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भट्टारक संप्रदाय
कहते हैं । सिद्धक्षेत्रों में पश्चिम में गिरनार और शत्रुजय विशेष प्रसिद्ध थे । दक्षिण में गजपंथ और मांगीतुंगी प्रसिद्ध थे । पूर्व में सम्मेदशिखर, चम्पापुरी
और पावापुरी ये सर्वमान्य सिद्धक्षेत्र थे । मध्य भारत में सोनागिरि और चूलगिरि ( बडवानी ) को कुछ महत्त्व था । अतिशयक्षेत्रों में सुदूर दक्षिण में श्रवणबेलगोल की गोमटेश्वर की महामूर्ति सब से अधिक प्रसिद्ध थी। राजस्थान में धूलिया के केशरियानाथजी की कीर्ति सर्वाधिक थी। हैद्राबाद राज्य के माणिक्यस्वामी भी काफी लोकप्रिय थे।
कारंजा के सेनगण के पदाधीशों में भ. जिनसेन और नरेन्द्रसेन ने लम्बी यात्राएं की। वहीं के बलात्कार गण के पदाधीश देवेन्द्रकीर्ति ( तृतीय ) ने पश्चिमी क्षेत्रों की छह यात्राएं की। ईडर शाखा के भ, सकलकीर्ति (प्रथम) और भ. पद्मनन्दि की शत्रुजय यात्राएं स्मरणीय रहीं । भानपुर शाखा के भ. रत्न कीर्ति के शिष्यों ने दक्षिण की यात्रा की । सूरत शाखा के भ. विद्यानन्दि, उन के शिष्य श्रुतसागरसूरि और भ. इन्द्रभूषण ने विस्तृत यात्राओं का नेतृत्व किया। नन्दीतट गच्छ के भ. चन्द्रकीर्ति और भ. इन्द्रभूषण ने दक्षिण की विस्तृत यात्राएं की। इन के अतिरिक्त छोटी मोटी अनेक यात्राओं के उल्लेख मिलते हैं जो भौगोलिक नाम सूची में पूरी तरह संकलित किये गए हैं। परस्परसम्बंध के निरूपण में कुछ तीर्थयात्राओं पर प्रस्तावना के अगले विभागों में और विचार हुआ है।
नन्दीतट गच्छ के ब्रह्म ज्ञानसागर ने अपने समय के तीर्थक्षेत्रों का वर्णन स्फुट कवित्तों में किया है। इस में सिद्धक्षेत्र और अतिशय क्षेत्र मिला कर ७८ क्षेत्रों का उल्लेख हुआ है । इस का सारांश अन्यत्र प्रकाशित हो चुका है। इसी प्रकार जयसागर की तीर्थजयमाला, श्रुतसागर की रवित्रत कथा तथा षट्प्राभूतटीका और छत्रसेन की पार्श्वनाथपूजा में भी अनेक तीर्थक्षेत्रों के उल्लेख हैं। विस्तार भय से ये सब मूल ग्रन्थ में समाविष्ट नही किए जा सके । तीर्थक्षेत्रों के इतिहास की दृष्टि से इन का अपना महत्त्व है।
महावीरजी क्षेत्र की व्यवस्था जयपुर शाखा के भट्टारकों द्वारा, सोनागिरि की वहीं के भट्टारकों द्वारा तथा केशरियाजी क्षेत्रकी व्यवस्था काष्ठासंघ के भटारकों द्वारा होती थी। इस दृष्टिसे विशेष उल्लेख प्राप्त नहीं हुए हैं किन्तु होने की संभावना अवश्य है।
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