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प्राक्कथन
मध्ययुगीन जैन समाजके इतिहासमें भट्टारक सम्प्रदायका स्थान महत्त्वपूर्ण है । इस सम्प्रदायसे सम्बद्ध इतिहाससाधन पट्टावलियां, प्रतिमालेख, ग्रंथप्रशस्तियां आदि विपुलमात्रामें प्रकाशित हुए है। किन्तु इन साधनोंका व्यवस्थित उपयोग करके कोई ग्रन्थ अब तक नहीं लिखा गया था। इस कमीको अंशतः दूर करने के उद्देश्यसे ही प्रस्तुत पुस्तकका सम्पादन किया गया है।
अनेकान्त, जैन सिद्धान्त भास्कर, आदि संशोधनपत्रिकाओं में प्रकाशित सामग्रीके अतिरिक्त, नागपुर, कारंजा, अंजनगांव तथा कुछ अन्य स्थानोंके अप्रकाशित इतिहाससाधनोंका भी इस पुस्तकमें उपयोग किया गया है। इनमें नागपुरके समस्त मूर्तिलेखोंका संग्रह हमें देवलगांव निवासी श्रीमान शान्तिकुमारजी ठवली द्वारा प्राप्त हुआ । शेष साधन हमने स्वयं संकलित किए हैं ।
___ इस पुस्तकका स्वरूप एक तरहसे इतिहास-साधनसूची जैसा है। पहले मूल लेख दिए हैं, फिर उनका हिंदी सारांश टिप्पणियों सहित दिया है, तथा इस परसे फलित कालानुक्रम भी साथमें दिया है। भट्टारकों द्वारा निर्मित ग्रंथोंका परिचय, मूर्तिकलाका विकास तथा जातीयसंघटन आदि जो विषय विस्तृत विवेचनकी अपेक्षा रखते हैं उनका प्रस्तावनामें निर्देश मात्र कर दिया गया है । इस पुस्तकके अगले भाग प्रकाशित होने पर इस विषय पर विस्तारसे लिखने का सम्पादकका विचार है। . पट्टावलियों आदिमें जो बातें बहुत ही संदिग्ध हैं उनका हमने विवेचन नहीं किया है, सिर्फ कहीं कहीं निर्देश भर कर दिया है। जहां तक हो सका, सुस्थापित तथ्योंका ही निवेदन किया है । कुंदकुंद, उमास्वाति आदि आचार्योंके गणगच्छादिका क्या, सम्बन्ध रहा इस विषयमें भी हम ने चर्चा नहीं की है क्यों कि इस विषय के लिए पर्याप्त तथ्य उपलब्ध नहीं हैं।
इस पुस्तकके लिए बाबू कामताप्रसादजी, मुनि कान्तिसागरजी, पंडित मुख्तारजी तथा परमानंदजी आदि विद्वानों द्वारा प्रकाशित सामग्रीका उपयोग हुआ है । इसके वर्तमान स्वरूपके लिए श्रीमान् डॉ. उपाध्येजीकी प्रेरणा, श्रद्धेय पं. प्रेमीजीके आशीर्वाद तथा श्रीमान् डॉ. हीरालालजी जैनका प्रोत्साहन ही कारणभूत हुए हैं । 'जैनमित्र' के वयोवृद्ध संपादक श्रीमान् कापडियाजी ने भ.
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