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भट्टारक संप्रदाय
[ले. २५८) । मेधावी ने संवत् १५४१ की कार्तिक कृ. १३ को नागौर में फिरोजखान के राज्य काल में धर्मसंग्रह श्रावकाचार नामक संस्कृत ग्रन्थ की रचना पूर्ण की [ले. २५९ ] ।
पं. मेधावी की इन प्रशस्तियों से भ. जिनचन्द्र के शिष्य परिवार पर अच्छा प्रकाश पडता है। इन में रत्नकीर्ति और सिंहकीर्ति इन का वृत्तान्त क्रमशः नागौर तथा अटेर शाखा मे संगृहीत किया गया है । इन के अतिरिक्त जयकीर्ति, चारुकीर्ति, जयनन्दी, भीमसेन, दक्षिण के पण्डितदेव, [ले. २५३ ], विमलकीर्ति [ ले. २५८ ], श्रुतमुनि द्वारा दीक्षित आर्य दीपद [ले. २५९ ] आदि शिष्यों का उल्लेख मेधावी ने किया है ।
भ. जिनचन्द्र के बाद प्रभाचन्द्र पट्ट पर बैठे । संवत् १५७१ की फाल्गुन कृ. २ को उन का अभिषेक हुआ तथा वे ९ वर्ष भट्टारक पद पर रहे। इन के समय मुख्य पट्ट दिल्ली से चित्तौड में स्थानान्तरित हुआ तथा संवत् १५७२ से नागौर पट्ट के मंडलाचार्य रत्नकीर्ति मुख्य परम्परा से पृथक् हुए ( ले. २६५ ) | प्रभाचन्द्र ने संवत् १५७३ की फाल्गुन कृ. ३ को एक दशलक्षण यन्त्र स्थापित किया ( ले. २६६ ) । संवत् १६०३ की आषाढ कृ. २ को रामचन्द्र सोलंकी के राज्य काल में तक्षकपुर निवासी साह ठाकुर ने नागकुमारचरित की एक प्रति आप के शिष्य धर्मचन्द्र को अर्पित की ( ले. २६७ ) । इसी प्रकार तोडागढ में कल्याणराज के राज्यकाल में संवत् १६१५ की भाद्रपद शु. ५ को आप की आम्नाय में यशोधरचरित की एक प्रति लिखी गई (ले. २६८ ) |
प्रभाचन्द्र के बाद क्रमशः चन्द्रकीर्ति और देवेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए । इनका कोई स्वतन्त्र उल्लेख नही मिला है। इन के बाद नरेन्द्रकीर्ति
४६ रामचंद्र का राज्यकाल सन् १५५५-१५९२ था । कल्याणराज का राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सका ।
४७ चन्द्रकीर्ति के समय का एक उल्लेख (ले. २८६ ) मिला है। यह संवत् १६५४ का है ।
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