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भट्टारक संप्रदाय
सम्बन्ध और अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्ध इन दो विभागों में आगे और विचार किया गया है।
जैनेतर सम्प्रदायों के विद्वान भी कई बार भट्टारकों के शिष्य वर्ग में सम्मिलित हुए थे। द्विज विश्वनाथ म, इन्द्रभूषण के शिष्य थे। भ, राजकीर्ति के शिष्यों में पण्डित हाजी का उल्लेख हुआ है । गोमटस्वामीस्तोत्र के कर्ता भूपति 'प्राशमिश्र भी जैन विद्वान प्रतीत नहीं होते । इस दृष्टि का भी विशेष विवरण अगले विभागों में होगा।
जैनेन्द्र व्याकरण, गणितसारसंग्रह, कल्याणकारक जैसे शास्त्रीय ग्रन्थों को जैनेतर समाजों में उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था जिस से उन का पठन पाठन कई चार लुप्तप्राय हो गया । इस संकट में से ये अन्य जीवित रह सके इस का अधिकांश श्रेय भट्टारकों के शिष्यवर्ग को ही है । इन्हीं ने इन ग्रन्थों की प्रतिलिपियां करा कर उन का अभ्यास किया और उन की आयु की वृद्धि की ।
८. कार्य- जातिसंघटना जैन समाज में इस वक्त जो जातियाँ हैं इन की स्थापना दसवीं सदी के करीब हुई ऐसा विद्वानों का अनुमान है । इन जातियों में अधिकांश के नाम स्थान या प्रदेश पर आधारित हैं । बघेरा गांव से बघेरवाल, खंडेला से खंडेलवाल, पद्मावती से पद्मावती पल्लीवाल इत्यादि नाम रूट हुए हैं । इस युग के हिन्दू समाज के प्रभाव से जैन समाज में भी यह जातिसंस्था अति नियमित और कठोर हुई । खानपान, विवाहसंबन्ध, व्यवसाय और ऊँच नीच की कल्पना इन चारों बातों में जाति का ही निर्णायक महत्त्व होता था और पहिष्कार के शस्त्र से वह बराबर कायम रखा गया । अव इन चारों में सिर्फ विवाहसंबन्ध पर ही जाति का प्रभाव है और वह भी कई जगह ढीला पड चुका है ।
साधुपद पर प्रतिष्ठित होने के नाते भट्टारक जातिभेद से ऊपर होते थे । फिर भी विरुदावलियों में उन की जाति का अनेक बार उल्लेख हुआ है । जाति संस्था के व्यापक प्रभाव का ही यह परिणाम है । इसी प्रकार यद्यपि भट्टारकों के शिष्यवर्ग में सम्मिलित होने के लिए किसी विशिष्ट जाति का होना आवश्यक नही था तथापि बहुतायत से एक भट्टारक पीट के साथ किसी एक ही विशिष्ट जाति का संबन्ध रहता था। बलात्कार गग की सूरत शाखा से हुमड जाति, अटेर शास्था से लमेचू जाति, जेरहट शाखा से परवार जाति तथा दिल्ली जयपुर शाखा से
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