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१. सेनगण
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की प्रशस्ति में आता है [ ले. १ ] | आचार्य धरसेन से उपदेश पाकर आचार्य पुष्पदन्त और भूतबलिने दूसरी सदी में महाकर्मप्रकृतिप्राभृत अथवा षट्खंडागम की रचना की थी। इस पर कुंदकुंद, समंतभद्र, तुम्बुर, शामकुण्ड, बप्पभट्टि आदि आचार्योंने व्याख्याएं लिखीं थीं । चित्रकूट पुर के आचार्य एलाचार्य से इस सिद्धान्तशास्त्र का अध्ययन कर के तथा अनेक सूत्र पुस्तकों का अवलोकन कर के उस के पहले पांच खंडों पर आचार्य वीरसेन
संस्कृत तथा प्राकृत की मिश्र शैली में विशाल टीका लिखी तथा उपरितम निबंधन आदि प्रकरणों का एक छठा खण्ड उसे जोड दिया । इस पूरे ग्रंथ का विस्तार ७२ सहस्र लोकों जितना हुआ । आचार्य वीरसेन के प्रगुरु आचार्य चंद्रसेन थे और गुरु आर्य आर्यनन्दि थे । उन के इस ग्रंथ की समाप्ति शक ७३८ की कार्तिक शुक्ल १३ को हुई जब महाराज बोदणराय सम्राट थे' |
आचार्य वीरसेन के बाद संभवतः आचार्य पद्मनंदि पट्टाधीश हुए थे [ ले. ५ ] | इन का कोई दूसरा उल्लेख नही मिलता ।
वीरसेन के ज्येष्ठ शिष्य विनयसेन थे [ले. ४ ] | किन्तु उन के प्रमुख शिष्य जिनसेन थे । आप की तीन कृतियां उपलब्ध हैं । आचार्य गुणधर ने दूसरी सदी मे लिखे हुए कसायपाहुड ग्रंथ पर आचार्य वीरसेन ने टीका लिखना आरंभ किया था जिसे वें पूरी नहीं कर सके। जिनसेन ने शक ७५९ की फाल्गुन शुक्ल १० को नंदीश्वर महोत्सव मे वाटग्राम मे रहते हुए सम्राट अमोघवर्ष के राजत्व काल मे उसे समाप्त किया और आचार्य श्रीपाल द्वारा उस का संपादन कराया [ ले. २ ] | इस की संज्ञा जयधवला है ।
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२ प्रशस्ति का पाठ अशुद्ध है जिस का संपादक डॉ. जैन द्वारा किया गया रूपान्तर यहां दिया है। आप के अनुसार उस समय राष्ट्रकूट सम्राट जगत्तुंग का साम्राज्य काल पूरा हो कर सम्राट अमोघवर्ष ने हाल ही राज्य भार ग्रहण किया था तथा बोदराय अमोघवर्ष का ही नामान्तर था । बाबू ज्योतिप्रसाद जैन ने प्रशस्ति का दूसरा अर्थ प्रस्तुत करते हुए उस का समाप्ति काल संवत ८३८ माना हैं तथा उस समय जगत्तुंग गोविन्द सम्राट थे ऐसा सूचित किया है ( अनेकान्त ८५. ९७ ) ।
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