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बलात्कार गण-कारंजा शाखा
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धर्मचन्द्र के बाद धर्मभूषण पट्टाधीश हुए | आप ने शक १५७२ की फाल्गुन शुक्ल ११ को एक पार्श्वनाथ मूर्ति प्रतिष्ठित की, शक १५७६ की मार्गशीर्ष शुक्ल १० को एक षोडशकारण यंत्र स्थापित किया, शक १५७७ की वैशाख शुक्ल ९ को कोई मूर्ति स्थापित की, शक १५७८ में एक पार्श्वनाथमूर्ति स्थापित की, शक १५७९ में मार्गशीर्ष शुक्ल १४ को एक चौवीसी मूर्ति स्थापित की, शक १५८० की मार्गशीर्ष शुक्ल ५ को एक नेमिनाथमूर्ति स्थापित की, शक १५८६ की फाल्गुन शुक्ल ५ को एक पार्श्वनाथमूर्ति स्थापित की तथा शक १५९७ में एक श्रेयांसमूर्ति स्थापित की। (ले. १२७–१३४ ) । शीतलेश की प्रार्थना पर आप ने रत्नत्रय व्रत के उद्यापन की रचना की [ ले. १३५ ।
भट्टारक धर्मभूषण के पट्ट पर विशालकीर्ति अभिषिक्त हुए। इन का कोई स्वतन्त्र उल्लेख नहीं मिला है । इन के गुरुबन्धु अजितकीर्ति तथा शिष्य पद्मकीर्ति और इन दोनों की शिष्यपरम्परा का वृत्तान्त लातूर शाखा के प्रकरणमें संगृहीत किया है ।
विशालकीर्ति के पट्टशिष्य धर्मचन्द्र हुए । आप ने शक १६०७ की फाल्गुन कृष्ण १० को एक चौवीसी मूर्ति स्थापित की, शक १६१२ की ज्येष्ठ कृष्ण ७ को एक पद्मावती मूर्ति स्थापित की [ ले. १३६,१३८] । आप के शिष्य गंगादास ने संवत् १७४३ की श्रावण शुक्ल ७ को श्रुतस्कन्ध कथा की एक प्रति लिखी [ ले. १३७ ] । उन ने शक १६१२ की पौष शुक्ल १३ को पार्श्वनाथ भवान्तर की तथा शक १६१५ की आषाढ शुक्ल २ को आदितवार कथा की रचना की [ ले. १३९-४०] । सम्मेदाचलपूजा, त्रेपनक्रियाविनती, जटामुकुट और क्षेत्रपालपूजा ये गंगादास की अन्य रचनाएं हैं । इन में अन्तिम दो संघपति मेघा और शोभा की प्रार्थना पर लिखी गई थीं [ले. १४२-४५] । धर्मचन्द्र ने हीरासाह के आग्रह से कैलास पर्वत की स्तुति रची [ ले. १४६ ] । उन के खोलापुर निवासी शिष्यों के लिए लिखी गई बिरुदावली में उन्हे मलयखेड सिंहासन के आचार्य कहा है [ ले. १४७ ] किन्तु यह पुराने बिरुद
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