: चकार संसारसमुद्रतारकं । स पार्श्वनाथव्रतसत्कथानकं सतां नितांतं श्रुतसागराभिधः ॥१६५
(से. २)
लेखांक ४४४ - चंदनषष्ठी कथा
स्वस्ति श्रीमूलसंघे भवदमरनुतः पद्मनंदी मुनींद्रः । शिष्यो देवेंद्रकीतिर्लसदमलतपा भूरिभट्टारकेज्यः ।। श्रीविद्यानंदिदेवस्तदनु मनुजराजाय॑पत्पद्मयुग्मः । तच्छिष्येणारचीदं श्रुतजलनिधिना शास्त्रमानंदहेतुः ॥ ९६ .
(से. ४)
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१७४
भट्टारक संप्रदाय
लेखांक ४४५ - आकाशपंचमी कथा
लेखांक ४४६ - पुष्पांजलि कथा
वाचां लीलावतीनां निधिरमलतपः संयमोदन्वदिंदुः । श्रीविद्यानंद सूरिर्जयति जगति नाकौकसां पूज्यपादः ॥ १०३ तस्य श्रीश्रुतसागरेण विदुषां वर्येण सौंदर्यवत् । शिष्येणारचि सत्कथानकमिदं पीयूषवर्षोपमम् ॥ १०४
[से. ६]
लेखांक ४४७ – निर्दुःख सप्तमी कथा
स्वस्ति श्रीमति मूलसंघतिलके गच्छेगिमूर्च्छच्छिवे । भारत्याः परमार्थ पंडितनुतो विद्यादिनंदी गुरुः ॥ तत्पादांबुजयुग्ममत्तमधुलिट् चक्रे न वक्राशयः । सद्वेधाः श्रुतसागरः शुभमुपाख्यानं स्तुतस्तार्किकैः ॥ ७१
सकलभुवनभारवभूषणं भव्य सेव्यः । समजनि कृतिविद्यानंदिनामा मुनींद्रः ॥ श्रुतसमुपपदाद्यः सागरस्तस्य सिद्धधै । शुचिविधिमिममेषद्योतयामास शिष्यः ॥ ४३
लेखांक ४४८ - श्रवणद्वादशी कथा
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-
[ ४४५ -
रत्नत्रय कथा
विद्यानंदिमुनींद्रचंद्रचरणांभोजातपुष्पंधयः । शब्दज्ञः श्रुतसागरो यतिवरोसौ चारु चक्रे कथाम् ॥ ४०
(से. १३)
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[९]
लेखांक ४४९
सर्वज्ञ सारगुणरत्नविभूषणोसौ विद्यादिनंदिगुरुरुद्धतर प्रसिद्धिः । शिष्येण तस्य विदुषा श्रुतसागरेण रत्नत्रयस्य सुकथा कथितात्मसिद्धये ॥ ८२
( से. १४ )
( से. १० )
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- ४५३] ११. बलात्कार गण - सूरत शाखा १७५ लेखांक ४५० - षोडशकारण कथा
श्रीमूलसंघे विबुधप्रपूज्ये श्रीकुंदकुंदान्वय उत्तमेस्मिन् । विद्यादिनंदी भगवान् बभूव स्ववृत्तसारश्रुतसारमाप्तः ॥ ६७ तत्पादभक्तः श्रुतसागराह्रो देशव्रती संयमिनां वरेण्यः । कल्याणकीर्तेर्मुहुराग्रहेण कथामिमां चार चकार सिद्धयै ।। ६८
[से. ३] लेखांक ४५१ - मुक्तावली कथा
विद्यानंदिमुनीश्वरो विजयते चारित्ररत्नाकरः ॥ ७७ .' 'तच्छिष्यः श्रुतसागरो विजयते मुक्तावलीकृद्यतिः ॥ ७८ जातो हुंबडवंशमंडनमणिः श्रीगायियाख्यः कृती। कांताशीरिति तस्य सद्गुरुमुखोद्भतेव कल्याणकृत् ॥ पुत्रोस्यां मतिसागरो मुनिरभूद् भव्यौघसंबोधकः । सोयं कारयति स्म निर्मलतपाः शास्त्रं चिरं नंदतु ॥ ७९
[से. ११] लेखांक ४५२ - मेरुपंक्ति कथा
विद्यादिनंदिगुरुरुद्धगुणोमरेंद्रसंसेवितो यतिवरःश्रुतसागरेड्यः ॥ ४३ तद्भक्ता जिनधर्मरक्तधिषणा श्रीलक्ष्मराजात्मजा । सत्पुण्यैरजितोदरे गुणवती सौवर्णिकाभूत् सुता ॥ संप्रार्थ्य श्रुतसागरं यतिवरं श्रीमरुपंक्तेः कथां । साध्वी कारयति स्म सा जिनपदांभोजालिनी नंदतु॥४४
[से. १७ लेखांक ४५३ - लक्षणपंक्ति कथा
गंधारनगरे रम्ये लखराजाजितात्मजा । श्रीराजभगिनी माता मुनीनां स्वर्णिका भवेत् ।। ३८ मृगांकश्रेष्ठिनः पुत्री वसा जीवकसंज्ञिनः ।
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भट्टारक संप्रदाय
[४५४ ढोसीतिकी सुता लोके रता सद्धर्मकर्मणि ॥ ३९ कारयामास तुग्भव्यः श्रीराजः करणश्रियः । प्रेरिको भबति स्मात्र चिरं जीयतु तत्त्रयम् ॥ ४१ देवेंद्रकीर्तिगुरुपट्टसमुद्रचंद्रो विद्यादिनंदिसुदिगंबर उत्तमश्रीः । तत्पादपद्ममधुपः श्रुतसागरोयं ब्रह्मवती तप इदं प्रकटीचकार ।। ४२
[ से. १८] लेखांक ४५४ - औदार्यचिंतामणि व्याकरण
अथ प्रणम्य सर्वज्ञं विद्यानंद्यास्पदप्रदम् ।
पूज्यपादं प्रवक्ष्यामि प्राकृतव्याकृतिं सताम् ॥ ... 'समन्तभद्रैरपि पूज्यपादैः कलंकमुक्तैरकलंकदेवैः । यदुक्तमप्राकृतमर्थसारं तत्प्राकृतं च श्रुतसागरेण ॥
(हि. १५ पृ. १५४ ) लेखांक ४५५ - तत्वत्रयप्रकाशिका
आचार्यैरिह शुद्धतत्त्वमतिभिः श्रीसिंहनंद्याह्वयैः । संप्रार्थ्य श्रुतसागरं कृतवरं भाष्यं शुभं कारितं । गद्यानां गुणवत् प्रियं गुणवतो ज्ञानार्णवस्यांतरे। विद्यानंदिगुरुप्रसादजनितं देयादमेयं सुखम् ।।
[हि. १५ पृ. २२२] लेखांक ४५६ - महाभिषेकटीका
श्रीविद्यानंदिगुरोर्बुद्धिगुरोः पादपंकजभ्रमरः । श्रीश्रुतसागर इति देशब्रतितिलकष्टीकते स्मेदं ।।
[ षट्प्राभृतादिसंग्रह, प्रस्तावना पृ. ६ ] लेखांक ४५७ - श्रुतस्कंधपूजा
सुदेवेंद्रकीर्तिश्च विद्यादिनंदी गरीयान्गुरुर्मेहंदादिप्रवंदी। तयोर्विद्धि मां मूलसंघे कुमारं श्रुतस्कंधमीडे त्रिलोकैकसारम् ॥ सम्यक्त्वसुरत्नं सद्गतयत्नं सकलजंतुकरुणाकरणम् ।
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- ४६१ ]
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११. बलात्कार गण-सूरत शाखा
श्रुतसागरमेतं भजत समेतं निखिलजने परितः शरणम् ||
१७७
( जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४१२ )
लेखांक ४५८ - पद्मावती मूर्ति
मल्लभूषण
सं. १५४४ वर्षे वैशाख शुदी ३ सोमे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे भ. श्रीविद्यानंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीमल्लीभूषण श्रीस्तंभतीर्थे हुंबड ज्ञातेय श्रेष्ठी चांपा भार्या रूपिणी तत्पुत्री श्रीआर्जिका रत्नसिरी क्षुल्लिका जिनमती श्रीविद्यानंदीदीक्षिता आर्जिका कल्याणसिरी तत्त्वल्ली अग्रोतका ज्ञातो साह देवा भार्या नारिंगदे पुत्री जिनमती नरसही कारापिता प्रणमति श्रेयार्थम् ॥
( सूरत, दा. पृ. ४३ )
लेखांक ४५९ - ( पंचास्तिकाय )
भ. श्रीविद्यानंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीमल्लिभूषणेन आचार्य श्रीअमरकीर्तये प्रदत्तं ॥
[ का. ४१२ ]
लेखांक ४६० - [सावयधम्मदोहा पंजिका ]
इति उपासकाचारे आचार्य श्री लक्ष्मीचंद्रविरचिते दोहकसूत्राणि समाप्तानि । स्वस्ति संवत् १५५५ वर्षे कार्तिक सु. १५ सोमे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे अभयविद्यानंदिपट्टे मलिभूषण तत्शिष्य पं. लक्ष्मणपठनार्थ दोहा श्रावकाचार ॥
( सावयधम्मदोहा प. पू. ११ )
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लेखांक ४६१ - पट्टावली
तत्पट्टोदयाचल बालभास्कर - प्रवरपरवादिगजयूथ केसरि-मंडपगिरिमंत्रवादसमस्याप्त चंद्रपूर्णविकटवादि - गोपाचल दुर्गमेघा कर्ष कभविकजन-सस्यामृतवाणिवर्षण- सुरेंद्रनागेंद्र मृगेंद्रादिसेवितचरणारविंदानां ग्यासदन सभामध्यप्राप्त सन्मान - पद्मावत्युपासकानां श्रीमल्लिभूषणभट्टारकचर्याणाम् ॥
( जैन सिद्धान्त १७ पृ. ५१ )
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१७८
भट्टारक संप्रदाय
[४६२ -
लेखांक ४६२ - अक्षयनिधान कथा
गछे श्रीमति मूलसंघतिलके सारस्वते विश्रुते । विद्वन्मान्यतमप्रसह्यसुगुणे स्वर्गापवर्गप्रदे । विद्यानंदिगुरुर्बभूव भविकानंदी सतां संमतः । तत्पट्टे मुनिमल्लिभूषणगुरुभट्टारको नंदतु ॥ ८७ तर्कव्याकरणप्रवीणमातिना तस्योपदेशाहितस्वांतेन श्रुतसागरेण यतिना तेनामुना निर्मितं । श्रेयोधाम निकाममक्षयनिधिस्वेष्टव्रतं धीमतां कल्याणप्रदमस्तु शास्तु मतिमानेतद्विदां संमुदे ।। ८८
(से. २२) लेखांक ४६३ - पल्यविधान कथा
तत्पादपंकजरजोरचितोत्तमांगः
श्रीमल्लिभूषणगुरुर्विदुषां वरेण्यः ।। २४० सर्वज्ञशासनमहामणिमंडितेन तस्योपदेशवशिना श्रुतसागरेण । देशव्रतिप्रभुतरेण कथेयमुक्ता सिद्धिं ददातु गुरुभक्तिविभावितेभ्यः ।। २४१ श्रीभानुभूपतिभुजासिजलप्रवाहनिर्मग्नशत्रुकुलजातततप्रभावे । सद्बुध्यहंबृहकुले बृहतीलदुर्गे श्रीभोजराज इति मंत्रिवरो बभूव ॥ २४२ भार्यास्य सा विनयदेव्यभिधा सुधौघसोद्गारवाकमलिकांतमुखी सखीव॥
सासूत पूतगुणरत्नविभूषितांगं श्रीकर्मसिंहमिति पुत्रमनूकरत्नं ।
कालं च शत्रुकुलकालमनूनपुण्यं श्रीघोघरं नतराघगिरीद्रवत्रं ।। २४४ . . 'तुर्ये च वर्यतरमंगजमत्र गंगं जाता पुरस्तदनु पुत्तलिका स्वसैषां ॥ २४५ ..'यात्रां चकार गजपंथगिरौ ससंघा ह्येतत्तपो विदधती सुदृढव्रता सा॥२४७
तुंगीगिरौ च बलभद्रमुनेः पदाब्ज,गी तथैव सुकृतं यतिभिश्वकार । श्रीमल्लिभूषणगुरुप्रवरोपदेशात् शास्त्रं व्यधापयदिदं कृतिनां हृदिष्टं ॥ २४८
[से. २१] लेखांक ४६४ - मंगलाष्टक
सिंहनंदि इत्थं श्रीजिनमंगलाष्टकमिदं श्रीमूलसंघेऽनघे
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- ४६८] ११. बलात्कार गण-सूरत शाखा १७९
श्रीभट्टारकमल्लिभूषणगुरोः शिष्येण संवर्णितम् । नित्यं ये च पठंति निर्मलधियः संप्राप्य ते संपदा सौख्यं तारतरं भजंति नितरां श्रीसिंहनंदिस्तुतं ।। १९
(म. २३) लेखांक ४६५ - माणिकस्वामी विनती
पुरे मनोरथ जगि सार कर जोडि गुरु सिंहनंदि भणिए । तेहनि पुण्य अपार भणे भणावि भाव धरिए ॥ १४
(म. ५९) लेखांक ४६६ - आराधना कथाकोश
विद्यानंदिगुरुप्रपट्टकमलोल्लासप्रदो भास्करः ।
श्रीभट्टारकमल्लिभूषणगुरुर्भूयात् सतां शर्मणे ॥ . • ' 'कुर्याच्छम सतां प्रमोदजनकः श्रीसिंहनंदी गुरुः । ' ' 'जीयान्मे सूरिवर्यो व्रतनिचयलसत्पुण्यपण्यः श्रुताब्धिः ।
तेषां पादपयोजयुग्मकृपया श्रीजैनसूत्रोचिताः सम्यग्दर्शनबोधवृत्ततपसामाराधनासत्कथाः । भव्यानां वरशान्तिकीर्तिविलसत्कीर्तिप्रमोदं श्रियं कुर्युः संरचिता विशुद्धशुभदाः श्रीनेमिदत्तेन वै ।।
(जैनमित्र कार्यालय, बम्बई १९१५ ) लेखांक ४६७ - अंतरिक्ष पार्श्वनाथ पूजा
अयं श्रीपुरपार्श्वनाथचरणांभोजद्वयायोत्तम श्रीभट्टारकमल्लिभूषणगुरोः शिष्येण संवर्णितं । तोयाद्यैर्वरनेमिदत्तयतिना स्वर्णादिपात्रस्थितं भक्त्या पंडितराघवस्य वचसा कर्मक्षयार्थी ददे ।।
(म. ५६) लेखांक ४६८ - [ नागकुमारचरित ]
लक्ष्मीचंद्र संवत् १५५६ वर्षे चैत्र शुदि १ शनात्रोह श्रीघनौघद्रंग श्रीजिन
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भट्टारक संप्रदाय [४६८ - चैत्यालये श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीपद्मनंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीविद्यानंदिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीमल्लिभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीचंद्रोपदेशात् हंसपत्तने श्रेहादा एतेषां श्रीसांगणकेन लिखापितं ॥
( प्रस्तावना पृ. १३, कारंजा जैन सीरीज १९३३ ) लेखांक ४६९ - [ महापुराण-पुष्पदंत ]
स्वस्ति श्रीसंवत् १५७५ शाके १४४१ प्र. दक्षणायने ग्रीष्मऋतौ ष्ट वदि ७ रवौ घोघामंदिरे श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीमत्कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीमल्लिभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीचंद्र तच्छिष्य मुनिश्रीनेमिचंद्र दसा हूंबड ज्ञातीय गांधी श्रीपति तेषां मध्ये बा. सभू तया लिखाप्य प्रदत्तमिदं आदिपुराणशास्त्र मुनिश्रीनेमिचंद्रेभ्यः ।।
(प्रस्तावना पृ. १०, माणिकचंद ग्रंथमाला, बम्बई ) लेखांक ४७० - (महाभिषेक टीका) ___संवत १५८२ वर्षे चैत्र मासे शुक्लपक्षे पंचम्यां तिथौ रवौ श्रीआदिजिनचैत्यालये श्रीमूलसंघे भ. श्रीमल्लिभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीचंद्रदेवाः तेषां शिष्यवरब्रह्म श्रीज्ञानसागरपठनार्थ ॥ आर्या श्रीविमलश्री चेली भ. लक्ष्मीचंद्रदीक्षिता विनयश्रिया स्वयं लिखित्वा प्रदत्तं महाभिषेकभाष्यं । शुभं भवतु ॥
(षट्प्राभृतादि संग्रह प्रस्तावना पृ. ७ ) लेखांक ४७१ - [ सुदर्शनचरित-नयनंदि]
संवत् १६०५ वर्षे आषाढ वदि १० शुक्रे बलात्कारगणे श्रीलक्ष्मीचंद्राणां शिष्य श्रीसकलकीर्तिना स्वपरोपकाराय लिखितं ।
(म. प्रा. ७५९) लेखांक ४७२ - यशस्तिलक चंद्रिका
इति श्रीपद्मनंदि-देवेंद्रकीर्ति-विद्यानंदि-मल्लिभूषणाम्नायेन भ. श्रीमल्लि
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-- ४७५] ११. बलात्कार गण- सूरत शाखा भूषणगुरुपरमाभीष्टभ्रात्रा गुर्जरदेशसिंहासन-भ.-श्रीलक्ष्मीचंद्रकाभिमतेन मालवदेश-भ.-श्रीसिंहनंदिप्रार्थनया यतिश्रीसिद्धांतसागरव्याख्याकृतिनिमित्तं नवनवतिमहावादिस्याद्वादलब्धविजयेन . तर्कव्याकरणछंदोलंकारसिद्धांतसाहित्यादिशास्त्रनिपुणमतिना प्राकृतव्याकरणाद्यनेकशास्त्रचंचुना सूरिश्रीश्रुतसागरेण विरचितायां यशस्तिलकचंद्रिकाभिधानायां यशोधरमहाराजचरितचम्पूमहाकाव्यटीकायां यशोधरमहाराजलक्ष्मीविनोदवर्णनं नाम तृतीयाश्वासचंद्रिका परिसमाप्ता ॥
(निर्णयसागर प्रेस, बम्बई १९१६) लेखांक ४७३ - सहस्रनाम टीका श्रीपद्मनंदिपरमात्मपरः पवित्री देवेंद्रकीर्तिरथ साधुजनाभिवंद्यः । विद्यादिनंदिवरसूरिरनल्मबोध: श्रीमल्लिभूषण इतोस्तु च मंगलं मे ॥ अदः पट्टे भट्टादिकमतघटाघट्टनपटुः सुधीलक्ष्मीचंद्रश्चरणचतुरोसौ विजयते ॥ आलंबनं सुविदुषां हृदयांबुजानां आनंदनं मुनिजनस्य विमुक्तिहेतोः । सट्टीकनं विविधशास्त्रविचारचारु चेतश्चमत्कृतिकृतं श्रुतसागरेण ॥
(हि. १५ पृ. २२२ ) लेखांक ४७४ - तत्त्वार्थवृत्ति ___...श्रीमद्देवेंद्रकीर्तिभट्टारकप्रशिष्येण शिष्येण च सकलविद्वज्जनविहितचरणसेवस्य विद्यानंदिदेवस्य संछर्दितमिध्यामतदुर्गरेण श्रुतसागरेण सूरिणा विरचितायां श्लोकवार्तिकसर्वार्थसिद्धि - न्यायकुमुदचंद्रोदय - प्रमेयकमलमातंड - राजवार्तिक-प्रचंडाष्टसहस्री- प्रभृतिग्रंथसंदर्भनिर्भरावलोकनबुद्धिविराजितायां तत्त्वार्थटीकायां दशमोध्यायः ।।
( भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९४९) लेखांक ४७५ - शांतिनाथ बृहत्पूजा-शांतिदास
तद्विष्टरेतिविख्यातो विद्यानंदी महायतिः । तस्य शिष्यवरो योगी मल्लिभूषणः शीलवान् ॥ तस्यासने लक्ष्मीचंद्रो ख्यातकीर्तिदिगंतरे । अहीरदेशसर्वेपि मुल्हेरपुरपट्टके ।।
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१८२
भट्टारक संप्रदाय
दयावान् श्रीदयाचंद्रो दैगंबरो जितेंद्रियः । स्वात्मज्ञानी महाध्यानी तस्य पंचामनासने || मया श्रुत्वा गुरुपार्श्वे हास्यहेतुं निवेदयन् । ब्रह्मश्रीजिनदासेन आश्वासनं ददौ मम || 'पूज्यपादकृतं स्तोत्रं श्रुतसिंधुकृताष्टकं । आशाधरोक्तमवगाह्य प्रथमांतं मया कृतं ॥
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लेखांक ४७७ - बोध सताणू
लेखांक ४७८
लेखांक ४७६ - पट्टावली
तत्पट्टकुमुदवन विकाशन शरत्संपूर्णचंद्राणां महामंडलेश्वर-भैरवरायमल्लिराय-देवराय- बंगराय - प्रमुखाष्टादशदेशन रपतिपूजितचरणकमल-श्रुतसागरपारंगत-वादवादीश्वर - राजगुरु - वसुंधराचार्य - भट्टारकपदप्राप्तश्रीवीर - सेनश्रीविशाल कीर्तिप्रमुख शिष्यवरसमाराधितपादपद्मानां श्रीमल्लक्ष्मीचंद्रपरमभट्टारकगुरूणाम् ॥
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सूरिश्रीविद्यानंदी जयो श्रीमल्लिभूषण मुनिचंद | तस पटि महिमानिलो गुरु श्रीलक्ष्मीचंद ॥ ९६ ॥ तेह कुलकमल दिवसपति जपति यति वीरचंद | सुणता भणता भावता पामी परमानंद ॥ ९७ ॥
-
लेखांक ४७९ - पट्टावली
[ ४७५ -
( म. १ )
[ जैन सिद्धांत १७ पृ. ५१] वीरचंद्र
चित्तनिरोधकथा
सूरि श्रीमल्लिभूषण जयो जयो श्रीलक्ष्मीचंद्र ॥ १४ ॥ तास वंश विद्यानिल लाड नाति शृंगार । श्रीवरचंद्र सूरी भणी चित्तनिरोध विचार ।। १५ ।।
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( म. ६४ )
( ना. ६ )
तद्वंशमंडन कंदर्पदलनविश्वलोकहृदयरंजन- महाव्रतिपुरंदराणां नव
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- ४८३] ११. बलात्कार गण-सूरत शाखा १८३ सहस्रप्रमुखदेशाधिपतिराजाधिराज-श्रीअर्जुनजीयराजसभामध्यप्राप्तसन्मानानां षोडशवर्षपर्यन्तशाकपाकपक्वान्नशाल्योदनादिसर्पिःप्रभृतिसरसाहारपरिवर्जितानां .... सकलमूलोत्तरगुणगणमणिमंडितविबुधवरश्रीवीरचंद्रभट्टारकाणाम् ।।
(जैन सिद्धांत १७ पृ. ५१) लेखांक ४८० – १ मूर्ति
ज्ञानभूषण संवत १६०० वर्षे माघ वदि ७ सोमे 'भ. श्रीवीरचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ.श्रीज्ञानभूषण हूंबड ज्ञातीय भावजा भा. बाई तयो पोमासा नित्यं प्रणमंति॥
( बाळापुर, अ. ४ प. ५०३) लेखांक ४८१ - सिद्धांतसारभाष्य
श्रीसर्वनं प्रणम्यादौ लक्ष्मीवीरेंदुसेवितम् । भाष्यं सिद्धांतसारस्य वक्ष्ये ज्ञानसुभूषणम् ॥
[सिद्धांतसारादिसंग्रह, माणिकचंद्र ग्रंथमाला, बम्बई ] लेखांक ४८२ - [पंचास्तिकाय ]
भ. श्रीमल्लिभूषणाः। भ. श्रीलक्ष्मीचंद्राः । भ. श्रीवीरचंद्राः। भ. श्रीज्ञानभूषणानामिदं पुस्तकं ॥
( का. ४१२)
लेखांक ४८३ - कर्मकाण्ड टीका
मूलसंघे महासाधुलक्ष्मीचंद्रो यतीस्वरः । तस्य पादस्य वीरेंदुविबुद्धा विश्ववेदितः ।। तदन्वये दयांभोधि ज्ञानभूषो गुणाकरः । टीकां हि कर्मकाण्डस्य चक्रे सुमतिकीर्तियुक् ।।
(ना. १०)
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१८४ भट्टारक संप्रदाय
[४८४ - लेखांक ४८४ - ( गणितसारसंग्रह) ___ स्वस्तिश्रीसंवत् १६१६ वर्षे कार्तिक सुदि ३ गुरौ श्रीगंधारशुभस्थाने श्रीमदादिजिनचैत्यालये श्रीमूलसंघे...भ. श्रीवीरचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीज्ञानभूषणदेवाः तदन्वये आचार्यसुमतिकीर्तेरुपदेशात् श्रीहुंब (ड) ज्ञातीय सोनी सांतू 'प्रदत्तं ॥
(का. ६४) लेखांक ४८५ - चौरासी लक्ष योनि विनती
श्रीमूलसंघ महंत संत गुरु लक्ष्मीचंद। श्रीवीरचंद विबुधवृंद ज्ञानभूषण मुनिंद ॥ जिनवर विनति जे पढे मन धरि आनंद । भुगति मुगति ते लहे जहां छे परमानंद ॥ सुमतिकीरति भावे भणए ध्यायो जिनवर देव । संसारमाहि नवि अवतो पाम्यो सिवपद हेव ॥ २३ ॥
( म. ६५) लेखांक ४८६ - पट्टावली
अनेकदेशनरनाथनरपतितुरगपतिगजपतियवनाधीशसभामध्यसंप्राप्तसन्मानश्रीनेमिनाथतीर्थकरकल्याणिकपवित्रश्रीऊर्जयंतशत्रुजय-तुंगीगिरि-चूलगिर्यादि-सिद्धक्षेत्रयात्रापवित्रीकृतचरणानां · · · सकलसिद्धांतवेदिनिग्रंथाचार्यवर्यशिष्यश्रीसुमतिकीर्ति- स्वदेशविख्यातशुभमूर्तिश्रीरत्नभूषणप्रमुखसूरिपाठकसाधुसंसेवितचरणसरोजानां । भट्टारकश्रीज्ञानभूषणगुरूणाम् ।।
[जैन सिद्धान्त १७ पृ. ५२ ]
प्रभाचंद्र
लेखांक ४८७ - त्रेपनक्रिया विनती
विद्यानंदि गुरु गुण निलए मल्लिभूषण देव । लक्ष्मीचंद्र सूरि ललित अंगकरि सहुजन सेव ।।
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- ४८९] ११. बलात्कार गण-सूरत शाखा
१८५ वीरचंद्र विद्याविलास चंद्रवदन मुनींद्र । ज्ञानभूषण गणधर समान दीठे होइए आनंद ।। प्रभाचंद्र सूरि एम कहेए जिनसासनी सिनगार । ए वीनती भणे सुणे तेह घरि जयजयकार ॥९॥
(म. ६० ) लेखांक ४८८ - धर्मपरीक्षा रास
लक्ष्मीचंद्र श्रीगुरु नमू दीक्षादायक एह । वीरचंद्र बंदू सदा सीक्षादायक तेह ।। तस पट्टे पट्टोधर ज्ञानभूषण गुरुराय । आचारिज पद आपयु तेहना प्रणम् पाय ।। तेह कुल कमल दिवसपति प्रभाचंद्र यतिराय । गुरु गछपति प्रतपो घणू मेरु महीधर काय ॥ सुमतिकीर्ति सुरिवरे रच्यो धर्मपरीक्षा रास । शास्त्र घणा जोई करी कीधो बहू प्रकास ॥ रत्नभूषण राय रंजणो भंजणो मिथ्यामार्ग । जिनभवनादिक उद्धरे करये बहुविध त्याग । से–जे उद्धर कियो शांतिनाथ प्रासाद । दिगंबर धर्म प्रगट कियो सेतंबरसु करि विवाद ।। महुआ करि श्रावक भला धना आदे उपदेस । बहु प्रेरे प्रारंभियो रच्यौ तहां लवलेस ॥ पंडित हेमे प्रेया घणू वणायगने वीरदास । हासोट नगरे पूरो हुवो धर्मपरीक्षा रास ।। संवत सोल पंचवीसमे मार्गसिर सुदि बीज वार । रास रुडो रलियामणो पूर्ण किधो छे सार ।
[ना. ३४] लेखांक ४८९ - त्रैलोक्यसार रास
श्रीमूलसंघे गुरुलक्ष्मीचंद तसु पाटि वीरचंद मुनींद । ज्ञानभूषण तसु पाटि चंग प्रभाचंद्र वंदो मनरंग ॥ २१७ ॥
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१८६
भट्टारक संप्रदाय
[४८९ -
सुमतिकीरति वर कहि सार त्रैलोक्यसार धर्मध्यान विचार । जे भणे गणे ते सुखिया थाय रयणभूषण धरि मुगति जाय ॥२१८॥ .. 'संवत् सोलनी सत्तावीस माघ शुक्लनी बारस दीस। कोदादि रचीयो ए रास भावि भगती भावो भास ॥ २२१ ॥
[ना. ९७] लेखांक ४९० - पट्टावली
दिल्लिगौर्जरादिदेशसिंहासनाधीश्वराणाम् श्रीज्ञानभूषणसरोजचंचरीकभट्टारकनीप्रभाचंद्रगुरूणाम् ।।
[ जैनसिद्धान्त १७ पृ. ५२] लेखांक ४९१ - [ श्रीपालचरित्र ]
वादिचंद्र संवत १६३७ वर्षे वैशाख वदि ११ सोमे अदेह श्रीकोदादाशुभस्थाने श्रीशीतलनाथचैत्यालये श्रीमूलसंघे 'भ.श्रीज्ञानभूषणदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीप्रभाचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीवादिचंद्रः तेषां मध्ये उपाध्याय धर्मकीर्ति स्वकर्मक्षयार्थ लेखि ॥
[ बडौदा, दा. पृ. ३९] लेखांक ४९२ - पार्श्वपुराण
सांख्यः शिष्यति सर्वथैव क नं वैशेषिको रकति । यस्य ज्ञानकृपाणतो विजयतां सोयं प्रभाचंद्रमाः ॥ तत्पट्टमंडनं सूरिर्वादिचंद्रः व्यरीरचत् । पुराणमेतत् पार्श्वस्य वादिवृंदशिरोमणिः ॥ शून्याब्दे रसाजांके वर्षे पक्षे समुज्वले । कार्तिके मासि पंचम्यां वाल्मीके नगरे मुदा ।
(हि. ५ कि. ९) लेखांक ४९३ - ज्ञानसूर्योदय नाटक
मूलसंधे समासाद्य ज्ञानभूषं बुधोत्तमाः । दुस्तरं हि भवांभोधि सुतरं मन्वते हृदि ।। १॥
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११. बलात्कार गण-सूरत शाखा १८७ तत्पट्टामलभूषणं समभवदैगंबरीये मते । चंचबईकरः सभातिचतुरः श्रीमत्प्रभाचंद्रमाः ॥ तत्पट्टेजनि वादिवृन्दतिलकः श्रीवादिचंद्रो यतिस्तेनायं व्यरचि प्रबोधतरणिर्भव्याब्जसंबोधनः ।। २ ॥ वसुवेदरसाब्जांके वर्षे माघे सिताष्टमी दिवसे । श्रीमन्मधूकनगरे सिद्धोयं बोधसंरम्भः ॥ ३ ॥
( जैन साहित्य और इतिहास पृ. २६८ )
लेखांक ४९४ - श्रीपाल आख्यान
प्रगट पाट त अनुक्रमे मानु ज्ञानभूषण ज्ञानवंतजी। तस पद कमल भ्रमर अविचल जस प्रभाचंद्र जयवंतजी ॥ जगमोहन पाटे उदयो वादीचंद्र गुणालजी। नवरस गीते जेणे गायो चक्रवर्ति श्रीपालजी ॥ संवत सोल एकावनावर्षे कीधो ये परबंधजी।
[जैन साहित्य और इतिहास पृ. २७० ] लेखांक ४९५ - यशोधरचरित
तत्पदृविशदख्यातिर्वादिवृन्दमतल्लिका। कथामेनां दयासिद्धयै वादिचंद्रो व्यरीरचत् ।। ८०॥ अंकलेश्वरसुग्रामे श्रीचिंतामणिमंदिरे। सप्तपंचरसाब्जांके वर्षेकारि सुशास्त्रकम् ॥ ८१ ॥
(उपर्युक्त पृ. ७१२).
लेखांक ४९६ - पार्श्वनाथ छंद
मव्हा नयरे तोरो वास श्रीसंघनी तू पूरे आस ॥ ७२ ॥ ...झानभूषण गुरु ज्ञानभंडार सरस्वतीगछमाहे शृंगार ॥ ७४ ॥ तस पाटे दीठे आनंद प्रभा विराजित प्रभासुचंद्र । वादिचंद्र वर सुधा सुलीह
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१८८ भट्टारक संप्रदाय
[४९६ - ते गुरु बोले यह सुछंद सुनता भनता परमानंद ।। ७५ ॥
( ना. ७) लेखांक ४९७ - (पंचस्तवनावचूरि)
श्रीसंवत १६६४ वर्षे श्रीसूर्यपुरे श्रीमदादिजिनचैत्यालये मूलसंघे भ. श्रीज्ञानभूषण भ. श्रीप्रभाचंद्र भ. श्रीवादिचंद्राः तदानाये आचार्यश्रीकमलकीर्तिस्तच्छिष्य ब. श्रीविद्यासागरस्येदं पुस्तकं ॥
[ ना. ४८ ] लेखांक ४९८ - पट्टावली
....महावादवादीश्वर-राजगुरु-वसुंधराचार्यवर्यतुंबडकुलशृंगारहार भ. श्रीमद्वादिचंद्रभट्टारकाणाम् ॥
(जैन सिद्धांत १७ पृ. ५२) लेखांक ४९९ - चंद्रप्रभ मूर्ति
महीचंद्र ___ संवत् १६७९ वर्षे शाके १५५३ श्रीमूलसंघे नंदीसंघे सरस्वतीगच्छेभ. श्रीवादिचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीमहीचंद्रोपदेशात् हूंबडजातीय वीऊल वास्तव्य मातर गोत्रे सं. श्रीवर्धमान... ।
( सूरत, दा. पृ. ४२ ) लेखांक ५०० - सम्यग्नान यंत्र
सं. १६८५ वर्षे माघ सुदी ५ श्रीमूलसंघे कुंदकुंदाचार्यान्वये श्रीवादी. चंद्रस्तत्पट्टे भ. श्रीमहीचंद्रोपदेशात् सिंघपुरा वंशे संघवी वल्लभजी सं. हीरजी ज्ञानं प्रणमति ।
( सूरत, दा. पृ. ४४) लेखांक ५०१ - षोडशकारण पूजा
मेरुचंद्र मूलसंघ मंडण वरहंसह महीचंद मुणिजण सुपसण्णह । मेरुचंद इय भासइ जिणथुइ रयण जीवयणे किय णिञ्चलमइ॥
(ना. ८३)
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- ५०४] ११. बलात्कार गण-सूरत शाखा लेखांक ५०२ - पद्मावती मूर्ति
___ सं. १७२२ जेठ सुदी २ मूलसंघे भ. श्रीमेरुचंद्रपट्टे साहश्रीसिंहपुरा ज्ञातीय प्रेम जीवाभाईसुत भ. श्रीमहीचंद्रशिष्य ब्र. जयसागर प्रणमति ॥
( सूरत, दा. पृ. ५६) लेखांक ५०३ - सीताहरण
मूलसंघे सरस्वतीवर गछे बलात्कारगण सार जी । गंधार नयरे प्रत्यक्ष अतिशय कलियुगे छे मनोहार जी ॥ ...प्रभाचंद्र गोर तनेया वानी अमिय रसाल जी । वादीचंद्र वादी बहु जीत्या घट सरस्वती गुनमाल जी ॥ महीचंद्र मुनि जनमन मोहन वानी जेह विस्तार जी। परवादीना मान मुकाव्या गर्व न करे लगार जी ।। मेरुचंद्र तस पाटे सोहे मोह भवियन मन जी। व्याख्यान वानि अमिय रसाली सांभलो एके मन जी ॥ गोरमहीचंद्र शिष्य जयसागरे रच्यू सीताहरण मनोहार जी। ...संवत सत्तर बत्तीसा वरसै वैशाख सुद्ध बीज सार जी। बुधवारे परिपूर्णज रचयु सूरत नयर मझार जी ॥ आदिजिनेश्वर तणे प्रासादे पद्मावती पसाय जी । सांभलता गाताय सहुने मन माहे आनंद थाय जी॥
परिच्छेद ६ (ना. २५)
लेखांक ५०४ - अनिरुद्धहरण
तेह पाटे महीचंद्र भट्टारक दीठे जन मन मोहे जी। मेरुचंद्र तस पाटे जाणो वाणी अमी रस सोहे जी ॥ गोर महीचंद्र सिष्य एम बोले जयसागर ब्रह्मचारि जी। ...संवत सत्तर बत्तीस माहे मागसिर मास भृगुवार जी। सुदि तेरसि रचना रची पूर्ण ग्रंथ थयो सार जी ॥ सुरत नयर माहे तम्हे जाणो आदि जिन गेह सार जी ।
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भट्टारक संप्रदाय
पद्मावती मुझ प्रसन्न थई ने नित्य करो जयकार जी ।
लेखांक ५०५ - सगरचरित्र
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[ ५०४ -
( ना. ६)
महीचंद्र सूरिवर तेह पाटे जेन्ह जाने छे देस विदेस रे । ब्रह्म जयसागर इम कहे गावे सगरनो रास मनोहार रे । कांई संवत सप्तोत्तरो ते सार कांई माघ नवमी बुधवार रे । अपर पछे रचना रची काई गावे सहु नर नार रे ॥ घोघा नयर सुहावनो श्रीआदीसुरने दरबार रे । भने नावे सांभले काई तेह घरे जयकार रे ॥
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[ ना. ६]
लेखांक ५०६ - पट्टावली
.... लघुशाखाहुंबडकुलशृंगारहा र दिल्ली गुर्जरसिंहासनाधीश बलात्कारगणबिरुदावलीविराजमान भ. श्रीमेरुचंद्रगुरूणाम् ॥
[ जैन सिद्धांत १७ पृ. ५२ ]
लेखांक ५०७ - आदिनाथमूर्ति
विद्यानंदि
श्रीजिनो जयति । स्वस्ति श्री १८०५ वर्षे शाके १६७५ प्रवर्तमाने वैसाखमासे शुक्लपक्षे चंद्रवासरे गुर्जरदेशे सूरतबंदरे जुग्यादिचैत्यालये श्रीमूलसंघे नंदीसंघे... भ. श्रीमही चंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीमेरुचंद्र देवाः तत्पट्टे भ. श्रीजिनचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीविद्यानंदीगुरूपदेशात् सूरतवास्तव्य रायकवाल जातीय धर्मधुरंधर... ॥
[ सूरत, दा. पृ. ३१]
लेखांक ५०८ - ( आराधना - सकलकीर्ति )
संवत १८२२ मिति मार्गसीर सुदि ८ बुधवारे नागपुरमध्ये श्रीमूलसंघे भ. श्रीविद्यानंदीजी तच्छिष्य ब्रह्मजिनदासेन लखितं ॥
[ ना. ९४ ]
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- ५१३] ११. बलात्कार गण-सूरत शाखा लेखांक ५०९ - ( गणितसार संग्रह )
देवेंद्रकीर्ति संवत १८४२ मिति वैसाख सुदि ११ भ. श्रीविद्याभूषण इदं गणित छत्तिसी भ. श्रीदेवेंद्रकीर्तिजी प्रदत्तं शुभं भूयात् ।
(का.६४) लेखांक ५१० -- पट्टावली
श्रीविद्यानंदीपट्टोधरधीराणां श्रीमत्खंडेलवालज्ञातीयशुद्धवंशोभूवानाम् .."भट्टारकोत्तंसश्रीमद्देवेंद्रकीर्तिभट्टारकाणां तपोराज्याभ्युदयार्थ भन्यजनैः क्रियमाणे श्रीजिननाथाभिषेके सर्वे जनाः सावधाना भवंतु । इति श्रीनंदिसंघविरुदावली श्रीसुमतिकीर्तिकृता संपूर्णा ॥
(जैनसिद्धांत १७ पृ. ५३) लेखांक ५११ - पट्टावली
विद्याभूषण खंडिल्यान्वयशृंगारहाराणां देवेंद्रकीर्तिपट्टधारसुरिविरदावलिसमूहविराजमान श्रीमद्विद्याभूषणभट्टारकाणाम् ।
[ जैनमित्र १९-६-१९२४ ] लेखांक ५१२ - पद्मावती मूर्ति
धर्मचंद्र ___ सं. १८९९ वैशाख सुद १२ गुरुवार श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलाकारगणे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीविद्यानंदि तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीविद्याभूषणजी तत्पट्टे भ. श्रीधर्मचंद्र तत्गुरुभ्राता पंडित भाणचंद उपदेशात् सा. वेणिलाल केसुरदास तत्सुता बाई इछाकोर नित्यं प्रणमति ।
[ सूरत दा. पृ. ४३ ] लेखांक ५१३ - पट्टावली ____ भट्टारकवरेण्यविद्याभूषणविद्यमानदत्तनंदिसंघपदानां गछाधिराजभट्टारकवरेण्यपरमाराध्यपरमपूज्यश्रीभट्टारकधर्मचंद्राणां तपोराज्याभ्युदयार्थ
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१९२ भट्टारक संप्रदाय
[५१३ - भव्यजनैः क्रियमाणे श्रीजिननाथाभिषेके सर्वे जनाः सावधाना भवतु ।
[जैनमित्र, १९-६-१९२४ ] लेखांक ५१४ - विंध्यगिरि
अभयचंद्र संवत् १५४८ वरुषे चैत्र वदि १४ दने भ. श्री. अभयचंद्रकस्य शिष्य ब्रह्म धर्मरुचि ब्रह्म गुणसागर पं. की का यात्रा सफल ।
(जैन शिलालेख संग्रह भा. १ पृ. ३३४ ) लेखांक ५१५ - पद्मप्रभपूजा
जे नर निर्मल जे कुसुमांजलि मन वच काया सुद्ध करी । श्रीअभयचंद कहे निश्चय लहिये स्वर्ग राज कैवल्य पुरी ।
(म. ५६) लेखांक ५१६ - ( गोमटसार टीका)
निम्रन्थाचार्यवर्येण त्रैविद्यचक्रवर्तिना। संशोध्याभयचंद्रेणालेखि प्रथमपुस्तकः ॥
( अ. ४ पृ. ११६) लेखांक ५१७ - षोडशकारण पूजा
अभयनंदि सिरिपंकजिणंदो सिरिदेविदो विज्जानंदी मल्लिमुनी । सिरि लच्छीचंदो अभयचंदो अभयनंदि सुमति द्विगुणी ॥
(म. ३) लेखांक ५१८ - दशलक्षण पूजा
ब्रह्मचर्य सुव्रत पर ब्राह्मी सुंदरी प्रथम वृषभ जिन सुतारक । श्रीअभयनंदिगुरु सुशील सुसागर सुमतिसागर जिनधर्मधर ।।
(म. ३)
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- ५२२] ११. बलात्कार गण-सूरत शाखा लेखांक ५१९ - जंबूद्वीप जयमाला
अभयचंद्र रूपवंत गुणी अभयनंदि गुणधार । श्रीसुमतिसागर देवेंद्र भणिया त्रिभुवनतिलक जयवंत ॥ ५२ ॥
[म. ३] लेखांक ५२० - व्रत जयमाला
जय जय जिन तारन स्वामी नाम पूजा भुवि मुक्ति कर । श्रीअभयनंदिभयवारण संकर सुमतिसागर जिनधर्मधर ।। २२ ।।
[म. ३ ] लेखांक ५२१ -- तीर्थ जयमाला
जय परमेश्वर बोधजिनेश्वर अभयनंदि मुनिवर शरणं । जय कर्मविदारण भवभयवारण सुमतिसागर तव गुण-चरणं ॥२०॥
[म. ३] लेखांक ५२२ - महावीरमूर्ति
रत्नकीर्ति सं. १६६२ वर्षे वैसाख वदी २ शुभदिने श्रीमूलसंघे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्रीकुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्रीअभयचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीअभयनंद तच्छिष्य आचार्यश्रीरत्नकीर्ति तस्य शिष्याणी बाई वीरमती नित्यं प्रणमति श्रीमहावीरम् ।
( भा. प्र. पृ. १४)
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बलात्कार गण - सूरत शाखा इस शाखा का आरम्भ भ. देवेन्द्रकीर्ति से हुआ। आप भ. पद्मनन्दी के शिष्य थे जिन का वृत्तान्त उत्तर शाखा में आ चुका है। आप ने संवत् १४९३ की वैशाख कृ. ५ को एक मूर्ति स्थापित की ( ले. ४२५)। आप ने उज्जैन के प्रान्त में प्रतिष्ठाएं करवाई तथा सातसौ घरों की रत्नाकर जाति की स्थापना की (ले. ४२६ ) । आप के शिष्य त्रिभुवनकीर्ति से जेरहट शाखा का आरम्भ हुआ।
देवेन्द्रकीर्ति के पट्टशिष्य विद्यानन्दी हुए । आप ने संवत् १४९९ की वैशाख शु. २ को एक चौवीसी मूर्ति, संवत् १५१३ की वैशाख शु. १० को एक मेरु तथा एक चौवीसी मूर्ति, संवत् १५१८ की माघ शु. ५ को दो मूर्तियां, संवत् १५२१ की वैशाख कृ. २ को एक चौबीसी मूर्ति तथा संवत् १५३७ की वैशाख शु. १२ को एक अन्य मूर्ति स्थापित की (ले. ४२७-३३ ) । संवत् १५१३ की चौवीसी मूर्ति आर्यिका संयमश्री के लिए घोघा में प्रतिष्ठित की गई थी।
विद्यानन्दी ने सुदर्शनचरित नामक संस्कृत ग्रन्थ लिखा (ले. ४३४)। साह लखराज ने पंचास्तिकाय की एक प्रति खरीद कर इन्हें अर्पित की (ले. ४३५)। इन के शिष्य ब्रह्म अजित ने भडौच में हनुमच्चरित की रचना की (ले. ४३६)। इन के अन्य शिष्य छाहड ने संवत् १५९१ में भडौच में धनकुमारचरित की एक प्रति लिखी (ले. ४३७ ) । इन के तीसरे शिष्य ब्रह्म धर्मपाल ने संवत् १५०५ में एक मूर्ति स्थापित की (ले. ४३८)
पट्टावली के अनुसार राजा वज्रांग, गंग जयसिंह, तथा व्याघ्रनरेन्द्र ने आप का सन्मान किया । आप अठसखे परवार जाति के थे । हरिराज
७२ विद्यानंदी के अन्य उल्लेख देखिए (ले. २५७) तथा (ले. ३५६), नोट ४३ तथा (ले. ५२३).
७३ वज्रांग और गंग जयसिंह कर्णाटक के स्थानीय राजा रहे होंगे । इन का ठीक राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सका । व्याघनरेन्द्र सम्भवतः किसी वाघेल वंशीय राजा का संस्कृत रूपान्तर है।
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Achar
भट्टारक-संप्रदाय
21
M
AHARAJ
सामान
सूरत के भ. विद्यानन्दि ( प्रथम ) की शिप्या आर्यिका जिनमती की मूर्ति ( सूरत )
संदर्भ-पृष्ठ १९५
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Achar
भट्टारक-संप्रदाय
Ariananews
Jaesence
A
LINCOMDORCHANAISIOHD
।
काष्ठासंघ- नंदितटगच्छ के भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति
( सूरत - संवत् १७४४-७३ ) ( संवत् १७४७ के हस्तलिखित के चित्र की अनुकृति )
संदर्भ-पृष्ठ २९२
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१९५
बलात्कार गण-सूरत शाखा के कुल को आप ने उज्ज्वल किया । सम्मेदशिखर, चम्पापुर, पावापुर, गिरनार, प्रयाग आदि क्षेत्रों की आप ने वंदना की, तथा सहस्रकूट बिम्ब स्थापित किया । श्रुतसागर आप के मुख्य शिष्य थे (ले. ४३९)।
श्रुतसागर सूरि ने महेन्द्रदत्त के पुत्र लक्ष्मण की प्रार्थना पर ज्येष्ठ जिनवर कथा लिखी (ले. ४४२), कल्याणकीर्ति के आग्रह से षोडशकारण कथा लिखी ( ले. ४५०), मतिसागर की प्रेरणा से मुक्तावली कथा लिखी [ ले. ४५१ ], साध्वी सौवर्णिका की प्रार्थना पर मेरुपंक्ति कथा लिखी [ ले. ४५२ ] तथा श्रीराज की विनंति पर लक्षणपंक्ति कथा की रचना की [ ले. ४५३ ] । मेघमाला, सप्त परमस्थान, रविवार, चंदनषष्ठी, आकाशपंचमी, पुष्पांजलि, निर्दुःखसप्तमी, श्रवण द्वादशी, रत्नत्रय इन व्रतों की कथाएं भी आप ने लिखी (ले. ४४० - ४९)। औदार्यचिन्तामणि नामक प्राकृत व्याकरण, शुभचन्द्र कृत ज्ञानार्णव के गद्य भाग की टीका तत्त्वत्रयप्रकाशिका, महाभिषेक टीका तथा श्रुतस्कन्ध पूजा ये रचनाएं आपने लिखी" । इन में तत्त्वत्रयप्रकाशिका की रचना आचार्य सिंहनन्दि के आग्रह से हुई (ले. ४५४-५७ )।
विद्यानन्दीके पट्टशिष्य मल्लिभूषण हुए । आप के समय संवत् १५४४ की वैशाख शु. ३ को खंभात में एक निषीदिका बनाई गई । इस के लेख में आर्यिका रत्नश्री, कल्याणश्री और जिनमती का उल्लेख है (ले. ४५८ ) । मल्लिभूषण ने आचार्य अमरकीर्ति को पंचास्तिकाय की एक प्रति दी थी ( ले. ४५९ )। आप के शिष्य लक्ष्मण के लिए सावयधम्मदोहा पंजिका की एक प्रति संवत् १५५५ की कार्तिक शु. १५
७४ श्रुतसागर सूरि की अन्य रचनाओं के लिए विद्यानन्दि के उत्तराधिकारी मलिभूषण और लक्ष्मीचन्द्र का वृत्तान्त देखिए ।
७५ सम्भवतः भानपुर शाखा में इन्ही का उल्लेख हुआ है ।
७६ ब्र. शीतलप्रसादजी ने यह लेख पद्मावती मूर्ति का कहा है, किन्तु उस लेखपर से वह क्षुल्लिका जिनमती की मूर्ति प्रतीत होती है ।
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१९६
भट्टारक संप्रदाय
को लिखी गई (ले. ४६० ) । पट्टावली के अनुसार आप ने मंडप गिरि और गोपाचल की यात्रा की तथा ग्यासदीन ने आप का सन्मान किया था | आप पद्मावती के उपासक थे [ ले. ४६१ ] ।
७७
मल्लिभूषण के समय श्रुतसागरसूरि ने इलदुर्ग के भानुभूपति के मन्त्री भोजराज की पुत्री पुत्तलिका के साथ गजपन्थ और तुंगीगिरि की यात्रा की तथा वहीं पल्यविधान कथा की रचना की [ले. ४६३ ] | अक्षय निधान कथा भी आप ने इन्हीं के समय लिखी [ ले. ४६२ ] ।
भ. सिंहनन्दी ने अपने मंगलाष्टक में मल्लिभूषण का गुरूरूप में उल्लेख किया है। इन की एक रचना माणिकस्वामी विनती भी है [ ले. ३६४६५ ] | ब्रह्म नेमिदत्त ने अपने आराधना कथाकोश में मल्लिभूषण, सिंहनन्दी और श्रुतसागर को वन्दन किया है । इन ने पण्डित राघव के आग्रह पर अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ पूजा लिखी [ले. ४६६-६७ ] ।”
मल्लभूषण के पट्टशिष्य लक्ष्मीचन्द्र हुए। इन के उपदेश से सांगणक ने संवत् १५५६ की चैत्र शु. १ को हंसपत्तन" में नागकुमारचरित की एक प्रति लिखी [ ले ४६८ ] । संवत् १५७५ की ज्येष्ठ कृ. ७ को घोघा में सभूबाई ने महापुराण की एक प्रति लक्ष्मीचंद्र के शिष्य नेमिचन्द्र को अर्पित की [ ले. ४६९ ] । संवत् १५८२ की चैत्र शु. ५ को आप के शिष्य ज्ञानसागर के लिए आर्यिका विनयश्री ने महाभिषेक टीका की प्रति लिखी [ ले. ४७० ] । संवत् १६०५ में लक्ष्मीचंद्र के शिष्य सकलकीर्ति ने नयनन्दिकृत सुदर्शनचरित की एक प्रति लिखी [ ले. ४७१]
७७ मालवे का सुलतान - राज्यकाल १४६९ - १५०० ई. ७८ ईडर के राव भाणजी-र - राज्यकाल १४४६ - ९६ ई.
७९ नेमिदत्त ने संवत् १५८५ में श्रीपाल चरित लिखा । सुदर्शनचरित, रात्रिभोजनत्याग कथा तथा नेमिनाथ पुराण ये इन के अन्य ग्रन्थ हैं ( अनेकान्त वर्ष ९ पृ. ४७६ )
८० हंसापुर ( जिला सूरत )
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बलात्कार गण- सूरत शखो
१९७
लक्ष्मीचन्द्र के समय श्रुतसागरसूरि ने यशस्तिलकचन्द्रिका, सहस्रनाम टीका, तत्त्वार्थ वृत्ति तथा षट्प्राभृतटीका की रचना की [ले. ४७२७४ ] | इन की प्रशस्तियों से पता चलता है कि श्रुतसागर ने नीलकण्ठ भट्ट आदि ९९ वादियों पर विजय प्राप्त की तथा सिद्धान्तसागर यति लिए यशस्तिलकचन्द्रिका बनाई । "
लक्ष्मीचन्द्र के समय ब्रह्म जिनदास के शिष्य ब्रह्म शान्तिदास ने शान्तिनाथ बृहत्पूजा की रचना की। उस समय मुल्हेर में दयाचन्द्र भट्टारक थे (ले. ४७५ ) ।
पट्टावली से पता चलता है कि भ. लक्ष्मीचन्द्र भैरवराय, मल्लिराय, देवराय, वंगराय आदि १८ राजाओं द्वारा सम्मानित हुए थे तथा आप ने भ. वीरसेन, भ. विशालकीर्ति आदि से भी * सन्मान पाया था [ले. ४७६ ] | लक्ष्मीचन्द्र के पट्टशिष्य दो थे । इन में अभयचन्द्र का वृत्तान्त इसी प्रकरण के अन्त में संगृहीत किया है। दूसरे पट्टशिष्य वीरचन्द्र थे । आप ने बोधसताणू तथा चित्तनिरोध कथा की रचना की [ले. ४७७-७८ ] । आप ने नवसारी के शासक अर्जुनजीयराज से सन्मान पाया " तथा सोलह वर्ष तक नीरस आहार सेवन किया [ ले ४७९ ] ।
वीरचन्द्र के पट्टशिष्य ज्ञानभूषण हुए। आप ने संवत् १६०० में एक मूर्ति प्रतिष्ठित की तथा सिद्धान्तसार भाष्य की रचना की [ले. ४८० -
८१ श्रुतसागर के विषय में देखिए- पं. नाथूराम प्रेमी ( जैन साहित्य और इतिहास पृ. ४०६ ) तथा पं. परमानन्द ( अनेकान्त व. ९ पृ. ४७४ )
८२ इनका वृत्तान्त ईडर शाखा के भ. सकलकीर्ति और भुवनकीर्ति के वृत्तान्त में देखिए |
८३ तुलुव राजा बंगराय (तृतीय) का राज्यकाल १५३३ - १५४५ ई. था | अन्य राजा कर्णाटक के स्थानीय शासक थे किन्तु उन का ठीक राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सका ।
८४ वीरसेन सम्भवतः कारंजा के सेनगण के भ. गुणभद्र के शिष्य हैं । विशालकीर्ति कारंजा शाखा के विशालकीर्ति ( प्रथम ) हो सकते हैं ।
८५ अर्जुन जीयराज का इतिहास में कुछ विवरण नहीं मिलता ।
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१९८
भट्टारक संप्रदाय
कर्मकाण्ड टीका लिखी
आप का नाम अंकित
८१] । सुमतिकीर्ति की सहायता से आप ने ( ले. ४८३ ) । पंचास्तिकाय की एक प्रति पर है (ले. ४८२ ) । आप के शिष्य सुमतिकीर्ति के उपदेश से संवत् १६१६ की कार्तिक शु. ३ को गणितसारसंग्रह की एक प्रति दान की गई (ले. ४८४ ) । सुमतिकीर्ति ने चौरासी लक्ष योनि विनती की रचना की ( ले. ४८५ ) । इन के अतिरिक्त रत्नभूषण आदि साधु ज्ञानभूषण के शिष्य थे। ज्ञानभूषण ने गिरनार, शत्रुंजय, तुंगीगिरि, चूलगिरि आदि क्षेत्रों की यात्रा की थी (ले. ४८६ ) ।
ज्ञानभूषण के पट्ट पर प्रभाचन्द्र भट्टारक हुए। आप ने त्रेपन क्रिया विनती लिखी (ले. ४८७ ) | आप के गुरुबन्धु सुमतिकीर्ति ने संवत् १६२५ में हांसोट में धर्मपरीक्षा रास की रचना की । आप ने शत्रुजय पर शान्तिनाथ मन्दिर के निर्माण का तथा श्वेताम्बरों के साथ हुए बाद का उल्लेख किया है । धर्मपरीक्षा के लिए पंडित हेम ने प्रेरणा की T थी (ले. ४८८ ) । सुमतिकीर्ति ने संवत् १६२७ में माघ शु. १२ को कोदादा शहर में त्रैलोक्यसार रास की रचना पूर्ण की (ले. ४८९ ) ।
प्रभाचन्द्र के पट्टपर वादिचन्द्र भट्टारक हुए। आप के समय संवत् १६३७ में उपाध्याय धर्मकीर्ति ने कोदादा में श्रीपालचरित्र की प्रति लिखी (ले. ४९१ ) | आप ने संवत् १६४० में वाल्मीकनगर में पार्श्वपुराण की रचना की ( ले. ४९२ ), संवत् १६४८ में मधूकनगर में ज्ञानसूर्योदय नाटक लिखा (ले. ४९३ ), संवत् १६५१ में श्रीपाल आख्यान पूरा किया (ले. ४९४ ), संवत् १६५७ में अंकलेश्वर में यशोधरचरित की रचना की तथा महुआ में पार्श्वनाथ छंद लिखे (ले. ४९५-९६) ।
८६ आप के विषय में नोट ६४ तथा ६१ तथा १२९ देखिए | ८७ शत्रुंजय के शान्तिनाथ मन्दिर का निर्माण ( ले ३८८ ) के अनुसार संवत् १६८६ में हुआ किन्तु इस लेख से उस के पूर्व भी एक शान्तिनाथमन्दिर वहां था ऐसा प्रतीत होता है ।
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बलात्कार गण-सूरत शाखा आप हूंबड जाति के थे ( ले, ४९८) । आप की आम्नाय में ब्र. विद्यासागर ने संवत् १६६४ में पंचस्तवनावचूरि की एक प्रति सूरत में प्राप्त की (ले. ४९७ )।"
वादिचन्द्र के पट्ट पर महीचन्द्र आरूढ हुए। आप ने संवत् १६७९ में एक चन्द्रप्रभ मूर्ति तथा संवत् १६८५ में एक सम्यग्ज्ञान यन्त्र स्थापित किया (ले. ४९९-५००)।
महीचन्द्र के शिष्य मेरुचन्द्र हुए । आप के गुरुबन्धु जयसागर ने संवत् १७२२ में एक पद्मावती मूर्ति स्थापित की ( ले. ५०२ ) । इन ने संवत् १७३२ में सूरत में सीताहरण लिखा, संवत् १७३२ में ही अनिरुद्ध हरण लिखा तथा घोघा में सगरचरित्र की रचना की" (ले. ५०३-५)। पट्टावली से विदित होता है कि मेरुचन्द्र हूंबड जाति के थे (ले. ५०६)। आप ने षोडशकारण पूजा लिखी (ले. ५०१ )।
मेरुचन्द्र के बाद जिनचंद्र और उन के बाद विद्यानन्दी पट्टाधीश हुए । आप ने संवत् १८०५ में सूरत में एक आदिनाथ मूर्ति स्थापित की (ले. ५०७ )। आप के शिष्य जिनदास ने नागपुर में संवत् १८२२ में आराधना की एक प्रति लिखी (ले. ५०८)।
विद्यानन्दि के पट्टशिष्य देवेन्द्रकीर्ति हुए । संवत् १८४२ में इन ने गणितसारसंग्रह की एक प्रति अपने शिष्य विद्याभूषण को दी। विद्याभूषण खंडेलवाल जाति के थे (ले. ५०९-११ )।
८८ वादिचन्द्र के लिए पं. नाथूराम प्रेमी का लेख देखिए ( जैन साहित्य और इतिहास पृ. २६८)। बम्बई से काव्यमाला के १३ वें गुच्छक में प्रकाशित पवनदूत काव्य सम्भवतः आप की ही रचना है ।
८९ सगरचरित्र में भी रचना काल दिया है किन्तु उस का अर्थ हमें स्पष्ट नहीं हो सका। ..
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२००
भट्टारक संप्रदाय विद्याभूषण के बाद धर्मचन्द्र पट्टाधीश हुए । इन के गुरुबन्धु भाणचंद ने संवत् १८९९ में पद्मावती मूर्ति स्थापित की (ले. ५१२ )।
सूरत शाखा की ही एक परम्परा भ. लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य अभयचन्द्र से प्रारम्भ हुई। अभयचन्द्र ने पद्मप्रभपूजा लिखी है। संभवतः आप ने नेमिचन्द्र विरचित गोमटसारटीका की पहली प्रति लिखी थी । आप के शिष्य धर्मरुचि तथा गुणसागर ने संवत् १५४८ में गोमटेश्वर के दर्शन किये (ले. ५१४-१६)। ... अभयचन्द्र के शिष्य अभयनन्दि हुए । इन के शिष्य सुमतिसागर ने षोडशकारण पूजा, दशलक्षण पूजा, जंबूद्वीप जयमाला, व्रत जयमाला तथा तीर्थजयमाला ये पूजापाठ लिखे ( ले. ५१७-२१)।
अभयनन्दि के शिष्य रत्नकीर्ति हुए। इन की शिष्या वीरमती ने संवत् १६६२ में एक महावीर मूर्ति स्थापित कराई (ले. ५२२)।
९० ब्र. शीतलप्रसादजी के कथनानुसार धर्मचन्द्र के बाद क्रमशः चन्द्रकीर्ति, गुणचन्द्र और सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए [ दानवीर माणिकचन्द्र पृ. ३८ ]
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भट्टारक-संप्रदाय
- n SA
emamam N Sawariyar
M
बलात्कार गण- सूरत-शाखा के भट्टारक विद्यानन्दि
(प्रथम ) संवत् १४११-१५३७ ( बडौदा में प्राप्त हस्तलिखित के संवत १५२६ में बने हुए चित्र की अनुकृति )
संदर्भ-मृष्ट २०१
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भट्टारक-संप्रदाय
सूरत के भ. विद्यानन्दि ( प्रथम ) द्वारा सं. १५२६ में स्थापित पंचमेरुकी मूर्ति - इसके कोनोंपर भ. पद्मनन्दि
(बलात्कारगण- उत्तर शाखा ), भ. देवेन्द्रकीति (प्रथम) (ब. सूरत शाखा), भ. विद्यानन्दि तथा
उनके शिष्य कल्याणनन्दिकी मूर्तियां बनी है ।
संदर्भ-पृष्ट २०१
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बलात्कार गण-सूरत शाखा-काल पट
१ पद्मनन्दी ( उत्तर शाखा )
२ देवेन्द्रकीर्ति [ संवत् १४९३ ]
३ विद्यानन्दी [ संवत् १४९९ - १५३७]
४ मल्लिभूषण [ संवत् १५४४-१५५५]
५ लक्ष्मीचन्द्र [संवत् १५५६ - १५८२]
६ वीरचन्द्र
1
७ ज्ञानभूषण [ संवत् १६००- १६१६]
1
८ प्रभाचन्द्र [ संवत् १६२५ - १६२७]
I
९ वादिचन्द्र [ संवत् १६३७-१६६४ ]
१० महीचन्द्र [ संवत् १६७९ - १६८५]
१९ मेरुचन्द्र [ संवत् १७२२-१७३२ ]
१२ जिनचन्द्र
1
१३ विद्यानन्दि [ संवत् १८०५-१८२२ ]
- १ ८२२]
I
१४ देवेन्द्रकीर्ति [ संवत् १८४२ ]
१५ विद्याभूषण
!
१६ धर्मचन्द्र [ संवत् १८९९ ]
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त्रिभुवनकीर्ति (जे रहट शाखा)
अभयचन्द्र (सं. १५४८)
I
अभयनन्दि
1
रत्नकीर्ति (सं. १६६२)
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Achar
श्रुतकीर्ति
१२. बलात्कार गण-जेरहट शाखा लेखांक ५२३ - हरिवंशपुराण
कुंदकुंदगणिणा अणुकम्मइ जायइ मुणिगण विविह सहम्मइ । गण बलत्त वागेसरि गच्छइ दिसंघ मणहर मइसच्छइ । पहाचंदगणिणा सुदपुण्णइ पोमणंदि तह पट्ट उवण्णइ । पुणु सुभचंददेव कम जायइ गणि जिणचंद तह य विक्खायइ । विज्जाणंदि कमेण उवण्णइ सीलवंत बहुगुण सुदपुण्णइ । पोमणंदि सिस कमिण ति जायइ जे मंडलायरिय विक्खायइ । मालवदेसे धम्मसुपयासणु मुणि देवेंदकित्ति पिउभासणु । तह सिसु अमियवाणि गुणधारउ तिहुवणकित्ति पबोहणसारउ । तह सिसु सुदकित्ति गुरुभत्तउ जेहि हरिवंसपुराणु पउत्तउ । ' ' 'संवतु विक्कमसेण णरेसह सहसु पंचसय बावण सेसह । मंडयगडु वर मालवदेसइ साहि गयासु पयाव असेसइ । णयर जेरहद जिणहरु चंगउ णेमिणाहजिणबिंबु अभंगउ । गंथु सउण्णु तत्थ इहु जायउ चउविह संसुणि सुणि अणुरायउ माघ किण्ह पंचमि ससिवारइ हत्थणखत्त समत्तु गुणालइ ।
( अ. ११ पृ. १०६) लेखांक ५२४ - परमेष्ठिप्रकाशसार
दह पण सय तेवण गय वासइ पुणु विक्कमणिवसंवच्छरहे । तह सावणमासहु गुरुपंचमि सहु गंथु पुण्णु तय सहस तहे ।। मालव देस दुग्ग मंडवचलु वट्टइ साहि गयासु महाबलु। साहि णसीरु णाम तह गंदणु रायधम्म अणुरायउ बहुगुणु । तह जेरहट णयर सुपसिद्धउ जिण चेइहर मुणिसुपबुद्धइ । णेमीसर जिणहर णिवसंतइ विरयउ एहु गंथु हरिसंतइ । तेहि लिहाइहि णाणागंथइ इय हरिवंसपमुह सुपसत्थइ । विरइय पढम तमहि वित्थारिय धम्मपरिक्ख पमुह मणहारिय ।
इय परमिट्ठिपयाससारे अरुहादिगुणेहि वण्णणालंकारे अप्पसुदसुदकित्ति जहासत्ति महाकव्वु विरयंतो णाम सत्तमो परिच्छेउ समत्तो॥
( अ. ११ पृ. १०७)
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- ५२९ ] १२. बलात्कार गण - जेरहट शाखा
२०३
लेखांक ५२५ - १ मूर्ति
धर्मकीर्ति
सं. (१६) ४५ माघ सुदि ५ श्रीमूलसंघे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. यशकीर्तिपट्टे भ. श्रीललितकीर्तिपट्टे भ. श्रीधर्मकीर्ति उपदेशात् पौरपट्टे छितिरा मूर गोहिलगोत्र साधु दीनू भार्या
॥
( यूबौन, अ. ३ पृ. ४४५ )
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लेखांक ५२६ - चंद्रप्रभ मूर्ति
संमत १६६९ चैत्र सुद१५ रवौ मूलसंधे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. यशोकीर्ति तत्पट्टे भ. ललितकीर्ति तत्पट्टे भ. धर्मकीर्ति उपदेशात् ॥ (पा. ५१ )
लेखांक ५२७ - पार्श्वनाथ मूर्ति
सं. १६६९ चैत सुदी १५ रवौ भ. ललितकीर्ति भ. धर्मकीर्ति तदुपदेशात् सा. पदारथ भार्या जिया पुत्र दो खेमकरण पमापेता नित्यं नमति ॥ ( भा. प्र. पू. ५ )
लेखांक ५२८ - नंदीश्वरमूर्ति
संमत १६७१ वर्षे वैसाख सुद५ मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती - गच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. यशकीर्ति तत्पट्टे भ. ललितकीर्ति तत्पट्टे भ. धर्मकीर्तिउपदेशात् पौरपट्टे सा. उदयचंदे भार्या उदयगिरेंद्र प्रतिष्ठा प्रसिद्धं ।। ( पा. ६० )
लेखांक ५२९ - हरिवंश पुराण
श्री मूल संघ जनि कुंदकुंदः सूरिर्महात्मा खिलतत्त्ववेदी । सीमन्धरस्वामिपदप्रवन्दी पंचाहृयो जैनमतप्रदीपः ॥ तदन्वयेभूद् यशकीर्तिनामा भट्टारको भाषितजैनमार्गः । तत्पट्टवान् श्रीललितादिकीर्तिर्भट्टारकोजायत सत्क्रियावान् ॥ जयति ललितकीर्तिर्ज्ञाततत्त्वार्थसार्थो नयविनयविवेकप्रोज्ज्वलो भव्यबन्धुः । जनपदशतमुख्ये मालवेलं यदाज्ञा
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भट्टारक संप्रदाय
[५२९
समभवदिह जैनद्योतिका दीपिकेव ॥ तत्पट्टांबुजहर्षवर्षतरणिर्भट्टारको भासुरो जैनग्रंथविचारकेलिनिपुणः श्रीधर्मकीया॑ह्वयः । तेनेदं रचितं पुराणममलं गुर्वाज्ञया किंचन संक्षेपेण विबुद्धिनापि सुहृदा तत् शोध्यमेतद्धृवम् ।। वर्षे व्यष्टशते चैकाग्रसप्तत्यधिके रवौ । आश्विन कृष्णपंचम्यां ग्रंथोयं रचितो मया ॥
[म. प्रा. पृ. ७६१] लेखांक ५३० - पार्श्वनाथ मूर्ति
संमत १६८१ वर्षे माघ सुदी १५ गुरौ भ. धर्मकीर्ति उपदेशात् परवारज्ञातौ ॥
(पा. ९८) लेखांक ५३१ - षोडशकारण यंत्र
सं. १६८२ मार्गसिर वदि-रवौ भ. ललितकीर्तिपट्टे भ. धर्मकीर्ति गुरूपदेशात् परवार धना मूर सा. हठीले भार्या दमा पुत्र दयाल भार्या केशरि भोजे गरीबे मालदास भार्या सुभा...॥
__ (प्रानपुरा, अ. ३ पृ. ४४५) लेखांक ५३२ - १ यंत्र
संवत १६८३ फाल्गुन सुदी ३ श्रीधर्मकीर्ति उपदेशात् सं. मुकुट भा. किशुन एते नमन्ति ।।
[अहार, अ. १० पृ. १५६ ] लेखांक ५३३ – पार्श्वनाथ मूर्ति
सकलकीर्ति संमत १७११ भ. सकलकीर्ति सा. लाले पुत्रवते प्रणमंति ॥
[ परवार मंदिर, नागपुर ]
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- ५३८ ] १२. बलात्कार गण - जेरहट शाखा
लेखांक ५३४ - पार्श्वनाथ मूर्ति
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सं. १७१२ मार्ग वदिः १२ श्रीमूलसंघे भ. सकलकीर्ति हरदा ॥
( बाजारगांव, जिला नागपुर )
लेखांक ५३५ - पार्श्वनाथ मूर्ति
संवत १७१३ वर्षे मार्गशिर सुदी १० वऊ श्रीम. धवलकीर्ति भ. सकलकीर्ति· · · प्रणमंति नित्यम् ।
( नारायनपुर, अ. १० पृ. १५५ )
लेखांक ५३६ – १ मूर्ति
संवत १७१८ वर्षे फाल्गुने मासे कृष्णपक्षे श्रीमूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे कुंदकुंदाचार्यान्वये भ. श्री ६ धर्मकीर्ति तत्पट्टे भ. श्री ६ पद्मकीर्ति तत्पट्टे भ. श्री ६ सकलकीर्ति उपदेशेनेयं प्रतिष्ठा कृता तद्गुगुरुराद्योपाध्याय नेमिचंद्रः पौरपट्टे अष्टशाखाश्रये घनामूले कासिल्ल गोत्रे साहु अधार भार्या लालमती ॥
[ पपौरा, अ. ३ पृ. ४४५ ]
.
लेखांक ५३८ - आदिनाथ स्तोत्र
२०५
लेखांक ५३७ - षोडशकारण यंत्र
संवत १७२० वर्षे फागुन सुदी १० शुक्र बलात्कार गणे भ. श्रीसकलकीर्तिउपदेशात् गोला पूर्वान्वये गोत्र पैंथवार पं. परवति ॥
[ अहार, अ. १० पृ. १५५ ]
सुरेंद्रकीर्ति
मूलसंघको नायक सोहे सकल कीर्ति गुरु बंदो जू । तस पट पट पटोर सोहे सुरेंद्रकीर्ति मुनि गाजे जू ॥ संवत सत्रासो छपण हे मास कार्तिक शुभ जानो जू । दास बिहारी विनती गावे नाम लेत सुख पात्रे जू ॥ २२
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( ना. ५५ )
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२०६
भट्टारक संप्रदाय [५३९ - लेखांक ५३९ - षोडशकारण यंत्र
चंद्रकीर्ति संवत १६७५ पोह सुदि ३ भौमे श्रीमूलसंघे भ. ललितकीर्ति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीरत्नकीर्ति तत्पट्टे आचार्य श्रीचंद्रकीर्ति उपदेशात् साहु रूपा भायों पता...॥
[ अ. ११ पृ. ४११] लेखांक ५४० - सम्यक्चारित्र यंत्र
. संवत १६८१ वरषे चैत्र सुदी ५ रवौ श्रीमूलसंघे भ. श्रीललितकीर्ति तत्पट्टे मंडलाचार्य श्रीरत्नकीर्ति तत्पट्टे आचार्य चंद्रकीर्तिस्तदुपदेशात् गोलापूर्वान्वये खागनाम गोत्रे सेठी भानु भार्या चंदनसिरी .
(पा. १८)
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बलात्कार गण - जेरहट शाखा
इस शाखा का आरंभ भ. त्रिभुवनकीर्ति से हुआ | आप भ. देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे जिन का वृत्तान्त सूरत शाखा में आ चुका है । आप के शिष्य श्रुतकीर्ति ने संवत् १५५२ में ग्यासुद्दीन के राज्यकाल " में जेरहट में हरिवंशपुराण लिखा (ले. ५२३) । श्रुतकीर्तिने दिल्ली-जयपुर शाखा के भ. जिनचन्द्र और उन के शिष्य विद्यानन्दि का भी उल्लेख किया है T इन ने संवत् १५५३ में जेरहट में ही परमेष्ठिप्रकाशसार की रचना की ।"
म. त्रिभुवनकीर्ति के बाद क्रमशः सहस्रकीर्ति-पद्मनन्दी - यशः कीर्तिललितकीर्ति और धर्मकीर्ति भट्टारक हुए ।" धर्मकीर्ति ने संवत् १६४५ की माघ शु. ५ को एक मूर्ति, संवत् १६६९ की चैत्र पौर्णिमा को एक चन्द्रप्रभ मूर्ति तथा एक पार्श्वनाथ मूर्ति, और संवत् १६७१ की वैशाख शु. ५ को एक नन्दीश्वर मूर्ति स्थापित की | ( ले. ५२५ - २८ ) । आप ने संवत् १६७१ की आश्विन कृ. ५ को हरिवंशपुराण लिखा (ले. ५२९) । संवत् १६८१ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति, संवत् १६८२ में एक पोडशकारण यंत्र तथा संवत् १६८३ में एक और यन्त्र आप ने स्थापित किया ( ले. ५३०-३२ ) ।
९१ मालवा सुलतान - राज्यकाल १४६९-१५०० ई.
९२ डॉ. हीरालालजी जैन ने श्रुतकीर्तिकृत धर्मपरीक्षा का परिचय दिया है | ( अनेकान्त वर्ष ११ पृ. १०६ ) आप के मंत से श्रुतकीर्ति की गुरुपरंपरा प्रभाचंद्र - पद्मनन्दि-शुभचन्द्र- जिनचन्द्र-विद्यान न्दि-पद्मन न्दि- देवेन्द्र कीर्ति--त्रिभुवनकीर्ति ऐसी है । दिल्ली-जयपुर तथा सूरत शाखा के कालपटों के अवलोकन से साफ होता है कि यहाँ आप ने दो समकालीन परम्पराओं को एकत्रित कर दिया है। नोट ४३ देखिए ।
९३ श्रुतकीर्ति के विषय में पं. परमानन्द का लेख देखिए [ अनेकान्त वर्ष १३ पृ. २७९ ] जिस में उन के योगसार का भी परिचय दिया है ।
९४ त्रिभुवनकीर्ति के बाद की यह परम्परा पं. परमानंद के एक नोट पर से ली गई है जिसमें धर्मकीर्ति के एक और ग्रन्थ पद्मपुराण का उल्लेख है। ( अनेकान्त वर्ष १२ पृ. २८ )
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२०८
भट्टारक संप्रदाय
धर्मकीर्ति के बाद पमकीर्ति और उन के बाद सकलकीर्ति भट्टारक हुए । इन के उपदेश से संवत् १७११ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति, संवत् १७१२ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति, संवत् १७१८ में एक अन्य मूर्ति तथा संवत् १७२० में एक षोडशकारण यन्त्र स्थापित किया गया (ले. ५३३५३७)।
सकलकीर्ति के पट्ट पर सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए । इन के शिष्य बिहारीदास ने संवत् १७५६ में आदिनाथ स्तोत्र लिखा (ले. ५३८ )। ... ललितकीर्ति के एक और शिष्य रत्नकीर्ति थे । इन के शिष्य चन्द्रकीर्ति ने संवत् १६७५ में एक षोडशकारण यन्त्र तथा संवत् १६८१ में एक सम्यक्चारित्र यन्त्र स्थापित किया (ले. ५३९-४०)।
बलात्कार गण-जेरहट शाखा-कालपट १ देवेन्द्रकीर्ति ( सूरत शाखा )
२ त्रिभुवनकीर्ति [ संवत् १५५२-५३ ]
३ सहस्रकीर्ति
४ पद्मनन्दी
५ यश कीर्ति
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बलात्कार गण-जेरहट शाखा
२०९
६ ललितकीर्ति
७ धर्मकीर्ति [संवत् १६४५-१६८३] रत्नकीर्ति ८ पद्मकीर्ति
चन्द्रकीर्ति ९ सकलकीर्ति [ संवत् १७११-२०। (सं. १६७५-८१) १० सुरेन्द्रकीर्ति [ संवत् १७५६)
परिशिष्ट १ बलात्कार गण की शाखा वृद्धि
बलात्कार गण
दक्षिण
उत्तर | (प्र. ५)
।
कारंजा लातूर (प्र. ३) (प्र. ४)
दिल्लीजयपुर
। (प्र. ६) । नागौर अटेर (प्र.७) (प्र. ८)
सूरत (प्र.११)
(प्र.९)
भानपुर (प्र.१०)
जेरहट
(प्र. १२)
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भट्टारक संप्रदाय
परिशिष्ट २
काष्ठा-संघ की स्थापना मध्ययुगीन जैन साधुओं के इतिहास में काष्ठासंघ का स्थान महत्त्वपूर्ण है । आचार्य देवसेन ने दर्शनसार में - जिसकी रचना संवत् ९९० में धारा नगरी में हुई थी-कहा है कि आचार्य विनयसेन के शिष्य कुमारसेन ने संवत् ७५३ में नंदियड-वर्तमान नांदेड ( बम्बई प्रदेश ) में इस संघ की स्थापना की थी। इस संघ का सर्वप्रथम शिलालेखीय उल्लेख संवत् ११५२ में हुआ है । 'काष्ठासंघ महाचार्यवर्य देवसेन' की चरणपादुकाओं की स्थापना का इस लेख में निर्देश है।
चौदहवीं सदी के बाद इस संघ की अनेक परम्पराओं के उल्लेख मिलते हैं। भ. सुरेन्द्रकीर्ति के अनुसार-जिनका समय संवत् १७४७ है-ये परम्पराएं चार भेदों में विभाजित थीं-माथुर गच्छ, बागड़ गच्छ, लाडबागड गच्छ तथा नन्दीतट गच्छ। सुरेन्द्रकीर्ति स्वयं नन्दीतट गच्छ के भट्टारक थे।
आश्चर्यकी बात यह है कि बारहवीं सदी तक माथुर, बागड़ तथा लाडबागड इन परम्पराओं के जो उल्लेख मिलते हैं, उनमें इन्हें संघ की संज्ञा दी गई है; तथा काष्ठासंघ के साथ उन का कोई सम्बन्ध नहीं कहा है।
माथुर संघ के प्रसिद्ध आचार्य अमितगति हैं । आप ने संवत् १०५० से १०७३ तक कोई बारह ग्रन्थ लिखे । इन में से अधिकांश के अन्त में प्रशस्ति में माथुर संघ का यशोगान है; किन्तु काष्ठासंघ का नामनिर्देश भी नहीं है।
इसी तरह लाडबागड - जिसे संस्कृत में लाटवर्गट कहा गया हैगण के तीन उल्लेख मिलते हैं । इस गण के आचार्य जयसेन ने संवत् १०५५ में सकलीकरहाटक-वर्तमान कहाड ( बम्बई प्रदेश )-में धर्म. रत्नाकर नामक ग्रन्थ लिखा । प्रायः इसी समय इस गण के दूसरे आचार्य
१ जैन हितैषी, वर्ष १३, पृ. २५७--२५९। २ अनेकान्त, वर्ष १०, पृ. १०५। ३ दानवीर माणिकचन्द्र, पृ. ४७। ४ जैन साहित्य और इतिहास, पृ. २८३ -२८५ । ५ अनेकान्त वर्ष ८, पृ. २०१..२०३ ।
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बलात्कार गण-जेरहट शाखा
२११ महासेन ने प्रद्युम्नचरित लिखा । तथा संवत् ११४५ में इस गण के आचार्य विजयकीर्ति के उपदेश से एक मन्दिर बनवाया गया। इन तीनों आचार्यों ने अपनी विस्तृत प्रशस्तियों में लाटवर्गटगण की पूरी प्रशंसा की है किन्तु काष्ठासंघ का कोई उल्लेख नहीं किया है।
बागड संघ के आचार्य सुरसेन के उपदेश से प्रतिष्ठापित की गई एक प्रतिमा पर जो शिलालेख मिलता है, उस में भी काष्ठासंघ का कोई उल्लेख नहीं है । इस प्रतिमा का समय संवत् १०५१ हैं । बागड संघ के दूसरे आचार्य यशःकीर्ति ने जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला नामक ग्रन्थ लिखा है । इस में भी काष्ठासंघ का कोई निर्देश नहीं है।
इन सब अनुल्लेखों पर से प्रतीत होता है कि सम्भवतः बारहवीं सदी तक माथुर, लाडबागड और बागड़ इन तीनों संघों का काष्ठासंघ से कोई सम्बन्ध नहीं था। यहां स्मरण रखना चाहिये की नन्दीतट गच्छ के कोई प्राचीन उल्लेख नहीं मिलते, यद्यपि इसी नाम के ग्राम में काष्ठासंघ की स्थापना कही गई है।
काष्ठासंघ का नाम दिल्ली के निकट जो काष्ठा नामक ग्राम है उसी पर से पड़ा है । इस ग्राम की स्थिति पहले काफी अच्छी थी। बारहवीं सदी में यहाँ टक्क वंश के शासकों की राजधानी थी। किन्तु इस से पहले इस ग्राम के कोई उल्लेख नहीं मिलते । इस से भी प्रतीत होता है कि माथुर इत्यादि संघों का बारहवीं सदी में एकीकरण हो कर ही काष्ठासंघ
६ पृ. १८३ । ७ ए. ई., भा. २, पृ. २३७ । ८ ज. ए. सो., भा. १९, पृ. ११.। ९ अनेकान्त, वर्ष २, पृ. ६८६ ।
१० स्टडीज इन इण्डियन लिटररी हिस्टरी, भाग. १ . २९० । (प्रसिद्ध वैद्यक ग्रन्थ 'मदनपाल निघंटु' की रचना इसी स्थान के टक्क शासक मदनपाल द्वारा की गयी । फीरोज तुगलक की माता यहीं के टक्क शासक की पुत्री थी जिसके दो भाई सण्णपाल और मदनपाल पीछे मुसलमान हो गये थे । गुजरात के मुस्लिम शासक टांक इसी टक्क या टांक सग्णपाल व मदनपाल के वंशज थे।) दे., पी. वी. काणे--हिस्टी ऑफ धर्मशास्त्र, पूना, भा. १।)
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२१२
भट्टारक संप्रदाय
की स्थापना हुई होगी।
इस से देवसेन कृत दर्शनसार की स्थिति काफी संशयास्पद हो जाती है। यहां स्मरण दिलाना उचित होगा कि यह संशयास्पदता अन्य साधनों से पहले भी व्यक्त हो चुकी है। काष्टासंघ के स्थापक कुमारसेन का समय दर्शनसार में संवत् ७५३ कहा गया है। किन्तु उनके गुरु विनयसेन के छोटे गुरुबन्धु जिनसेन का समय उनकी 'जयधवला टीका' की प्रशस्ति से शक ७५९ सुनिश्चित है । इसी प्रकार माथुरसंघ की स्थापना दर्शनसार के अनुसार आचार्य रामसेन द्वारा संवत् ९५३ में हुई थी। किन्तु संवत् १०५० में इस संघ के आचार्य अमितगति ने अपने पांच पूर्वाचार्यों का उल्लेख करते हुए भी रामसेन का स्मरण नहीं किया है।
_ऐसी स्थिति में यही मानना उचित होगा कि माथुर आदि चार संघों का एकीकरण हो कर बारहवीं सदी में काष्ठासंघ की स्थापना हुई थी। सम्भवतः यह कार्य उन देवसेन का ही था जिन की चरणपादुकाएं संवत् १५४५ में स्थापित हुई थीं।
इससे उनका 'महाचार्यवर्य' यह विशेषण भी सार्थक सिद्ध होता है।
११ जैन हितैषी, वर्ष १३, पृ. २७१ । १२ कसाय पाहुड भा. १ प्रस्तावना, पृष्ठ ६९ । १३ जैन हितैषी, वर्ष, १३, पृ. २५९ । १४ जैन साहित्य और इतिहास, पृ. २८४ ।
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सदाह
१३. काष्ठासंघ-माथुरगच्छ लेखांक ५४१ - रामसेन
तत्तो दुसएतीदे महुराए माहुराण गुरुणाहो । णामेण रामसेणो णिप्पिच्छं वणियं तेण ॥
('दर्शनसार ४०) लेखांक ५४२ - सुभाषितरत्नसन्दोह
अमितगति आशीर्विध्वस्तकंतो विपुलशमभृतः श्रीमतः कान्तकीर्तिः । सूरेर्यातस्य पारं श्रुतसलिलनिधेर्देवसेनस्य शिष्यः ।। विज्ञाताशेषशास्त्रो व्रतसमितिभृतामग्रणीरस्तकोपः । श्रीमान् मान्यो मुनीनाममितगतियतिस्त्यक्तनिःशेषसङ्गः ॥९१५ . तस्य ज्ञातसमस्तशास्त्रसमयः शिष्यः सतामग्रणीः । श्रीमान्माथुरसंघसाधुतिलकः श्रीनेमिषेणोभवत् ।। शिष्यस्तस्य महात्मनः शमयुतो निधूतमोहद्विषः । श्रीमान्माधवसेनसूरिरभवत् क्षोणीतले पूजितः ।। ९१७ दलितमदनशत्रो व्यनिर्व्याजबन्धोः । शमदमयममूर्तिश्चन्द्रशुभ्रोरुकीर्तिः ॥ अमितगतिरभूद्यस्तस्य शिष्यो विपश्चिद् । विरचितमिदमध्ये तेन शास्त्रं पवित्रं ॥ ९१९ समारूढे पूतत्रिदशवसतिं विक्रमनृपे । सहस्रे वर्षाणां प्रभवति हि पञ्चाशदधिके । समाते पञ्चम्यामवति धरणी मुञ्जनृपतौ । सिते पक्षे पौषे बुधहितमिदं शास्त्रमनधम् ॥ ९२२
(निर्णयसागर प्रेस, यम्बई १९०३) लेखांक ५४३ - वर्धमान नीति
वन्दे मम गुरुं तं च नेमिषेणमुनीश्वरम् । परोपकारिणां धुर्य चित्रं चारित्रमाश्रितम् ॥ ६९ माधवसेनं वंदे मुनिश्रेष्ठं महीतले । नौमि यदिच्छयैवायं ग्रंथो हि निरमीयत ॥ ७०
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२१४ भट्टारक संप्रदाय
[५४३ - यामरसव्योमचंद्राब्दे तपस्यस्यासिते दले । अमितगतिमुनि एतापि (?) जयति जयशालिनः ॥ ४१
(जैन मित्र २-१२-१९२०) लेखांक ५४४ - धर्मपरीक्षा
संवत्सराणां विगते सहस्रे ससप्ततौ विक्रमपार्थिवस्य । इदं निषिध्यान्यमतं समाप्तं जैनेन्द्रधर्मामृतयुक्तिशास्त्रम् ।।
(जैन साहित्य और इतिहास पृ. १८१ ) लेखांक ५४५ - पञ्चसंग्रह
त्रिसप्तत्याधिकेब्दानां सहस्र शकविद्विषः। मसूतिकापुरे जातमिदं शास्त्रं मनोरमम् ॥
[ माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई ] लेखांक ५४६ - तत्वभावना
वृत्तविंशशतेनेति कुर्वता तत्त्वभावनां । सद्योमितगतेरिष्टा निर्वृतिः क्रियते करे ।
[प्र. म. कि. कापडिया, सूरत ] लेखांक ५४७ - उपासकाचार
तस्मादजायत नयादिव साधुवादः । शिष्टार्चितोमितगतिर्जगति प्रतीतः ॥ विज्ञातलौकिकहिताहितकृत्यवृत्तेः । आचार्यवर्यपदवीं दधतः पवित्राम् ॥ ६ अयं तडित्वानिव वर्षणं धनो। रजोपहारी धिषणापरिष्कृतः ॥ उपासकाचारमिमं महामनाः । परोपकाराय महोन्नतोऽकृत ।। ७
( अनंतकीर्ति ग्रंथमाला, बम्बई १९२२)
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- ५५० ]
लेखांक ५४८ - द्वात्रिंशिका
लेखांक ५४९
१३. काष्ठासंघ - माथुरगच्छ
-
यैः परमात्मामितगतिवंद्यः सर्वविविक्तो भृशमनवद्यः । शश्वदधीते मनसि लभन्ते मुक्तिनिकेतं विभववरं ते ॥ ३२ (प्र.मू. कि. कापडिया, सूरत )
आराधना
आराधना भगवती कथिता स्वशक्त्या चिन्तामणि वितरितुं बुधचिन्तनानि । अह्नाय जन्मजलधिं तरितुं तरण्डं भव्यात्मनां गुणवती ददतां समाधिम् ॥ १२
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लेखांक ५५० - अधूणा मंदिर लेख
२१५
[ जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३६ ]
छत्रसेन
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...तस्य पुत्रास्त्रयोभूवन् भूरिशास्त्रविशारदाः । आलोकः साहसाख्यश्च तल्लुकाख्यः परोनुजः ॥ ८ यस्तत्राद्यः सहजविशदप्रज्ञया भासमानः । स्वांतादर्शस्फुरितसकलैतिह्यतत्त्वार्थसारः ॥ ...यो माथुरान्वयनभस्तल तिग्मभानोः । व्याख्यानरंजित समस्तसभाजनस्य ॥ श्रीछत्रसेनसुगुरोश्चरणारविंद । सेवापरोभवदनन्यमनाः सदैव ।। ११ आयुस्तप्तमहींद्र सारनिहितस्तोकांबुवन्नश्वरं । संचित्य द्विपकर्णचंचलतरां लक्ष्म्याश्च स्थितिं । ज्ञात्वा शास्त्रसुनिश्चयात् स्थिरतरे नूनं यशः श्रेयसी । तेनाकारि मनोहरं जिनगृहं भूमेरिदं भूषणम् ॥ २२ ...वर्षसहस्रे याते षट्षष्ठयुत्तरशतेन संयुक्ते । विक्रमभानोः काले स्थलिविषयमवति सति विजयराजे || २५ विक्रम संवत् १९६६ वैशाख सुदि ३ सोमे वृषभनाथस्य प्रतिष्ठा ॥
(हि. १३ पृ. ३३५ )
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२१६
भट्टारक संप्रदाय [५५१ - लेखांक ५५१ - बिजौलियामंदिर लेख
गुणभद्र श्रीमन्माथुरसंघेभूद् गुणभद्रो महामुनिः । कृता प्रशस्तिरेषा च कविकंठविभूषणा ॥ ८७ .. प्रसिद्धिमगमद्देवः काले विक्रमभास्वतः । षड्विंशद्वादशशते फाल्गुने कृष्णपक्षके ॥ ९१ तृतीयायां तिथौ वारे गुरौ तारे च हस्तके । धृतिनामनि योगे च करणे तैतिले तथा ॥ ९२
( भा. २१ पृ. २२) लेखांक ५५२ - देवी मूर्ति
ललितकीर्ति संवत् १२३४ वर्षे माघ सुदी ५ बुधे श्रीमान् माथुरसंघे पंडिताचार्य धर्मकीर्ति शिष्य ललितकीर्तिः । वर्धमानपुरान्वये सा. प्रामदेव भार्या प्राहिणी ॥
[ आमला Indian Culture वर्ष ११, पृ. १६८ ] लेखांक ५५३ – पदकर्मोपदेश
अमरकीर्ति बारह सयइ ससत्तचयालिहि विक्कमसंवच्छरहु विसालहि ॥ गणहि मि भदवयहु पक्खंतरि गुरुवारम्मि चउहसि वासरि ॥ इक्के मासे इहु सम्मियउ सई लिहियउ आलसु अवहत्थिउ ॥ परमेसर पइं गवरसभरिउ विरइयउ णेमिणाहहो चरिउ ॥ अण्णु वि चरित्तु सव्वत्थसहिउ पयडत्थु महावीरहो विहिउ ।। तीयउ चरित्त जसहर णिवास पद्धडिया बंधे किउ पयासु ॥ टिप्पणउ धम्मचरियहो पयडु तिह विरयउ जिह बुझेइ जडु ॥ सक्कयसिलोयविहि जणियदिहि गुंफियउ सुहासियरयणणिही धम्मोवएसचूडामणिक्खु तह झाणपईउ जि झाणसिक्खु ।। छक्कम्मुवएस सहु पबंध किय अहसंख सइ सञ्चसंध ॥ सक्कयपाइयकव्यय घणाई अवराई कियई रंजियजणाई॥
[ अ. ११ पृ. ४१४ ]
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- ५५८] १३. काष्ठासंघ - माथुरगच्छ लेखांक ५५४ - नेमिनाथचरित
ताह रजिय वटुंतए विक्कमकालि गए बारह सब चउआलए सुक्खु । सुहिवक्खमए भद्दवएहो सियपक्खेयारसि दिणि तुरिउ ।
( उपर्युक्त ) लेखांक ५५५ - (पंचास्तिकाय)
गुणकीर्ति संवत्सरेस्मिन् श्रीविक्रमादित्यगताब्दसंवत् १४६८ वर्षे आषाढ यदि २ शुक्रदिने श्रीगोपाचले राजाश्रीवीरम्मदेवविजयराज्य-प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे आचार्यश्रीभावसेनदेवाः तत्पट्टे श्रीसहस्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणकीर्तिदेवाः तेषामाम्नाये अग्रोतकान्वयपरमश्रावकवंशिलगोत्रीयसंघाधिपति महराज तद्भार्या साध्वी जाल्ही एतेषां मध्ये संघइ महराजवधू साधुनरदेवपुत्री देवसिरी तया इदं पंचास्तिकायसारग्रंथं लिखापितं ॥
(का. ४१२) लेखांक ५५६ - ? मूर्ति
सं. १४७३ श्रावण वदी १ श्रीकाष्ठासंघे भ. श्रीगुणकीर्ति सा. जिनदास ॥
( भा. प्र. पृ. ६) लेखांक ५५७ - (भविष्यदत्त पंचमी कथा) यशाकीर्ति
संवत १४८६ वर्षे आषाढ बदि ७ गुरुदिने गोपाचलदुर्गे राजा डूंगरसिंह राज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे आचार्य श्रीसहस्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे आचार्यश्रीगुणकीर्तिदेवाः तच्छिष्य श्रीयशःकीर्तिदेवाः तेन निजज्ञानावरणीकर्मक्षयार्थ इदं भविष्यदत्तपंचमीकथा लिखापित।
[अ. ८ पृ. ४६५] लेखांक ५५८ - पांडव पुराण
सिरिकट्ठसंघ माहुरहो गच्छ पुक्खरगणि सुणिबई विलच्छि ।
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२१८ भट्टारक संप्रदाय
[५५८ - संजायउ वीरजिणुक्कमेण परिवाडिय जइवर णिहयएण ॥ सिरिदेवसेणु तह विमलसेणु तह धम्मसेणु पुणु भावसेणु ॥ तहो पट्ट उवण्णउ सहसकित्ति अणवरय भमिय जइ जासु कित्ति ॥ तह विक्खायउ गुणकित्ति णामु तवतेए जासु सरीरु खामु ॥ तहो णियबंधउ जसकित्ति जाउ आयरिय पणासिय दोसु वाउ ॥
[अ. ७ पृ. १६३] लेखांक ५५९- रिद्वनेमिचरिउ
गय तिहुयणसयंभु सुरठाणहो जं उव्वरिउ किंपि सुणियाणहो । तं जसकित्तिमुणिहि उद्धरियउ । णिएवि सुत्तु हरिवंसच्छरियउ॥ णियगुरुसिरिगुणकित्ति पसाए । किउ परिपुण्णु मणहो अणुराए॥ सरहसेणेदं सेठि आएसे । कुमरणयरि आविउ सविसेसे ॥ गोवगिरिहे समीचे विसालए । पणियारहे जिणवरचेयालए ॥ भहवमासि विणासियभवकलि । हुउ परिपुण्णु चउहिसि णिम्मलि ॥
[जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३९३ ] लेखांक ५६० - आदिनाथ मूर्ति ___संवत १४९७ वर्षे वैसाख .. ७ शुक्रे पुनर्वसुनक्षत्रे श्रीगोपाचलदुर्गे महाराजाधिराज राजा श्रीडूंग(रसिंह) राज्य संवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे भ. गुणकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. यशःकीर्तिदेवाः प्रतिष्ठाचार्य पंडित रइधू तेषां आनाये अग्रोतवंशे गोयलगोत्रे साधु...॥
(अ. १० पृ. ३८०) लेखांक ५६१ - सम्मइजिन चरिउ
सिरि अयरवालंकवंसम्मि सारेण । .. 'दहएगपडिमाणपालण सणेहेण ।
खेल्हाहिहाणेण णमिऊण गुरु तेण । जसकित्ति विणयत्तु मंडिय गुणोहेण । ससिपहजिणेदस्स पडिमा विसुद्धस्स । काराविया मइजि गोवायले तुंग ॥
(अ. १० पृ. १११)
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Acha
- ५६५] १३. काष्ठासंघ--माथुरगच्छ २१९ लेखांक ५६२ - आदिपुराण
सिरिगुणकित्ति णामु जइपुंगमु तउ तवेइ जो दुविहु असंगमु । पुणु तहु पट्टिय वरजसभायणु सिरिजसकित्ति भव्वसुहदायणु । तहु पयपंकयाहि पणमंतउ जा बुह णिवसइ जिणपयभत्तउ ॥ ता रिसिणा सो भणिउ विणोए हत्थु णिएवि सुमुहत्ते जोए । भो सिंघियसेणय सुसहाए होसि वियक्खणु मज्झु पसाए ॥ इय भणेवि मंतक्खर दिण्णउ तेणारहिउ तं जि अछिण्णउ ॥ चिरपुण्णे कइत्तगुणसिद्ध उ सुगुरुपसाए हुवउ पसिद्धउ ॥
(हि. १३ पृ. १०४ ) लेखांक ५६३ - १ यंत्र
मलयकीर्ति संवत १५०२ वर्षे कार्तिक सुदि ५ भौमदिने श्रीकाष्ठासंघे भ. श्रीगुणकीर्तिदेवाः तत्पट्टे श्रीयशकीर्तिदेवाः तत्पट्टे श्रीमलैकीर्तिदेवान्वये साहु बरदेवा तस्य भार्या जैणी ॥
( अहार, अ. १० पृ. १५६ ) लेखांक ५६४ - १ मूर्ति ___ सं. १५१० माघ सुदि १३ सौमे श्रीकाष्ठासंघे आचार्य मलयकीर्तिदेवाः तयो प्रतिष्ठितम् ॥
( भा. प्र. पृ. १३) लेखांक ५६५ - [ समयसार ]
गुणभद्र गगनावनिभूतेन्दुगण्ये श्रीविक्रमाद्गते ।
अब्दे राधे तृतीयायां शुक्लायां बुधवासरे ॥२ जिनालयैरान्यगृहैर्विमानसमैर्वरैश्चुम्बितवायुमार्गः । अदीनलोको जनभित्तसौख्यप्रदोस्ति गोपाद्रिरिहर्धिपूर्णः ॥ ३ श्रीतोमरानूकशिखामणित्वं यः प्राप भूपालशतार्चितांत्रिः । श्रीराजमानो हतशत्रुमानः श्रीडुंगरेंद्रोत्र नराधिपोस्ति ॥ ४ दीक्षापरीक्षानिपुणः प्रभावान् प्रभावयुक्तोद्यमदादियुक्तः ।
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२२०
भट्टारक संप्रदाय
श्रीमाथुरानूकललामभूतो भूनाथमान्यो गुणकीर्तिसूरिः ॥ ५
• पट्टे तदीयेजनि पुण्यमूर्तिः श्रीमान् यशः कीर्तिरनल्पशिष्यैः ।। ६ ...तेजोनिधिः सूरिगुणाकरोस्ति पट्टे तदीये मलयादिकीर्तिः ॥ ७ ...पट्टे ततोस्यारिरनंगसंगभंगः कले: श्रीगुणभद्रसूरिः || ८ आनाये वरगर्गगोत्रतिलकं तेषां जनानंदकृत् । यो अन्ययमुखसाधुमहितः श्रीजैनधर्मावृतः ॥ दानादिव्यसनो निरुद्ध कुनयः सम्यक्त्वरत्नांबुधिः । जज्ञे सौ जिणदास साधुरनघो दासो जिनांद्वियोः ॥ ९
( से. २४ )
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[ ५६५ -
लेखांक ५६६ - [ पंचास्तिकाय ]
संवत् १५१२ वर्षे माघ वदि २ बुधे श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे भ. श्रीगुणकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीयशः कीर्तिदेवाः तत्पट्टे श्रीमलयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणभद्रदेवाः । भ. श्रीगुणभद्वैर्निजकर्मक्षयाय इदं पंचास्तिकायशास्त्रं ब्र. धर्मदासाय प्रतं ॥
( का. ४१२ )
लेखांक ५६७ - [ ज्ञानार्णव ]
संवत १५२१ वर्षे असाढ सुदि ६ सोमवासरे श्रीगोपाचलदुर्गे तोमरवंशे राजाधिराजश्रीकीर्तिसिंहराज्ये प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे भ. श्रीगुणकीर्तिदेवाः तत्पडे भ. श्रीयश: कीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ श्रीमलयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणभद्रदेवाः तदान्नाये गर्गगोत्रे ||
+
(अ. ५ पृ. ४०३ )
लेखांक ५६८ - आदिनाथ मूर्ति
सं. १५२९ वै. सुदी ७ बुधे श्रीकाष्ठासंघे भ. श्रीमलयकीर्ति भ. गुणभद्रानाये अप्रत्कान्वये मित्तलगोत्र ॥
( भा. प्र. पु. ८ )
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लेखांक ५६९ - आदिनाथ मूर्ति
सं. १५३१ फाल्गुण सुदी ५ शुक्रे श्रीकाष्ठासंघ भ. गुणभद्रान्नाये जैसवाल सा. काल्हा भार्या जयश्री
॥
( भा. प्र. पृ. ८ )
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- ५७३] १३. काष्टासंघ-माथुरगच्छ २२१ लेखांक ५७० - नेमिनाथ मूर्ति
सं. १५३७ वैसाख सुदी १० बुधे काष्ठासंधे भ. मलयकीर्ति भ. गुणभद्रानाये अग्रोत्कान्वये गोयलगोत्रे सा. राजू भार्या जाल्ही .... महाराजश्रीकल्याणमल्लराज्ये ॥
( भा. प्र. पृ. १४) लेखांक ५७१ - चौवीसी मूर्ति
संवत १५४८ वैशाख सुदि ५ काष्ठासंघे भ. गुणभद्रदेवा सा लूणा सुत तिहणा ॥
( फतेहपुर, अ. ११ पृ. ४०६ ) लेखांक ५७२ - [महापुराण-पुष्पदंत ]
संवत १५७५ वर्षे भादवा सुदि बुद्धदिने कुरुजांगलदेसे सुलितानसिकंदरपुत्र सुलितान इब्राहिमु राज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे भ. श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः तदानाये जैसवालु चौ. टोडरमलु इदं उत्तरपुराणटीका लिखांपितं ॥
( प्रस्तावना पृ. १५ माणिकचंद्र ग्रंथमाला, बम्बई )
लेखांक ५७३ - गुटक - स्वस्ति श्रीविक्रमार्कसंवत्सर १५७६ जेठ वदि १ पडिवा शुक्रदिने कुरुजांगलदेशे सुवर्णपथनाम्नि सुदुर्गे सिकंदरसाहि तत्पुत्र सुल्तान इब्राहिमु राज्य प्रवर्तमाने काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे आचार्यश्रीमाहवसेनदेवाः तत्पट्टे भ. उद्धरसेनदेवाः तत्लट्टे भ. देवसेनदेवाः तत्पट्टे भ. विमलसेनदेवाः तत्प? भ. धर्मसेनदेवाः तत्पट्टे भ. भावसेनदेवाः तत्पट्टे भ. सहस्रकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. गुणकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. यशःकीर्तिदेवाः तत्प? भ. मलयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणभद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुगचंद्र तच्छिष्य ब्रह्म मांडण एषां गुरूणामाम्नाये ।।
(अ. ५ पृ. २५७)
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२२२ भट्टारक संप्रदाय
[५७४ - लेखांक ५७४ - शांतिनाथचरित्र .. इह जोयणिपुरु पुरवरहं सारु जहु वण्णणि इह सक्कु वि असारु ।
... 'पञ्चतणिवइ संगहइ दंडु रायाहिराउ बब्बरु पयंडु । ''जहि मुणिवर सत्थइ वायरंति महजण्ण पूय सावय करंति । . . 'तह कट्ठ संघ माहुर वि गच्छि पुक्खरगण मुणिवर चइवि लच्छि । जसमुत्ति वि जसकित्ति वि मुणिंदु भव्वयणकमलवियसणदिणेंदु । तहु सीसु वि मुणिवरु मलयकित्ति अणवस्य भमइ जगि जाह कित्ति । तहु सीसु वि गुणगणरयणभूरि भुवणयलि सिध्दु गुणभहसूरि ।
तहु पयभत्तउ साहु भोयराउ जाणिजइ । गुणवट्ठियइ णिवास जोयणिपुरि णिवसिज्जइ ॥ · · 'एयाहँ मज्झि साहारणेण काराविउ एहु गंथु तेण । कम्मक्खय वि णिमित्तें सारउ संतिणाहचरिउ वि गुणारउ । ...विक्कमरायहु ववगयकालइ रिसिवसुसरभुवि अंकालइ । कत्तिय पढम पक्खि पंचमि दिणि हुउ पुरिपुण्णु वि उग्गतइ इणि ।।
( अ. ५ पृ. २५४) लेखांक ५७५ - (धनदचरित्र )
अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यराज्ये सं. १५९० वर्षे मार्गशिर सुदि ११ दिने बृहस्पतिवारे अश्विनीनक्षत्रे परिघजोगे श्रीकुरुजांगलदेशे सुलितान मुगल काबली हमायुराज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे भ. श्रीमलयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः तस्य शिष्य मुनि धर्मदास तस्य आम्नाये अग्रोतकवंशभूषणे गर्गगोत्र दहीरपुरवास्तव्य श्रावकाचारविचारणैकविदग्धान् सा. डालू ॥
(अ. ५ पृ. ५०) लेखांक ५७६ - ( उत्तरपुराण-पुष्पदंत ) भानुकीर्ति
संवत् १६०६ वर्षे मार्गसिर वदि ८ अष्टमी तिथौ भृगुवासरे आदौ अश्लेषातारे मघानाम्नि नक्षत्रे शुभनाम्नि योगे भयाणाजनपदे अब्राह्याबाद शुभस्थाने सुरिसाह सलेमसाहि विजयराज्ये श्रीमत्काष्ठासंघे माथुरान्वये
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- ५७९] १३. काष्ठासंघ-माथुरगच्छ
२२३ पुष्करगणे भ. श्रीगुणकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीयशःकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. मलयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणभद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीभानुकीर्तिस्तदन्वये अग्रोतकान्वये गोयलगोत्रे एतेषां मध्ये सा रूपचंदेन उत्तरपुराणाख्यं शालं लिखाप्य भ. श्रीभानुकीर्तये दत्तं निजज्ञानावर्णीकर्मक्षयनिमित्तं ॥ .
(म. प्रा. पृ. ७२३) लेखांक ५७७ - [ भविष्यदत्तचरित ]
कुमारसेन ___ संवत् १६१५ वर्षे फागुण सुदि सप्तमी बुधवासरे अकबरराज्ये प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे 'भ. श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीभानुकीर्तिदेवाः तत्सिष्य मंडलाचार्य श्रीकुमारसेनदेवा तदामाये अप्रोतकान्वये गोइलगोत्रे...।
(अ. ७ पृ. ५०) लेखांक ५७८ - जंबूस्वामिचरित-राजमल्ल
श्रीमति काष्ठासंपे माथुरगच्छेथ पुष्करे च गणे । लोहाचार्यप्रभृतौ समन्वये वर्तमानेथ ।। ६० तत्पट्टे परममलयकीर्तिदेवास्ततः परं चापि । श्रीगुणभद्रःसूरिभट्टारकसंज्ञकश्चाभूत् ।। ६१ तत्पट्टमुश्चमुदयादिमिवानु भानुः श्रीभानुकीर्तिरिह भाति हतांधकारः । उद्द्योतयन्निखिलसूक्ष्मपदार्थसार्थान भट्टारको भुवनपालकपनबंधुः ॥ ६२ तत्पट्टमब्धिमभिवर्धनहेतुरिन्दुः सौम्यः सदोदयमयो लसदंशुजालैः । ब्रह्मव्रताचरणनिर्जितमारसेनो भट्टारको विजयतेऽथ कुमारसेनः ॥ ६३
[ अध्याय १ ] लेखांक ५७९ - [जंबूस्वामिचरित-राजमल्ल ]
अथ संवत्सरेस्मिन् श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दसंवत् १६३२ वर्षे चैत्र
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२२४ भट्टारक संप्रदाय
[५७९ - सुदि ८ वासरे पुनर्वसुनक्षत्रे श्रीअर्गलपुरदुर्गे श्रीपातिसाहिजलालदीनअकबरसाहिप्रवर्तमाने श्रीमत्काष्टासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्वये भ. श्रीमलयकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः तत्सट्टे भ. श्रीभानुकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीकुमारसेननामधेयास्तदानाये अग्रोतकान्वये भटानियाकोलवास्तव्यसाधुश्रीनंदन एतेषां मध्ये परमसुश्रावकसाधुश्रीटोडरेन जंबूस्वामिचरित्रं कारापितं ॥
( माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला, बम्बई ) लेखांक ५८० - पट्टावली
माधवसेन श्रीमन्माधवसेनसाधुममहं ज्ञानप्रकाशोल्लसत्स्वात्मालोकनिलीयमात्मपरमानंदोर्मिसंवर्मिनम् । ध्यायामि स्फुरदुग्रकर्मनिगणोच्छेदाय विष्वग्भवावर्ते गुप्तिगृहे वसन्नहरहर्मुक्त्यै स्पृहावानिव ॥ २२
( भा. १ कि. ४ पृ. १०४ ) लेखांक ५८१ - पट्टावली
विजयसेन समजनि जनिताशः क्षिप्तदुष्कर्मपाशः कृतशुभगतिवास: प्रोद्गतात्मप्रकाश: । जयति विजयसेन: प्रास्तकंदर्पसेनः तदनु मनुजवंद्यः सर्वभावैरनिंद्यः ।। २३
[ उपर्युक्त ] लेखांक ५८२ - पट्टावली
नयसेन तत्पट्टपूर्वाचलचंडरश्मिर्मुनीश्वरोभून्नयसेननामा । तपो यदीयं जगतां त्रयेपि जेगीयते साधुजनैरजस्रम् ।। २५ यद्यस्ति शक्तिर्गुणवर्णनायां मुनीशितुः श्रीनयसेनसूरेः । तदा विहायान्यकथां समस्तां मासोपवासं परिवर्णयन्तु ।। २६
( उपर्युक्त)
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- ५८७] १३. काष्ठासंघ-माथुरगच्छ
२२५ लेखांक ५८३ - पट्टावली
श्रेयांससेन शिष्यस्तदीयोस्ति निरस्तदोषः श्रेयांससेनो मुनिपुंडरीकः । अध्यात्ममार्गे खलु येन चित्तं निवेशितं सर्वमपास्य कृत्यं ।। २७
(उपर्युक्त पृ. १०५) लेखांक ५८४ - पट्टावली
अनंतकीर्ति तत्पट्टथारी सुकृतानुसारी सन्मार्गचारी निजकृत्यकारी । अनंतकीर्तिर्मुनिपुंगवोत्र जीयाजगल्लोकहितप्रदाता ॥ २९
[ उपर्युक्त ]
लेखांक ५८५ - पट्टावली
कमलकीर्ति प्रसूमरवरकीर्तेः सर्वतोमंतकीर्तेः गगनवसनपट्टे राजते तस्य पट्टे । सकलजनहितोक्तिः जैनतत्त्वार्थवेदी जगति कमलकीर्तिर्विश्वविख्यातकीर्तिः ।। ३१ ।।
( उपर्युक्त ) लेखांक ५८६ - १ मूर्ति
संवत् १४४३ ज्येष्ठ सुदी ५ गुरौ महासारस्यज राजा नाथदेव राज्यप्रवर्धमाने काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे प्रतिष्ठा कमलकीर्तिदेवं जैसवाल विसाल रागा(संघा)चार्य.. ॥
[ मसाढ, जैनमित्र २-८-१९११ ] लेखांक ५८७ - पट्टावली
क्षेमकीर्ति अध्यात्मनिष्ठः प्रसरत्प्रतिष्ठः कृपावरिष्ठः प्रतिभावरिष्ठः। पट्टे स्थितस्य त्रिजगत्प्रशस्यः श्रीक्षेमकीर्तिः कुमुदेन्दुकीर्तिः ॥ ३३ .
(भा.१ कि.४ पृ. १०५)
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भट्टारक संप्रदाय
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२२६
लेखांक ५८८ - ( प्रवचनसार )
विक्रमादित्यराज्ये स्मितुर्दशपरे शते । नवषष्टया युते किंनु गोपाद्रौ देवपत्तने ॥ ३ अनेक भूभुक्पदपद्मलग्नस्तस्मिन्निवासी ननु पाररूपः । गारहारो भुवि कामिनीनां भूभुक्प्रसिद्धः श्रीवीरमेंद्रः ॥ ४ ... श्रीकाष्ठसंघे जगति प्रसिद्धे महगुणौधे त्रयमाथुरान्वये । सदा सदाचारविचारक्षे गणे सुरम्ये वरपुष्कराख्ये ॥ ८ मुनीश्वरो भून्नयसेनदेवः कृशाष्टकम यशसां निवासः । पट्टे तदीये मुनिरश्वसेन आसीत्सदा ब्रह्मणि दत्तचेताः ॥ ९ पट्टे तदीये शुभकर्मनिष्ठोप्यनंतकीर्तिर्गुणरत्नवार्धिः । मुनीश्वरो भूजिनशासनेंदुस्तत्पट्टधारी भुवि क्षेमकीर्तिः ॥ १० पट्टे तदीये ननु हेमकीर्तिस्तपःप्रभानिर्जितभानुभानुः । रत्नत्रयालंकृतधर्ममूर्तिर्यतीश्वरोभूज्जगति प्रसिद्धः ॥ ११ ... पारावारो हि लोके यो जनानिमिषसेवितः ।
देवकीर्तिमुनिः साक्षात् परं क्षारविवर्जितः || १३ व्याख्यायैव गुरुः साक्षात् पशुधर्मविनिर्गतः । पद्मकीर्तिमुनिर्भाति परं रागविवर्जितः ॥ १४ ... प्रतापचंद्रो हि मुनिप्रधानः स्वव्याख्यया रंजितसर्वलोकः । नियंत्रितात्मीयमनोविहंगो विवादिभूभृत्कुलिशो नितांतः ॥ १६ गुणरत्नैरकूपारो भवभ्रमणशंकितः ।
हेमचंद्रो यतिः साक्षात् परं ग्राहविवर्जितः ।। १७ पद्मकीर्तिमुनेः शिष्यो गुणरत्नमहोनिधिः । ब्रह्मचारी हरीराजः शीलव्रतविभूषितः ।। १९
लेखांक ५८९ - आराधनासारटीका
[ ५८८ -
हेमकीर्ति
( रायचंद्र शास्त्रमाला, बम्बई १९३५ )
अश्वसेनमुनीशोभूत् पारदृश्वा श्रुतांबुधेः । पूर्ण चंद्रायितं येन स्याद्वादविपुलांबरे ॥ १ श्रीमाथुरान्वयमभूदधिपूर्णचंद्रो
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- ५९१] १३. काष्ठासंघ-माथुरगच्छ
२२७ निधूतमोहतिमिरप्रसरो मुनींद्रः । तत्पट्टमंडनमभूत् सदनंतकीर्ति
ानामिदग्धकुसुमेषुरनंतकीर्तिः ।। २ काष्ठासंघे भुवनविदिते क्षेमकीर्तिस्तपस्वी लीलाध्यानप्रसृमरमहामोहदावानलाभः । आसीहासीकृतरतिपतिर्भूपतिश्रेणिवेणी-- प्रत्यग्रस्रवत्सहचरपदद्वंद्वपद्मस्ततोपि ॥३ तत्पट्टोदयभूधरेतिमहति प्राप्तोदये दुर्जयं रागद्वेषमहांधकारपटलं संवित्करैर्दारयन् । श्रीमान् राजति हेमकीर्तितरणिः स्फीतां विकाशनियं भव्यांभोजचये दिगंबरपथालंकारभूतो दधत् ॥४ विदितसमयसारज्योतिषः क्षेमकीर्ति (ते)हिमकरसमकीर्तिः पुण्यमूर्तिर्विनेयः । जिनपतिशुचिवाणीस्फारपीयूषवापीस्नपनशमिततापो रत्नकीर्तिश्चकास्ति ।। ५ आदेशमासाद्य गुरोः परात्मप्रबोधनाय श्रुतपाठचंचु । आराधनाया मुनिरत्नकीर्तिष्ठीकामिमां स्पष्टतमा व्यधत्त ॥ ६
[ माणिकचंद्र ग्रंथमाला, बम्बई ] लेखांक ५९० - चंद्रप्रभमूर्ति
कमलकीर्ति . संवत १५०६ वर्षे ज्येष्ठ सुदी १५ शुक्रे काष्ठासंघे श्रीकमलकीर्तिदेवाः तदानाये सा. थिरू स्त्री भानदे पुत्र सा. जयमाल जाल्हण ते प्रणमंति महाराज पुत्र गोशल ।।
(भा. प्र. पृ. १३) लेखांक ५९१ - ( भविसत्तकहा)
प्रमदांबरसद्व्य संमिते समये वरे। कार्तिके मासि शुक्लायां पंचम्यां भौमवासरे ॥ गोपाचलमहादुर्गे चतुर्वर्णसमाकुले । निजर्धिस्पर्धितस्वर्गे पुरे जिनमतोदये ।।
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२२८
भट्टारक संप्रदाय
तत्रास्ति नरेंद्र हि घरे वादीभकेशरी । डुंगरेंद्रोन्यराजेंद्र मंडली महितो महान् ॥ श्रीकाष्ठासंघविख्यात माथुरान्वयसम्मणौ । गणेशगणसंभूतिसत्खनौ पुष्करे गणे ॥ श्रीगौतमान्वयायातानंतकीर्तेः पदाग्रणीः । पट्टाचार्यो हि तेजस्वी कंजकीर्तिरभूद्यमी ॥ जैनागमाध्यात्मविचारदक्षो व्यक्तीकृतात्मार्थपरार्थदक्षः ।
तस्यास्ति पट्टे मुनिवृन्दवन्द्यः श्रीक्षेमकीर्तिर्वरपुण्यमूर्तिः ॥ पट्टोदयाद्रिशिखरे मुनिमकीर्ते: प्राप्तोदयः कमलकीर्तिरखंडकीर्तिः । साहित्यलक्षणविवादपटुः प्रमाणी मिथ्यात्ववादिकुमुदाकरचंडरश्मिः ||
तेषामाम्नाये..
||
लेखांक ५९२ - महावीर मूर्ति
सं. १५१० वर्षे माघ सुदि ८ सोमे काष्ठासंघे भ. कमलकीर्तिदेव rudrarad गर्गगोत्रे तारन भा. देन्ही पुत्र सहय भा. वारु पुत्र षेमचंद प्रणमति ॥
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[ ५९१ -
[म.प्रा. पृ. ७५६ ]
[ भा. प्र. पृ.५ ]
लेखांक ५९३ - ९ मूर्ति
शुभचंद्र
संवत १५३० वर्षे माघ सुदि ११ शुक्रे श्रीगोपाचलदुर्गे महाराजाश्रीकीर्तिसिंघदेव काष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे भ. श्रीमकीर्ति तत्पट्टे भ. कमलकीर्ति तत्पट्टे भ. शुभचंद्रदेव तदान्नाए अग्रोतकान्वये गर्गगोत्रे सं.
[ रणथंभौर, अ. ८ पृ. ४४८ ]
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- ५९७ ]
लेखांक ५९४ - हरिवंश पुराण - रहधू
१३. काष्ठासंघ - माथुर गच्छ
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कमलकिन्ति उत्तम खमधारउ भव्वहि भवअंबोणिहितारउ । तस्स पट्टकणयद्दिपरिडिङ सिरिसुद्द चंदु सुतवउक्कंठिउ |
लेखांक ५९६ - अमरसेनचरित- माणिक्यराज
लेखांक ५९५ - दशलक्षण यंत्र
सं. १६३९ वैशाख वदि ८ चंद्रवासरे श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे भ. श्रीकमलकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. श्री शुभचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. यश:सेनदेवाः तदानये पद्मावतीपुरवालान्वये साव होरगू ॥
[ फतेहपुर, अ. ११ पृ. ४०८ ]
पद्मनंदी
[ अ. ११ पृ. २६८ ]
यशः सेन
सिरि मात्तिपट्टहि पवीणु सिरिहेमकित्ति जि हयउ वामु | तहु पट्ट वि कुमरविसेण णामु
तहु पट्टि णिविट्टि बुहपहाणु सिरिहेमचंदु मयतिमिरभाणु । तं पट्टि धुरंधरु वयपवीणु वर पोमणंदि जो तवह खीणु । तं पण णिगुरु सीलखाणि
२२९
• " विकमरायहु ववगइ कालइ लेसु मुणीस वि सर अंकालइ । धरणि अंक सहु चइत विमासे सणवारे सुयपंचमिदिवसे ॥
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( अ. १० पु. १६१ )
यशःकीर्ति
लेखांक ५९७ - शिलालेख
विक्रमादित्य संवत १५७२ वर्षे वेशाख सुदी ५ वार सोमे भ. श्रीजशकीर्ति राजश्रीकला भार्यां सौनबाई विजयी राज इर्दा धूलेव ग्रामं प्रति श्री ऋषभनाथ प्रणम्य - श्रीकाष्ठासंघे बाजा न्यात काश्यपगोत्र राकडिया हिसा मंडप नव चूकीय. "
||
[ केशरियाजी, वीर २ पृ. ४५९ ]
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२३० भट्टारक संप्रदाय
[५९८ - लेखांक ५९८ - लाटीसंहिता-राजमल्ल
श्रीमति काष्ठासंघे माथुरगच्छेथ पुष्करे च गणे। लोहाचार्यप्रभृतौ समन्वये वर्तमाने च ॥ ६४ आसीत् सूरिकुमारसेनविदितः पट्टस्थभट्टारकः । ॥ ६५ तत्पढेंजनि हेमचंद्रगणभृत् भट्टारकोर्वीपतिः .. ॥ ६६ तत्पट्टेभवदर्हतामवयवः श्रीपद्मनंदी गणी... ॥ ६७ तत्पट्टे परमाख्यया मुनियशःकीर्तिश्च भट्टारको नैग्रंथ्यं पदमार्हतं श्रुतबलादादाय निःशेषतः । सर्पिर्दुग्धदधीक्षुतैलमखिलं पंचापि यावदसान् त्यक्त्वा जन्ममथं तदुग्रमकरोत् कर्मक्षयाथै तपः ।। ६८
[ अध्याय १]
लेखांक ५९९ - मुगति शिरोमणि चूनडी महेंद्रसेन
अरे राज लवली जहांगीरका फिरिय जगति तिस आनि हो । शशि रस वसु विंदा धरहौ संवत मुनहु सुजानहो ॥ गुरु मुनि माहेंद्रसेनजी पदपंकज नमुं तास हौ । सहर सुहाया बूडियै कहत भगौतीदास हौ ।। ३५
(म. ३६) लेखांक ६०० - अनेकार्थ नाममाला
सोलह सय रु सतासियइ साढि तीज तम पाखि ॥ गुरु दिन श्रवण नक्षत्र भनि प्रीति जोगु पुनि भाषि ॥ ६६ साहिजहांके राजमहि सिहरदिनगर मंझारि । अर्थ अनेक जु नामकी माला भनिय विचारि ।। ६७ गुरु गुणचंदु अनिंद रिसि पंच महाव्रतधार । सकलचंद तिस पट्ट भनि जो भवसागर तार ॥ ६८ तासु पट्ट पुनि जानिए रिसि मुनि मादिसेन । भट्टारक भुवि प्रगट जसु जिनि जितियो रणि मैन । ६९
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- ६०३]
१३. काष्ठासंघ-माथुरगच्छ
२३१
....... कवि सु भगौतीदासु। तिनि लघुमति दोहा करे बहुमति करहु न हासु ॥ ७०
[ अ. ५ पृ. १५] लेखांक ६०१ - ज्योतिषसार
वर्षे षोडशशतचतुर्नवतिमिते श्रीविक्रमादित्यके पंचम्यां दिवसे विशुद्धतरके मास्याश्विने निर्मले । पक्षे स्वातिनक्षत्रयोगमहिते वारे बुधे संस्थिते राजत्साहिसहावदीनभुवने साहिजहां कथ्यते ।। श्रीभट्टारकपद्मनंदिसुधियो देवा बभूवुर्भुवि काष्ठासंघशिरोमणीभ्युदयदे ख्याते गणे पुष्करे । गच्छे माथुरनाम्नि जोजतिवरा कीर्तिर्यशः तत्पदात् तत्पट्टे गुणचंद्रदेवगुणिनस्तत्पट्टपूर्वाचले ॥ सूर्याभाः सकलादिचंद्रगुरवस्तत्पदृशोभाकराः
संजाता हि महेंद्रसेनविपुला विद्यागुणालंकृताः ॥ . . 'वर्धमानके देहरई नौतन कोट हिसार । दास भगौतीने भन्यौ सो पुणु परोपकारि ।।
(म. २) लेखांक ६०२ - वैद्यविनोद
____ श्रीमद्भट्टारकमाहेंद्रसेनगुरवे नमः ॥ .. 'सत्रहसइं रुचिडोत्तरई सुकल चतुर्दशि चैतु ।
गुरु दिन भनी पुरनु करिउ सुलितांपुरि सह जयतु ।। लिखिउ अकबराबाद णिरु साहजहां के राज । साहनि मइसंपइसरिसु देवकोसमजवाज ।। कृष्णदासतनुरुह गुणी नयरी बुडियइ वासु । सुहृद जु जोगीदास कउ कवि सु भगवतीदासु ॥
(म. ३) लेखांक ६०३ - बृहत् सीता सतु
देसकोस गजि बाज जासु नमहि नृप क्षत्रपति । जहांगीरको राज सीता सतु मै भनि किया ॥८०
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२३२ भट्टारक संप्रदाय
[६०३ - गुरु गुणचंद आनंदसिंधु बखानिये । सकलचंद तिस पट्ट जगत तिस जानिये । तासु पट्ट जसु नाम खमागुनमंडनो । परहां गुरु मुनि माहिंदसेन मुणहु दुख खंडणो ॥ ८१ गुरु मुनि माहिंदसेन भगौती तिस पद पंकज रैन भगौती । किसनदास वणिउ तनुजभगौती तुरिये गहिउ व्रत मुनि जु भगौती ।। नगर बूढियै वसै भगौती जन्मभूमि है आसि भगौती ।
(अ. ११ पृ. २०५) लेखांक ६०४ - ( नवांककेवली)
श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे भ. श्रीगुणचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीसकलचंद्रदेवाः तत्पट्टे भ. श्रीमाहेंद्रसेनदेवाः तशिष्य पं. भगौतीदास तेनेदं गोतमस्वामि नवांककेवली लिपिकृतः । बाई मथुरा पठनार्थ लिखापितं अर्गलपुरस्थाने ॥
(म. ४) लेखांक ६०५ - [ द्वात्रिंशदिंद्र केवली] ____ श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे भ. श्रीमाहेंद्रसेन तशिष्य पं. भगोतीदासेन तेनेदं द्वात्रिंशत् इंद्रकेवली गौतमस्वामिगाथाकृतं । ततो वचनिका कृतं ।
(म. ५) लेखांक ६०६ - लाटीसंहिता
क्षेमकीर्ति श्रीनृपतिविक्रमादित्यराज्ये परिणते सति ॥ सहैकचत्वारिंशद्भिरब्दानां शतषोडश ॥२ . तत्रादि चाश्विनी मासे सितपक्षे शुभान्विते । दशम्यां च दाशरथे शोभने रविवासरे ॥ ३ अस्ति साम्राज्यतुल्योसौ भूपतिश्चाप्यकब्बरः । महद्भिमंडलेशैश्च चुंबितांतिपदांबुजः ॥ ४ अस्ति दैगंबरो धर्मो जैनः शमैंककारणम् ।
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- ६०८] १३. काष्ठासंघ--माथुरगच्छ २३३
तत्रास्ति काष्ठासंघश्च क्षालितांहःकदम्बकः ॥ ५ तत्रापि माथुरो गच्छो गणः पुष्करसंज्ञकः । लोहाचार्यान्वयस्तत्र तत्परंपरया यथा ॥६ नाम्ना कुमारसेनोभूट्टारकपदाधिपः । तत्पट्टे हेमचंद्रोभूट्टारकशिरोमणिः ॥ ७ तत्पट्टे पद्मनंदी च भट्टारकनभोंशुमान् । तत्पट्टेभूद्भट्टारको यशस्कीर्तिस्तपोनिधिः ।। ८ तत्पट्टे क्षेमकीर्तिः स्यादद्य भट्टारकापणीः । तदानाये सुविख्यातं पत्तनं नाम डौकनि ॥९ तत्रत्यः श्रावको भारु ..... ॥ १० एतेषामस्ति मध्ये गृहवृषरुचिमान् फामनः संघनाथस्तेनोः कारितेयं सदनसमुचिता संहिता नाम लाटी । श्रेयोर्थ फामनीयैः प्रमुदितमनसा दानमानासनाद्यैः खोपज्ञा राजमल्लेन विदितविदुषाम्नायिना हैमचंद्रे ।। ३८
(माणिकचन्द्र ग्रंथमाला, बम्बई १९२७) लेखांक ६०७ - पट्टावली
त्रिभुवनकीर्ति श्रीमच्छ्रीक्षेमकीर्तिः सकलगुणनिधिर्विष्टपे भूरिपूज्यः तेषां पट्टे समोदः समजनि मुनिभिः स्थापितो शास्त्रविद्भिः । श्री. रे हिसारे 'सुयतिततिवराः सक्रियोद्योतपुंजे सोनंदं तासु सेव्यत्रिभुवनपुरतःकीर्तिपः सूरिराजः ॥ ४३
[ भा. १ कि. ४ पृ. १०६ ] लेखांक ६०८ - पट्टावली
सहस्रकीर्ति धात्रीमंडलमंडनस्तु जयतात् श्रीसहस्रकीर्तिर्गुरुः राजद्राजकयातिसाहिविदितो भट्टारकाभूषणः । वर्षे बहिनगांकचंद्रकमिते शुच्यार्यनने दिने पट्टेभूत स च यस्य वै त्रिभुवनाद्याकीर्तिपट्टे स्थिते ॥४५
(भा.१ कि. ४ पृ. १०८)
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२३४ भट्टारकं संप्रदाय
[६०९ - लेखांक ६०९ - दशलक्षण यंत्र
सं. १६८५ माह सुदि ५ गुरुवासरे श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यानाये भ. श्रीयशःकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीक्षेमकीर्ति तत्पट्टे भ. त्रिभुवनकीर्ति तत्पट्टे भ. सहस्रकीर्ति शिष्य जयकीर्ति तदाम्नाये पातिसाह श्रीसाहजाह खूरम दिल्ली राज्ये क्यामखां वंशे फतेहपुरे दिवान . अलीखां तत्पुत्र दिवान श्रीदौलतखां राज्ये गर्गगोत्र सा. सांतू. भ. श्रीसहस्रकीर्तिउपदेशे सा. माला दशलक्षणीयंत्रं प्रतिष्ठापितं फतेहपुरमध्ये ।
(अ. ११ पृ. ४०८) लेखांक ६१० - चरणपादुका ____ संवत १६८८ वर्षे फागुण सुदि ८ शनिवासरे श्रीकाष्ठासंघे माथुरगच्छे पुष्करगणे तदानाये भ. जसकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. क्षेमकीर्तिदेवाः तत्पट्टे श्रीत्रिभुवनकीर्तिदेवाः तत्पट्टे भ. सहस्रकीर्ति तस्य शिष्यणी अर्जिका श्रीप्रतापश्री कुरुजंगल देशे सपीदों नगरे गर्गगोत्रे चो. इंद्र सज्जनस्य भार्या ४ प्रसुखो भार्या तस्य पुत्री दमोदरी द्वितीय नाम गुरुमुख श्रीप्रतापश्री... पादुका करापित कर्मक्षयनिमित्तं शुभं भवतु ॥
(भा. ७ पृ. १६) लेखांक ६११ - ऋषिमंडल यंत्र
सं. १७५५ फाल्गुण सुदि १२ बृहस्पतिवारे काष्ठासंघे माथुरगच्छे... भ. त्रिभुवनकीर्ति तत्पट्टे भ. सहस्रकीर्ति तत् शिष्य दीपचंद तदानाये अग्रोकार पंचे हिसार वास्तव्य साह श्रीगिरधरदास तद् भार्या कतरणी ॥
[ अ. ११ पृ. ४०९] लेखांक ६१२ - कूपलेख
महीचंद्र श्रीभगवतजी सत्य सं. १७३९ वर्षे मिति जेष्ठ सुदि ३ राज्य श्रीदिवानदीनदारखां गुरु श्री १०८ भ. श्रीमहीश्चंद्रजी व सकल श्रावक फतेहपुर का पुन्यनिमित्त जलथानक करायो सर्वको शुभकारक भवत ।।
(अ. ११ पृ. ४०५)
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१३. काष्ठासंघ - माथुर गच्छ
- ६१५ ]
लेखांक ६१३ - मंदिर लेख
लेखांक ६१४ - शिखर माहात्म्य
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संवत १५०८ मिती फागुन सुदि २ साह श्रावक तोहण देवराकी नीव डलवाई। संवत १७७० मिती फागुन सुदि २भ. श्रीखेम कीर्ति त. भ. सहसकीर्तित. भ. महीचंद्र त. भ. देवेंद्रकीर्ति तत आम्नाय चौधरी सबमल तस्य पुत्र चौधरी रुपचंद वा सकल पंच श्रावक मिलकर देहराकी मरम्मत कराई || ( फतेहपुर, अ. ११ पृ. ४०५ )
जगत्कीर्ति
२३५
देवेंद्रकीर्ति
काष्ठासंघ ओर माथुर गच्छे पोडकर गण कहो सुभ दछे । लोहाचार्य आमणाय जो कही हिसार पद मनोहर सही ॥ ३२ भट्टारक सहसकीर्ति जान भव्यपयोजप्रकासण भाण । ता पद महेंद्रकीर्ति जाण विद्यागुणभंडार सुजाण ॥ ३३ देवेंद्रकीर्ति तत्पद बखाण शीलसिरोमणि की खाण । तिनके पद परम गुणवान जगतकीर्ति भट्टारक जान || ३४ शिष्य लालचंद्र सुदि भाषा रचि बनावे |
येक चित्त सुने पढे ते भव्य सिवकू जाय || ३५ संमत अठरासै भले व्यालिस ऊपर जान । पाछै फाल्गुण सुक्कुकू संपूर्ण ग्रंथ बखाण || ३६
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( ना. १०७ )
लेखांक ६१५ - दशलक्षण यंत्र
ललितकीर्ति
सं. १८६१ शक १७२६ मिती वैशाख सुदी ३ शनिवार श्रीकाष्ठा संघे माथुरगच्छे...भ. देवेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. जगत्कीर्ति तत्पट्टे भ. ललितकीर्ति तदाम्नाये अग्रोतकान्वये गर्गगोत्रे साहजी जठमलजी तत् भार्या कृपा... श्रीबृहत् दशलक्षण यंत्र करापितं उद्यापितं फतेहपुरमध्ये जती हरजीमल श्रीरस्तु सेखावत लक्षमणसिंहजी राज्ये ।
( अ. ११ पृ. ४०९ )
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२३६
भट्टारक संप्रदाय
[६१६ - लेखांक ६१६ - मंदिर लेख
संवत १८८१ मिते मार्गशीर्ष शुक्ल षष्ठयां शुक्रवासरे काष्ठासंघे माथुरगच्छे..... भ. श्रीजगत्कीर्तिस्तत्पट्टे भ. श्रीललितकीर्तिजित्तदाम्नाये
अग्रोतकान्वये गोयल गोत्रे प्रयागनगरवास्तव्य साधुश्रीरायजीमल्ल 'साधुश्री• हीरालालेन कौशांबीनगरबाह्य प्रभासपर्वतोपरि श्रीपश्नप्रभजिनदीक्षाह्वानकल्याणकक्षेत्रे श्रीजिनबिंबप्रतिष्ठा कारिता अंगरेजबहादुरराज्ये सुभं ।
[पभोसा, एपिग्राफिया इंडिका २ पृ. २४४ ] लेखांक ६१७ - महापुराणटीका
वर्षे सागरनागभोगिकुमिते मार्गे च मासेऽसिते पक्षे पक्षतिसत्तिथौ रविदिने टीका कृतेयं वरा । काष्ठासंघवरे च माथुरवरे गच्छे गणे पुष्करे देवः श्रीजगदादिकीर्तिरभवत् ख्यातो जितात्मा महान् ।। तच्छिष्येण च मन्दतान्वितधिया भट्टारकत्वं यता शुम्भवै ललितादिकीर्त्यभिधया ख्यातेन लोके ध्रुवम् ॥
(प्रस्तावना पृ. १५, भारतीयं ज्ञानपीठ, काशी १९५१) लेखांक ६१८ - चंद्रप्रभमूर्ति
राजेंद्रकीर्ति सं. १९१० मिती माघ सुदी १४ शनि काष्ठासंघे लोहाचार्याम्नाये भ. राजेंद्रकीर्तिदेवास्तदाम्नाये अग्रोत्कान्वये वातिलगोत्रे साधुश्रीसाखीलाल तत्पुत्र मुनिसुव्रतदासेन सकलभ्रातृवर्गसिद्धयर्थ श्रीजिनबिंब प्रतिष्ठा कारापितं ॥
(भा. प्र. पृ. १) लेखांक ६१९ - पार्श्वनाथ मूर्ति . सं. १९२३ मिती द्वितीय जेठ सुदि १० लोहाचार्याम्नाये भ. राजेंद्रकीर्तिदेवास्तदाम्नाये अग्रोतकान्वये वासल गोत्रे साहू जिनवरदास ॥
(फतेहपुर, अ. ११ पृ. ४०७ )
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- ६२१] १३. काष्ठासंघ-माथुरगच्छ. २३७ लेखांक ६२० - नेमिनाथ मूर्ति
संवत १९२९ वैसाख सुदि ३ भ. राजेंद्रकीर्ति तदाम्नाये अप्रोतकान्वये साहु मूभीलाल भार्या श्रेयांशकुमारी तया प्रतिष्ठा कारापितं ।।
( उपर्युक्त ) लेखांक ६२१ -- पट्टावली
मुनींद्रकीर्ति एषो निजगुरुपर्ट प्राप्याध्यासीन्मुनींद्रशुभकीर्तिः । युगयुगश्वेद्विकवर्षे वीरस्याहो गतो हि सुरलोकं ॥ ५३
( भा. १ कि. ४ पृ. १०७)
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काष्ठासंघ - माथुर गच्छ
इस गच्छ का नाम मथुरा नगर से लिया गया है । " दर्शनसार के अनुसार संवत् ९५३ में रामसेन इस संघ के आचार्य थे । उन ने निःपिच्छ का उपदेश दिया अर्थात् मुनियों के लिए पिच्छी के धारण का निषेध किया [ले. ५४१ ] ।
इस संघ के पहले ऐतिहासिक उल्लेख आचार्य अमितगति के ग्रन्थों में पाये जाते हैं । आप की गुरुपरम्परा देवसेन -- अमितगति - नेमिषेण - माधवसेन- अमितगति इस प्रकार थी । आप ने संवत् १०५० में मुंजराज के राज्यकाल में सुभाषितरत्नसन्दोह लिखा, संवत् १०६८ में वर्धमाननीति की रचना की, संवत् १०७० में धर्मपरीक्षा तथा संवत् १०७३ में पंचसंग्रह का लेखन पूर्ण किया । तत्त्वभावना, उपासकाचार, द्वात्रिंशिका और आराधना ये आप के अन्य ग्रन्थ हैं (ले. ५४२-४९ ) । माथुर संघ के दूसरे प्राचीन आचार्य छत्रसेन थे । आप के शिष्य आलोक ने संवत् ११६६ में परमार विजयराज राज्यकाल में ऋषभनाथ का मन्दिर बनवाया [ ले. ५५० ] ।
९६
इस संघ के तीसरे ज्ञात आचार्य गुणभद्र हैं । आप ने संवत् १२२६ में बनवाये गये पार्श्वनाथ मन्दिर की विस्तृत प्रशस्ति लिखी है [ ले. ५५१ ] | यह मन्दिर चौहान वंशीय सोमेश्वर के राज्यकाल में बना था ।"
९५ इस गच्छ के उत्तर कालीन विशेषणों में पुष्कर गण और लोहाचार्यानाय का अन्तर्भाव होता है । पुष्करगण के विषय में सेनगण के हिन्दी सार का आरम्भ देखिए । लोहाचार्य से सम्भवतः अंगज्ञानी आचार्यों में अन्तिम आचार्य लोहार्य का अभिप्राय है - प्रस्तावना प्रकरण २ देखिए ।
९६ अमितगति के विषय में विस्तृत विवेचन देखिए - जैन साहित्य और इतिहास पृ. १७२
९७ इस लेख के अतिरिक्त विजयराज के अन्य उल्लेख ज्ञात नहीं हैं । ९८ सोमेश्वर चौहान वंश के अन्तिम राजा पृथ्वीराज के पिता थे । इन का राज्यकाल निश्चित नहीं है
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काष्ठासंघ-माथुरगच्छ
२३९
धर्मकीर्ति के शिष्य ललितकीर्ति इस संघ के चौथे प्राचीन आचार्य हैं । आप ने संवत् १२३४ में एक देवीकी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी [ले. ५५२ ] ।
पांचवे प्राचीन आचार्य अमरकीर्ति ने अपनी गुरुपरम्परा अमितगति-शान्तिघेण-अमरसेन - श्रीषेण-चन्द्रकीर्ति-अमरकीर्ति इस प्रकार दी है।" आप ने संवत् १२ ४४ में नेमिनाथचरित की तथा संवत् १२४७ में षट्कर्मोपदेश की रचना की [ ले. ५५३-५४ ] । द्वितीय ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आप ने महावीरचरित, यशोधरचरित, धर्मचरितटिप्पण, सुभाषितरत्ननिधि, धर्मोपदेशचूडामणि, ध्यानप्रदीप आदि ग्रन्थ लिखे थे।
मध्यकालीन माथुरगच्छ परम्परा का आरम्भ माधवसेन'"से होता, है । आप के दो शिष्य उद्धरसेन और विजयसेन से दो परम्पराएं आरम्भ हुई । अनुश्रुति के अनुसार माधवसेन दिल्ली के बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी के राज्यकाल में हुए थे [ ले, ५७३,५८० तथा इन के मूल सन्दर्भ ] ।
उद्धरसेन के बाद क्रमशः देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति और गुणकीर्ति भट्टारक हुए (ले. ५७३,५५८ )। गुणकीर्ति की आम्नाय में संवत् १४६८ में ग्वालियर में राजा वीरमदेव के राज्यकाल
९९ गुरुपरम्परा निदर्शक मूल पद्य हमें प्राप्त नही हो सके । यह पं. परमानन्द के अनुवाद पर से ली गई है ! अनेकान्त व. ११ पृ. ४१५ ]
१०० पट्टावली में माधवसेन से पहले क्रमशः जयसेन, वीरसेन, ब्रह्मसेन, रुद्रसेन, भद्रसेन, कीर्तिषेण, जयकीर्ति, विश्व कीर्ति, अभय कीर्ति, भूतिसेन, भाव. कीर्ति, विश्वचन्द्र, अभयचन्द्र, माघचन्द्र, नेमिचन्द्र, विनयचन्द्र, बालचन्द्र, त्रिभुवनचन्द्र, रामचन्द्र, विजय चन्द्र, यश:कीर्ति, अभयकीर्ति, महासेन, कुन्दकीर्ति, त्रिभुवनचन्द्र, रामसेन, हर्षसेन, गुगसेन, कुमारसेन, तथा प्रतापसेन इन का उल्लेख हुआ है।
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२४०
भट्टारक संप्रदाय
में अगरवाल साध्वी देवश्री ने पंचास्तिकाय की प्रति लिखवाई थी [ ले. ५५५ ] | आप ने संवत् १४७३ में एक मूर्ति स्थापित की (ले. ५५६ ) ।
गुणकीर्ति के पट्टशिष्य यशःकीर्ति हुए । आप ने ग्वालियर में डूंगरसिंह के राज्यकाल में" संवत् १४८६ में भविष्यदत्तपंचमीकथा की एकप्रति लिखी [ ले. ५५७ ] | आप ने पांडवपुराण लिखा तथा त्रिभुवन स्वयंभू कृत अरिष्टनेमिचरित की एक अधूरी प्रति को स्वयं पूरा किया [ ले. ५५८-५९ ] ।
यशः कीर्ति के शिष्य पंडित रइधू ने संवत् १४९७ में ग्वालियर डूंगर सिंह के राज्यकाल में एक आदिनाथ मूर्ति स्थापित की [ले. ५६० ] | इन के सन्मतिजिनचरित से पता चलता है कि अगरवाल जाति के क्षुल्लक खेल्हा ने ग्वालियर में चंद्रप्रभ की उत्तुंग मूर्ति करवाई थी [ले. ५६१ ] । यशः कीर्ति से गुरुमन्त्र पा कर सिंहसेन ने आदिपुराण की रचना की [ले. ५६२ ] ।
यशः कीर्ति के पट्टशिष्य मलयकीर्ति हुए । आप ने संवत् १५०२ में एक यंत्र तथा संवत् १५१० में एक मूर्ति स्थापित की [ ले. ५६३५६४ ]।
मलकीर्ति के अनन्तर गुणभद्र भट्टारक हुए । इन के आम्नाय में अगरवाल जिनदास ने संवत् १५१० में ग्वालियर में डूंगर सिंह के राज्यकाल में समयसार की एक प्रति लिखवाई [ ले. ५६५ ] । संवत् १५१२ में गुणभद्र ने पंचास्तिकाय की एक प्रति ब्रह्म धर्मदास को दी [ ले.
१०१ - १०२ तोमरवंश का इतिहास अभी सुनिश्चित नहीं हुआ है । वीरमदेव, डूंगर सिंह, कीर्तिसिंह और मानसिंह इन चार राजाओं के उल्लेख इसी प्रकरण में
हुए
I
१०३ पंडित रहधू की अन्य कृतियों के विवेचन के लिए पं. परमानन्द का एक लेख देखिए अनेकान्त वर्ष १० पृ. ३७७
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२४१
काष्ठासंघ - माथुरगच्छ
५६६ ) । इन के आम्नाय में संवत् १५२१ में ग्वालियर में कीर्तिसिंह के राज्यकाल १०४ में ज्ञानार्णव की एक प्रति लिखी गई ( ले. ५६७ ) । संवत् १५२९ और संवत् १५३१ में आप ने दो आदिनाथ मूर्तियां स्थापित की ( ले. ५६८-६९ ) । संवत् १५३७ में एक नेमिनाथ मूर्ति तथा संवत् १५४८ में एक चौबीसी मूर्ति भी आप ने स्थापित की (ले.
१०५ में
५७०-७१ ) । इन में पहली प्रतिष्ठा कल्याणमल्ल के राज्यकाल की गई थी । संवत् १५७५ में सुलतान इब्राहीम के राज्य काल में १०६ चौधरी टोडरमल ने गुणभद्र के आम्नाय में महापुराण की एक प्रति लिखी ( ले. ५७२ ) ।
गुणभद्र के प्रशिष्य ब्रह्म मंडन ने संवत् १५७६ में सोनपत में इब्राहीम के राज्य काल में स्तोत्रादिका एक गुटका लिखा (ले. ५७३ ) । संवत् १९५८७ में आप के एक शिष्य ने शान्तिनाथ चरित्र लिखा (ले. ५७४ ) । संवत् १५९० में हुमायून के राज्यकाल में गुणभद्र के शिष्य धर्मदास के आम्नाय में धनदचरित्र की एक प्रति लिखी गई (ले. ५७५ ) ।
१.७
गुणभद्र के पट्ट पर भानुकीर्ति भट्टारक हुए । संवत् १६०६ में शाह सलीम" के राज्य काल में साह रूपचंद ने अब्राह्माबाद में उत्तरपुराण की एक प्रति आप को अर्पित की ( ले. ५७६ ) ।
भानुकीर्ति के शिष्य कुमारसेन के आम्नाय में संवत् १६१५ में अकबर के राज्यकाल में भविष्यदत्तचरित की एक प्रति लिखी गई (ले. ५७७ ) । आप के आम्नाय में ही संवत् १६३२ में आगरा में अकबर
१०४ देखिए नोट १०१
१०५ कल्याणमल कोई स्थानीय शासक रहे होंगे ।
१०६ दिल्ली के लोदी सुलतान-सन् १५१८-२६ ई.
१०७ इस ग्रन्थ के कर्ता के विषय में मतभेद है । एक मत से महिंदु या महीचंद्र इस के कर्ता हैं, किंतु ग्रंथांतर के उल्लेख से ज्ञात होता है कि इस के कर्ता दो हैं, महदू और बंभज्जुग |
१०८ दिल्ली के सूर वंश के शासक - १५४५ - १५५४ ई.
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२४२
भट्टारक संप्रदाय का राज्य था उस समय भटानिया कोल निवासी साहु टोडर की प्रार्थना पर पण्डित राजमल्ल ने जम्बूस्वामी चरित की रचना की (ले. ५७९८०)। ___माथुर गच्छ की दूसरी मध्यकालीन परम्परा माधवसेन के शिष्य विजयसेन से आरम्भ हुई । इन के बाद इस में क्रमशः मासोपवासी नयसेन, श्रेयांससेन, अनन्तकीर्ति तथा कमलकीर्ति भट्टारक हुए। कमलकीर्ति ने संवत् १४४३ में नाथदेव के राज्यकाल में एक मूर्ति स्थापित की (ले. ५८६)।
कमलकीर्ति के बाद क्षेमकीर्ति और उन के शिष्य हेमकीर्ति हुए। देवकीर्ति, पद्मकीर्ति, प्रतापचन्द्र, हेमचन्द्र आदि मुनि इन के आम्नाय में थे । पद्मकीर्ति के शिष्य हरिराज ने संवत् १४६९ में ग्वालियर में वीरमदेव के राज्यकाल में प्रवचनसार की एक प्रति लिखी थी (ले. ५८८)। हेमकीर्ति के गुरुबन्धु रत्नकीर्ति ने देवसेनकृत आराधनासार पर संस्कृत टीका लिखी (ले. ५८९)।
हेमकीर्ति के पट्टशिष्य कमलकीर्ति हुए । आप ने संवत् १५०६ में एक चंद्रप्रभ मूर्ति स्थापित की ( ले. ५९० )। आप की आम्नाय में संवत् १५०६ में ग्वालियर में डूंगरसिंह के राज्यकाल में भविसत्तकहा की एक प्रति लिखी गई (ले. ५९१ )। आप ने संवत् १५१० में एक महावीर मूर्ति स्थापित की (ले. ५९२ )
कमलकीर्ति के शुभचन्द्र और कुमारसेन ये दो पट्टशिष्य हुए।
१०९ राजमल्ल पर विस्तृत विवेचन के लिए जम्बूस्वामी चरित (माणिक चंद ग्रंथमाला) की पं. मुख्तार कृत प्रस्तावना देखिए । इसी प्रकरण में ले. ६०६ व नोट ११५ भी देखिए
११० नाथदेव कोई स्थानीय शासक रहे होंगे। १११ देखिए पूर्वोक्त नोट १०१ ११२ देखिए पूर्वोक्त नोट १०२
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काष्ठासंघ - माथुरगच्छ
२४.३
.११३
शुभचन्द्र ने संवत् १५३० में ग्वालियर में कीर्तिसिंह के राज्यकाल' में एक मूर्ति स्थापित की (ले. ५९३ ) | रहधू रचित " हरिवंशपुराण से पता चलता है कि इन का मठ सोनागिरि में था ( ले. ५९४ ) । इन के शिष्य यश:सेन ने संवत् १६३९ में एक दशलक्षण यन्त्र स्थापित किया (ले. ५९५ ) । कमलकीर्ति के दूसरे पट्टशिष्य कुमारसेन हुए । इन के शिष्य हेमचन्द्र थे | कवि राजमल्ल इन्ही की आम्नाय के थे 1
११५
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हेमचन्द्र के शिष्य पद्मनन्दि हुए । इन के शिष्य माणिक्कराज ने संवत् १५७६ में अमरसेनचरित की रचना पूर्ण की ( ले. ५९६ ) ।
पद्मनन्दी के शिष्य यशः कीर्ति हुए । इन के समय संवत् १५७२ में केशरियाजी में सभामंडप बनवाया गया ( ले. ५९७ ) । कवि राजमल्ल के कथनानुसार यशः कीर्ति ने दीर्घ काल तक नीरस आहार का ही सेवन किया था (ले. ५९८ ) |
यशःकीर्ति के पट्टशिष्य दो हुए गुणचन्द्र और क्षेमकीर्ति । गुणचन्द्र के शिष्य सकलचन्द्र और उन के शिष्य महेन्द्रसेन हुए । इन के शिष्य भगवतीदास ने जहांगीर के राज्यकाल में संवत् १६८० में मुगति शिरोमणि चूनडी, शाहजहां के राज्यकाल में संवत् १६८७ में अनेकार्थ नाममाला, संवत् १६९४ में ज्योतिषसार, वैद्यविनोद, बृहत् सीता सतु तथा लघु सीता सतु की रचना की ( ले. ५९९-६०३ ) | नवांक केवली तथा द्वात्रिंशदिन्द्र केवली इन शकुन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां इन ने की थीं (ले. ६०४ - ६०५ ) )4
यशः कीर्ति के दूसरे पट्टशिष्य क्षेमकीर्ति थे । इन के समय संवत् १६४१ में पण्डित राजमल्ल ने डौकनी निवासी साह फामन के लिए लाटी संहिता नामक ग्रन्थ लिखा ( ले. ६०६ ) उस समय अकबर का
११३ देखिए पूर्वोक्त नोट १०४ ११४ देखिए पूर्वोक्त नोट १०३ ११५ देखिए पूर्वोक्त नोट १०९
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२४४
भट्टारक संप्रदाय राज्य था । क्षेमकीर्ति के शिष्यों में वैराट नगर के भी लोग थे । वहाँ का जिनमन्दिर चित्रों से अलंकृत किया गया था।
क्षेमकीर्ति के पट्टशिष्य त्रिभुवनकीर्ति हुए । इन का पट्टाभिषेक हिसार में हुआ था (ले. ६०७) । इन के बाद संवत् १६६३ में सहस्रकीर्ति पट्टाधीश हुए ( ले. ६०८)। इन के शिष्य जयकीर्ति ने संवत् १६८५ में एक दशलक्षण यन्त्र स्थापित किया ( ले. ६०९ ) । इन की शिष्या प्रतापश्री की समाधि सपीदों नगर में संवत् १६८८ में बनी (ले. ६१०)। इन के एक और शिष्य दीपचन्द्र ने संवत् १७५५ में एक ऋषिमंडल यंत्र स्थापित किया (ले. ६११ )।
सहस्रकीर्ति के पट्टशिष्य महीचंद्र के समय संवत् १७३९ में फतेहपुर में एक कुंआ बनाया गया था (ले. ६१२ )।
महीचंद्र के शिष्य देवेन्द्रकीर्ति ने संवत् १७७० में फतेहपुर के एक पुराने मंदिर का जीर्णोद्धार कराया (ले. ६१३ )।
देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य जगत्कीर्ति हुए । इन के शिष्य लालचंद ने संवत् १८४२ में संमेद शिखर माहात्म्य की रचना की (ले. ६१४)।
जगत्कीर्ति के शिष्य ललितकीर्ति हुए । आप के समय संवत् १८६१ में फतेहपुर में दशलक्षण व्रत का उद्यापन हुआ (ले. ६१५) तथा संवत् १८८१ में पभोसा में एक मन्दिर का निर्माण हुआ (ले. ६१६ )। आप ने संवत् १८८५ में महापुराणटीका की रचना की (ले. ६१७) । १६
ललितकीर्ति के पट्ट पर राजेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए । आप ने संवत् १९१० में एक चन्द्रप्रभ मूर्ति, संवत् १९२३ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति तथा संवत् १९२९ में एक नेमिनाथ मूर्ति स्थापित की (ले.६१९-२०)।
राजेन्द्रकीर्ति के बाद मुनीन्द्रकीर्ति पट्टाधीश हुए । इन का स्वर्गवास संवत् १९५२ में हुआ ( ले. ६२१)।
११६ ललितकीर्ति और कविवर वृन्दावनदासजी में अच्छे सम्बन्ध थे। इस विषय में पं. नाथूराम प्रेमी कृत वृन्दावनविलास की प्रस्तावना देखिए।
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Anh
काष्ठासंघ-माथुर गच्छ-कालपट
१ रामसेन ( सं. ९५३ ) २ देवसेन
३
अमितगति
४
नेमिषेण
५ माधवसेन
६ अमितगति (सं.१०५०-१०७३)
७ शान्तिषेण
८
अमरसेन
९
श्रीषेण
१० चन्द्रकीर्ति
११ अमरकीर्ति (सं. १२४४-१२४७) १२ छत्रसेन ( सं. ११६६ ) १३ गुणभद्र (सं. १२२६ ) १४ धर्मकीर्ति
१५ ललितकीर्ति (सं. १२३४ ) १६ माधवसेन
१७ उद्धरसेन
विजयसेन ( अगला पृष्ठ देखिए )
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२४६
१८ देवसेन
१९ विमलसेन
1
२० धर्मसेन
1
२१ भावसेन
I
सहस्रकीर्ति
1
२२
I
२३ गुणकीर्ति (सं. १४६८-१४७३)
1
२४ यशः कीर्ति (सं. १४८६-१४९७)
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१७ विजयसेन
I
१८ नयसेन
१९ श्रेयांससेन
भट्टारक संप्रदाय
२५ मलयकीर्ति (सं. १५०२-१५१० )
F
२६ गुणभद्र (सं. १५१०-१५९०)
२७ गुणचन्द्र (सं. १५७६)
1
२२ क्षेमकीर्ति
२०
अनन्तकीर्ति
I
२१ कमलकीर्ति (सं. १४४३)
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भानुकीर्ति (सं. १६०६)
कुमारसेन (सं. १६१५-३२)
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काष्ठासंघ-माथुरगच्छ
२४७
२३ हेमकीर्ति (सं. १४६९)
२४ कमलकीर्ति(सं.१५०६-१५१०)
शुभचन्द्र (सं. १५३०)
२५ कुमारसेन २६ हेमचन्द्र
यशःसेन
२७ पद्मनन्दि (सं. १५७६)
२८ यश:कीर्ति (सं. १५७२)
गुणचन्द्र
२९
क्षेमकीर्ति (सं. १६४१)
सकलचन्द्र
३० त्रिभुवनक
त्रिभुवनकीर्ति
महेन्द्रसेन
सहस्रकीर्ति ( सं. १६६३) ३२ महीचन्द्र (सं. १७३९) ३३ देवेन्द्रकीर्ति (सं. १७७०)
३४ जगत्कीर्ति (सं. १८४२)
३५ ललितकीर्ति(सं.१८६१-१८८५)
३६ राजेन्द्रकीर्ति(सं.१९१०-१९२९)
३७ मुनीन्द्रकीर्ति (सं. १९५२)
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१४. काष्ठासंघ-लाडबागड-पुनाट-गच्छ लेखांक ६२२ - हरिवंशपुराण
जिनसेन दधार कर्मप्रकृति श्रुतिं च यो जिताक्षवृत्तिर्जयसेनसद्गुरुः । प्रसिद्धवैयाकरणप्रभाववानशेषराद्धान्तसमुद्रपारगः ॥ ३० तदीयशिष्योऽमितसेनसद्गुरुः पवित्रपुन्नाटगणाग्रणीर्गणी । जिनेंद्रसच्छासनवत्सलात्मना तपोभृता वर्षशताधिजीविना ॥ ३१ सुशास्त्रदानेन वदान्यतामुना वदान्यमुख्येन भुवि प्रकाशिता ।' यदग्रजो धर्मसहोदरः शमी समग्रधीधर्म इवात्तविग्रहः ॥ ३२ तपोमयीं कीर्तिमशेषदिक्षु यः क्षिपन् बभौ कीर्तितकीर्तिषेणकः । तदप्रशिष्येण शिवाग्रसौख्यभागरिष्टनेमीश्वरभक्तिभाविना । स्वशक्तिभाजा जिनसेनसूरिणा धियाल्पयोक्ता हरिवंशपद्धतिः ॥ ३३ शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेषूत्तरां पातींद्रायुधनानि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणां । पूर्वा श्रीमदवंतिभूभृति नृपे वत्सादिराजे परां सौराणामधिमंडलं जययुते वीरे वराहेऽवति ।। ५२ कल्याणैः परिवर्धमानविपुलश्रीवर्धमाने पुरे श्रीपालयनन्नराजवसतौ पर्याप्तशेषः पुरा । पश्चादोस्तटिकाप्रजाप्रजनितप्राज्यार्चनावर्चने शांतेः शांतगृहे जिनस्य रचितो वंशो हरीणामयम् ॥ ५३
(पर्व ६६, माणिकचंद ग्रंथमाला, वम्बई १९३०) लेखांक ६२३ - कडब दानपत्र
| জীনি श्रीयापनीय-नंदिसंघ-पुंनागवृक्षमूलगणे श्रीकित्या- (कीर्त्या) चार्यान्वये बहुध्वाचार्येष्वतीतेषु व्रतसमितिगुप्तिगुप्तमुनिवृंदवंदितचरण कूविलाचार्यणामासीत् । तस्यान्तेवासी समुपनतजनपरिश्रमाहारः स्वदानसंतर्पितसमस्तविद्वज्जनो जनितमहोदयः विजयकीर्तिनाम मुनिप्रभुरभूत् ।
अर्ककीर्तिरिति ख्यातिमातन्वन्मुनिसत्तमः ।
तस्य शिष्यत्वमायातो नायातो वशमेनसाम् ।। तस्मै मुनिवराय तस्य विमलादित्यस्य शणेश्वरपीडापनोदाय मयूर
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- ६२५] १४. काष्ठासंघ--लाडबागड--पुन्नाट-गच्छ २४९ खंडिमधिवसति विजयस्कंधावारे चाकिराजेन विज्ञापितो वल्लभेंद्रः इडिगूविषयमध्यवर्तिनं जालमंगलनामधेयग्राम शकनृपसंवत्सरेषु शरशिखिमुनिषु (७३५) व्यतीतेषु ज्येष्ठमासशुक्लपक्षदशम्यां पुष्यनक्षत्रे चंद्रवारे मान्यपुरवरापरदिग्विभागालंकारभूतशिलाग्रामजिनेंद्रभवनाय दत्तवान्... ॥
(जैन शिलालेख संग्रह भा. २ पृ. १३७ ) लेखांक ६२४ – आराधना कथाकोष
हरिषेण ...पुन्नाटसंघांबरसंनिवासी श्रीमौनिभट्टारकपूर्णचंद्रः ॥ ३ ...कार्तस्वरापूर्णजनाधिवासे श्रीवर्धमानाख्यपुरेवसन् सः ॥ ४ सारागमाहितमतिर्विदुषां प्रपूज्यो नानातपोविधिविधानकरो विनेयः । तस्याभवद्गुणनिधिर्जनताभिवद्यः श्रीशब्दपूर्वपदको हरिषेणसंज्ञः ॥ ५ ...नानाशास्त्रविचक्षणो बुधगणैः सेव्यो विशुद्धाशयः सेनान्तो भरतादिरस्य परमः शिष्यो बभूव क्षितौ ।। ६ तस्य शुभ्रयशसो हि विनेयः संबभूव विनयी हरिषेणः ।। ७ आराधनोद्धृतः पथ्यो भव्यानां भावितात्मनाम् । हरिषेणकृतो भाति कथाकोशो महीतले ॥ ८ नवाष्टनवकेष्वेषु स्थानेषु त्रिषु जायतः (१)। विक्रमादित्यकालस्य परिमाणमिदं स्फुटम् ॥ ११ संवत्सरे चतुर्विशे वर्तमाने खराभिधे। विनयादिकपालस्य राज्ये शक्रोपमानके ॥ १३
(सिंधी जैन ग्रंथमाला, बम्बई ) लेखांक ६२५ - धर्मरत्नाकर
जयसेन मेदार्येण महर्षिभिर्विहरता तेपे तपो दुश्चरं. श्रीखंडिल्लकपत्तनान्तिकरणाभ्यर्धिप्रभावात्तदा ॥ शाठ्येनाप्युपतस्पृता सुरतरुप्रख्यां जनानां श्रियं तेनाजीयत लाडबागड इति त्वेको हि संघोऽनघः ।।
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भट्टारक संप्रदाय
[६२५ -
धर्मज्योत्स्ना विकिरति सदा यत्र लक्ष्मीनिवासाः प्रापुश्चित्रं सकलकुमुदायत्युपेता विकाशम । श्रीमान सोभून्मुनिजननुतो धर्मसेनो गणींद्रस्तस्मिन् रत्नत्रितयसदनीभूतयोगीन्द्रवंशे ।। ...तेभ्यः श्रीशांतिषेणः समजनि सुगुरुः पापधूलीसमीरः ॥ ...श्रीगोपसेनगुरुराविरभूत्स तस्मात् ।। ...अज्ञातः कलिना जगत्सु बलिना श्रीभावसेनस्ततः ॥ ततो जातः शिष्यः सकलजनतानंदजननः प्रसिद्धः साधूनां जगति जयसेनाख्य इह सः ।। इदं चक्रे शाखें जिनसमयसारार्थनिचितं हितार्थ जंतूनां स्वमतिविभवाद् गर्वविकलः ।। वाणेंद्रियव्योमसोममिते संवत्सरे शुभे । ग्रंथोऽयं सिद्धतां यातः सकलीकरहाटके ।।
( अ. ८ पृ. १०३) लेखांक ६२६ - प्रद्युम्नचरित
महासेन श्रीलाटवर्गटनभस्तलपूर्णचंद्रः शास्त्रार्णवान्तगसुधीस्तपसां निवासः । कान्ताकलावपि न यस्य शरैविभिन्नं स्वान्तं बभूव स मुनिर्जयसेननामा ॥ १ तीर्णागमांबुधिरजायत तस्य शिष्यः श्रीमद्गुणाकरगुणाकरसेनसूरिः । ...तच्छिष्यो विदिताखिलोरुसमयो वादी च वाग्मी कविः आसीत् श्रीमहसेनसूरिरनघः श्रीमुंजराजार्चितः ॥ ३ श्रीसिंधुराजस्य महत्तमेन श्रीपर्पटेनार्चितपादपश्नः । चकार तेनाभिहितः प्रबंध स पावनं निष्ठितमंगजस्य ॥ ४
( जैन साहित्य और इतिहास पृ. १८३ ) लेखांक ६२७ - बकुण्ड शिलालेख विजयकीर्ति
श्रीलाटवागटगणोन्नतरोहणाद्रि-माणिक्यभूतचरितो गुरुदेवसेनः ।।
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- ६२८] १४, काष्ठासंघ-लाडबागड-पुन्नाट गच्छ २५१ . ...जातः श्रीकुलभूषणोऽखिलवियद्वासोगणग्रामणी:
सम्यग्दर्शनशुद्धबोधचरणालंकारधारी ततः ।। रत्नत्रयाभरणधारणजातशोभ-स्तस्मादजायत स दुर्लभसेनसूरिः ।। आस्थानाधिपतौ बुधादविगुणे श्रीभोजदेवे नृपे सभ्येष्वंबरसेनपंडितशिरोरत्नादिषूद्यन्मदान् । योनेकान् शतशो अजेष्ट पटुताभीष्टोद्यमो वादिनः शास्त्रांभोनिधिपारगोऽभवदतः श्रीशांतिषेणो गुरुः ।। गुरुचरणसरोजाराधनावाप्तपुण्यप्रभवदमलबुद्धिः शुद्धरत्नत्रयोऽस्मात् । अजनि विजयकीर्तिः सूक्तरत्नावकीणों जलधिभुवमिवैतां यः प्रशस्ति व्यधत्त ॥ तस्मादवाप्य परमागमसारभूतं धर्मोपदेशमधिकाधिगतप्रबोधाः । लक्षयाश्च बंधुसुहृदां च समागमस्य मत्वायुषश्च वपुषश्च विनश्वरत्वं ।। प्रारब्धाधर्मकांतारविदाहः साधुदाहडः । सद्विवेकश्च कूकेकः सूर्पट: सुकृतेः पटुः ।। शंपायोल्लिखितांबरं वरसुधासांद्रद्रवापांडुरं सार्थ श्रीजिनमंदिरं त्रिजगदानंदप्रदं सुंदरं । संभूयेदमकारयन् गुरुशिरः संचारिकत्वंबरं
प्रांतेनोच्छलतेव वायुविहते द्यामादिशत् पश्यताम् ॥ अर्थतस्य जिनेश्वरमंदिरस्य निष्पादनपूजनसंस्काराय कालान्तरस्फुटितत्रटितप्रतीकारार्थ च महाराजाधिराजश्रीविक्रमसिंहः स्वपुण्यराशेरप्रतिहतप्रसरं परमोपचयं चेतसि निधाय गोणी प्रति विंशोपकं गोधूमगोणीचतुष्टयवापयोग्य क्षेत्रं च महाचक्रयामभूमौ रजकद्रहपूर्वदिग्भागवाटिकां वापीसमन्त्रिता प्रदीपमुनिजनशरीराभ्यंजनार्थ करघटिकाद्वयं च दत्तवान् ।। ___...संवत् ११४५ भाद्रपद सुदि ३ सोमदिने ।
( एपिग्राफिया इंडिका २ पृ. २३७ )
लेखांक ६२८ - पट्टावली
महेंद्रसेन त्रिषष्टिपुराणपुरुषचरित्रकर्ता स्वकीयतपस्तपनप्रकटप्रभावान् मेदपाट
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२५२ भट्टारक संप्रदाय
[६२८ - देशे प्रकटप्रभाव क्षेत्रपालं संबोध्य सकलमहीमंडलेवाश्चर्य चकार तेषां श्रीमहेंद्रसेनदेवानां ॥
(म. ३८) लेखांक ६२९ -- पट्टावली
अनंतकीर्ति चतुर्दशमतीर्थकरचरित्रकर्ता तेषां अनंतकीर्तिदेवानां ।।
(उपर्युक्त) लेखांक ६३० - पट्टावली
विजयसेन तत्पट्टे श्रीविजयसेनभट्टारकाणां यैर्वाराणस्यां पांगुलहरिचंद्रराजानं प्रबोध्य तस्यैव सभायामनेकशिष्यसमूहसमन्वितं चंद्रतपस्विनं विजित्य महावादवादीति नाम प्रकटीचकार ॥
( उपर्युक्त ) लेखांक ६३१ – पट्टावली
चित्रसेन तदन्वये श्रीमल्लाटवर्गट गच्छवंशप्रतापप्रकटनयावज्जीवबोधोपवासैकातरे नीरस्याहारेण तापनायोगसमुद्धारणधीरश्रीचित्रसेनदेवानां यैः पंचलाटवर्गददेशे प्रतिबोधं विधाय मिथ्यात्वमलनिरसनं चक्रे ततः पुनाटगच्छ इति भांडगारे स्थितं लोके लाटवर्गटनामाभिधानं पृथिव्यां प्रथितं प्रकटीबभूव ।।
(उपर्युक्त ). लेखांक ६३२ - पट्टावली
पनसेन तदन्वये श्रीमत्लाटवर्गटप्रभावश्रीपद्मसेनदेवानां तस्य शिष्यश्रीनरेंद्रसेनदेवैः किंचिदविद्यागर्वत असूत्रप्ररूपणादाशाधारः स्वगच्छानिःसारितः कदाग्रहप्रस्तं श्रेणिगच्छमशिश्रियत् ।।
( उपर्युक्त )
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- ६३७ ] १४. काष्ठासंघ - लाङबागड़-पुन्नाट - गच्छ
लेखांक ६३३ - रत्नत्रयपूजा
अतुलसुखनिधानं सर्वकल्याणबीजं जननजलधिपोतं भव्यसन्यैकपात्रं । दुरिततरुकुठारं पुण्यतीर्थप्रधानं पिबतु जितविपक्षं दर्शनाख्यं सुधाम्बु || इति श्रीलङबागडीयपंडिताचार्य श्रीमन्नरेंद्रसेन विरचिते रत्नत्रयपूजाविधाने दर्शनपूजा समाप्ता ॥
( म. १११ )
लेखांक ६३४ - वीतराग स्तोत्र
कल्याणकीर्तिरचितालयकल्पवृक्षं..
पश्यन्ति पुण्यरहिता न हि वीतरागम् ॥ ८ श्रीजैनसूरिविनतक्रमपद्मसेनं
लेखांक ६३५ - पट्टावली
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हेला त्रिनिर्दलितमोहनरेन्द्रसेनं... ॥ ९
लेखांक ६३६ - पट्टावली
तस्य श्रीपद्मसेनस्य वर्याचार्यस्य धीमतः । पट्टोदयाचले चंद्रनिचंद्र विबुधाप्रणीः || श्रीत्रिभुवनकीर्तिदेवाः बभूवुः ॥
( अ. ८ प्र. २३३ )
त्रिभुवनकीर्ति
त्योदयाद्विप्रभावक भ. श्रीधर्मकीर्तिदेवानाम् ॥
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२५३
( म. ३८ )
धर्मकीर्ति
( उपर्युक्त )
लेखांक ६३७ - मंदिरलेख
विक्रमादित्य संवत् १४३१ वर्षे वैशाख सुदी अक्षयतिथौ बुधदिने गुरु बाधेा वाणि कृत्य पर सरोवर लोकाति खंडवाला पगनो राज ॐ
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मलयकीर्ति
२५४ भट्टारक संप्रदाय
[६३७ - विजयराज पालयति सति उदयराज शैल श्रीमजिनेन्द्राराधनतत्परपर्यन्त बागड प्रतिपात्रो श्रीसंघ भ. श्रीधर्मकीर्तिगुरूपदेशेन...काष्ठासंघे श्रीविमलनाथ का जिन बिम्ब प्रतिष्ठितं ॥
( केशरियाजी, वीर २ पृ. ४६० ) लेखांक ६३८ - (मूलाचार)
मुनींद्रोनंतकीर्तिस्तु धुर्यो विजयसेनकः । जयसेनो गणाध्यक्षो वादिशुण्डालकेसरी ॥ १५ प्रमाणनयनिक्षेपैहेत्वाभासादिभिः परैः । विजेता वादिवृन्दस्य सेनः केशवपूर्वकः ॥ १६ चरित्रसेनः कुशलो मीमांसावनितापतिः । वेदवेदांगतत्त्वज्ञो योगी योगविदां वरः ॥ १७ तस्य पट्टे बभूव श्रीपद्मसेनो जितांगभूः । श्मश्रुयुक्तसरस्वत्या बिरुदं यस्य भासते ।। १८ तत्पट्टे व्योमतारेशः संसृतेधर्मनाशकृत् । तपसा सूर्यवर्चस्को यमिनां पदमुत्तमम् ॥ १९ प्राप्तः करोत्वेते त्रिभुवनोत्तरकीर्तिभाक् ।। कल्याणं संपदः सर्वाः सर्वामरनमस्कृतः ।। २० श्रीधर्मकीर्तिर्भुवने प्रसिद्धस्तत्पट्टरत्नाकरचंद्ररोचिः । पदतर्कवेत्ता गतमानमायक्रोधारिलोभोऽभवदत्र पुण्यः ।। २१ तस्य पादसरोजालिर्गुणमूर्तिर्विचक्षणः । मलयोत्तरकीर्तिर्वा मुदं कुर्यादिगंबरः ।। २२ हेमकीर्तिर्गुणज्येष्ठो ज्येष्ठो मत्तः कुशाग्रधीः । धर्मध्यानरतः शान्तो दान्तः सूनृतवाग्यमी ॥ २३ ततोऽनुजो मुनींद्रस्तु सहस्रोत्तरकीर्तियुक् । गुर्जरी जगतीं शास्तो द्वौ यती महिमोदयौ ॥ २४ वयं त्रयोपि धीमन्तः साधीयांसो निरेनसः । धर्मकीर्तेर्भगवतः शिष्या इव रवेः कराः ।। २५
...साधुफेरू स्ववचोभिरिति स्वामिन् विधीयते श्रीश्रुतपंचम्या उद्यापनमितीरितं श्रुत्वा सप्रमोदः श्रीधर्मकीर्तिमुनिपाय तन्निमित्तं श्रीमूलाचार
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- ६४१] १४. काष्ठासंघ - लाडब्रागड - पुनाट - गच्छ
२५५
पुस्तकं लेखयांचकार पश्चात् तस्मिन् मुनिपतौ नाकलोकं प्राप्ते सति तच्छिध्याय यमनियमस्वाध्यायध्यानाध्ययननिरताय तपोधनश्रीमलय कीर्तये तत्सबहुमानं सोत्सवं सविनयमर्पयत् ।
- इदं मूलाचारपुस्तकं । सं. १४९३ ।
लेखांक ६४१
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लेखांक ६३९ - पट्टावली
तत्पट्टे भ. श्रीमलयकीर्तिदेवानां यैर्निजबोधनशक्तितः एलदुग्गाधीश्वरराजश्रीरणमलं प्रतिबोध्य तरसुंबानगरे केकापिछायान हटान् महाकायश्रीशांतिनाथस्य प्रासादः कारितः ||
--
(अ. १३.प्र. १०९ )
लेखांक ६४० - पट्टावली
तत्पट्टे कलबुर्गाधीश्वरसुलतान पिरोजस्याहसमस्यां पूरयित्वा पुनः श्रीजिनचैत्यालये प्रतोलीं काराप्य कुशलानां राजराजगुरुवसुंधराचार्य प्रस्तरीनगराधीश्वरराजाधिराजवैजनाथेन संसेवितचरणारविंदसमस्तवादीभवजांकुश श्रीनरेंद्रकीर्तिदेवानां यैस्तस्मिन्नेव श्रीपार्श्वनाथ चैत्यालयं काराप्य सहस्रकूटं संस्थाप्य श्रीपार्श्वनाथस्य पूजामहिमानं प्रकटीचके ।
[ उपर्युक्त ]
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( म. ३८ )
नरेंद्रकीर्ति
वाग्वर देश मझार नयर आंतरी सुभ सोहे । राजपाल रणमल्ल सयल लोक मन मोहे || रणमल्ल राय प्रतिबोधी कइ तव जैन विचक्षण । तिहां शांतिनाथ जिन चैत्य पोल निमित्त हठ कारण || बर्ही पिच्छने संघात पोली अग्रे करी स्थापण । भट्टारक कोटी मुगुट नरेंद्रकीर्ति वंदितचरण ||
[म. ४९]
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२५६
लेखांक ६४२ - प्रतापकीर्ति
भट्टारक संप्रदाय
लेखांक ६४३ -
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काष्ठासंघ शृंगार लाडवागड गछ सोहे | नरेंद्रकीर्ति गुरुराय वादीपंचानन मोहे ।। कलबर्गा पातस्याह जैननि समस्या पुरावी पीरोजसाहा माण पालखी अंतरिक्ष चलावी ॥ तस पाट सोहे वादी विकट प्रतापकीर्ति सूरिवर जयो केदारभट्ट पाथरी नगर राजसभा मांहि जीतियो ||
1
[ ६४२ -
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( म. ४९ )
काष्ठासंघ शृंगार जु सोभत लाडवागड गछ दिवाकर रे । बादि विकट वांकुश हस्त में चामर पीछी छाजतु रे ॥ नरेंद्रकीर्ति वा दिगजकेशरी अंतरीक्ष पालखी चलावतु रे । प्रतापसुकीर्ति वादिगजकेशरी मानत भूप सुपंडित रे ॥
( म. ४९ )
त्रिभुवनकीर्ति
लेखांक ६४४ - बिरुदावली
श्रीमलय कीर्तिपट्टधराणां ।। श्रीलादवर्गट गच्छविपुलगगनमार्तंडमंडलानां भट्टारक श्री मनरेंद्रकीर्ति सद्गुरुचरणकमलाराधनकुशलानाम् ॥ सकलविबुधमुनिमंडली मंडितचरणारविंदानां समुन्मूलित मिध्यात्वतरुकंदानां श्रीमत्प्रतापकीर्तियतिचक्रवर्तिनाम् ।। तेषां पट्टे भट्टारक श्रीत्रिभुवनकीर्तिदेवगुण रत्नभूषणयतीनाम् ॥ तेषां सद्गुरूणामुपदेशेन अद्येह देवगिरिमहास्थानवास्तव्येन श्रीमद्वयाघ्रवालज्ञातीयमुखमंडनेन
॥
( म.. ११७ )
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काष्ठासंघ-लाडबागड--पुन्नाट गच्छ इस संघ के आचार्य पहले पुन्नाट अर्थात् कर्णाटक प्रदेश में विहार करते थे इस लिए इस का नाम पुन्नाट था। बाद में उन का प्रमुख कार्यक्षेत्र लाडबागड अर्थात् गुजरात प्रदेश हुआ इस लिए इस का नाम लाडबागड गच्छ पडा। इसी का संस्कृत रूप लाटवर्गट है। पुन्नाट और लाटवर्गट संघों की एकता (ले. ६३१ ) पर से प्रतीत होती है और इस की पुष्टि (ले. ७४७) से होती है जिस में लाडबागड गच्छ के कवि पामो ने अपना गच्छ पुन्नाट कहा है।
पुन्नाट संघ के प्राचीनतम ज्ञात आचार्य जिनसेन हैं। आप ने शक ७०५ में वर्धमानपुर के पार्श्वनाथमन्दिर तथा दोस्तटिका के शान्तिनाथमन्दिर में रहकर हरिवंशपुराण की रचना की (ले. ६२२)। इस समय उत्तर में इन्द्रायुध, दक्षिण में श्रीवल्लभ, पूर्व में वत्सराज और पश्चिम में जयवराह का राज्य चल रहा था। जिनसेन के गुरु कीर्तिषेण थे। वे पुन्नाट गण के अग्रणी अमितसेन के गुरुबन्धु थे। अमितसेन की गुरुपरम्परा में ग्रन्थकर्ता ने अंगज्ञानी आचार्यों के बाद ३० आचार्यों के नाम दिये ह् ।
शक ७३५ में कीर्त्याचार्यान्वय के कूविलाचार्य के प्रशिष्य तथा विजयकीर्ति के शिष्य अर्ककीर्ति को चाकिराज की प्रार्थना से वल्लभेन्द्र ने।" जालमंगल नामक ग्राम दान दिया। अर्ककीर्ति ने अपना संघ यापनीय नन्दिसंघ तथा पुंनागवृक्षमूलगण कहा है। सम्भवतः पुंनागवृक्षमूलगण पुन्नाटसंघ का ही एक रूपान्तर है ( ले. ६२३ )।
पुन्नाट संघ के आचार्य हरिषेण ने संवत् ९८९ में वर्धमानपुर में विनायकपाल के राज्यकाल में बृहत् कथाकोष की रचना की (ले.६२४)। मौनि भट्टारक-हरिषेण-भरतसेन - हरिषेण ऐसी इन की परम्परा थी।
११७ यह संभवतः राष्ट कूट राजा गोविन्द (तृतीय) का उल्लेख है जिन की ज्ञात तिथियां ७८३-८१४ ई. हैं ।
११८ ये रघुवंशीय प्रतिहार राजा थे । सन् ९३१ का इन का एक उल्लेख मिला है। वर्धमान पुर का वर्तमान रूप वढयाण-मतान्तर से बदनावर सौराष्ट्र है।
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२५८
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भट्टारक संप्रदाय
लाडबाड संघ के आचार्य जयसेन ने संवत् १०५५ में सकलीकरहाटक ग्राम में धर्मरत्नाकर नामक ग्रन्थ लिखा ।" इन की गुरुपरम्परा धर्मसेन - शान्तिषेण-गोपसेन - भावसेन - जयसेन इस प्रकार थी। इन के मत से इस संघ का आरम्भ मेदार्य की उग्र तपश्चर्या से हुआ था (ले. ६२५) जो खंडिल्य ग्रामके पास निवास करते थे ।
इस संघ के अगले आचार्य महासेन थे । आप ने प्रद्युम्नचरित नामक काव्य की रचना की। मुंजराज तथा सिन्धुराज के मन्त्री पर्पट ने आप का सन्मान किया था । जयसेन - गुणाकरसेन -- महासेन ऐसी आप की परम्परा थी (ले. ६२६ ) ।
इस के अनन्तर आचार्य विजयकीर्ति का उल्लेख मिलता है। कछवंश के विक्रमसिंह ने संवत् १९४५ में एक जिनमन्दिर के लिए कुछ जमीन दान दी। यह मन्दिर विजयकीर्ति के शिष्य दाहड, सूर्पट, कूकेक आदि ने मिल कर बनाया था। इस दान की विस्तृत प्रशस्ति विजयकीर्ति ने लिखी (ले. ६२७ ) इन की गुरुपरम्परा देवसेन कुलभूषण - दुर्लभसेनअम्बरसेन आदि वादियों के विजेता शान्तिषेण विजयकीर्ति इस प्रकार थी ।
पट्टावली में उल्लिखित आचार्यों में महेन्द्रसेन पहले ऐतिहासिक व्यक्ति प्रतीत होते हैं ।" इन ने त्रिषष्टिपुरुषचरित्र लिखा तथा मेवाड में क्षेत्रपाल को उपदेश दे कर चमत्कार दर्शाया (ले. ६२८ ) ।
महेन्द्रसेन के शिष्य अनन्तकीर्ति ने चौदहवे तीर्थंकर का चरित्र लिखा ( ६२९ ) ।
११९ पं. परमानन्द ने इन्हें झाडवागड संघ के आचार्य कहा । यहाँ स्पष्टतः ल की जगह गलती से झ पढ़ा गया है। झाड़बागड नाम के किसी संघ का कोई उल्लेख नहीं मिलता ।
१२० इन के पहले अंगज्ञानी आचार्यों के बाद क्रम से विनयधर, सिद्धसेन, वज्रसेन, महासेन, रविषेण, कुमारसेन, प्रभाचन्द्र, अकलंक, वीरसेन, सुमतिसेन, जिनसेन, वासवसेन, रामसेन, जयसेन, सिद्धसेन तथा केशवसेन का उल्लेख है ।
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काष्ठासंघ-लाडबागड-पुनाट गच्छ
२५९
अनन्तकीर्ति के शिष्य विजयसेन ने वाणारसी में पांगुल हरिचन्द्र राजा की सभा में चन्द्र तपस्त्री का पराजय किया (ले. ६३०)। इन के शिष्य चित्रसेन के समय से इस संघ का पुन्नाट संघ यह नाम लुप्तप्राय हुआ (ले. ६३१)। चित्रसेन ने एकान्तर उपवासादि कठोर तपश्चर्या की।
इन के पट्टशिष्य पद्मसेन हुए। आप के शिष्य नरेन्द्रसेन ने शास्त्रविरुद्ध उपदेश करने वाले आशाधर को अपने संघ से बहिष्कृत किया (ले. ६३२)। नरेन्द्रसेन ने रत्नत्रयपूजा की रचना की (ले. ६३३ )। इन के शिष्य कल्याणकीर्ति ने वीतरागस्तोत्र की रचना की (ले. ६३४)।
पद्मसेन के बाद क्रमशः त्रिभुवनकीर्ति और धर्मकीर्ति भट्टारक हुए । धर्मकीर्ति के समय संवत् १४३१ में केशरियाजी तीर्थक्षेत्र पर विमलनाथ मन्दिर का निर्माण हुआ (ले. ६३७) ।
धर्मकीर्ति के तीन शिष्य हुए- हेमकीर्ति, मलयकीर्ति तथा सहस्रकीर्ति । ये तीनों गुजरात प्रदेश में विहार करते थे । दिल्ली के साह फेरू ने संवत् १४९३ में श्रुतपंचमी उद्यापन के निमित्त मूलाचार की एक प्रति मलयकीर्ति को अर्पित की (ले. ६३८ ) । मलयकीर्ति ने एलदुग्ग के राजा रणमल को उपदेश दे कर तरसुंबा में मूलसंघ का प्रभाव कम किया तथा शान्तिनाथ की विशाल मूर्ति स्थापित की (ले. ६३९) । ११३ ।
मलयकीर्ति के पट्टशिष्य नरेन्द्रकीर्ति हुए। आप ने कलबुर्गा के पिरोजशाह की सभा में समस्या पूर्ति कर के जिनमन्दिर का जीर्णोद्धार
१२१ कनौज के गाहडवाल राजा हरिश्चन्द्र- सन ११९३-१२०० ई.।
१२२ समय के अनुमान से पण्डित आशाधर का ही यह उल्लेख होना चाहिए। किन्तु इसे अन्य उल्लेखों से कोई पुष्टि नहीं मिलती।
१२३ ईडर के राजा रगमल- १३४५-१४०३ ई. । यही घटना ले.६४१ में मलयकीर्ति के पट्टशिष्य नरेन्द्रकीर्ति के विषय में कही गई है।
१२४ बहामनी बादशाह फिरोज- सन १३९७-१४२२ ।
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२६०
भट्टारक संप्रदाय
करने की अनुज्ञा प्राप्त की तथा प्रस्तरी में राजा वैजनाथ से सम्मान पा कर पार्श्वनाथ मन्दिर में सहस्रकूट जिनमूर्ति की स्थापना की (ले. ६४०)। अनुश्रुति के अनुसार आप ने आकाश मार्ग से गमन किया था (ले.६४२) ।
नरेन्द्रकीर्ति के पट्टशिष्य प्रतापकीर्ति हुए। आप ने पाथरी नगर में केदारभट्ट को विवाद में पराजित किया। पंडित भूप ने आप की प्रशंसा की है तथा आप की पिच्छी चामर की थी ऐसा कहा है (ले. ६४२-४३) ।
प्रतापकीर्ति के पट्टशिष्य त्रिभुवनकीर्ति हुए । इन की आम्नाय के कुछ लोग देवगिरि में रहते थे (ले. ६४४)।२६
१२५ वैजनाथ का राज्य काल ज्ञात नहीं होता।
१२६ ज्ञात होता है कि इन के बाद इस परम्परा में कोई भष्टारक नहीं हुए क्यों कि इस आम्नाय के श्रावकों ने नन्दीतट गच्छ के भट्टारकों द्वारा अनेक प्रतिठाएं करवाने के उल्लेख मिले हैं। देखिए ले. ६८४-८६ आदि ।
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काष्ठासंघ-पुनाट-लाडवागड गच्छ-कालपट
जयसेन
अमितसेन
कीर्तिषण
जिनसेन (सं. ८४०)
कूविलाचार्य
विजयकीर्ति
अर्ककीर्ति (संवत् ८७०) मौनिभट्टारक
हरिषेण
भरतसेन
हरिषेण ( संवत् ९८९) धर्मसेन
शान्तिण
गोपसेन
जयसेन (संवत् १०५५) जयसेन
गुणाकरसन
महासेन देवसेन
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२६२
भट्टारक संप्रदाय
कुलभूषण
दुर्लभसेन
शान्तिषेण
विजयकीर्ति (संवत् ११४५) महेन्द्रसेन
अनन्तकीर्ति
विजयसेन
चित्रसेन
पमसेन
त्रिभुवनकीर्ति
धर्मकीर्ति ( संवत् १४३१)
मलयकीर्ति (संवत् १४९३)
नरेन्द्रकीर्ति
प्रतापकीर्ति
त्रिभुवनकीर्ति
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१५ काष्ठासंघ-बागड गच्छ लेखांक ६४५ - ? मूर्ति
सुरसेन श्रीसुरसेनोपदेशेन सिंहै कयशोराजनोन्नैकै सहोदरैः संसारभयभीतैरतजिनबिंब कारितं इति ॥ जयति श्रीवागटसंघः ।। संवत् १०५१ कृष्ण गणेनघ...।
(कटरा, जर्नल आफ एशियाटिक सोसायटी भा. १९ पृ. ११०) लेखांक ६४६ - जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला यश कीर्ति
आसि पुरा वित्थिण्णे बायडसंघे ससंकसो (भो)। मुणिरामइत्ति धीरो गिरिव णईसुव्व गंभीरो ।। १८ संजाउ तस्स सीसो विबुहो सिरिविमलइत्ति विक्खाओ। विमलपरत्ति रवडिया धवलिया धूणिय गयणाययले ॥ १९ जसइत्ति णाम पयडो पयपयरुहजुअलपडियभव्ययणो । सत्थमिणं जणदुलहं तेण हहिय समुद्धरियं ॥ २६
( अ. २ पृ. ६०६ )
काष्ठासंघ-बागड गच्छ काष्ठासंघ के चार गच्छों मे एक बागड गच्छ भी है । इस के उल्लेख सिर्फ दो मिले हैं । सम्भवतः यह गच्छ लाडबागड गच्छ में जल्दी ही विलीन हो गया था ।
इस गच्छ के आचार्य सुरसेन के उपदेश से सिंहराज आदि बन्धुओं ने संवत् १०५१ में एक जिनमूर्ति स्थापित की थी (ले. ६४५)।
रामकीर्ति के प्रशिष्य तथा विमलकीर्ति के शिष्य यशःकीर्ति इस संघ के दूसरे ज्ञात आचार्य हैं । आप ने जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला नामक मन्त्रशास्त्र के ग्रन्थ की रचना की थी (ले. ६४६)। इन का समय अनुमानतः १५ वीं सदी है।
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१६. काष्ठासंघ-नन्दीतट गच्छ लेखांक ६४७ -
सत्तसए तेवण्णे विक्कमरायस्स मरणपत्तस्स । णंदियडे वरगामे कट्ठो संघो मुणेयव्यो।
(दर्शनसार ३८)
लेखांक ६४८ -
रामसेन रामसेनोति विदितः प्रतिबोधनपंडितः ।। स्थापिता येन सज्जातिर्नरसिंहाभिधा भुवि ।।
( पट्टावली, दा. पुं. ४७) लेखांक ६४९ -
नरसिहपुर वर नयर तजीय ते तीर्थी पहुता। गाम हु नाम न्याती रवी तली सुपत्ति सत्ता ।। वीसहगोत्र ते थीर करी तव थापिय । नरसिंहपुरा सगुण नाम जिनधर्मज आपीय ।। श्रीशांतिनाथ सुपसालय करी श्रीरामसेन उवएस धरी । भूमंडल नीयर तारु रुद्धि वृद्ध सावय घरी ।। १६१
( म. ४९)
लेखांक ६५० -
नेमिसेन.. श्रीरामसेन मुनिराय नयर नरसिंहपुर पामी । नरसिंहपुरा वर ज्ञाति प्रतिबोधी मुखगामी ।। तत्पट्टे नेमिसेन पद्मावति आराधी । भट्टपुरा कुलवंत जैनधर्म प्रति साधी ॥ .. नेगिसेन वादी विकट परमत वादी जीतये । जयसागर एवं वदति श्रीकाष्ठासंघ कुल दीपये ।। ३३
(म, ४९)
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१६. काष्ठासंघ- नन्दीतट गच्छ
- ६५४ ]
२६५
लेखांक ६५१ - शीतलनाथ मूर्ति
सोमकीर्ति
संवत् १५३२ वर्षे वैसाख सुदि ५ रवौ काष्ठासंघे नंदीतटगच्छे भ. श्री भीमसेन तत्पट्टे सोमकीर्ति आचार्यश्री वीरसेनसूरियुक्त प्रतिष्ठित नारसिंज्ञातिय बोरढेकगोत्रे चापा भार्या परगू... ।
( अ. ४ पृ. ५०२ )
लेखांक ६५२ - यशोधरचरित
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लेखांक ६५४
नन्दीतटाख्यगच्छे वंशे श्रीरामदेवसेनस्य । जातो गुणार्णवकाः श्रीमांच श्री भीमसेनेति ।। ९३ निर्मितं तस्य शिष्येण श्रीयशोधरसंज्ञिकं । श्री सोमकीर्तिमुनिना विशोध्याधीयतां बुधाः ।। ९४ वर्षे षट्त्रिंशसंख्ये तिथिपरिगणिना युक्तसंवत्सरे वै । पंचम्यां पौषकृष्णे दिनकरदिवसे चोत्तराभे हि चंद्रे ॥ गौढियां मेदपाटे जिनवरभवने शीतलेन्द्रस्य रम्ये । सोमादी कीर्तिनेदं नृपवरचरितं निर्मितं शुद्धभक्त्या ॥ ९५ ( प्रस्तावना पृ. २६, कारंजा जैन सीरीज, १९३१ )
लेखांक ६५३ - १ मूर्ति
सं. १५४० वर्षे वैशाख सुदि १० बुध श्रीकाष्ठासंघे भ. श्री सोमकीर्ति प्र. भट्टेड राजा कामिकगोत्रे सा. ठाकुरसी भा. रूषी पुत्र योधा प्रणमति ।
( भा. ७ पृ. १६
गुर्जर देस मझार गढ पात्रापुर दुर्धर । सुलतान पीरोज साह खान वजीर घन समुधर || तेह सभा शृंगार नर सुर भूपति देखत । पद्मा देवि प्रसन्न पालखी अंतरीक्ष पेखत || सकलवादीभकुंभपंचानन बादवादि सेवत चरण । जयसागर एवं वदति श्रीसोमकीर्ति मंगलकरण || ३५
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विमलपुराण
( म. ४९
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२६६ भट्टारक संप्रदाय
[ ६५५ - लेखांक ६५५ - विमलपुराण
रत्नभूषण विख्याते जगतीतले त्रिभुवनस्वामिस्तुतेभून्महान् । काष्ठासंघसुनामनि प्रभुयतौ विद्यागणे सूरिराद ।। सारंगार्णवपारगो बहुयशाः श्रीरामसेनो जिन- ।. ध्याना|विततिप्रधूतवृजिनो भानुस्तमोराशिषु ॥ १ तत्क्रमेण गणभूधरभानुः सोमकीर्तिरिव शीतमयूख. ।... ॥ २ तत्पदे विजयसेनभदंतो बोधिताखिलजन: कमनीयः ।। ३ तत्पट्टे सूरिराज: सकलगुणनिधिः श्रीयशःकीर्तिदेवः । तत्पादांभोजषट्पत्सकलशशिमुखो वादिनागेंद्रसिंहः ॥ संजझे प्रांतसेनोदय इति वचसा विस्तरे स प्रवीणः । तत्पद्वार्जालिसक्तत्रिभुवनमहिमा तन्मुखप्रांतकीर्तिः ॥ ४ राजते रजनिनाथशशांको तत्पदोदयनगाहिमदीप्तिः । तर्कनाटककुलागमदक्षो रत्नभूषणमहाकविराजः ।। ५ श्रीमल्लोहाकरेऽभूत् परमपुरवरे हर्षनामा वरीयान् । तत्पत्नी साधुशीला गुणगणसदनं वीरिकाख्येन साध्वी ॥ पुत्रः श्रीकृष्णदासो रतिप इव तयोर्ब्रह्मचारीश्वरश्च । सत्कीर्ती राजते वै वृषभजिनपदांभोजषदपत्समानः ॥ ६ गूजरे जनपदे पुरे कृतः कल्पवल्लयभिध एकवत्सरात् । वर्धमानयशसा मया पुरोः पत्कजाहितसुचेतसा ध्रुवं ।। ८ वेदर्षिषट्चंद्रमितेथ वर्षे पक्षे सिते मासि नभस्यलंभे । एकादशी शुक्रमृगर्भयोगे ध्रौव्यान्विते निर्मित एष एव ।। १०
(अध्याय १०, हरीभाई देवकरण ग्रंथमाला ) लेखांक ६५६ - ज्येष्ठजिनवरपूजा
त्रिभुवनकीर्ति पदपंकज वरिय । रत्नभूषण सूरि महा कहिया ॥ १७ ब्रह्म कृष्ण जिनदास विस्तरिया । जयजयकार करी उच्चरिया ॥ १८
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- ६६२] १६. काष्ठासंघ--नन्दीतट गच्छ २६७ लेखांक ६५७ -
गादी मूडा अति भला काष्टासंघ मंगलकरण । जयसागर एवं वदति श्रीरत्नभूषण वंदो चरण ॥ ८
( म. ४९) लेखांक ६५८ -
एसा करियदे बाजा दिगंबर राजा कलुलनयरी प्रवेशतही । कहि जयसागर विद्या आगर रत्नभूषण गुरु आवतही ॥ ७
लेखांक ६५९ - तीर्थजयमाला
जय जिनवर स्वामी पय सर नामी कर जोडी मन भाव धरी । जयसागर वदो पाप निकंदो रत्नभूषण गुरु नमस्करी ॥
लेखांक ६६० - पार्श्वपंचकल्याणिक
विबुधनरनिषेव्यः पंचकल्याणकाले। विमलतरजलाद्यैरर्चितो भव्यधुंदैः ।। जयजलनिधिपारै रत्नभूषाख्यवंद्यो । निखिलभुवनकीर्तिः पार्श्वनाथोऽवताद् वः ।। २६
(म. २७) लेखांक ६६१ - पार्श्वमूर्ति
जयकीर्ति सं. १६८६ वर्षे चैत्र वदी ३ भौमे भ. श्रीरत्नभूषण भ. जयकीर्ति हूंबदहातीय...पार्श्वनाथं प्रणमति ।
(बडौदा दा. पृ. ६७ ) लेखांक ६६२ - आदिनाथ पूजा
केशवसेन कुसुमांजलिं किल रत्नभूषणमाप्रणम्य कवीश्वरं ।
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२६८
भट्टारक संप्रदाय
[६६२ -
सूरिकेशवसेन एवं संयजे विनतीश्वरं ।।
( ना. ६३)
लेखांक ६६३ -
वीराबाई मात उदर सर मान हंस कल । हर्षसाह कुल भाण प्रकटयस सदा सुनिर्मल ।। कुमति किरिट घट सिंह ब्रह्म मंगल बड सोदर । नरपतिपूजितपाय कणकचंपकवपुसुंदर ॥ . काष्ठासंघ गिरिराज रवि कविराज जग जय धरण। सकलसूरिसिरमुगुटमनी केशवसेन सूरि सुखकरण ।। ८८
लेखांक ६६४ -
केशवसेन सूरींद्र चंद्रमुख मदनमनोहर । याचक गुण गायंत ब्रह्म मंगल जस सोदर । कल्लोलकीर्ति वादीमहरि इंदार मझ सूरिपद-धरण । प्रात प्रात तस जपता सकलसंघ-मंगल-करण ।। ९०
( म. ४९) लेखांक ६६५ - ( हरिवंशपुराण-श्रीभूपण ) विश्वकीर्ति ____ श्री संवत् १७०० श्रीकाष्ठासंघे भ. सोमकीर्ति तत्पट्टे भ. विजयसेन तत्पट्टे भ. यश:कीर्ति तत्पट्टे भ. उदयसेन तत्पट्टे भ. त्रिभुवनकीर्ति तत्पटे भ.रत्नभूषण तत्पट्टे भ. जयकीर्ति तत्पट्टे भ. केशवसेन तच्छिष्य विश्वकीर्तिलिखितं ॥
( कारंजा) लेखांक ६६६ - ( न्यायदीपिका )
सं. १६९६ श्रीकाष्ठासंघ नदीतटगच्छे भ. रत्नभूषण तत्पट्ट भ. जयकीर्ति तत्पट्टे भ. केशवसेन तत्पट्टे भ. विश्वकीर्ति तच्छिष्य पं. मनजी लिखितं मालासा ग्रामे ||
( कारंजा)
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- ६७१] १६. काष्ठासंघ-नन्दीतट गच्छ २६९ लेखांक ६६७ - अतिशय जयमाला
धर्मसेन पट्चत्वारिंशत् शुभगुणगणै राजते योरिहंता । स्वस्वस्थाने स्थितनरसुरान् वर्षते धर्मतोयं ॥ तस्मै देयो जलकुसुमभरैर्दीपसद्धृपकैश्च । काष्ठासंघे भुवनविदिते धर्मसेनैः सूरिभिः ॥ ९
( म. २४) लेखांक ६६८ -
काम क्रोध परिहरवि काष्ठासंघमंडन भयो । कवि वीरदास सचूं चवी धर्मसेन भट्टारक जयो ॥२
( भा. ७ पृ. १६) लेखांक ६६९ - १ मूर्ति
विश्वसेन सं. १५९६ वर्षे फा. वदि २ सोमे श्रीकाष्ठासंघे नरसिंघपुरा ज्ञातीय नागर गोत्रे म. रत्नस्त्री भा. लीलादे...नित्यं प्रणमति भ. श्रीविश्वसेन प्रतिष्ठा ॥
( भा.७ पृ. १६) लेखांक ६७० - आराधनासारटीका
इति आराधनाटीका समाना | भ. श्रीविश्वसेनेन लखिता। श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छाधिराज भ. श्रीविमलसेन तत्पट्टे भ. श्रीविशालकीर्तिगुरुभ्यो नमः ।
(ना. १०२) लेखांक ६७१ -
काष्टासंघ गुरुराय लक्ष्मीसेनह गुरु भणिए । धर्मसेन तस पाटि नाम यस श्रवणे सुणिए । विमलसेन विख्यातकीर्ति राय राणा रीझे। सर्व सौख्य संपत्ति नाम परभाती लीजे ॥
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२७०
भट्टारक संप्रदाय
[६७१ - श्रीविशालकीर्ति पट्टोद्धरण नंदियङगच्छ उद्योतकर । श्रीविश्वसेन भवियण जयो सयल संघ वंदउ पर ।। ३
(म. ४९)
लेखांक ६७२ -
लीधो संयम रयण मयण मच्छरमे हलाव्यो । तीनइ अवसरी श्रीपाल साहि कुल कलश चडाव्यो । श्रीडूंगरपुरनवरी ग्रही दीक्षा दिगंबर । उत्सव हुई अनेक भोज घर भोजतने पर ॥ श्रीविसालकीर्ति निज करकमली पद प्रमाणती अप्पयो । कर्म सीकला दीन दीन प्रतप्यो विश्वसेन गुरु थप्पयो ॥ १६०
( म. ४९) लेखांक ६७३ -
रूपवंत राजान शील संजम तु छजि । चाल्यु दक्षण क्षेत्र संजम तु महिअलि गजि ॥ श्रीकाष्टसंघ नंदीयडगच्छ विद्यागुण वखाणीइ । सूरि विद्याभूषण कहि विश्वसेन जगि जाणीइ ।। ५
(म. ४९) लेखांक ६७४ - सीताहरण
विजयकीर्ति काष्ठासंघ शृंगार विविध विद्यारससागर । नंदीतटगच्छ काव्य पुराण गुण आगर ।। सूरि विश्वसेन पाटि प्रगट सूरि विजयकीर्ति बंदित चरण । महेंद्रसेन एवं वदति राम सीता मंगलकरण ॥ १६०
(म. ८५) लेखांक ६७५ - बारामासी
काष्ठासुसंघ नंदीतट मंडित विश्वसेनगुरु गाजतुही। विजयकीर्ति तस पाट प्रभाकर महेंद्रसेन शिष्य राजतुही ।। १३
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C
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Acha
- ६८१] १६. काष्ठासंघ-नन्दीतट गन्छ २७१ लेखांक ६७६ - पार्श्वमूर्ति
विद्याभूषण ___सं. १६०४ वर्षे वैशाख वदी ११ शुके काष्ठासंघे नंदीतटगच्छे विद्यागणे भ. श्रीरामसेनान्वये भ. श्रीविशालकीर्ति तत्सट्टे भ. श्रीविश्वसेन तत्पट्टे भ. श्रीविद्याभूषणेन प्रतिष्ठितं हूंबड झातीय गृहीतदीक्षा बाई अनंत मती नित्यं प्रणमति ।
( बडौदा द. पृ. ६७) लेखांक ६७७ -- पार्श्वमूर्ति
___ संवत् १६३६ श्रीकाष्ठासंघे भ. विद्याभूषण प्रतिष्ठितं झुंबड सा जयवंत ।
( ज. प्र. किलेदार, नागपुर ) लेखांक ६७८ - द्वादशानुप्रेक्षा
विद्याभूषण इम कहे जे चिंतए दिउ रात । द्वादशानुप्रेक्षा भली धन्य धन्य तेहनी माय ॥ १७
(म. १२०) लेखांक ६७९ -
श्रेष्ठी सुजाण हरदाससुत काष्टासंघमानंदकर । विश्वसेन पट्टि भलु सूरि विद्याभूषण बंदउ प्रवर ॥ ४
( म. ४९) लेखांक ६८० -
विश्वसेन सिष्यह सुगुण ज्ञान दान दाता चतुर । कवि राजनभट्ट समुचरइ विद्याभूषण वंदू प्रवर ।। १६७
लेखांक ६८१ - श्रीभूषण
संवत् षट दश ममे पडयू पंचोत्तर प्राक्रम । सीतांबर सह कोय हठी हठ यासह हाकिम ॥
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२७२ भट्टारक संग्रदाय
[६८१ - पाडी करी पोशाल देशनीकालो दीधो । मत्तचोरासीमाही उत्तर कोने नवि कीधो । पुछीयु तन जागीरने वली धर्म पूज्यो मुदा । दिगंबर धर्म दीवानथी श्रीभूषणे राख्यो सदा ॥ १०७
( म. ४९) लेखांक ६८२ - पार्श्वमूर्ति
शक १५०१ मा. तिथि ८ काष्ठासंघे भ. श्रीश्रीभूषण सदुपदेशात् प. जयवंत ।
(ल. से. पिंजरकर, नागपुर) लेखांक ६८३ – शांतिनाथ पुराण
विद्याभूषणपट्टकंजतरणिः श्रीभूषणो भूषणो । जीयाजीवदयापरो गुणनिधिः संसेवितः सजनैः ॥ काष्ठासंघसरित्पतिः शशधरो वादी विशालोपमः। सदवृत्तोर्कधरोऽतिसंदरतरो श्रीजैनमार्गानुगः ॥ ४६१ संवत्सरे षोडशनामधेये एकोनशतषष्टियुते वरेण्ये । श्रीमार्गशीर्षे रचितं मया हि शारं च वर्षे विमलं विशुद्धम् ॥ ४६२ त्रयोदशीसद्दिवसे विशुद्धं वारे गुरौ शांतिजिनस्य रम्यं । पुराणमेतद् विमलं विशालं जीयाचिरं पुण्यकरं नराणाम् ॥ ४६३ श्रीगुर्जरेप्यस्ति पुरं प्रसिद्धं सौजिवनामाभिधमेव सारं । श्रीनेमिनाथस्य समीपमाशु चकार शास्त्र जिनभूतिरम्यम् ।। ४६६
( जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३४५ ) लेखांक ६८४ - पद्मावती मूर्ति .. संमत १६६० वर्षे फाल्गुण शुदि १० श्रीकाष्ठासंघे लाडबागडगच्छे भ. प्रतापकीया॑नाये बघेरवाल ज्ञातीय...प्रणमंति श्रीकाष्ठासंघे नंदीतट. गच्छे भ. श्रीश्रीभूषण प्रतिष्ठितं ।
(ब. हि. जोगी, नागपुर)
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Anh
२७३
- ६८९] १६. काष्ठासंघ- नन्दीतटगच्छ लेखांक ६८५ - रत्नत्रय यंत्र
संवत १६६५ वर्षे माघ सुदि १० शुक्र श्रीकाष्ठासंघे भ. श्रीभूषणप्रतिष्ठितं वीर्यचारित्रयंत्रं नित्यं प्रणमंति ।
(नांदगांव, अ. ४ पृ. ५०४ ) लेखांक ६८६ - चंद्रप्रभ मूर्ति
संमत १६७६ वर्षे माघ वदी ८ श्रीकाष्ठासंघे लाडबागडगच्छे भ. श्रीप्रतापकीर्त्याम्नाये बघेरवालज्ञातौ बोरखंड्यागोत्रे धर्मजीसा भार्या अंबाई तयोः पुत्र लखमण सा प्रमुख पंच पुत्रा सभार्या सपुत्रा श्रीचंद्रप्रभुं प्रणमंति। श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे भ. श्रीभूषणप्रतिष्ठितं बहादुरपुरे ।
(परवार मन्दिर, नागपुर ) लेखांक ६८७ - द्वादशांग पूजा
अर्चे आगमदेवतां सुखकरां लोकत्रये दीपिकां । नीराज्य प्रतिकारकैः क्रमयुगं संपूज्य बोधप्रदां ॥ विद्याभूषणसद्गुरोः पदयुगं नत्वा कृतं निर्मलं । सच्छ्रीभूषणसंज्ञकेन कथितं ज्ञानप्रदं बुद्धिदं ॥
( म. २६) लेखांक ६८८ - माकुही मात कृष्णासाह तात श्रीभूषण विख्यात दिन दिनह दीवाजा वादीगजघट्ट दीयत सुथट्ट न्यायकु हट्ट दीवादीव दीपाया ।। १२९
लेखांक ६८९ -
काष्ठादिसंघमंडन तिलक श्रीभूषण सूरिवर जयो । सुविवेक ब्रह्म एवं वदति सकल संघ मंगल भयो ।। १७६
(म. ४९)
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२७४
लेखांक ६९०
लेखांक ६९१ -
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लेखांक ६९२ -
भट्टारक संप्रदाय
काष्ठासंघ गछपति राउ देखो सब लोके सुरतको आनंद पायो । वादीचंदको मान उतारि करीब देखो श्रीभूषण सुरेश्वर आयो ॥ १६ ( म. ४९ )
जिम श्रीभूषण देखी करी तिम वादीचंद्र रडथड पडे | कवि राजमल्ल कहे सांभलो मूलसंघ हैडे रडे ।। ११०
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काष्ठासंघकुल अभिनवो श्रीभूषण प्रकट सदा । सोमविजय एवं वदति नृत्य करे नारी मुदा ॥ १०३
लेखांक ६९३ - श्रावकाचार
लेखांक ६९५ -
[ ६९० -
संक्षेपिका मित्रहपन भेद । विस्तार सिद्धांत कहि ते वेद || श्रीभूषण गछनायक सीस | हेमचंद्र संबोध कही पणत्रीस ।। २५ ( म. २८. )
काष्ठासंघ गाभरण श्रीभूषण कहिये सुगुण । हर्षसागर एवं वदति सकलसंघ - मंगल-करण || १०१
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( म. ४९ )
लेखांक ६९४ -
श्रीभूषणसूरिराज दिनकरसम भाज अधिक वध्दुएला जय जयकरण । नेमिजिनस्वामी चंग सकलकर्मनु भंग शिव वधू कियु संग गुणसेन सरण ॥ १० ( म. ४९ )
( म. ४९ )
( म. ४९ )
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- ७००] १६. काष्ठासंघ-नन्दीतटगच्छ २७५ लेखांक ६९६ - नेमि धर्मोपदेश
काष्ठासंघ उदयगिरि जाण । विद्याभूषण गछपति भाण ॥ तस पद मंडन निर्मलमती । श्रीभूषण गिरु या गछपती॥ तास शिष्य बोले मनहार । ब्रह्म ज्ञानसागर सुविचार ॥ ४१
(म. २९) लेखांक ६९७ - नेमिनाथ पूजा
श्रीकाष्ठसंघोदयवासरेश-श्रीभूषणायैर्मुनिभिः प्रवंद्यः । श्रीनेमिनाथो जगतां सुखाय भूयात् सदा ज्ञानसमुद्रवंद्यः ।।
(म. २९) लेखांक ६९८ - गोमटदेव पूजा
यो हर्ताखिलकर्मणां भुजबली कर्ता सदा शर्मणां । यो दाता त्वभयस्य संसृतिवने त्राता जगत्तारकः ॥ काष्ठासंघमहोदयाद्रिदिनकृत्श्रीभूषणायैः स्तुतः । ब्रह्मज्ञानसमर्चितो भवहरः पायात सतां सर्वदा ॥
(म. ११४) लेखांक ६९९ - पार्श्वनाथ पूजा
श्रीभूषणं नाम परं पवित्रं श्रीपार्श्वनाथं धरणेंद्रपूज्यं । श्रीज्ञानपाथोनिधिपूज्यपादं स्तुवे सदा मोक्षपदार्थसिद्धथै ।।
( म. ११३) लेखांक ७०० - जिन चउवीसी
भावसहित जे पढी त्रिकाल । तास मनोवांछित गुणमाल ।। श्रीभूषण गुरु पद आधार | ब्रह्म ज्ञानसागर कहे सार ।। ५१
(म. ७६)
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२७६
लेखांक ७०१ - द्वादशी कथा
भट्टारक संप्रदाय
लेखांक ७०२
रोग शोक संतापह ढले । मनवांछित पद पूरण मले ॥ श्रीभूषण सुत द्वारा लहे । ब्रह्म ज्ञानसागर इम कहे ॥ ३६
लेखांक ७०३ - अक्षरबावनी
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[ ७०१ -
दशलक्षण कथा
भट्टारक श्रीभूषण वीर । तिनके चेला गुणगंभीर || ब्रह्म ज्ञानसागर सुविचार । कही कथा दशलक्षण सार ॥ ३७ [ जैन व्रतकथा संग्रह, दिल्ली, १९२१ ]
लेखांक ७०४ - राखीबंधन रास
( ना. ३ )
काष्ठासंघ समुद्र विविध रत्नादिक पूरित । नंदितछ भाग पाप मिध्यामत चूरित || विद्यागुणगंभीर रामसेन मुनि राजे । तास अनुक्रम धीर श्रीभूषण सूरि गाजे || कलियुगमां श्रुतकेवल दर्शनगुरु गछपति । तास शिष्य एवं वदति ब्रह्म ज्ञानसागर यति ॥ ५३ वंश बघेर प्रसिद्ध गोत्र एह भणिज्जे । श्रावक धर्म पवित्र काष्ठासंघ गणिज्जे || संघपति बापु नाम लघु वय बहु गुणधारी । दयावंत निर्दोष सब जनकु सुखकारी ॥ उसकी प्रीत विशेषये पढनेकु बावनी करी । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति आगमतत्त्व अमृत भरी || ५४
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( म. ७५ )
विद्याभूषण गुरु गछपती । श्रीभूषण शिष्ये शुभ मती | ब्रह्म ज्ञान बोले मनोहार । राखीबंधन कथा विचार || ७६
1
( ना. ८ )
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---- ७०९] १६. काष्ठासंघ-नन्दीतटगच्छ
२७७ लेखांक ७०५ - पल्यविधान कथा
काष्ठासंघे परमसुरेंद्र । श्रीभूषणगुरु हितकर चंद्र ॥ तस पदपंकज-मधुकर रहे । ब्रह्म ज्ञानसागर इम कहे ॥ ८०
(ना. ८) लेखांक ७०६ - निःशल्याष्टमी कथा
काष्ठासंघ कुलांबरचंद । श्रीभूषणगुरु परमानंद ॥ तस पदपंकज-मधुकर सार । ज्ञानसमुद्र कहे सार ।। ६२
(ना. ८) लेखांक ७०७ - श्रुतस्कंध कथा
ए व्रतनु फल एहउ जाण । श्रीजिणराज का बखाण ॥ श्रीभूषणपद वंदी सदा । ब्रह्म ज्ञानसागर कहे मुदा ॥ ४८
( ना. ८) लेखांक ७०८ - मौन एकादशी कथा
काष्ठासंघ उदयगिर भान । सकल कला विद्या गुण जान ॥ विश्वसेन गछपति गुणवंत । विद्याभूषण सुरिवर संत ।। ७६ श्रीभूषण भट्टारक सार । दयावंत विद्याभंडार ।। तास सिस्य मनभावे करी । ब्रह्म ज्ञान कथा उच्चरी ।। ७७
(ना. ८) लेखांक ७०९ - पार्श्वनाथ पुराण
चंद्रकीर्ति काष्ठासंघे गच्छनंदीतटीयः श्रीमद्विद्याभूषणाख्यश्च सूरिः । आसीत्पट्टे तस्य कामांतकारी विद्यापात्रं दिव्यचारित्रधारी ।। यदग्रतो नैति गुरुर्गुरुत्वं श्लाध्यं न गच्छत्युशनोपि बुद्धया । भारत्यपि नैति माहात्म्यमुग्रं श्रीभूषणः सूरिवरः स पायात् ।। श्रीमद्देवगिरौ मनोहरपुरे श्रीपार्श्वनाथालये । वर्षेब्धीपुरसैकमेय इह वै श्रीविक्रमांके सरे ।
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२७८
भट्टारक संप्रदाय
[७०९. --
सप्तम्यां गुरुवासरे श्रवणभे वैशाखमासे सिते।
पार्थाधीशपुराणमुत्तममिदं पर्याप्तमेवोत्तरम् ।। इति त्रिजगदेकचूडामणिश्रीपार्श्वनाथपुराणे श्रीचंद्रकीर्त्याचार्यप्रणीते भगवनिर्वाणकल्याणकव्यावर्णनो नाम पंचदशः सर्गः ॥
( जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३४६ ) लेखांक ७१० - पद्मावती मूर्ति
संवत १६८१ वर्षे फाल्गुन सुदि २ काष्ठासंघे भ. चंद्रकीर्ति... नरसिंगपुराज्ञातीय सा सजण... ।
( अ. ४ पृ. ५०४) लेखांक ७११ – पार्श्वनाथ पूजा
श्रीभूषणालंकृतविश्वसेन-नरेंद्रसूनुर्जिनपार्श्वनाथः।। श्रीचंद्रकीर्तिः सततं पुनातु वाणारसीपत्तनमंडनं वः ॥
(म. ५६) लेखांक ७१२ - नंदीश्वरपूजा
अस्ति श्रीकाष्ठसंघो यतिजनकलितो गच्छनंदीतटाको । विद्यापूर्वे गणांतेऽजनिषत गुरवो रामसेनाश्व तस्मिन् ॥ तद्वंशे रेजिरे वै मुनिगणसहिताः सूरयो विश्वसेना । विद्याभूषाख्यसूरिर्जिनमतिरभवत्तत्पदांभोधिचंद्रः ॥ तत्पट्टोदयभूधरैकतरणिः पंचेष्वरण्यारणिः । श्रीश्रीभूषणसूरिराद् विजयते सर्वज्ञविद्याचणः ॥ तच्छिष्यो जिनपादपद्ममधुपः श्रीचंद्रकीर्तिवरं । तेनाचार्यवरेण निर्मितमिदं नांदीश्वरायार्चनं ।।
( म. ११२) लेखांक ७१३ - ज्येष्ठजिनवर पूजा
काष्ठासंघमहोदयाद्रिमिहिरः श्रीभूषणाद्यैः स्तुतः । पाथोभिघृतदुग्धदिव्यदधिभिक्षोरसैस्तर्पितः ॥
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७१८] १६. काष्टासंघ-नन्दीतट गच्छ २७९
ज्येष्ठे मासि समर्चितः पुरुपतिर्दिव्यार्चनैश्चाष्टधा । देयाद् वः सततं सुमुक्तिविभवं श्रीचंद्रकीर्तिस्तुतः ।।
(म. ११५) लेखांक ७१४ - पोडशकारण पूजा
एतान्युत्तमकारणानि सततं देयासुरत्यद्भुतं । राज्यं प्राज्यमनेककुंजरघटाश्वस्यंदनाग्रेसरं ॥ लक्ष्मीछत्रसुचामरासनयुतां स्वर्गापवर्गश्रियं । भव्येभ्यः प्रियदर्शनव्रतगुणश्लाघ्येभ्य एवोत्तमं । एतद् व्रतं यः सततं विधत्ते संमोदते संयजते त्रिकालं । संभावयत्यर्चनवस्तुभेदैः यात्येष मोक्षं किल चंद्रकीर्तिः ।।
(म. ७) लेखांक ७१५ - सरस्वतीपूजा
सकलसुखनिधान विश्वविद्याप्रधानं । बहुतरमहिमानं चंद्रकीर्तीशमानं । पठति परमभक्त्या यः सदा शुद्धभावः । स इह सुसमयश्रीभूषणः स्यात् सदैव ॥
(म. १०९) लेखांक ७१६ - जिन चउवीसी
श्रीभूषणसूरि वंदित पद वीरनाथ विद्याभरण | सकलसंघ जयकार कर चंद्रकीर्ति चर्चितचरण ॥ २४
( म. ४४) लेखांक ७१७ - पांडव पुराण
इष्ट देव वंदि करी भाव शुद्धि मन आनए । चंद्रकीर्ति एवं वदति कथा भारती वर्णए ।। १
(म. ८६) लेखांक ७१८ - गुरुपूजा
ईदृग्विधान मुनिवरान खलु चंद्रकीर्तीन स्तुत्वा च ये परिणमति च संयजते ।।
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Achar
२८०
भट्टारक संप्रदाय
[७१८ - ध्यायंति ते सुरनरोरगराजसौख्यं भुक्त्वा भवंति विबुधाः किल सौख्यभाजः ।।
(म. ११०) लेखांक ७१९ -
दक्षिणमें राजस वादिवांकुश चंद्रसुकीर्ति ये चिद्घन री। दिगंबरमें यह सोभित वादि जु मानत पंडित चिद्घन री ॥ २५
(म. ४९) लेखांक ७२० -
कर्णाटक देश मनोहर सुंदर सोभत नरसिंहपाटन रे । कावेरीके तीर जु आवत संघहे त्रास पड्यो सब विद्धनु रे । चंद्रकीर्ति सुवादि विकटहि जानिके मान भट्टसुपंडित बोलतु रे । बोलत लक्ष्मण वादके कारण भट्ट सुकृष्ण ये आवतु रे ।। १९ प्रथम सुवचनमें वादि जु खंडत कृष्णसुभट्ट ये हारतु रे ।। न्यायके युक्तिसु बोलत वादि रे चंद्रसुकीर्ति जय पावतु रे ॥ वाजत ढोल तबल्ल निसानसु मानत भूपति सिर आनतु रे । काष्ठासंघ दिवाकरकु येह देखन आवत चारुसुकीर्तिय रे ॥२०
(म. ४९) लेखांक ७२१ - चौरासी लक्षयोनि विनती
(म.
काष्ठासंघ विख्यात प्रसिद्ध गच्छ नंदीतट सार। विश्वसेन विश्वाभरण विद्याभूषण गुरु भवतार ॥ श्रीभूषण प्रताप घणो महिमंडल दूजो भान ।। चंद्रकीति तस पट्ट विराजे माने वादी सब आन ।। श्रीगुरुचरण नामी करी विनवे लक्ष्मण जिनराज । हवे कर्मबंध छेदो प्रभु अवर नहीं मुझ काज ।। २९
(म. १५)
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- ७२६] १६. काष्टासंघ-नन्दीतटगच्छ २८१ लेखांक ७२२ - बारामासी
मुगति वरी श्रीनेमि जिनेश्वर राजुल स्वर्ग सुख पावत रे । विद्याभूसन पाट दिवाकर सूरि श्रीभूसन सोभत रे ॥ काष्ठासुसंघ विख्यात प्रसिद्ध ये नंदीतट गछ सुहावत रे । चंद्रसुकीर्तिके सिष्य विराजत बोलत लक्ष्मण पंडित रे ॥ १३
( ना. १२३) लेखांक ७२३ - तीन चउवीसी विनती
काष्ठासंघ उदयाचल भान । सूरि श्रीभूषण पट्ट बखान ॥ चंद्रकीर्ति सूरीश्वर जान । तास शिष्य लक्ष्मण बोले बान ॥ १९
( म. २०) लेखांक ७२४ - पार्श्वनाथ विनती
काष्ठासंघे गुणह गंभीर । सूरिश्रीभूषण पट्ट सुधीर । चंद्रसुकीर्ति नमित नरसीस । सेवक लखमन चरन विसेस ॥ १२
( म. ३२) लेखांक ७२५ -
राजकीर्ति चंद्रसुकीर्ति पट्टोधर राजसुकीर्ति राया मण रंजी। वानारसि मध्य विवाद करी धरी मान मिथ्यातको मनकुं भंजी ॥ पालखी छत्र सुखासन राजित भ्राजित दुर्जन मनकु गंजी। हीरजी ब्रह्म के साहिब सद्गुरु नाम लिये भवपातक भंजी ॥ २१८
( म. ४९) लेखांक ७२६ -
गादी लाल गुलाल राजकीर्ति गुरु बैसे सही । हेमसागर एवं वदति मिथ्या तिमिर छेदे सही ॥ ११४
(म. ४९)
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महारक संप्रदाय
२८२
लेखांक ७२७ - रविवार व्रत कथा
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[ ७२७ -
श्रीभूषण गुरु काष्ठासंघ | चंद्रकीर्ति गुरु जग जसवंत ॥ राजकीर्ति गौतम सम जाण । ब्रह्म ज्ञाननि कियो बखाण ।। ४३
( म. २५)
लेखांक ७२८ - ( लाडवागड गच्छ पट्टावली )
भ. श्रीराजकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीसेन विजयराजे भ. राजकीर्ति तत्सिष्य पं. हाजी लिखितं । इति श्रीगुर्वावली समाप्ता ॥
( म. ३८ )
लेखांक ७२९ - पद्मावती मूर्ति
लक्ष्मीसेन
शके १५६१ वर्ष फाल्गुण वदी १० शनिश्चरे काष्ठासंघे लाड बागडगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यान्वये श्रीनरेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. प्रतापकीर्त्याम्नाये बघेरवाल ज्ञाति बोरखंड्या गोत्र सा भावा भार्या गोमाई तयोः पुत्र सा पामा द्वितीय पुत्र देयासा नित्यं प्रणमंति श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे विद्यागणे रामसेनान्वये भ. श्रीलक्ष्मीसेन प्रतिष्ठितं ।
( पा. - ११५ )
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लेखांक ७३० - बाहुबली मूर्ति
संमत १७०३ वर्षे ज्येष्ठ वदी १० शुक्रे श्रीकाष्ठासंघे लाड बागडगच्छे लोहाचार्यान्वये वराडप्रदेशे कारंजीनगरे प्रतापकीर्ति आम्नाय बघेरवाल ज्ञातिय सावला गोत्र सा श्रीपससा भार्या पद्माई... एते समस्त श्रीकाष्ठा - संघे नंदीतटगच्छे रामसेनान्वये तदनुक्रमेण भ. श्रीविश्वसेन तत्पट्टे भ. विद्याभूषण तत्पट्टे भ. श्रीभूषण तत्पट्टे भ. चंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. राजकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीसेनजी प्रतिष्ठितं ॥
( ना. १३ )
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-- ७३५१ १६. काष्टासंघ-नन्दीतटगच्छ लेखांक ७३१ - पार्श्वमूर्ति
इंद्रभूषण शके १५८८ माघ सुदी ५ सोमें कारंजानगरे काष्ठासंघे नंदीतटगच्छे भ. इंद्रभूषणप्रतिष्ठितं बघेरवाल ज्ञाति गोवल गोत्रे... ॥
(ना. २६) लेखांक ७३२ - पद्मावती मूर्ति
शके १५८० माघ सुदी ५ सोमवार काष्ठासंघे, नंदीतटगच्छे भ. श्रीइंद्रभूषण प्रतिष्ठितं बघेरवाल ज्ञातौ बोरखंडिया गोत्रे तेऊजी... ॥
___(मा. स. महाजन, नागपुर) लेखांक ७३३ - विंध्यगिरि लेख
संवत् १७१८ वर्षे वैसाष सुदि ७ सोमे श्रीकाष्ठासंघे मण्डि [नन्दि] तटगच्छे...श्रीराजकीर्तिः तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीसेन तत्पट्टे भ. श्रीइंद्रभूषण तत्पट्टे शोसू[श्रीसुरेंद्रकीर्ति ? ] बघेरवाल जाती बोरखा बाई-पुत्र पंभा धनाई...सपरिवारे गोमट स्वामिचा जात्रा सफल ॥
( जैन शिलालेख संग्रह १, पृ. २३०) लेखांक ७३४ - कोकिळ पंचमी कथा
काष्ठासंघ गछाधिप राय । इंद्रभूषण गुरु प्रणमी पाय ।। हर्षसहित श्रीपति ब्रह्मा कहे । सकलसंघ धर लक्ष्मी बहे ॥ ५६ संमत सत्तरसे छेतीस । चैत्र सधी पडवानो दीस ॥ कथासंबंध संपूरण थयो । सकल संघने मंगल भयो ॥ ५७
(ना. ८) लेखांक ७३५ - गोमटस्वामी स्तोत्र
इति परमजिनेंद्रो गोमटाख्यो जिनोव्यात् कुगतिजननदुःखादः सदा संस्तुतोसौ। सुकृतसदनकाष्ठासंघमुख्यद्रभूषाभिधविहितनिदेशाद् भूपतिप्राज्ञमित्रैः ॥ ९
(म. ३१)
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२८४
भट्टारक संप्रदाय लेखांक ७३६ -
इंद्रभूषण सूरिराय पाय विद्वज्जन वंदित । राजकीर्तिनो शिष्य वैश्यमत दूरे स्थापित ।। सकलदेशमाहे प्रगट कविजनमाहे मानती। जिनसेन कहे मूलसंघ सेनगण बारबार करती स्तुती ॥ १४
(म. ४९) लेखांक ७३७ -
श्रीकाष्ठासंघ नाम प्रथम गोत्र पंचवीस । मूलसंघ उपदेश गोत्र अंते सत्तावीस ।। बघेरवाल बड ज्ञाति गोत्र बावण गुणपूरा । धर्मधुरंधर धीर परम जिण मारग सूरा ॥ महाव्रतधारक श्रीभट्टारक लक्ष्मीसेनय जानिये । गुरु इंद्रभूषण गंगसमसुगुण नरेंद्रकीर्ति बखाणिए ॥ ११२
( म. ४९) लेखांक ७३८ - गुरुस्तुति
स्वस्ति स्यात्यदलांछिते वरगणे काष्ठादिसंघे सुधीः ख्यातः प्रीतमना नृणां बहुमतः श्रीराजकीर्तिस्ततः । लक्ष्मीसेनविभुस्ततोथ विलसच्छ्रीजैनभूषामणिः जीयाद् वासवभूषणश्च सुकृतेर्बीजस्य रक्षामणिः ।।
(म. १०८) लेखांक ७३९ -
काष्ठासंघ गछांबर ए मुनि सुंदर इंदु सो इंद्रभूषण विराजे । सुमत्यब्धि कहे गछपति समो अन्य कोइ नहीं अवनी मान पावे ।।१४
( म. ४९) लेखांक ७४० -
श्रीराजकीर्ति सिष्यह सुगुण लक्ष्मीसेन पट्टोधरण ।
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- ७४५] १६. काष्टासंघ-नन्दीतट गच्छ २८५ नरेंद्रसागर इत्थं वदति श्रीइंद्रभूषण तारण तरण ॥ ८९
(म. ४९) लेखांक ७४१ - न्यायप्रमान मुखाग्र जु बोलत वादिगजांकुस मर्दतु रे ।
त ब्रह्म रुपाधि कहे जु यनीपेरे इंद्रभूषण सोभतु रे ॥ १२
(म. ४९) लेखांक ७४२ -
इंद्रभूषण हे सूर दूर कृत अन्य मतेंद्रह । काष्ठासंघ शंगार हार तस मध्य मुनेंद्रह ॥ जिनदास कहे सुर कुर मनमथ वादी मारये । कुवादवादींद्र उंद्र सकलही हारये ॥ १४८
(म. ४९) लेखांक ७४३ -
चारित्रपात्र त्रिभुवनविदित सील सौख्य शोभे सदा । द्विज विश्वनाथ इम उच्चरे इंद्रभूषण सेवो मुदा ॥ १२१
. (म. ४९) लेखांक ७४४ - रत्नत्रय यंत्र
सुरेंद्रकीर्ति संवत् १७४४ सके १६०९ फाल्गुण सुद १३ श्रीकाष्ठासंघे लाडबागडगच्छे भ. प्रतापकीर्त्याम्नाये बघेरवालज्ञातौ गोवाल गोत्रे सं. पदाजी भार्या तानाई...प्रणमंति । श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे भ. इंद्रभूषण तत्पट्टे भ. सुरेंद्रकीर्तिः ॥
(ना. ५७) लेखांक ७४५ - मेरु मूर्ति
संवत १७४७ शाके १६१२ प्रमोदनाम संवत्सरे ज्येष्टमासे कृष्णपक्षे सातम बुधवासरे नंदीतटगच्छे भविध [विद्या] गणे भ. श्रीरामसेनान्वये
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२८६
भट्टारक संप्रदाय
[ ७४५ -
तत्पट्टे भ. श्रीविशालकीर्ति...तत्पट्टे भ. श्रीदेवेंद्रभूषण तत्पट्टे भ. श्री सुरेंद्र कीर्ति
प्रतिष्ठितं ॥
( सूरत, दा. पृ. ४६ )
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लेखांक ७४६ - रत्नत्रय यंत्र
संवत १७४७ सके १६१२ ज्येष्ठ वदी ७ भ. श्रीइंद्रभूषण तत्पट्टे भ सुरेंद्रकीर्ति प्रतिष्ठितं । श्रीकाष्ठासंघे लाडवागडगच्छे पुष्करगणे लोहाचार्यावये भ. श्रीनरेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीप्रतापकीर्ति आम्नाये बघेरवाल ज्ञाति गोवाल गोत्रे सं. बापु पुत्र सं. भोज... श्री अबडनगर प्रतिष्ठितं ।।
( ना. ६० ' )
लेखांक ७४७ भरत भुजबली चरित्र
ये ॥ २१७
श्रीकाष्ठांबर संग गंग सम निर्मल कहिये । क्षालित पाप कलंक पंक गणधर मुनि सहिये || लोहाचार्य वर मुनी गुणी सहु शास्त्रह ज्ञाता । कलयुग जानी चार गछ थापे सुभ हाता ।। पुन्नाट बागड गछ जु नंदीतट माथुर ये 1 गण चार नाम जु जुवा तेहना पति भासुर पुन्नाटसंज्ञक गछ स्वछ पुष्करगण राणो । विनयंधर सुरेश ईश तद्वंशे मानो || प्रतापकीर्ति भट्टारक तर्कशिरोमणि धामह । तत्पट्टे अतिसुहन भुवनकीर्ति अभिरामह ॥ छ नंदीतट विद्यागण सुरेंद्रकीर्ति नित वंदिये । तस्य शिष्य पामो कहे दुखदरिद्र निकंदिये || २१८ सक सोडस सत चौद बुद्ध फाल्गुण सुदपक्षह | चतुर्थिदिन चरित्र धरित पूरण करी दक्षह । कारंजो जिनचंद्र इंद्रवंदित नमि स्वार्थे । संघवी भोजनी प्रीत तेहना पठनार्थे ॥ afe सकल श्रीसंघने येथि सहू वांछित फले । चक्रिकाम ना करी पामो कह सुरतरु फले ॥ २१९
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- ७५१] १६. काष्टासंघ-नन्दीतट गच्छ २८७ लेखांक ७४८ - अष्टद्रव्य छप्पय
काष्ठासंघ-उदयाचल दिनमनिसम गुरु वंदिए। सुरेंद्रकीर्ति पत्कज भ्रमर पामो कहे अर्घक दिए ॥ ९
(ना. १२३) लेखांक ७४९ - नवकार पचीसी
गछ नंदीतट नाम धरातल काष्ठासंघ विद्यागण धारै। रामसुसेन परंपरमाहि सुरेंद्रकीरति भट्टारक वारै ॥ संवत सत्तरसै वरसै फुनि अंक एकावन मान विचारै । आदिजिनेंद्र कला अधिकी धनसागरकी मति एम वधारै ॥ २४ बागड देस वसै नगरी अभिधान गिरीपुर इंद्रपुरीसी। कोटडिया किरपाल नरोत्तम हुंबड न्याति विसेसहि वीसी ॥ आदिजिनेंद्रभुवनबिचै जिनमूरति राजत कंचनकीसी । ब्रह्म भणे धनसागरजी तिहां पूरि भई नवकारपचीसी ॥ २५
(म. ८१) लेखांक ७५० - विहरमान तीर्थकर स्तुति
गुज्जर खंडमें है गुजरात तिहां पुर राजपुरादिक नामी। हुंबड भट्टपुरा मनोहार जिनोकत मारगके बिसरामी ॥ संवत सत्तर त्रेपनमांहि तिहां श्रिय संघको आग्रह पामी । जोडि रची धनसागर सीतलनाथ जिनेसरके सिर नामी ॥ २६ काष्ठासुसंघ विख्यात वरिष्ठ नंदीतटगछ विद्यागणधारक । रामसुसेनपरंपरमाहि सुवासभूषण दूषणवारक ॥ पट्ट प्रभाकर है तिनको विद्यमान सुरेंद्रकीर्ति भट्टारक । तेह समे धनसागर ब्रह्म कवित्त बखान करै सुखकारक ।। २७
(म, ८२) लेखांक ७५१ - चौवीसी मूर्ति
संवत १७५३ वर्षे वैसाख सुदि ७ सनौ श्रीकाष्ठासंघे लालबागडगच्छे लोहाचार्यान्वये तदनुक्रमे भ. श्रीप्रतापकीर्ति तदानाये बघेरवालज्ञातौ
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Achar
२८८ भट्टारक संप्रदाय
[७५१ - गोवालगोत्रे संघवी भोज भार्या पद्माई...श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे रामसेनान्वये तदनुक्रमे भ. इंद्रभूषण तत्पट्टे भ. सुरेंद्रकीर्ति ॥
( ना. ५५) लेखांक ७५२ - केशरियाजी मंदिर
संवत १७५४ वर्षे पौषमासे कृष्णपक्षी पंचम्यां बुध श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे विद्यागणे भ. श्रीरामसेनान्वये तदनुक्रमेण भ. श्रीराजकीर्ति तत्पट्टे भ. श्रीलक्ष्मीसेन तत्पट्टे भ. श्रीइंद्रभूषण तत्पट्टे भ. श्रीसुरेंद्रकीयुपदेशात् दसा हूमड ज्ञातीय वृद्धशाखायां विश्वेश्वरगोत्रे सहा अल्हावंश... इत्यादि सपरिवार सह संघवी पाहर तेन लघु प्रासाद कारपिता शुभं भवतु।।
( वीर २ पृ. ४६० ) लेखांक ७५३ - केशरियाजी मंदिर
स्वस्तिश्री संवत् १७५६ वर्षे शाके १६५ (२) ९ प्रवर्तमाने सर्वजितनाम संवत्सरे मासोत्तम मासे कृष्णपक्षे १३ तिथौ शुक्रवासरे श्रीकाष्ठासंघे लाडबागडगच्छे लोहाचार्यान्वये तदनुक्रमेण भ. श्रीप्रतापकीर्ति आम्नाये श्रीकाष्ठासंघे नंदीतटगच्छे विद्यागणे भ. श्रीरामसेनान्वये तदनुक्रमेण भ. श्रीश्रीभूषण......भ. श्रीइंद्रभूषण तत्पट्टकमलमधुकरायमान भ. श्रीसुरेंद्रकीर्ति विराजमाने प्रतिष्ठितं बघेरवालज्ञाति गोवालगोत्र संघवी श्रीअल्हा भार्या कुडाई...।
( वीर २ पृ. ४६०) लेखांक ७५४ - पार्श्वपुराण
काष्ठासंघ प्रसिद्ध गछ नंदीतट नायक । विद्यागण गंभीर सकल विद्या गुण गायक ॥ रामसेन आनाय इंद्रभूषण भट्टारक । तत्पट्टोद्धर धीर सुरेंद्रकीर्ति भट्टारक ॥ तद्वदन विनिर्गत अमृतसम सदुपदेश वानी सुनी। षट्चरण पास जिनवरतणा जोड्या धनसागर गुणी ॥ १४४ देश वराड मझार नगर कारंजा सोहे । चंद्रनाथ जिन चैत्य मूल नायक मन मोहे ॥
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- ७५६ ]
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१६. काष्ठासंघ- नन्दीतट गच्छ
काष्ठासंघ सुगछ लाडवागढ बड भागी । बरवाल विख्यात न्यात श्रावक गुणरागी । जिनधर्मी जमुना संघपति सुत पूंजा संघपति वचन ।
चितमैं घरी अत्याग्रह थकी रची सुधनसागर रचन ।। १४५ aise शत एकवीस शालिवाहन शक जाणो ।
रस भुज भुज भुज प्रमित वीर जिन शाक बखाणो || विक्रम शाe विवक्त वरस सत्रासे बीते । उत्तर छप्पनमांहि असित आश्विन बी दीजे ॥ कृतमंगल मंगलवार दिन मंगल मंगल तेरसी । धनसागर पासजिनेसका षट्पद वचन कहे रसी ॥
१४६
लेखांक ७५५
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पद्मावती पूजा
श्रीमद्रनाथस्य च चचैत्यालये वरे । काष्ठासं गुणोपेते गच्छे नंदीतटाह्वये ।। १ विद्यानामगणे रम्ये भट्टारकपुरंदराः । श्रीमद्रामसेनाह्ना अभूवन् सर्वसिद्धिदाः ॥ २ तदन्वयवियच्छोभाकरणे सूर्यतुल्यभाः । जाता भट्टारका भव्याः श्रीइंद्रभूषणाह्वयाः ॥ ३ तत्पादांबुजभृंगाभाः श्रीमत्सुरेंद्र कीर्तयः । चक्रे पद्मावतीपूजा तै: श्रीसूर्यपुरे वरे ॥। ४ श्रीमद्दक्षिणदेशीयः अंजनपुरवास्तव्यः । हिरासंघपतिः परं ।। ५ तत्सुतोप्यतिधर्मिष्ठः पुंजाख्यः सद्गुणोदधिः । तस्याग्रहवशाद्रम्या नानापद्यसमन्विता ॥ ६ हिमुन्येश्वरात्री १७७३ प्रमिते वत्सरे मुदा । aौ च कृष्णपंचम्यां मासे भाद्रपदाह्वये ।। ७
लेखांक ७५६ - कल्याणमंदिर स्तोत्र
काष्ठांवर गण गण रयण अति सौम्याकारं ।
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२८९
( म. ८३ )
( ना. ८२ )
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Achan
२९०
भट्टारक संप्रदाय
[७५६ -
भट्टारक मुनि दक्ष इंद्रभूषण गुणधारं ॥ तास पट्ट उदयाद्रि कीर्ति सुरेंद्र विचारी। क्रियापात्र परधान भव्यजने हितकारी ॥ कुमुदचंद्र कृत स्तुति प्रवर तास कवित कीधा मुदा । सुरेंद्रकीर्ति गछपति कहे भणता सुखसंपत्ति सदा ।। ४५
(म. ८८) लेखांक ७५७ - एकीभाव स्तोत्र
भट्टारक गुणपूर इंद्रभूषण जगभूषण । पट्टधर परधान सदा राजे गतदूषण ।। सुरेंद्रकीर्ति गछपति कह्या एकीभाव तणो कवित । भनता सुनता दिनप्रति ते नर पामे मुगति हित ॥ २६
(म. ८८) लेखांक ७५८ - विषापहार स्तोत्र
गणनायक गुरुराज इंद्रभूषण मतिपूरा । सकलसंघ परिचार धर्ममारगमा सूरा ॥ सुरेंद्रकीर्ति गछपति प्रवर पट्टोद्धर पदवीधरण । विषापहार कृत कवित वर भव्यजीव जग उद्धरण ॥ ४०
( म. ८८ ) लेखांक ७५९ - भूपाल स्तोत्र
श्रीजिनमार्ग विसुद्ध गछ काष्ठांवर दाख्यो । विविध क्रियाकलाप सकलगुणपूरण भाख्यो । भट्टारक मुनिराज इंद्रभूषण गछधारी । तास पट्ट सुविशाल सदा सोभे आचारि ॥ सुरेंद्र कीर्ति मुनिपति सकल नित्य ध्यान जिनवर करे । भूपाल कवितरचना रची भनता सहु पातक हरे ॥ २७
(म, ८८)
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Ach
- ७६३] १६. काष्ठासंघ-नन्दीतट गच्छ २९१ लेखांक ७६० - गुरुपादुका
विजयकीर्ति स्वस्तिश्री सं. १८१२ माघ सुदी ५ गुरौ काष्ठासंघे श्रीविजयकीर्तिगुरूपदेशात् सुरेंद्रकीर्तिगुरुपादुका नित्यं प्रणमति ।
(सूरत, दा. पृ. ५२) लेखांक ७६१ - शीतलनाथ मूर्ति
स्वस्तिश्री नृपविक्रमात् १८१२ माघ सुदी ५ गुरौ श्रीमत् काष्ठासंघ नंदीतटगच्छे विद्यागणे श्रीरामसेनान्वये भ. श्रीलक्ष्मीसेन तत्पट्टे भ. श्रीविजयकीर्तिविजयराज्ये सुरतबंदरे वास्तव्य मेवाडा ज्ञाती लघुशाखायां सा सनाथा बिशनदास सुत विठल भ्राता मूलजी इत्यादि पुत्रपौत्रादि विह सह श्रीसीतलनाथबिंब नित्यं प्रणमति ।
( सूरत, दा. पृ. ५०) लेखांक ७६२ -- गुरुपूजा
श्रीमत् श्रीभूषणाख्यः तदुपरि शशिकीर्युत्तरे राजकीर्तिः । सेनांतश्चेदिरादिस्तदनु शतमखस्योत्तरे भूषणेति ॥ श्रीमानेव सुरेंद्रकीर्तिरभवत् लक्ष्मी च सेनो ह्यतः । तत्पट्टे जयतामसौ विजयकीाख्यः सदा बुद्धिमान् ।।
( ना. ५७) लेखांक ७६३ - अकृत्रिम चैत्यालयबावनी सकलकीर्ति
देश वराड मझारि नगर अंजनपुर सोभै । तिहां जिनवरना चैत्य पद्मप्रभ मन मोहै ॥ पूज करै अति सार श्रावक विविध प्रकारी । संघ चतुर्विध दान देइ शक्ति अनुसारी ।। संवत्सर अष्टादश सही षोडश ऊपरि जानए। आश्विन मास सुभ सुक्ल पक्ष पंचम्यां गुरुवार बखाणए ।। ५५ काष्ठासंघ विख्यात गछ नंदीतट जानो। सुरेन्द्रकीर्ति गुरु सार तत पद नाम बखानो॥
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२९२
भट्टारक संप्रदाय
[७६३ --
सकलकीर्ति सोभत गछपति महाछवि छाजे । तस पदमधुकर जाणि ब्रह्म चंद्र अनुराजे ॥ बुधि ओछी विस्तार बहु पंडित जन सब समझ करी। भमाभाव तुम्हे कीजिए चैत्य बावनी अनुसरी ।। ५६
( ना. १२३) लेखांक ७६४ - सरस्वतीमूर्ति
देवेंद्रकीर्ति संवत् १८८१ वर्षे माघ मासे शुद्ध ५ सोम श्रीकाष्ठासंघे भ. सुरेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. देवेंद्रकीर्ति राजोमान ज्ञाति बघेरवाल... ||
(ना. ५०) लेखांक ७६५ - नवग्रहयन्त्र
संवत १८८५ मार्गशिर्ष बद १२ गुरु दिने श्रीकाष्टासंघे लाडबागडगच्छे भ. प्रतापकीर्ति आनाये नंदीतटगच्छे भ. सुरेंद्रकीर्ति तत्पट्टे भ. देवेंद्रकीर्ति राज्यमान ज्ञाति बघेरवाल गोत्र बोरखंड्या सा खेमासा सुत पूनासा यंत्रं प्रणमंति ॥
(मा. स. महाजन, नागपुर ) लेखांक ७६६ - पुरन्दर-व्रतकथा
काष्ठासंघ उद्योतनिधान । सुरेंद्रकीर्ति गुरु तास बखाण || तस पट्टे अति रलियावनी । देवेंद्रकीर्ति यतिशिरोमणी ।। ५७ तास सेवक बोले सुजान । खेमा सुत सा पूना वान ॥ मंदबुद्धि अक्षर जो सही । कर लीज्यो तुम्हे सुद्धे सही ।। ५८
(म. ४६)
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काष्ठासंघ-नन्दीतट गच्छ इस गच्छ का नाम नन्दीतट ग्राम ( वर्तमान नान्देड-बम्बई राज्य ) पर से लिया गया है। देवसेन कृत दर्शनसार के अनुसार यहीं कुमारसेन ने काष्टासंघ की स्थापना की थी (ले. ६४७ ) । इस गच्छ . का दूसरा विशेषण विद्यागण है जो स्पष्टतः सरस्वतीगच्छ का अनुकरण मात्र है । तीसरा विशेषण रामसेनान्वय है । इन के विषय में कहा गया है कि नरसिंहपुरा जाति की स्थापना इन ने की तथा उस शहर में शान्ति-' नाथ का मन्दिर बनवाया ( ले. ६४८-४९ )। इन के शिष्य नेमिसेन ने पद्मावती की आराधना की तथा भट्टपुरा जाति की स्थापना की (ले. ६५०)।
इतिहास काल में रत्नकीर्ति के पट्टशिष्य लक्ष्मीसेन से नन्दीतट गच्छ का वृत्तान्त उपलब्ध होता है । १२० इन के दो शिष्यों से दो परम्पराएं आरम्भ हुईं । भीमसेन और धर्मसेन ये इन दो शिष्यों के नाम थे ।
भीमसेन के पट्टशिष्य सोमकीर्ति हुए। आप ने संवत् १५३२ में वीरसेनसूरि के साथ एक शीतलनाथ मूर्ति स्थापित की (ले. ६५१ ), संवत् १५३६ में गोदिली में यशोधरचरित की रचना पूरी की (ले. ६५२ ) तथा संवत् १५४० में एक मूर्ति स्थापित की (ले. ६५३ )। आप ने सुलतान पिरोजशाह के राज्यकाल में पावागढ में पद्मावती की कृपा से आकाश गमन का चमत्कार दिखलाया था ( ले. ६५४ )।११८
सोमकीर्ति के बाद क्रमशः विजयसेन, यशःकीर्ति, उदयसेन,त्रिभुवनकीर्ति तथा रत्नभूषण भट्टारक हुए । रत्नभूषण के शिष्य कृष्णदास ने कल्पवल्ली ११ पुर में संवत् १६७४ में विमलनाथपुराण की रचना की। इन के पिता का नाम हर्षसाह तथा माता का नाम वीरिका था । (ले.
१२७ रत्न कीर्ति के पहले पट्टावली में उपलब्ध होनेवाले नामों के लिए देखिए- दानवीर माणिकचन्द्र पृ. ४७
. १२८ सोमकीर्ति ने प्रद्युम्नचरित तथा सप्तव्यसन कथा इन दो ग्रन्थों की रचना क्रमश: संवत् १५३१ तथा संवत् १५२६ में की थी (अनेकान्त वर्ष १२ पृ. २८)
१२९ कलोल ( जिला पंचमहाल- गुजरात )
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२९४
भट्टारक संप्रदाय
६५५) । १३० रत्नभूषण के दूसरे शिष्य जयसागर ने ज्येष्टजिनवर-पूजा, पार्श्वनाथ पंच कल्याणिक तथा तीर्थजयमाला की रचना की (ले. ६५६६०) । १३१
रत्नभूषण के बाद जयकीर्ति भट्टारक हुए । आप ने संवत् १६८६ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की (ले. ६६१ )।
जयकीर्ति के पट्ट पर केशवसेन भट्टारक हुए । इन के बन्धु का नाम मंगल था तथा पट्टाभिषेक इंदोर में हुआ था । १३२ इन की रची आदिनाथपूजा उपलब्ध है ( ले. ६६२-६४ )।
केशवसेन के पट्टपर विश्वकीर्ति भट्टारक हुए। आप ने संवत् १७०० में हरिवंशपुराण की एक प्रति लिखी (ले. ६६५) तथा आप के शिष्य मनजी ने संवत् १६९६ में न्यायदीपिका की एक प्रति लिखी । (ले. ६६६)
. नन्दीतट गच्छ की दूसरी परम्परा लक्ष्मीसेन के शिष्य धर्मसेन से आरम्भ होती है । इन की लिखी हुई अतिशयजयमाला उपलब्ध है। बीरदास ने इन की प्रशंसा की है ( ले. ६६७-६८ )।
धर्मसेन के बाद क्रमशः विमलसेन और विशालकीर्ति भट्टारक हुए। इन के शिष्य विश्वसेन ने संवत् १५९६ में एक मूर्ति स्थापित की (ले. ६६९)। इन की लिखी आराधनासारटीका उपलब्ध है (ले. ६७०)। विशालकीर्ति ने डूंगरपुर में इन्हें अपना पद सौंपा था (ले. ६७२)। दक्षिणदेश में भी इन का विहार हुआ था (ले. ६७३ )। विजयकीर्ति
और विद्याभूषण ये इन के दो पट्टशिष्य थे । विजयकीर्ति के शिष्य महेन्द्रसेन ने सीताहरण और बारामासी ये दो काव्य लिखे हैं (ले.६७४-७५)। . १३० कृष्णदास ही सम्भवतः भट्टारक केशवसेन हैं- (ले. ६६३ ) में इन के माता पिता के नाम देखिए।
१३१ सम्भवत: ज्ञान भूषण के शिष्यरूप में (ले. ४८६ ) में इन्ही रनभूषण का उल्लेख हुआ है।
१३२ पूर्वोक्त नोट १३० देखिए ।
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काष्ठासंघ-नन्दीतट गच्छ
२९५
विश्वसेन के पट्टशिष्य विद्याभूषण ने संवत् १६०४ में तथा संवत् १६३६ में दो पार्श्वनाथ मूर्तियां स्थापित की (ले. ६७६-७७ )। इन ने द्वादशानुप्रेक्षा की रचना की (ले. ६७८ )। हरदाससुत तथा राजनभट्ट ने इन की प्रशंसा की है ( ले. ६७९-८०)। .
विद्याभूषण के बाद श्रीभूषण पट्टाधीश हुए। संवत् १६३४ में इन का श्वेताम्बरों से वाद हुआ था और उस के परिणामस्वरूप श्वेताम्बरों को देशत्याग करना पड़ा था (ले. ६८१)। इन ने संवत् १६३६ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति स्थापित की (ले. ६८२ )। सोजित्रा में संवत् १६५९ में शान्तिनाथपुराण की रचना आप ने पूरी की (ले. ६८३ )। आप ने संवत् १६६० में एक पद्मावतीमूर्ति, संवत् १६६५ में एक रत्नत्रय यन्त्र तथा संवत् १६७६ में एक चन्द्रप्रभ मूर्ति स्थापित की (ले. ६८४-८६ )। आप की लिखी द्वादशांगपूजा उपलब्ध है ( ले. ६८७ )। आप के पिता का नाम कृष्णसाह तथा माता का नाम माकुही था (ले. ६८८)। आप ने वादिचंद्र को बाद में पराजित किया था (ले. ६९०९१ ) । विवेक, राजमल्ल और सोमविजय ने आप की प्रशंसा की है (ले. ६८९-९२)। आप के शिष्य हेमचन्द्र ने श्रावकाचार नामक छोटीसी कविता लिखी है (ले. ६९३ )। गुणसेन और हर्षसागर ने भी आप की प्रशंसा की है (ले. ६९४-९५)।
. श्रीभूषण के प्रधान शिष्य ब्रह्म ज्ञानसागर थे । इन ने संघपति बापू के लिए अक्षर बावनी लिखी (ले. ७०३ ) । नेमि धर्मोपदेश, नेमिनाथपूजा, गोमटदेव पूजा, पार्श्वनाथ पूजा, जिन चउवीसी, द्वादशी कथा, दशलक्षण कथा, राखी बन्धन रास, पल्यविधान कथा, निःशल्याष्टमी कथा, श्रुतस्कन्ध कथा, मौन एकादशी कथा ये इन की अन्य रचनाएं हैं (ले. ६९६-७०८) ।
१२३ पं. नाथूराम प्रेमी ने श्रीभूषण की साम्प्रदायिकता पर प्रकाश डाला है- देखिए जैन साहित्य और इतिहास पृ. ३४० । इस में इन के प्रतिबोध चिन्तामणि नामक ग्रन्ध का भी उल्लेख किया गया है।
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भट्टारक संप्रदाय
श्रीभूषण के बाद चन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए। आप ने संवत् १६ १६५४ में देवगिरि में पार्श्वनाथ पुराण लिखा था ( ले. ७०९ ) । आप ने संवत् १६८१ में एक पद्मावती मूर्ति स्थापित की ( ले. ७१० ) । पार्श्वनाथ पूजा, नन्दीश्वरपूजा, ज्येष्ठजिनवरपूजा, षोडशकारण पूजा, सरस्वती पूजा, जिन चउवीसी, पांडवपुराण तथा गुरुपूजा ये रचनाएं चन्द्रकीर्ति ने लिखीं ( ले. ७११-१८ ) । चन्द्रकीर्ति ने दक्षिण की यात्रा करते समय कावेरी के तीर पर नरसिंहपन में कृष्णभट्ट को बाद में पराजित किया । इस समय चारुकीर्ति भट्टारक भी उपस्थित थे ( ले. ७२० ) ।
चन्द्रकीर्ति के शिष्य लक्ष्मण ने चौरासी लक्ष योनि विनती, बारामासी, तीन चउवीसी विनती, तथा पार्श्वनाथ विनती की रचना की (ले. ७२१ - २४ ) । पंडित चिदून ने चंद्रकीर्ति की प्रशंसा की है ( ले. ७१९ ) ।
चन्द्रकीर्ति के पट्ट पर राजकीर्ति भट्टारक हुए। आप ने वाणारसी में विवाद में जय प्राप्त किया । हीरजी और हेमसागर ने आप की प्रशंसा की है (ले. ७२५-२६ ) | ब्रह्म ज्ञान ने इन के समय रविवार व्रत कथा लिखी (ले. ७२७ ) तथा इन के शिष्य पं. हाजी ने लाडबागड गच्छ की पट्टावली की एक प्रति लिखी ( ले. ७२८ ) ।
राजकीर्ति के पट्टशिष्य लक्ष्मीसेन हुए। आप ने शक १५६१ में पद्मावती मूर्ति, तथा संवत् १७०३ में बाहुबली मूर्ति स्थापित की ( ले. ७२९-३० ) ।
लक्ष्मीसेन के बाद इन्द्र भूषण भट्टारक हुए। आप ने शक १५८० में एक पार्श्वनाथ मूर्ति तथा एक पद्मावती मूर्ति स्थापित की (ले. ७३१३२ ) । आप के कुछ शिष्यों ने संवत् १७१८ में गोमटेश्वर की यात्रा की (ले. ७३३ ) 1 १३४ इनके शिष्य श्रीपति ने संवत् १७३६ में कोकिल
१३४ मूल लेख से प्रतीत होता है कि यह यात्रा सुरेन्द्रकीर्ति के समय हुई किन्तु संवत् निर्देश इन्द्रभूषण के समय के लिए ही अधिक उपयुक्त है ।
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काष्ठासंघ- नन्दीतट गच्छ
२९७
पंचमी कथा लिखी (ले. ७३४ ) । इन की आज्ञा से भूपतिमिश्र ने गोमटस्वामी स्तोत्र लिखा ( ले. ७३५ ) । जिनसेन, नरेन्द्रकीर्ति, सुमतिसागर, नरेन्द्रसागर, रूपसागर, जिनदास एवं द्विज विश्वनाथ ने इन्द्रभूषण की प्रशंसा की है ( ले. ७३६-४३ ) । इन के समय बघेरवाल जाति के ५२ गोत्रों में २५ गोत्र काष्ठासंघ के अनुयायी थे ( ले. ७३७ ) ।
इन्द्रभूषण के बाद सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए | आप ने संवत् १७४४ में रत्नत्रय यन्त्र, संवत् १७४७ में मेरुमूर्ति तथा इस वर्ष भी एक रत्नत्रय यन्त्र स्थापित किया ( ले. ७४४ - ४६ ) । आप के शिष्य पामो ने संवत् १७४९ में भरत भुजबल चरित्र की रचना की ( ले. ७४७ ) । इन ने अष्टद्रव्य छप्पय भी लिखे ( ले. ७४८ ) । सुरेन्द्र कीर्ति के शिष्य धनसागर ने संवत् १७५१ में नवकार पचीसी लिखी तथा संवत् १७५३ में विहरमान तीर्थंकर स्तुति की रचना की ( ले. ७४९-५० ) सुरेन्द्र कीर्ति ने संवत् १७५३ में चौवीसी मूर्ति स्थापित की तथा संवत् १७५४ तथा संवत् १७५६ में केशरियाजी क्षेत्र पर दो चैत्यालयों की प्रतिष्ठा की ( ले. ७५१ ५३ ) । आप के पूर्वोक्त शिष्य धनसागर ने संवत् १७५६ में पार्श्वपुराण लिखा ( ले. ७५४ ) । सुरेन्द्रकीर्ति ने संवत् १७७३ में पद्मावती पूजा लिखी ( ले. ७५५ ) | आप ने कल्याणमन्दिर, एकीभाव, विषापहार, भूपाल इन चार स्तोत्रों का छप्पयों में रूपान्तर किया ( ले. ७५६-५९ ) ।
सुरेन्द्रकीर्ति के तीन पट्टशिष्य ज्ञात हैं । लक्ष्मीसेन, सकलकीर्ति और देवेन्द्रकीर्ति ये उन के नाम थे । लक्ष्मीसेन के पट्ट पर विजयकीर्ति भट्टारक हुए | आप ने संवत् १८१२ में सुरेन्द्रकीर्ति की चरणपादुकाएं स्थापित की तथा एक शीतलनाथ मूर्ति भी स्थापित की ( ले. ७६०६२ ) ।
सुरेन्द्रकीर्ति के दूसरे शिष्य सकलकीर्ति थे । इन के शिष्य चन्द्र ने संवत् १८१६ में अकृत्रिम चैत्यालय बावनी लिखी ( ले ७६३ )
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२९८
रत्नकीर्ति
लक्ष्मीसेन
भीमसेन
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भट्टारक संप्रदाय
सुरेन्द्र कीर्ति के तीसरे पट्टधर देवेन्द्रकीर्ति हुए। आप ने संवत् १८८१ में एक सरस्वती मूर्ति तथा संवत् १८८५ में एक नवग्रह यन्त्र की स्थापना की ( ले. ७६४-६५ ) । देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य पूना ने पुरन्दर व्रत कथा की रचना की ( ले. ७६६ ) ।
उदयसेन
}
त्रिभुवनकीर्ति
सोमकीर्ति [ संवत् १५२६-१५४०]
विजयसेन
1
यशःकीर्ति
काष्ठासंघ- नन्दीतट गच्छ-कालपट
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रत्नभूषण [ संवत् १६७४ ]
जयकीर्ति [ संवत् १६८६ ]
J
केशव सेन
विश्वकीर्ति [ संवत् १६९६-१७००]
धर्मसेन
[ अगला पृष्ठ देखिए ]
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विजयकीर्ति
लक्ष्मीसेन
विजयकीर्ति [ संवत् १८१२]
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काष्ठासंघ - नन्दीतट गच्छ
धर्मसेन
विमलसेन
1
विशालकीर्ति
1
विश्वसेन [ संवत् १५९६ ]
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}
विद्याभूषण [ संवत् १६०४-१६३६]
।
श्रीभूषण [ संवत् १६३४--१६७६ ]
१९९
1
चन्द्रकीर्ति [संवत् १६५४-१६८१]
सकलकीर्ति
[संवत् १८१६]
राजकीर्ति
1
लक्ष्मीसेन [ संवत् १६९६--१७०३]
I
इन्द्रभूषण [ संवत् १७१५-१७३६]
सुरेन्द्र कीर्ति [संवत् १७४४-१७७३]
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देवेन्द्रकीर्ति
[संवत् १८८१-८५]
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Achar
परिशिष्ट ३ भट्टारक नाम सूची
[परिशिष्टों में सर्वत्र लेखांक का सन्दर्भ दिया है।] अजितकीर्ति (कुमुदचन्द्र के शिष्य) १९३ उदयसेन अजितकीर्ति ( विशालकीर्ति के शिष्य ) उद्धरसेन
५५८,५७३ २०५,२०६ एकवीर अजितकीर्ति (मकीर्ति के शिष्य ) कनककीर्ति ( मुनीन्द्रकीर्ति के शिष्य ) २१८-२२०
नो. ५३ अनन्तकीर्ति ( महेद्रन्कीति के शिष्य) ३०० कनककीर्ति ( रामकीर्ति के शिष्य ) नो ६६ अनन्तकीर्ति ( महेन्द्रसेन के शिष्य ) ६२९ कनकसेन ( वीरसेन के शिष्य ) ९ अनन्तकीर्ति (मुनिचन्द्र के शिष्य) ९० कनकसेन ( श्रवणसेन के बन्धु ) ९४ अनन्तकीर्ति (श्रेयांससेन के शिष्य) ५८४ कमलकीर्ति ( अनन्तकीर्ति के शिष्य) अनन्तकीर्ति (सहस्रकीर्ति के शिष्य )नो. ५३
५८५-५८६ अनन्तवीर्य
... १५ कमलकीर्ति ( हेमकीर्ति के शिष्य अभयचन्द्र
५९०-५९२ अभयनन्दि
५१७-५२१ कल्नेलेदेव अमरकीर्ति ( चन्द्रकीर्ति के शिष्य ) कल्याणकीर्ति ५५३-५५४ कीर्तिषेण ।
६२२ अमरकीर्ति ( चारुकीर्ति के शिष्य ) ९८ कुमारसेन ( कमलकीर्ति के शिष्य ) अमरकीति (धर्मभूषण के शिष्य ९५-९६) अमरचन्द्र
४१९-४२० कुमारसेन ( भानुकीर्ति के शिष्य ) अमरसेन नो. ९९
५७७-५७९ अमितगति ( देवसेन के शिष्य ) ५४२ कुमारसेन ( सेनान्वय) अमितगति ( माधवसेन के शिष्य ) कुमुदचन्द्र ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) ।
११३-११६ अभितसेन
६२२ कुमुदचन्द्र ( नेसर्गी ) अर्ककीर्ति
६२३ कुलभूषण अष्टोपवासी
१५ कूविलाचार्य आर्यनन्दि
१, २ केशवदेव आर्यसेन
११ केशवनन्दि इन्द्रभूषण ५३१-७४३ केशवसेन
६६२-६६४
२०४
४४० ०१.
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भट्टारक नाम सूची
३०१
गुणकीर्ति ( कल्याणकीर्ति के शिष्य ) २०४ | चन्द्रकीर्ति ( श्रीषेण के शिष्य ) नो. ९९ गुणकीर्ति ( सहस्रकीर्ति के शिष्य ) चन्द्रकीर्ति (ज्ञानभूषण के शिष्य) नो.५३
५५५-५५६ चन्द्रप्रभ गुणकीर्ति ( सुमतिकीर्ति के शिष्य ) चन्द्रभूषण ( जिनेन्द्रभूषण के शिष्य ) : ३७८--३८१
- नो. ५६ गुणचन्द्र (गुणभद्र के शिष्य ) ५७३ चन्द्रभूषण ( सुरेन्द्रभूषण के शिष्य) नो. ५६ गुणचन्द्र ( यशःकीर्ति के शिष्य ) चन्द्रसेन ६००-६०१ चारुचन्द्रभूषण
नो. ५६ गुणचन्द्र ( सिंहनन्दि के शिष्य ) चित्रसेन
४०३--४०६ छत्रसेन ( माथुरान्वय) ५५० गुणभद् (माथुर गच्छ ) ५५१ .
छत्रसेन ( समन्तभद्र के शिष्य ) ५२-६३ गुणभद्र (जिनसेन के शिष्य ) ५--८
जगत्कीर्ति ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) ६१४ गुणभद्र ( मलयकीर्ति के शिष्य )
जगत्कीर्ति ( सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) २७० ५६५-५७५
जगद्भूषण गुणभद्र ( माणिक्यसेन के शिष्य ) ३८
३१०-३१३
जयकीर्ति गुणभद्र ( सोमसेन के शिष्य ) २३-२४
६६१
जयसेन ( गुणाकरसेन के गुरु ) ६२६ मुमसेन
जयसेन ( पुन्नाट गण) ६२२ गुणाकरसेन
जयसेन ( भावसेन के शिष्य ) ६२५ गोपसेन
जिनसेन ( वीरसेन के शिष्य ) २-८ चन्द्रकीर्ति ( अजितकीर्ति के शिष्य )
२२१-२२२ जिनसेन ( सोमसेन के शिष्य ) ४५-५१ चन्द्रकीर्ति ( गुणकीर्ति के शिष्य ) २०४ जिनचन्द्र (गुणचन्द्र के शिष्य ) ४०७ चन्द्रकीर्ति ( नेमिचन्द्र के शिष्य ) ३९४ जिनचन्द्र ( मेरुचन्द्र के शिष्य ) ५०७ चन्द्रकीर्ति ( प्रभाचन्द्र के शिष्य ) जिनचन्द्र ( शुभचन्द्र के शिष्य ) २६९,२८६ ।
२४७-२६४ चन्द्रकीर्ति ( महेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) प्र. ६ जिनेन्द्रभूषण ( मुनीन्द्रभूषण के शिष्य ) चन्द्रकीर्ति ( रत्नकीर्ति के शिष्य )
नो. ५६ ५३९५४० जिनेन्द्रभूषण ( लक्ष्मीभूषण के शिष्य ) चन्द्रकीर्ति ( श्रीधर के शिष्य ) ९१
३२५.-३२७ चन्द्रकीर्ति ( श्रीभूषण के शिष्य ) जिनेन्द्रभूषण ( हरेन्द्रभूषण के शिष्य ) .. ७०९--७२४
नो. ५६
६२६
६
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३.०२
भट्टारक संप्रदाय
त्रिभुवनकीर्ति ( उदयसेन के शिष्य ) ६५५ देवेन्द्रकीर्ति ( विद्यानन्द के शिष्य )
१०२ - १०३
त्रिभुवनकीर्ति ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) ५२३--५२४ |देवेन्द्रकीर्ति ( विद्यानन्दि के शिष्य )
देवसेन ( अमितगति के गुरु ) देवसेन ( उद्धरसेन के शिष्य )
त्रिभुवनकीर्ति ( पद्मसेन के शिष्य ) ६३५ ५०९--५१० त्रिभुवनकीर्ति (प्रतापकीर्ति के शिष्य ) ६४४ देवेन्द्र कीर्ति ( सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) त्रिभुवनकीर्ति (क्षेमकीर्ति के शिष्य ) ६०७ दुर्लभसेन
७६४--७६६
६२७
देवचन्द्र
४२४
देवसेन ( कुलभूषण के गुरु ) देवसेन ( धारसेन के शिष्य ) देवेन्द्रकीर्ति
( धर्मचन्द्र के शिष्य, नागौर ) देवेन्द्र कीर्ति ( धर्मचन्द्र के शिष्य,
५४२
५५८--५७३
६२७
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देवेन्द्रभूषण
( जिनेन्द्रभूषण के शिष्य ) नो. ५६ | देवेन्द्रभूषण (विश्वभूषण के शिष्य ) ३२० देशनन्दि
९३
धर्मकीर्ति ( त्रिभुवनकीर्ति के शिष्य )
२०
२९४
६३६--६३७ | धर्मकीर्ति ( भुवनकीर्ति के शिष्य )
२८० -- २८१ धर्मकीर्ति ( ललितकीर्ति के शिष्य )
५२५-५३२ धर्मकीर्ति ( सिंहकीर्ति के शिष्य ) ३०९ धर्मचन्द्र ( कुमुदचन्द्र के शिष्य )
११७--१२६
: देवेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य ) १८६ -- १९२ . देवेन्द्रकीर्ति ( धर्मचन्द्र के शिष्य,
विशालकीर्ति के प्रशिष्य ) १४८ - १७८ धर्मचन्द्र ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य, धर्मचन्द्र देवेन्द्रकीर्ति ( धर्मभूषण के शिष्य ) के प्रशिष्य ) १७९--१८५ १०८- ११२ | धर्मचन्द्र ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य, देवेन्द्रकीर्ति (नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) प्र. ६ विद्यानन्द के प्रशिष्य ) १०४ - १०५ देवेन्द्रकीर्ति ( पद्मनन्दि के शिष्य, ईडर ) धर्मचन्द्र ( विद्याभूषण के शिष्य ) देवेन्द्र कीर्ति
३९०-३९१
५१२--५१३ | धर्मचन्द्र ( विशालकीर्ति के शिष्य ) ५१२--५१३
( पद्मनन्दि के शिष्य, कारंजा ) नो. २९ देवेन्द्रकीर्ति ( पद्मनन्दि के शिष्य, सूरत ) धर्मचन्द्र ( विशालकीर्ति के शिष्य )
४२५--४२६
१३६--१४७ देवेन्द्रकीर्ति ( महीचन्द्र के शिष्य ) ६१३ | धर्मचन्द्र ( शुभकीर्ति के शिष्य ) देवेन्द्र कीर्ति ( रत्नकीर्ति के शिष्य ) नो. २९ |
२२९--२३०
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धर्मचन्द्र ( श्रीभूषण के शिष्य )
भट्टारक नाम सूची
| नेमिषेण ( नन्दीतर गच्छ )" २९२ - २९३ | नेमिषेण ( माथुर गच्छ )
धर्मभूषण ( अमरकीर्ति के शिष्य ) पद्मकीर्ति ( धर्मकीर्ति के शिष्य ) ९५-९६ पद्मकीर्ति ( विशालकीर्ति के शिष्य ) २०७-२०१ पद्मनन्दि ( चन्द्रकीर्ति के शिष्य ) नो. ५३ पद्मनन्दि ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) नो. २९ पद्मनन्दि ( प्रभाचन्द्र के शिष्य ) २३७-२४१
| पद्मनन्दि ( रामकीर्ति के शिष्य )
धर्मभूषण ( धर्मचन्द्र के शिष्य,
कुमुदचन्द्र के प्रशिष्य ) १२७- १३५ भू ( धर्मचन्द्र के शिष्य, देवेन्द्र कीर्ति के प्रशिष्य ) १०६ - १०७ भूषण ( वर्धमान के शिष्य ) ९६-९७ धर्मभूषण ( शुभकीर्ति के शिष्य )
९५--९६
धर्मसेन ( लक्ष्मीसेन के शिष्य )
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६६७--६६८
धर्मसेन (विमलसेन के शिष्य )
५५८,५७३
६२५
१९
११
धर्मसेन ( शान्तिषेण के गुरु ) धारसेन
नयनन्दि
नयसेन
५८२
नरेन्द्रकी र्ति (देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) २६९ नरेन्द्रकीर्ति ( मलकीर्ति के शिष्य )
नेमिचन्द्र ( श्रीधर के शिष्य ) नेमिचन्द्र (सहस्रकीर्ति के शिष्य )
पद्मप्रभ
पद्मसेन
नरेन्द्रकीर्ति ( सुखेन्द्र कीर्ति के शिष्य ) प्र. ६ नरेन्द्रकीर्ति ( क्षेमकीर्ति के शिष्य ) नरेन्द्र भूषण नरेन्द्रसेन
६४--६९ । बालचन्द्र
नागेन्द्र कीर्ति
२२१--२२२ | ब्रह्मसेन
नेमिचन्द्र (विजयकीर्ति के शिष्य ) ३९४ | भवन भूषण
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३८७--३८९ पद्मनन्दि ( सहस्रकीर्ति के शिष्य ) प्र. १२ पद्मनन्दि ( हेमचन्द्र के शिष्य )
पलपण्डित
प्रतापकीर्ति
| प्रभाचन्द्र ( जिनचन्द्र के शिष्य )
२६५-२६८ प्रभाचन्द्र ( बालचन्द्र के शिष्य ) १५ ६४०--६४१ | प्रभाचन्द्र ( रत्नकीर्ति के शिष्य )
२३३-२३६
२८५--२८७ |
३९३ प्रभाचन्द्र ( ज्ञानभूषण के शिष्य ) नो. ५६
३०३
६५०
५४२
५३६
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५९६
९१
६३२--६३४
१५
६४२--६३४
४८७--४९०
३०१
९१ | भानुकीर्ति ( गुणभद्र के शिष्य ) ५७६
भानुकीर्ति ( यशःकीर्ति के शिष्य )
१५
११
२८९-२९०
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३०४
भट्टारक संप्रदाय
३७
६२१
भावसेन ( गोपसेन के शिष्य ) ६२५ माणिकनन्दि
२०४ भावसेन ( धर्मसेन के शिष्य ) माणिकसेन
२७-२८ ५५८,५७३ माणिक्यसेन भीमसेन
६५२ माधवसेन ( चन्द्रप्रभ के शिष्य ) १४ भुवनकीर्ति ( रत्नकीर्ति के शिष्य ) माधवसेन ( नेमिषेण के शिष्य ) ५४२
२७८-२७९ माधवसेन ( प्रतापसेन के शिष्य ) ५८० भुवनकीर्ति ( सकलकीर्ति के शिष्य ) मुनिचन्द्र
३४३-३५१ मुनिसेन । मलयकीर्ति (धर्मकीर्ति के शिष्य ) मुनीन्द्रकीर्ति ( राजेन्द्रकीर्ति के शिष्य )।
६६८-६३९ मलयकीर्ति ( यश कीर्ति के शिष्य ) मुनीन्द्रकीर्ति (क्षेमेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) ५६३-५६४
नो. ५३ मल्लिभषण
४५८-४६३ मुनीन्द्रभूषण ३२३-३२४ महासेन ( गुणाकरसेन के शिष्य ) ६२६ मेघनन्दि महासेन (ब्रह्मसेन के शिष्य) ११ मेरुचन्द्र महीचन्द्र ( वादिचन्द्र के शिष्य ) मौनिभट्टारक
३२४ ४९९-५०० यश:कीर्ति (गुणकीर्ति के शिष्य ) महीचन्द्र ( विशालकीर्ति के शिष्य)
५५७-५६२ १९५-२०१ यश कीर्ति (नेमिचन्द्र के शिष्य ) २८८ महीचन्द्र ( सहस्रकीर्ति के शिष्य ) ६१२ यश:कीर्ति ( पद्मनन्दि के शिष्य, जेरहट) मही भूषण २००-२०३:
५२५-५२९ महेन्द्रकीर्ति ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य, यश:कीर्ति (पद्मनन्दि के शिष्य, जयपुर)
२७४ माथुर गच्छ) ५९७-५९८ महेन्द्रकीर्ति । देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य, यशःकीर्ति ( रत्नकीर्ति के शिष्य )
नरेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य ) प्र. ६ महेन्द्रकीर्ति ( विद्यानन्द के शिष्य ) २९९ यश:कीर्ति ( रामकीर्ति के शिप्य ) ३९५ महेन्द्रभूषण
३२५-३२८ यश:कीर्ति (विजयसेन के शिष्य ) ६५५ महेन्द्रसेन ( केशवसेन के शिष्य ) ६२८ यशःकीर्ति (विमलकीर्ति के शिष्य ) ६४६ महेन्द्रसेन ( सकलचन्द्र के शिष्य ) यशःसेन
५९९-६०५ युक्तवीर
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भट्टारक नाम सूची
रत्नकीर्ति ( अभयनन्दि के शिष्य ) ५२२ | लक्ष्मीचन्द्र (मल्लिभूषण के शिष्य )
रत्नकीर्ति ( जिनचन्द्र के शिष्य )
राजकीर्ति
राजेन्द्र कीर्ति
४६८-४७६ २५८,२७७ लक्ष्मीचन्द्र ( विशालकीर्ति के शिष्य ) २८३ कीर्ति ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) नो. २९ लक्ष्मीभूषण ३२३-३२४ रत्नकीर्ति (धर्मचन्द्र के शिष्य ) २३१ - २३२ लक्ष्मीसेन ( गुणभद्र के शिष्य ) ३० - ३३ रत्न कीर्ति ( ललितकीर्ति के शिष्य ) | लक्ष्मीसेन ( रत्नकीर्ति के शिष्य ) ६७१ ५३९ -- ५४० लक्ष्मीसेन ( राजकीर्ति के शिष्य ) रत्न कीर्ति ( लक्ष्मीसेन के गुरु ) प्र. १६ रत्नकीर्ति ( सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) २९७ लक्ष्मीसेन ( सिद्धसेन के शिष्य ) रत्न कीर्ति ( ज्ञानकीर्ति के शिष्य ) लक्ष्मीसेन ( सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य )
७२९-७३०
८५
३९९-४००
७६१-७६२
रत्नचन्द्र (अमरचन्द्र के शिष्य) ४२१-४२३.
लोकसेन
रत्नचन्द्र ( सकलचन्द्र के शिष्य ) वज्रपाणि
४१०-४१५
| वर्धमान
७२५-७२८
| वसन्तकीर्ति
६१८-६२०
वादिचन्द्र
३२८
३९५ वादिभूषण
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राजेन्द्रभूषण
रामकीर्ति ( चन्द्रकीर्ति के शिष्य ) रामकीर्ति (वादिभूषण के शिष्य ) ३८५-३८६
रामकीर्ति ( विमलकीर्ति के शिष्य ) ६४६ रामकीर्ति (सुरेन्द्रकी र्ति के शिष्य) नो.
३०५
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८
१०
९५-९६
२२३-२२५
४९१-४९८
२८२ - ३८४
| वासुपूज्य
९१
| विजयकीर्ति ( कनककीर्ति के शिष्य) नो. ६६ विजयकीर्ति ( कूविलाचार्य के शिष्य) ६२३ ६६ विजयकीर्ति ( नरेन्द्र कीर्ति के १३ | विजयकीर्ति ( भवन भूषण के
शिष्य ) ३९४ शिष्य ) ३०२
रामचन्द्र
रामसेन ( नन्दीतर गच्छ ) ६४८- ६४९ विजयकीर्ति ( लक्ष्मीसेन के शिष्य ) रामसेन ( माथुर गच्छ )
रामसेन ( सेन गण )
ललितकीर्ति (जगत्कीर्ति के शिष्य )
५४१ ७६०-७६१ १२ विजयकीर्ति (शान्तिषेण के शिष्य ) ६२७ विजयकीर्ति ( ज्ञानभूषण के शिष्य ) ६१५-६१७ ३६२-३६६ ललितकीर्ति (धर्मकीर्ति के शिष्य ) ५५२ | विजयसेन ( अनन्तकीर्ति के शिष्य ) ६३० ललितकीर्ति ( यशःकीर्ति के शिष्य ) | विजयसेन ( माधवसेन के शिष्य ) ५८१
५२५ - ५२९ | विजयसेन ( सोमकीर्ति के शिष्य ) ६५५
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३०६
भट्टारक संप्रदाय
विद्यानन्दि (जिनचन्द्र के शिष्य ) विश्वसेन
६६९-६७३ ५०७-५०८ वीरचन्द्र
४७७-४७९ विद्यानन्दि ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) वीरसेन (आर्यनन्दि के शिष्य ) १-५
४२७-४५७ वीरसेन ( कुमारसेन के शिष्य) ९ विद्यानन्दि ( रत्नकीर्ति के शिष्य ) २९८ वीरसेन ( गुणभद्र के शिष्य ) २५ विद्यानन्दि (विशालकीर्ति के शिष्य) वीरसेन ( लक्ष्मीसेन के शिष्य) नो. २०. १००-१०१ शान्तिकीर्ति
२०४ विद्याभूषण (देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य) ५११ शान्तिषेण (अमितगति के शिष्य) नो. ९९ विद्याभूषण ( पद्मकीर्ति के शिष्य ) २१० शान्तिषेण ( दुर्लभसेन के शिष्य) ६२७ विद्याभूषण ( विश्वसेन के शिष्य ) शान्तिषेण ( धर्मसेन के शिष्य ) ६२५
६७६-६८० शान्तिषेण (नरेन्द्रसेन के शिष्य) ७०-७६ विनयनन्दि
शीलभूषण विनयसेन
शुभकीर्ति ९५, २२७-२२८ विमलकीर्ति
६४६ शुभचन्द्र ( कमलकीर्ति के शिष्य ) विमलसेन (देवसेन के शिष्य) ५५८,५७३ विमलसेन ( धर्मसेन के शिष्य ) ६७१ शुभचन्द्र ( पद्मनन्दि के शिष्य ) विशालकीर्ति (अजितकीर्ति के शिष्य )१९४
२४२-२४६ विशालकीर्ति ( अमरकीर्ति के शिष्य ) शुभचन्द्र ( विजयकीर्ति के शिष्य )
३६७-३७५ विशालकीर्ति (धर्मकीर्ति के शिष्य ) २८२ शुभचन्द्र ( हर्षचन्द्र के शिष्य ) विशालकीर्ति (धर्मभूषण के शिष्य )
१३८-१४० श्रवणसेन विशालकीर्ति (नागेन्द्रकीर्ति के शिष्य)नो.३१ श्रीचन्द्र
८६-८८ विशालकीर्ति ( वर्तमान, लातूर ) नो. ३१ श्रीधर ( चन्द्रकीर्ति के शिष्य ) ९१ विशालकीर्ति (वसन्तकीर्ति के शिष्य) श्रीधर ( नयनन्दि के शिष्य ) ९१
__ ९५,२२६ श्रीधरसेन विशालकीर्ति (विमलसेन के शिष्य ) श्रीनन्दि
८६-८८ ६७१-६७३ श्रीभूषण ( भानुकीर्ति के शिष्य ) २९१ विश्वकीर्ति
६६५-६६६ श्रीभूषण ( विद्याभूषण के शिष्य ) विश्वभूषण ३१४-३१७
६८१-७०८
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भट्टारक नाम सूची
३०७ श्रीषेण
नो. ९९ सुरेन्द्रकीर्ति ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) श्रुतवीर
२९५-२९६ श्रेयांससेन
५८३ सुरेन्द्रकीर्ति (नरेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) प्र.६ सकलकीर्ति ( पद्मकीर्ति के शिष्य ) सुरेन्द्रकीर्ति (यश:कीर्ति के शिष्य) नो.६६
५३३-५३७ सुरेन्द्रकीर्ति ( सकलकीर्ति के शिष्य ) ५३८ सकलकीर्ति ( पद्मनन्दि के शिष्य ) सुरेन्द्रकीर्ति (क्षेमेन्द्रकीर्ति के शिष्य) २७६
__ ३२९-३४२ सुरेन्द्रभूषण ( देवेन्द्रभूषण के शिष्य) सकलकीर्ति (सुरेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) ७६३
३१८-३२२ सकलचन्द्र ( गुणचन्द्र के शिष्य ) सुरेन्द्र भषण (नरेन्द्रभूषण के शिष्य) नो.५६ ६००-६०१ सोमकीर्ति
६५१-६५४ सकलचन्द्र (जिनचन्द्र के शिष्य ) सोमसेन ( गुणभद्र के शिष्य ) ३९-४४
४०७-४०९ सोमसेन ( देवसेन के शिष्य ) २१-२२ सकल भूषण
नो. ५३ सोमसेन ( लक्ष्मीसेन के शिष्य.) ३४-३६ समन्तभद्र
६१-६२ सोमसेन ( श्रुतवीर के गुरु ) १७ सहस्रकीर्ति (त्रिभुवनकीर्ति के शिष्य,जेरहट) हरिषेण ( भरतसेन के शिष्य ) ६२४
प्र. १२ हरिषेण ( मौनिभट्टारक के शिष्य) ६२४ सहस्रकीर्ति ( त्रिभुवनकीर्ति के शिष्य, हरेन्द्रभूषण
नो. ५६ माथुरगच्छ ) ६०८-६११ हर्षकीर्ति
नो. ५३ सहस्रकीर्ति ( भावसेन के शिष्य ) हर्षचन्द्र
५५८, ५७३ हेमकीति ( विद्याभूषण के शिष्य, नागौर ) सहस्रकीर्ति ( लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य ) २८४
नो, ५३ सहस्रकीर्ति (सकलभूषण के शिष्य) नो. ५३ हेमकीर्ति ( विद्याभूषण के शिष्य, लातूर) सिद्धसेन ७७-८४
२११-२१७ सिंहकीर्ति
३०३-३०८ हेमकीर्ति ( क्षेमकीर्ति के शिष्य ) सिंहनन्दि ४०३, ४६४, ४६६, ४७२
५८८-५८९ सुखेन्द्रकीर्ति मुमतिकीर्ति ८१, ३७६-३७७ हेमनन्दि
६४५ क्षेमकीर्ति (कमलकीर्ति के शिष्य ) ५८७ मुरेन्द्रकीर्ति ( इन्द्रभूषण के शिष्य ) क्षेमकीर्ति ( देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य ) ३९२
७४४-७५९ क्षेमकीर्ति ( यशःकीर्ति के शिष्य ) ६०६
सुरसेन
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३०८
भट्टारक संप्रदाय
क्षेमेन्द्रकीर्ति (महिन्द्रकीति के शिष्य) २७६ शानभूषण ( रत्नकीर्ति के शिष्य ) नो. ५३ क्षेमेन्द्रकीर्ति (हेमकीर्ति के शिष्य) नो.५३ शानभूषण (वीरचन्द्र के शिष्य ) ज्ञानकीर्ति ३९६-३९८
४८०-४८६ शानभूषण (भुवनकीर्ति के शिष्य) शानभूषण (शीलभूषण के शिष्य) ३१०
परिशिष्ट ४, आचार्यादि-नामएची [ भट्टारकों के शिष्यों में सम्मिलित मुनि, आर्यिका आदि]
६५५-६५६
२७१
५१४ ६९४ २०० २७४
अजित
४३६ कृष्णदास अनन्तकीर्ति
४०२ खुशालदास अनन्तमती
६५६ गुणदास अमरकीर्ति
४५९ गुणनन्दि अमरजी
४१५ गुणसागर अर्जुनसुत
६२,६९ गुणसेन आगमभी
२४४,३०८ गोमटसागर আয়ামৰ
६३२ गोवर्धनदास इन्दुमती
१८१ गौतमसागर कमलकीर्ति
४९७ गंगादास
४०८/चन्द्र कल्याणकीर्ति (सूरत)
४५१ चन्द्रसागर कल्याणकीर्ति (ईडर) ३९०-३९१ चन्दाबाई कल्याणकीर्ति ( लासमागा) ६३४ चारित्रश्री कल्याणभी
४५८ चासकीर्ति कामराज
. ३८९ चिरन
३९७ चोखचन्द्र
कर्मसी
१३७,१३९-१४५
७६३
२४४,३०९ १२५,२५३
कुबेर
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Achar
आचार्यादि नाम सूची
३०९
४३७ धनसागर ७४९,७५०,७५४ जगतसिंह
३२१ धर्मकीर्ति जनार्दन २०४ धर्मचन्द्र
२६७ जयकीर्ति (दिल्ली) २५.३ धर्मदास
५६६,५७५ जयकीर्ति (माथुर)
६०९ धर्मपाल जयनन्दि
२५३ धर्मरुचि जयसागर (सूरत) ५०२-५०५ नयनन्दि.
२५१ जयसागर (नन्दीतट) ६५०,६५४ नरसिंह २४५,२५३-२५४ ६५७-६६० नरेन्द्रसागर
७४० जिनदास (इंडर) ३४०-३५२,४७५ नरेन्द्रसेन
६३२-६३३ जिनदास (सूरत)
५०८ नागचन्द्र जिनदास ( नन्दीतट) ७४२ नाथूराम जिनमती ४५८ नेत्रनन्दि
२५५ जिनसागर १५२-२५५,१६४-१७८ नेमिचन्द्र (सूरत) जिनसेन
७३६ नेमिचन्द्र (जेरहट) जीवनदास १६१ पद्मकीर्ति
५८८ वानू
७५/पंडितदेव तेजपाल २६९,३९० पामो
७४७--७४८ त्रिभुवनकीर्ति
- ३६७ पार्श्वकीर्ति ११७-.११९,१२४ त्रिभुवनचन्द्र ३९१ पासमति
१५९ .दशरथगुरु ८ पुण्यकीर्ति
२७९ दीपचंद -६-१.१ पुण्यसागर
२०५-२०६ दीपद
२५९/पूना देवक्रीति (ईडर) ३९०..३९१ पूरनमल देवकीर्ति (माथुर ) ५८८ प्रतापचन्द्र
५८८ देवजी ३८२ प्रतापश्री
६१० देवदास ३८२ बिहारीदास
.६३,५३८ देवभी ३६५ बुद्धिसागर
१६१ धनपडित
९३ भगक्तीदास
५९९-६०५ अनपाल
२३६ भागचंद
५१
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भूप
४०८
१६१ १५२,१५५
७४१
भूपति
७२०-७२४
२७१
६१५
३८९ २४४ १०२
भट्टारक संप्रदाय भीमसेन
२५३ रायमल्ल ६४३ रूपचंद
७३५ रूपजी भोज
३१० रूपसागर मकरन्द
२१७ लक्ष्मण (सूरत) मतिसागर
४५१ लक्ष्मण ( नन्दीतर) मदनकीर्ति
२५४-२५५ लक्ष्मीदास मदनदेव
२४५ लालचन्द्र (इंडर) मनजी
६६६ लालचन्द्र (माथुर) मल्लिदास
३४४ लालजी महतिसागर
१९०--१९२ लोकश्री महाकीर्ति
२०१ वर्धमान महेन्द्रदत्त
४४२ वानारसीदास महेन्द्रसेन
६.७४--६७५ विद्यासागर मांडण
५७३ विनयश्री माणिकनन्दि
१६२ विमलकीर्ति माणिक्यराज
५९६ विश्वनाथ द्विज मेधावी (मीहा ) २५३,२५६,२५८ वीरजी यश
४०८ वीरदास ( कारंजा ) .
५६०-५६१ वीरदास ( नन्दीतट) रतन
७४,७८ वीरमती रत्नकीर्ति ( सेनगण)
८१ वृषभ रस्नकीर्ति ( माथुर) ५८९ शालिवाहन रत्नश्री
४५८ शान्तमती रत्नसागर
१५२--१५५ शान्तिदास.
८३,४६७ शिखरश्री राजन भट्ट
. ६८० शंकर राजमल्ल (माथुर)
५७८,५७९ श्रीपति
५९८,६०६ श्रुतकीर्ति ( ईडर ) राजमल्ल (नन्दीतट) ६९१ श्रुतकीर्ति ( जेरहट )
२४४ २५८
७४३ १५३,१५५ ११६--११७
रइधू
५२२ १८१--१८५
१८१ ४७५
राघव
३८०
७३४ ३९०--३९१ ५२३-.५२४
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Achar
आचार्यादि नाम सूची
३११
or
w
५८८
१०९
هه
श्रुतसागर
४३९--४५७,४६२.. हरदाससुत
४६६,४७२--४७४ हरीराज सकलकीर्ति ४७१ हर्ष
३८० सजूबाई
३९४ हर्षमती सहस्रकीर्ति
६३८ हर्षसागर संयमश्री ४२९ हाजी
७२८ सागरसेन ८६,८८ हीरजी
७२५ सिद्धान्तसागर ४७२ हीराबाई
३०९ सिंहनन्दि ९६ हेमकीर्ति (दिल्ली)
२४३ सिंहसेन ५६२ हेमकीर्ति ( भानपुर)
४१५ सुमतिकीर्ति (ईडर) ३७० हेमकीर्ति (नन्दीतट) सुमतिकीर्ति (सूरत)
हेमचन्द्र (दिल्ली)
२७९ ४८३.-४८६,४८८--४८९ हेमचन्द्र (माथुर)
५८८ सुमतिसागर ( सूरत ) ५१७-५२१ हेमचन्द्र ( नन्दीतट) सुमतिसागर (नन्दीतट) ७३९ हेमपण्डित सुविवेक ६८९ हेमराज
३१७ सोनोपण्डित १९४ हेमसागर
७२६ सोमविजय (सेन गण) ३१ क्षेमकीर्ति
२७४ सोमविजय ( नन्दीतट) ६९२ क्षेमचन्द्र
३७० हरजीमल
६१५ ज्ञानसागर ६९६.-७०८,७२७
६३८
w
م
४८८
m
a
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७३८
८१
परिशिष्ट ५, अन्य नाम सूची अकृत्रिम चैत्य जयमाला १८६ | आदिनाथस्तोत्र ( विहारीदास) ५३८ अकृत्रिम चैत्य पूजा १८८ आदिपुराण (जिनसेन) अकृत्रिम चैत्य बावनी ७६३ आदिपुराण (महीचन्द्र) १९५ अंगपण्णत्ती
३७३ आदिपुराण (सिंहसेन) ५६२ अठाई व्रत कथा
१९७ आराधना (अमितगति) ५४९ अणुव्रत रत्न प्रदीप
२७९ आराधना ( सकलकीर्ति) ३३९,५०८ अतिशय जयमाला
६६७ आराधना कथाकोष अध्यात्मतरंगिणी टीका २५६,३८२,३६७/आराधना पंजिका
२३५ अनन्तनाथ चरित्र
६२९/आराधनासार टीका ५८९,६७० अनन्तनाथ स्तोत्र
५८ इन्द्रभूषण स्तुति अनन्तनाथ पूजा
४०४ उत्तरपुराण (गुणभद्र) अनन्तव्रत कथा
१६८ उत्तरपुराण (पुष्पदन्त ) अनिरुद्ध छप्पय
६० उत्तरपुराण टिपण अनिरुद्ध हरण
५०४ उपदेशरत्नमाला अनेकार्थ नाममाला
६०० उपासकाचार अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ पूजा ४६७ ऋषिपंचमी कथा
३१८ अमरसेन चरित ५९६ ऋषिमण्डल पूजा
३६१ अम्बिका रास १०९ एकीभाव स्तोत्र
७५७ अरिष्टनेमिचरित
५५९ औदार्यचिन्तामणि (प्राकृतव्याकरण) ४५४ अष्ट द्रव्य छप्पय ७४८ कथाकोष
१५९ अष्टसहस्री
३९३ करकण्डु चरित अक्षयनिधान कथा ४६२ कर्मकाण्ड का
४८३ अक्षर वावनी
७०३ कर्मदहन विधान आकाशपंचमी कथा
४४५ कर्मविपाक रास आत्मानुशासन
६ कल्याणमन्दिर पूजा आदितवार कथा (गंगादास कृत) १४० कल्याणमन्दिर स्तोत्र आदितवार कथा (पुण्यसागर कृत) २०६ कसायपाहुड आदित्यव्रत कथा
१६३ कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका आदिनाथ पूजा ६६२ काली गोरी संवाद
१९९ आदिनाथ स्तोत्र (जिनसागर) १७२ कृष्णपुर पार्श्वनाथ स्तोत्र
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अन्य नाम सूची
३१३
०
०
१७०
कैलास छप्पय (धर्मचन्द्र कृत) १४६ जिनकथा
१६४ कैलास छप्पय (सोयरा कृत) ६९ जिनचौवीसी (चंद्रकीर्ति) कोकिळपंचमी कथा
७३४ जिनचौवीसी (रत्नचन्द्र) ४१० कौतुकसार
२०० जिनचौवीसी (शानसागर) गणधर वलय पूजा ३७५ जिनेन्द्रमाहात्म्य
३२५ गणितसार संग्रह ३८९,३९१, जीरापल्ली पार्श्वनाथ स्तोत्र २४१
४८४,५०९ जीवन्धर चरित गरुड पंचमी कथा
१९६ जीवन्धर पुराण गुणस्थान गुणमाला
३४१ जीवन्धर रास ३४९, ३८. गोमटदेव पूजा ६९८ ज्येष्ठजिनवर कथा
४४२ गोमटसार टीका
५१६ ज्येष्ठजिनबर पूजा (कृष्णदास) ६५६ गोमटस्वामी स्तोत्र
७३५ ज्येष्ठजिनवर पूजा (जिनदास) ३४२ गौतमचरित्र
२९३ ज्येष्ठजिनवर पूजा (जिनसागर) १७७ चन्दनषष्ठी कथा
४४४ ज्येष्ठजिनवर पूजा (चन्द्रकीर्ति) ७१३ चन्दना कथा ३७५ ज्योतिप्रकाश
३१६ चन्द्रनाथ चरित
३७५ ज्योतिषसार चारित्रशुद्धि विधान
३७५ तत्त्वत्रय प्रकाशिका चित्तनिरोध कथा
४७८ तत्त्वभावना चिन्तामणि पूजा _३७५ तत्त्वज्ञानतरंगिणी
३५८ चिन्तामणि सर्वतोभद्र व्याकरण ३७५ तत्त्वार्थवृत्ति
४७४ चौरासी लक्ष योनि विनति (लक्ष्मण कृत) तीन चौवीसी विनती ७२३
७२१ तीर्थ जयमाला (जयसागर) ६५९ चौरासी लक्ष योनि विनति ( सुमतिकीर्ति तीर्थ जयमाला (सुमतिसागर) ५२१
कृत) ४८५ तीस चौवीसी पूजा जगत्सुन्दरी प्रयोगमाला ६४६ त्रिलोक प्रशसि ।
२५४ जटामुकुट
१४५ त्रिषष्टि पुराण पुरुष चरित्र ६२८ जम्बूद्वीप जयमाला
५१९ त्रेपन क्रिया विनती ( गंगादास) १४४ जम्बूवामी चरित ५७८, ५७९ ओपन क्रिया विनती (प्रभाचन्द्र ) ४८७ जम्बूस्वामी रास
३४८ त्रैलोक्यसार रास जयधवला
२ त्रैवर्णिकाचार जसोधर रास
३५० दर्शनसार
४८९
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भट्टारक संप्रदाय
दशभक्त्यादि महाशास्त्र
नरेन्द्रसेन पूजा ९९, १०१, १०२ नवकार पचीसी दशलक्षण कथा
७०२ नववाडी दशलक्षण पूजा ५१८ / नवांककेवली
६०४ देवेन्द्रकीर्ति पूजा
१६१ नागकुमारचरित २६४, २६७, ४६८ देवेन्द्रकीर्ति लावणी
१९० / निर्दुःख सप्तमी कथा द्रौपदी हरण ५३ निर्दोष सप्तमी कथा
१८२ द्वात्रिंशदिन्द्रकेवली ६०५ निःशल्याष्टमी कथा
७०६ द्वात्रिंशिका ५४८ नीतिवाक्यामृत
२५८ द्वादशांगपूजा
६८७ नेमिनाथ चरित ( अमरकीर्ति) ५५४ द्वादशानुप्रेक्षा ११०, ६७८ नेमिनाथ चरित
२५१ द्वादशी कथा
७०१ नेमिनाथ धर्मोपदेश ६९६ धनकुमार चरित
४३७ नेमिनाथ पूजा ( देवेन्द्रकीर्ति ) धनदचरित
५७५ नेमिनाथ पूजा (ज्ञानसागर) ६९७ धर्मचन्द्र पूजा १२६ नेमिनाथ भवान्तर
१९८ धर्मचरित टिप्पण
५५३ न्यायदीपिका धर्मपरीक्षा ( अमितगति) ५४४ पद्मचरित
२५५ धर्मपरीक्षा (श्रुतकीर्ति) ५२४ पद्मचरित टिपण
८८ धर्मपरीक्षा रास (जिनदास) ३४७ पद्मनन्दि पंचविंशतिका ३२६,३६५ धर्मपरीक्षा रास ( सुमतिकीर्ति) ४८८ पद्मनाभचरित धर्मरत्नाकर
• ६२५ पद्मावती कथा धर्मरसिक
४१ पद्मावती पूजा धर्मसंग्रह
२५९ पद्मावती सहस्रनाम धर्मामृत वृत्ति
३७५ पद्मावती स्तोत्र (छत्रसेन) ५९ धर्मोपदेशचूडामणि
५५३ पद्मावती स्तोत्र (जिनसागर) १७५ धवला १परमेष्ठिप्रकाशसार
५२४ ध्यानप्रदीप
५५३ पल्यविधान कथा ( श्रुतसागर ) ४६३ नन्दीश्वर उद्यापन
१७१ पल्यविधान कथा ( ज्ञानसागर ) ७०५ नन्दीश्वर कथा ३७४ पल्योपम विधान
३७५ नन्दीश्वर पूजा ११२, १८७, ७१२ पंचकल्याणिक कथा
१९२
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ग्रन्थ नाम सूची
३१५
४९६
३३६
पंचसंग्रह ५४५ बहुतरी
११८ पंचस्तवनावचूरि ११६,४९७ वारामासी ( चंद्रकीर्ति ) ७२२ पंचास्तिकाय ४३५,४५९,४८२ बारामासी ( महेंद्रसेन ) ५५५,५६६ वाला पूजा
२०३ पाण्डवपुराण ( चंद्रकीर्ति) ७१७ बाहुबलिचरित
२३६ पाण्डवपुराण ( यश:कीर्ति) ५५८ बृहत् कथाकोष २७६,६२४ पाण्डवपुराण ( शुभचन्द्र) २८७,३७५ बृहत् सीता सतु पार्श्वनाथ छंद
बोध सताणू
४७७
४०८ पार्श्वनाथ पुराण (चंद्रकीर्ति) ७०९ भक्तामर वृत्ति पार्श्वनाथ पुराण ( धनसागर)
भरत भुजबलि चरित
७४७ पार्श्वनाथ पुराण (वादिचंद्र) ४९२
भविष्यदत्त कथा ५९१, ५५७, ५७७ पार्श्वनाथ पुराण ( सकलकीर्ति)
भावनापद्धति
२४० पाश्र्वनाथ पूजा (कुमुदचंद्र) ११५ भूपाल स्तोत्र
महाभिषेक टीका पार्श्वनाथ पूजा (चंद्रकीर्ति )
४५६, ४७० महापुराण
४६९,५७२ पार्श्वनाथ पूजा (छत्रसेन)
महापुराण टीका
६१७ पार्श्वनाथ पूजा (नरेन्द्रसेन)
५५३ पार्श्वनाथ पूजा (ज्ञानसागर) ६९९ माणिकस्वामी विनती
४६५ पार्श्वनाथ भवान्तर
मुक्तावली कथा
४५१ पार्श्वनाथ विनती
मुगति शिरोमणि चूनडी ५९९ पार्श्वनाथ स्तोत्र १७४ मुनीन्द्रभूषण पूजा
३२४ पार्थाभ्युदय
४ मूलाचार २५३,२६९,३२३,६२८ पार्श्वभ्युदय पंजिका ३७५ मूलाचारप्रदीप
३३८ पुरन्दर व्रत कथा
७६६ मेघमाला कथा पुराणसार
८६ भरुपंक्ति कथा पुष्पांजलि कथा ( जिनसागर ) १६६ रुपूजा (गंगादास) पुष्पांजलि कथा (श्रुतसागर) ४४६ मेरुपूजा (छत्रसेन ) प्रद्युम्नचरित (महासेन) ६२६ मौन्य एकादशी कथा ७०८ प्रद्युम्नचरित (शुभचन्द्र) ३७५ यशस्तिलक चन्द्रिका
४७२ प्रवचनसार ___२४५,५८८ यशोधर चरित (पुष्पदन्त) २६८, ३०९ प्रश्नोत्तर-श्रावकाचार
३३५ यशोधर चरित ( अमरकीर्ति ) ५५३
६७ महावीरचरित
४४०
.
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३१६
भट्टारक संप्रदाय
४०
यशोधर चरित (वादिचन्द्र) ४९५ शब्दरत्नप्रदीप यशोधर चरित ( सोमकीर्ति) ६५१ शब्दार्णवचन्द्रिका
३९० रत्नत्रय उद्यापन
१३५ शान्तिनाथ बृहत्पजा रत्नत्रय कथा
४४९ शान्तिनाथ चरित रत्नत्रय पूजा ६३३ शान्तिनाथ पुराण
६८३ रविव्रत कथा ( अभय पण्डित) ४४ शान्तिनाथ विनती रविव्रत कथा (भानुकीर्ति) २९० शान्तिनाथ स्तोत्र रविव्रत कथा (महतिसागर) १९१ शिखर माहात्म्य रविव्रत कथा (वृषभ) १८१, १८५ / शीलपताका रविव्रत कथा (श्रुतसागर) ४४३ श्रवणद्वादशी कथा
४४८ रविव्रत कथा (सुरेन्द्रकीर्ति) २९६ श्रावकाचार ( वसुनन्दि) २८६ रविव्रत कथा (शानसागर) ७२७ श्रावकाचार (हेमचन्द्र ) ६९३ राखीवन्धन रास ७०४ श्रीपाल आख्यान
४९४ रामटेक छन्द
२१७ श्रीपालचरित रामपुराण
३९ श्रुतस्कन्ध कथा १३७, ७०७ रामायण रास
३४४ श्रुतस्कन्ध पूजा लवणांकुश कथा
१६७ श्रेणिकचरित्र ( गुणदास) लक्षणपंक्ति कथा
४५३ श्रेणिकचरित्र (जनार्दन ) २०४ लाटीसंहिता
६०६, ५९८ श्रेणिकपृच्छा कर्मविपाक ३८१ वर्धमान नीति
५४३ षट्कर्मोपदेश विजयकीर्ति पूजा
७६२ षट्कर्मोपदेश रत्नमाला २७४ विमलपुराण
६५५ षटवण्डागम विश्वलोचन कोष १६ षडावश्यक
४०६ विषापहार टीका
३६० षड्दर्शनप्रमाणप्रमेयानुप्रवेश ३७२ विषापहार पूजा १५१ षोडशकारण कथा
४५० विषापहार स्तोत्र
७५८ घोडशकारण पुजा (चन्द्रकीर्ति) ७१४ विहरमान तीर्थकर स्तुति ७५० षोडशकारण पूजा (मेरुचन्द्र) ५०१ वीतराग स्तोत्र
६३४ षोडशकारण पूजा (सुमतिसागर) ५१७ वैद्यविनोद ६०२ सगरचरित
५०५ प्रतजयमाला
५२० सप्तपरमस्थान कथा
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अन्य नाम सूची
३७५
समयसार समवशरण पीठिका समवशरण षट्पदी सम्मइजिन चरिउ सम्मेदाचल पुजा सरस्वती पूजा सहस्रनाम टीका संशयिवदन विदारण सावयधम्मदोहा पंजिका सिद्ध पूजा सिरसेम पूजा सिद्धान्तसार सिदान्तसार भाष्य सीताहरण सुकुमारचरित सुगन्धदशमी कथा
२०, ५६५ सुदर्शनचरित ११७, ४३४, ४५१
४७ सुभाषितरत्ननिधि ५४ सुभाषितरत्नसन्दोह
५४२ ५६१ स्वरूपसम्बोधनवृत्ति १४३ हनुमचरित्र
४३६ ३७५, ७१५ हरिवंशपुराण ( संस्कृत) ४७३
६२२, ६६५, ५२९ ३७१ हरिवंशपुराण (अपभ्रंश) ५९४, ५२४ ४६० हरिवंशपुराण (हिन्दी) २७१, ३१३ ३७५ हरिवंशपुराण (मराठी) . २०५ ८२ हरिवंश रास
७३, ३४५ २७७ क्षेत्रपाल पूजा
१४२ ४८१ क्षेत्रपाल स्तोत्र ५०३, ६७४ शानसूर्योदय
३३७ ज्ञानार्णव १६९, ३१७
आबू
परिशिष्ट ६, मन्दिर उल्लेख सूची आदिनाथ मन्दिर
धूलिया १५५,३९४,३९५, ३९७, अर्पणा
५९७ अमरावती
बाळापुर
१९२ ३३३ महरौठ
२९३ कलोल
सागवाडा ३३०,३८०,३९०,४०४, खंगेजवाछ
४१२,४१४ गन्धार
४८४, ५०३ सूरत ६५,४९७,५०४,५०७ गिरिपुर
३६५,७४९ सम्भवनाथ मन्दिर घोषा .५०५ सागवाडा
४०६ तक्षकपुर
२६७ पद्मप्रभ मन्दिर
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३१८
भट्टारक संप्रदाय
१९५, २००
ur rur
६२२
~
१
.
५६२
११९, २१७ ३८८, ४८८ १७०, १७८
१५१
साहार
३८९ कुन्थुनाथ मन्दिर
अंजनगांव
७६३ शान्तिनाथ मन्दिर सुपार्श्वनाथ मन्दिर
आंतरी कर्णखेट
आशापुर कारंजा २१, ४७, ५३, ५४
तरसुंबा खोलापुर
दोस्तटिका
नरसिंहपुर चन्द्रप्रभ मन्दिर
पोन्नवाड कारंजा १३७, १४४, १४६,
बकिळगाव १५०, १६४, १८२, . २०२, ७४७, ७५४
रामटेक ग्रीवापुर
शत्रुजय ग्वालियर
शिरड चित्रकूट देवलगांव
६९, ७३ भीलोडा भीसी
विजयनगर
२१३ मुळगुंद
९ मल्लिनाथ मन्दिर सोनागिरि
९४ देवगढ हिसार
२५८ नेमिनाथ मन्दिर शीतलनाथ मन्दिर
आबू
जेरहट आबू
३३३
तक्षकपुर कोदादा
भडौच गौढिली
रिद्धिपुर राजपुर
सवाई जयपुर वासुपूज्य मन्दिर
सोजित्रा - सूरत विमलनाथ मन्दिर
अंकलेश्वर
कृष्णपुर धर्मनाथ मन्दिर एरंडवेल
देवगिरि
४२२
३३३ ५२३, ५२४
३९३ ४३६
४९१
६५२
५५०
२७६ ६८३
१५४, १५९ पार्श्वनाथ मन्दिर
धूलिया
१०९
जिन्तूर दवा
७०९
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Achar
मन्दिर उल्लेख नाम सूची
६४०
३२३
४६८
६२७
२०
नेसर्गी पलाइथा प्रस्तरी महुआ वर्धमानपुर श्रीपुर
सवाई जयपुर महावीर मन्दिर
पलाइथा हिसार अज्ञात-मूलनायक-मन्दिर अंगडि आंतरी आबू
९२) कलबुर्गा
कोण्डनूर ६४० घनौष ४९६ घोघा ६२२ झुंझुनपुर ४६७
दूबकुण्ड २७४ धरणगांव
पणियार ३२३ पभोसा
फतेहपुर बेदरी
बळ्ळिगावे ३८८ शिलाग्राम ३३३ शौरीपुर
परिशिष्ट ७, जातिनामसूची
अग्रोतक (अग्रोकार, अगरवाल) गुजर पल्लीवाल
२८ २५३,२५९,३२७,३२८,४४२,४५८ गोलसिंगारे (गोलाशंगार) ११९,४३६ ५५५,५६०,५६१,५६८,५७०,५७५ गोलापूर्व -७७,५७९,५९२,५९३,६११,६१५, गोलाराडा २५२,२५७,३१० ६१६,६१८-२०
जांगडा पोवाड उज्जैनी पल्लीवाल १३६,२१३ जैसवाल २६४,५६९,५७२,५८६ ओसवाल
२० धाकड खंडेलवाल (खंडिल्य, खंडेरवाल) नरसिंहपुरा ६४९,६५१,६६९,७१०
२५३,२५५,२५६,२५८,२६६,२७२ नागद्रा २७९,२८६,४१६,५१०,५१५ नेवा
७२,१२८ गंगराम
६४,११० पद्मावती पल्लीवाल २०७,५९५ गंगवाल
२८९ पल्लीवाल गंगेरवाल
१८५ पौरपार (परवार)२२०,४२५,५२५,५२८
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३२०
भट्टारक संप्रदाय
५३०,५३६ लम्बकंचुक (लमेचू) २५०,३०३,३०४, बघेरवाल (व्यारवाल) २१,३२,४५,
३१४,३१९,३२१,३५२ ४८,१०५,१०७,१०८,१२१,१२२, श्रीमाल
२१५,३८४ १२५,१३१,१३८,१४९,२२३,२४८ सिंहपुरा
४३०,५०० ३२३,३८५,६४४,६८४,६८६,७०३ सोहितवाल (सैतवाल) ११४,११७, ७२९,७३०-३३,७३७,७४४-४६,
___ १२४,२०९,२६१ ७५१,७५३,७५४,७६४,७६५ हुंबड ( हूमड) २४,५०,१५४,२३०, बरहिया
२६२) २५१,३३१,३३४,३४०,३४३,३५६, भहपुरा
६५०,७५० ३६२,३६८,३७६,३७७,३८७,३८८, मेवाडा
७६१ ३९२,४०४,४२२,४२७-२९,४३.१, रत्नाकर
४२६ ४३३,४५१,४६३,४६९,४८४,४९९, राइकवाल
४३२,५०७१ ५०६,६६१,६७६,७४९,७५०,७५२.
अकालवर्ष अमोघवर्ष अर्जुन जीयराज अलीखान अल्लाउद्दीन
परिशिष्ट ८, शासक नाम सूची ५७७, ५७९,६०६ कृष्णराय
१०१ ८ केतलदेवी २, ४, ८ क्यामखान
६०१ ४७९ गंग ६.९ ग्यासुद्दीन ४६१, ५२३, ५२४ १०० चाकिराज
६२३ ३५९ चावुण्डराय
६२२ चूहडसिंह ५७२, ५७३ चैच ___ ९६ जगत्तुंग ३५९ जयवराह
६२२ २६८, ५७० जयसिंह
२७१, २७२ ५६७, ५९३ जयसिंह २५३, २५६ जहांगीर
५९९, ६०३ १.१ इंगरसिंह ५५७, ५६०, ५६५, ५९१
२७२
इन्द्रायुष इब्राहीम
कलपराय
कीर्तिसिंह कुतुबखान कृष्णदेव
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शासक नामसूची
३२१
६५४ वल्लभेन्द्र
त्रिभुवनमल्ल
१२ मानसिंह त्रैलोक्यमल्ल ११, ८९ मुंज
५४२, ६२६ दीनदारखान ६१२ मुदिपाल
३५९ देवराय ३५९, ४७६, ९९ रघुनाथ
२९३ दौलतखान
६०९ रणमल्ल नसीर शाह ५२४ रामचन्द्र
२६७ नाथदेव ५८६ रामनाथ
३५९ पर्पट
६२६ लक्ष्मणसिंह पहाडसिंह
४२२ लोकादित्य पाण्डुराय
३५९ वज्रांग पीरोजसाह ( कलबुर्गा) ६४०, ६४२ वत्सराज
६२२ पीरोजसाह (पावागढ)
६२३ पुंजराज .३९० / विक्रमसिंह
६२७ पृथ्वीसिंह
४२२ विनयादित्य पेरोजखान
२५९ विनयांबुधि पेरोजसाह
२३५ विनायकपाल प्रतापचन्द्र
२५० / विरूपाक्ष बंगराय
४७६ वीर पृथ्वीपति बहलोलशाह २५३, २५८ वीरमदेव
५५५, ५८८ बाबर
५७४ वैजनाथ विसनसिंह
२७१ व्याघ्रनरेन्द्र
९६ शाहजहां ३८८, ६००-६०२, बोद्दणराय
१ शिवसिंह बोमरस
३५९ श्रीकृष्णवल्लभ भानु ४६३ श्रीवल्लभ
६२२ भीमसिंह भैरवराय
३५९, ४७६ सिकन्दर भोज ८६-८८ सिन्धुराज
६२६ भोज (मन्त्री)
४६३ हरिचन्द्र मल्लिराय
४७६ हरिहर महमदशाह ( वेगडा) १८ हुमायून महमदशाह २३६ हैवतखान
२५३ महमदशाह (दिल्ली) २७१
२६३
३९५ सलीम
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परिशिष्ट ९, भौगोलिक नामसूची अउली
३०३ एलदुर्ग ( ईडर) अकबराबाद
६०२ कनकाद्रि (सोनागिरि ) अचलपुर ५० कर्णखेट
.१८५ अजमेर २२३,२३०,२३२,२३३,२७८, कर्णाटक ३६०,१७,२५,९६,७२० २८०,२८६,३००,३०२ : कलबुर्गा
६४०,६४२ अटेर
३२२ कलोल
६५५,६५८,६६४ अवडनगर
७४६ कल्पवल्ली ( कलोल) अबाह्याबाद
५७६ कसिम अमरावती
८१ कारंजा २१,४७,५०,५३,५४,६०,६७, अर्गलपुर (आगरा) ५७९,६०४ . ७१,७२,७८,८४,१३७,१४४,१४६, अर्बुदाचल ( आबू) ३३३ १४९,१५०,१६३,१६४,१८२,१८९, अलकेश्वरपुर
१९०,२०२,७३०,७४७,७५४ अलवर
३०९ कालवाड अवंति
४२६,६२२ काला डहरा २९७,२९९,३०१ अहमदाबाद ३८८ कावेरी
१०१,७२० अहीर
४७५ कुरुजांगल ५७२,५७३,५७५,६१० अक्षयवट (प्रयाग)
४३९ कुन्तल अंकलेश्वर
३५ अंबावती ( अंबर) २७२ कोडिशिला
१५६ अंजनपुर ७५५ कोटा
४२३ आगरा १६१,३१३ कोणूर
९१ आरग ९९ कोदादा
४८९,४९१ आरा ३२८ कोल्हापुर
७८ आशापुर
१९५,२०० कौशांबी आंतरी
३८८,६४१ खडक्क इडिगूर
६२३ खड्ग इंदार
६६४ ग्वंगेजवाछ उदयपुर ४०,३९६ खंडिल्ल
६२५ ऊर्जयंत (गिरनार) ४३९,४८६ भायच (खंभात ) २३६ एरंडवेल
१०९ खोडे
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४९५ कृष्णपुर
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भौगोलिक नामसूची
३२३
खोलापूर १४७ जेरहट
५२३,५२४ गहेली
३१७ जोइणिपुर (दिल्ली) २३६,५७४ गजपथ १५२,४६३ जोवनेर
२८२-२८५ गांधार ४२८,४५३,४८४,५०३ झाडी
२१७ गिरनार ५०,१५४ झारखंड
७४ गिरिपुर ३६५,७४९ शूझणुपुर
२५३-२५४ गुजरात २३३,३३०,७५० टोडा
२४५,२६८ गुर्जर १५६,३८८,४९०,४७२,५०६, डूंगरपुर
६७१ ६३८,६५४,६५५,६८३ डौकनी गोढिली - ६५२ ढूंदाहड
२७१ गोपाचल २५५,२६४,२९६,३२६,५५५ तरसुंबा ५५७,५५९,५६०,५६१,५६५,५६७, तक्षकपुर
२६७,३९३ ५८८,५९१,४६१ तारंगा गोमटेश्वर ७३३ तुंगीगिरि
४६३,४८६ ग्रीवापुर घनौघ
४१० ४१७,४२१ त्रिंबक घोधा २५५, ४२९,४६९,५०५ दहे
२१७ ४३९ दहीरपुर
५७५ चितोड
२६५ दिल्ली २३५,२३७,२४६,२४८,२७७, चित्रकूट
२१,९०
३५९,४९०,५०६,६०९ चीत्तडा ३९६ देवगढ
२१७,४२२ चूलगिरि
४८६ देवगिरी जजाहुति ८९ देवलगांव
.६९,७३ जयपुर
१२१ दोस्तटिका जहानाबाद
२७१ घरणग्राम जालमंगल
६२३ धवल जाली
४९ धारा ८६, ८७, ८८, २३६ जांबूचर
४२४ धूलिया जिन्तुर
६९ धूलेव
३९४, ५९७ जीरापरली २४१ धौपे
२५०
४०८ तौलव ४६८ त्रिपुरा
घाटोल
चंपापुर
६२२.
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३२४
नरसिंहपादन
नरसिंहपुर
नवग्रामपुर
नवसहस्र
नंदिग्राम
नंदीतट
नागपुर
नागोर
नासिक
नैसर्गी
नोगाम ३३०,३
पट्टण
पनियार
परतापोर
पलाइथा
पंचामन
पाथरी
पावागढ
पावापुर
पोनवाड
प्रभास (पभोसा )
प्रयाग
प्रस्त (पाथरी)
फतेहपुर
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बाळापुर
बांसखोह
भट्टारक संप्रदाय
७२० ! बूडिया
६४९, ६५० बेदर २६१ | बेळगामि
४७९ | भदावर
२६५, २८९, २९१ भागल देख
११० भयाणा
६४७ | भवच्छ ( भडौच ) ८५ भंभेरी
३२३ | मधूकन गर ४७५ | मयूर खंड
६४३ | मलयखेड
६५४ | मसूतिका
४३९ महरौठ
१५२ | भानपुर ९२ भीमनदी
,४०९,४१४ भीलोडा २३६ / भीसी
२९६, ५५९ भृगुकच्छ ( भडौच )
४१४ | मथुरा
११ महाचक्र ६१६ | महीनदी
६१६ महुआ
६४० महेन्द्रपुर
६०९, ६१२, ६१५ मंडपदुर्ग
बहादुरपुर
बळगांवे
बेकापुर
बागड ३६०, ३९२, ३९६, ४०२ मांगीतुंगी मुडासा
४०६, ६३७, ७४९
१९२ मुल्हेर
२७२ मूडलि
६८६ माणिक्यस्वामी
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१२, ८९ | मालव
८ मालासा
५९९, ६०२, ६०३
७५
८९
३२३
५७६
१८
१९
१५३
४२४
११
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३८९,४०२
२१३
४३६,४३७
५४१
४९३
६२३
१४७,१८९,१९०
५४५
२९२,२९३,२९४
६२७
४०८
४८८,४९६
१५२ २२५,४६१, ५२३,५२४
९०,४७२,५२३,५२४,५ ४,५२९
६६६
१५३
२६३
४७५
३३२
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रेवा
भौगोलिक नामसूची
३२५ मुळगुंद
९शाकवाट ( शाकमार्ग, सागवाडा ) मेडता
३७५,४०४ मेदपाट ( मेवाड) २१,६२८,६५२ शिरड १६७,१७०,१७८,१९० मेलुडा __ ४१७,४२१ शीतलवाड
३९२ मेवाड ३९६ शौरीपुर
३१५ योगिनीपुर (दिल्ली) २५३ श्रीपुर
४६७ राजपुर
७५० श्रीरंगपट्टण रामटेक ५०,७४,११९,२१७ सकलीकरहाटक
६२५ रायदेश
३८९ सपीदो रिद्धिपुर
१९१ समरपुर रूपनगर २९८ सम्मेदशिखर
५०,४३९ रेणुपुर ( धूलिया ) ३९७ सवाई जयपुर २७४,२७५,२७६
२८८ सागवाडा ३३०,३८०,३९०,४०५, रैवतक ( गिरनार) १५७
४०६,४०९,४१२,४१४ लवनपुरी
१९० सागलपुर लाटवर्गट ६३१ सावली
५०,४०५ लोहाकर
६५५ साहार वनवास ८,८९ / सांगावत
२७१ वराट ( वराड, व-हाड, विदर्भ ) २१, सिहरदि ३९,१६१,१८५,७३०,७५४ सुनामपुर
२५६,२५८ वर्धमानपुर (बदनावर) ६२२,६२४ सुलतानपुर
६०२ वाग्वर ३३०,३८०,३८८,३९०,६४१ सुवर्णपथ ( सोनपत) वाटग्राम
२ सूरत ६५,१५४,१५९,१६१,४९७, पाणारसी ६३०,७११,७२५, ५०४,५०७,६९०,७५५,७६१, वाल्मीकपुर
६८३ विजय (विद्या ) नगर ९६,९९ सोनागिरि विध्यगिरि
९५ सोमवार वीऊल
१५७,१५८ वृधणपुर ( बुन्हान पुर) ६० सौरमंडल
६२२ शत्रुजय ( सेव॒जा ) १५८,३८८,४८६, स्तंभतीर्थ ( खंभात ) ४५८ ४८८ स्थलिविषय
५५०
१५१
४९२ सोजित्रा
K
20
४९९ सोरठ
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भट्टारक संप्रदाय
हंसपत्तन हस्तिनागपुर हाडोली
४६८ हांसोट
४८८ ३२३ हिसार २५३,२५६,२५८,२५९,३७०, ४२३
६०१,६०७,६११,६१४
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भट्टारक-संप्रदाय
दिली जागल
खडक्स चिोड
उस्यपुर
मोनागिरी
बनम
ललितपुर
मालव
देवगढ़
भार, मा
समेटशिवर
औरखा
नानिगर
सो र ठ कल
गिरनार
"
बामद
सागवान
anापुर
कलिंग खागारे यी
लगवाद
आभनमा
लातूर
महाराष्ट्र मला
मद्रास
भट्टारकसंप्रदाय [अधोरेखित स्थान : भगारक पीठ
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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जीवराज जैन ग्रंथमाला, शोलापुर. 1 तिलोयपण्णत्ती-प्रथम भाग (यतिवृषभ) (द्वि. आवृत्ति) किंमत 16 रु. तिलोयपण्णत्ती-द्वितीय भाग ( यरि वृषभ) 16 रु. 2 Yashastilaka & Indian Culture Price Rs. 16 3 पांडव पुराण ( शुभचन्द्र) किंमत 12 रु. 4 प्राकृत शब्दानुशासनम् ( त्रिविक्रम) 5 सिद्धान्तसारसङ्ग्रहः (नरेन्द्रसेन) 6 Jainism in South India and Some Jain Epigraphs Price Rs. 16 7 जंबूदीवपण्णत्तिसंगहो ( पद्मनंदी) किंमत 16 रु. 8 भट्टारक-सम्प्रदाय passadorsaseiseasesadhu 8 रु. -: आगामी:• पद्मनंदि पञ्चविंशति * लोकविभाग * आत्मानुशासन * पुण्यास्रव कथाकोश, ज्ञानार्णव रत्नकरण्डश्रावकाचार (कन्नड) धर्मपरीक्षा. RRY ROMERARIORA (वर्धमान, सोलापूर ) For Private And Personal Use Only