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भट्टारक संप्रदाय अजमेर में इन की शिष्या बाई सवीरा के लिए बसुनंदि श्रावकाचार की एक प्रति लिखाई गई । इस समय दिल्ली-जयपुर शाखा में भ. चन्द्रकीर्ति पट्टाधीश थे (ले. २८६ ) । नेमिचन्द्र के लिए पांडवपुराण की भी एक प्रति लिखी गई थी ( ले. २८७ )।
नेमिचन्द्र के बाद संवत् १६७२ की फाल्गुन शु. ५ को पाटणी गोत्र के भ. यशःकीर्ति रेवा शहर में पट्टाधीश हुए तथा १८ वर्ष पट्ट पर रहे (ले. २८८ )।
इन के शिष्य भानुकीर्ति संवत् १६९० में पट्टारूढ हुए तथा १४ वर्ष भट्टारक पद पर रहे । ये गंगवाल जाति के तथा नागौर निवासी थे (ले. २८९ ) । संवत् १६७८ में इन ने रविव्रत कथा की रचना की (ले. २९० )।
भानुकीर्ति के शिष्य भ. श्रीभूषण संवत् १७०५ की आश्विन शु. ३ को पट्टाधीश हुए और १९ वर्ष पद पर रहे । ये पाटणी गोत्र के थे । पदप्राप्ति के बाद ७ वें वर्ष में संवत् १७१२ की चैत्र शु. ११ को इन ने अपने शिष्य धर्मचन्द्र को भट्टारक पद पर स्थापित कर दिया था । धर्मचन्द्र सेठी गोत्र के थे और १५ वर्ष पट्ट पर रहे । इन का निवास महरोठ मे था (ले. २९१-२ )। इन ने संवत् १७२६ की ज्येष्ठ शु. २ को गौतमचरित्र की रचना पूर्ण की । उस समय महरोठ में रघुनाथ का राज्य था (ले. २९३ ) " ।
धर्मचन्द्र के पट्ट पर संवत् १७२७ में देवेन्द्रकीर्ति अभिषिक्त हुए ये १० वर्ष पट्टाधीश रहे । इनका गोत्र सेठी तथा निवासस्थान महरोठ था (ले. २९४ ) । इन के बाद संवत् १७३८ की ज्येष्ठ शु. ११ को सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए तथा ७ वर्ष पद पर रहे । ये पाटणी गोत्र के थे । ग्वालियर में संवत् १७४० की ज्येष्ठ शु. १० को आप ने रविवार व्रत कथा लिखी ( ले. २९५-९६ )।
५२ महाराष्ट्रक महोठ का संस्कृत रूपान्तर है ।
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