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काष्ठासंघ- नन्दीतट गच्छ
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पंचमी कथा लिखी (ले. ७३४ ) । इन की आज्ञा से भूपतिमिश्र ने गोमटस्वामी स्तोत्र लिखा ( ले. ७३५ ) । जिनसेन, नरेन्द्रकीर्ति, सुमतिसागर, नरेन्द्रसागर, रूपसागर, जिनदास एवं द्विज विश्वनाथ ने इन्द्रभूषण की प्रशंसा की है ( ले. ७३६-४३ ) । इन के समय बघेरवाल जाति के ५२ गोत्रों में २५ गोत्र काष्ठासंघ के अनुयायी थे ( ले. ७३७ ) ।
इन्द्रभूषण के बाद सुरेन्द्रकीर्ति भट्टारक हुए | आप ने संवत् १७४४ में रत्नत्रय यन्त्र, संवत् १७४७ में मेरुमूर्ति तथा इस वर्ष भी एक रत्नत्रय यन्त्र स्थापित किया ( ले. ७४४ - ४६ ) । आप के शिष्य पामो ने संवत् १७४९ में भरत भुजबल चरित्र की रचना की ( ले. ७४७ ) । इन ने अष्टद्रव्य छप्पय भी लिखे ( ले. ७४८ ) । सुरेन्द्र कीर्ति के शिष्य धनसागर ने संवत् १७५१ में नवकार पचीसी लिखी तथा संवत् १७५३ में विहरमान तीर्थंकर स्तुति की रचना की ( ले. ७४९-५० ) सुरेन्द्र कीर्ति ने संवत् १७५३ में चौवीसी मूर्ति स्थापित की तथा संवत् १७५४ तथा संवत् १७५६ में केशरियाजी क्षेत्र पर दो चैत्यालयों की प्रतिष्ठा की ( ले. ७५१ ५३ ) । आप के पूर्वोक्त शिष्य धनसागर ने संवत् १७५६ में पार्श्वपुराण लिखा ( ले. ७५४ ) । सुरेन्द्रकीर्ति ने संवत् १७७३ में पद्मावती पूजा लिखी ( ले. ७५५ ) | आप ने कल्याणमन्दिर, एकीभाव, विषापहार, भूपाल इन चार स्तोत्रों का छप्पयों में रूपान्तर किया ( ले. ७५६-५९ ) ।
सुरेन्द्रकीर्ति के तीन पट्टशिष्य ज्ञात हैं । लक्ष्मीसेन, सकलकीर्ति और देवेन्द्रकीर्ति ये उन के नाम थे । लक्ष्मीसेन के पट्ट पर विजयकीर्ति भट्टारक हुए | आप ने संवत् १८१२ में सुरेन्द्रकीर्ति की चरणपादुकाएं स्थापित की तथा एक शीतलनाथ मूर्ति भी स्थापित की ( ले. ७६०६२ ) ।
सुरेन्द्रकीर्ति के दूसरे शिष्य सकलकीर्ति थे । इन के शिष्य चन्द्र ने संवत् १८१६ में अकृत्रिम चैत्यालय बावनी लिखी ( ले ७६३ )
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