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सेनगण
सेनगण भट्टारक-परंपरा के दो प्राचीनतम रूपोंमें से एक है। इस का सर्व प्रथम स्पष्ट उल्लेख उत्तरपुराण की प्रशस्ति मे पाया जाता है [लेखांक ८]। इस प्रशस्ति के साथ पूर्ववर्ती साधनों की तुलना करने से स्पष्ट होता है कि सेन गण का पूर्वरूप पंचस्तूपान्वय था [ ले. १] । कुछ उत्तर कालीन लेखों मे सूरस्थ या शूरस्थ गण ऐसा इस का नामान्तर मिलता है ! ले. ६१, ६५ ] । यदि शूरस्थ का अर्थ शूरसेन देश अर्थात् मथुरा के पास से निकला हुआ लिया जाय तो मथुरा के पांच स्तूपों के आधार पर पंचस्तूपान्वय नाम से इस का सामंजस्य हो सकता है। किन्तु सूरस्थ गण के प्राचीन उल्लेखों से वह एक पृथक् ही गण मालूम होता है [ले. १०, १५] जिस का संबंध संभवतः सौराष्ट्र से है [ले. १३ ] ।
प्राचीन लेखों में सेन गण के साथ पोगरि गच्छ का उल्लेख आता है [ले. ११, १२]। उत्तर कालीन लेखों मे इस का स्थान पुष्कर गच्छ ने लिया है [ले. २१, २४, ३२ आदि। ये दोनों नाम एक ही नाम के दो रूप हैं। पुष्कर शुद्ध संस्कृत रूप है, और पोगरि कनड़ी रूप है। आंध्र प्रदेश मे पोगिरि नामक स्थान है किन्तु उस के पुरातत्त्व का संशोधन नहीं हुआ है। राजस्थान के पुष्कर सरोवर का लोकभाषा में पोखर ऐसा रूपांतर हुआ है। इन दोनों में मूल रूप कौन सा है यह अनुसंधान की अपेक्षा रखता है।
सेनगण के साथ जुड़ा हुआ एक विशेषण ऋषभसेनान्वय है (ले. २१, २४, ३२ आदि ] जो स्पष्टतः कुंदकुंदाचार्यान्वय का अनुकरण मात्र है । इतिहास से ज्ञातकालमें ऋषभसेन नाम के कोई प्रसिद्ध आचार्य सेनगण में नहीं हुए हैं।
इस परंपरा का पहला उल्लेख आचार्य वीरसेन विरचित धवला टीका
१ दुसरा प्राचीन रूप पुन्नाट संघ है।
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