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काष्ठासंघ-माथुरगच्छ
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धर्मकीर्ति के शिष्य ललितकीर्ति इस संघ के चौथे प्राचीन आचार्य हैं । आप ने संवत् १२३४ में एक देवीकी मूर्ति प्रतिष्ठित की थी [ले. ५५२ ] ।
पांचवे प्राचीन आचार्य अमरकीर्ति ने अपनी गुरुपरम्परा अमितगति-शान्तिघेण-अमरसेन - श्रीषेण-चन्द्रकीर्ति-अमरकीर्ति इस प्रकार दी है।" आप ने संवत् १२ ४४ में नेमिनाथचरित की तथा संवत् १२४७ में षट्कर्मोपदेश की रचना की [ ले. ५५३-५४ ] । द्वितीय ग्रन्थ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आप ने महावीरचरित, यशोधरचरित, धर्मचरितटिप्पण, सुभाषितरत्ननिधि, धर्मोपदेशचूडामणि, ध्यानप्रदीप आदि ग्रन्थ लिखे थे।
मध्यकालीन माथुरगच्छ परम्परा का आरम्भ माधवसेन'"से होता, है । आप के दो शिष्य उद्धरसेन और विजयसेन से दो परम्पराएं आरम्भ हुई । अनुश्रुति के अनुसार माधवसेन दिल्ली के बादशाह अल्लाउद्दीन खिलजी के राज्यकाल में हुए थे [ ले, ५७३,५८० तथा इन के मूल सन्दर्भ ] ।
उद्धरसेन के बाद क्रमशः देवसेन, विमलसेन, धर्मसेन, भावसेन, सहस्रकीर्ति और गुणकीर्ति भट्टारक हुए (ले. ५७३,५५८ )। गुणकीर्ति की आम्नाय में संवत् १४६८ में ग्वालियर में राजा वीरमदेव के राज्यकाल
९९ गुरुपरम्परा निदर्शक मूल पद्य हमें प्राप्त नही हो सके । यह पं. परमानन्द के अनुवाद पर से ली गई है ! अनेकान्त व. ११ पृ. ४१५ ]
१०० पट्टावली में माधवसेन से पहले क्रमशः जयसेन, वीरसेन, ब्रह्मसेन, रुद्रसेन, भद्रसेन, कीर्तिषेण, जयकीर्ति, विश्व कीर्ति, अभय कीर्ति, भूतिसेन, भाव. कीर्ति, विश्वचन्द्र, अभयचन्द्र, माघचन्द्र, नेमिचन्द्र, विनयचन्द्र, बालचन्द्र, त्रिभुवनचन्द्र, रामचन्द्र, विजय चन्द्र, यश:कीर्ति, अभयकीर्ति, महासेन, कुन्दकीर्ति, त्रिभुवनचन्द्र, रामसेन, हर्षसेन, गुगसेन, कुमारसेन, तथा प्रतापसेन इन का उल्लेख हुआ है।
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