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बलात्कार गण - जेरहट शाखा
इस शाखा का आरंभ भ. त्रिभुवनकीर्ति से हुआ | आप भ. देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे जिन का वृत्तान्त सूरत शाखा में आ चुका है । आप के शिष्य श्रुतकीर्ति ने संवत् १५५२ में ग्यासुद्दीन के राज्यकाल " में जेरहट में हरिवंशपुराण लिखा (ले. ५२३) । श्रुतकीर्तिने दिल्ली-जयपुर शाखा के भ. जिनचन्द्र और उन के शिष्य विद्यानन्दि का भी उल्लेख किया है T इन ने संवत् १५५३ में जेरहट में ही परमेष्ठिप्रकाशसार की रचना की ।"
म. त्रिभुवनकीर्ति के बाद क्रमशः सहस्रकीर्ति-पद्मनन्दी - यशः कीर्तिललितकीर्ति और धर्मकीर्ति भट्टारक हुए ।" धर्मकीर्ति ने संवत् १६४५ की माघ शु. ५ को एक मूर्ति, संवत् १६६९ की चैत्र पौर्णिमा को एक चन्द्रप्रभ मूर्ति तथा एक पार्श्वनाथ मूर्ति, और संवत् १६७१ की वैशाख शु. ५ को एक नन्दीश्वर मूर्ति स्थापित की | ( ले. ५२५ - २८ ) । आप ने संवत् १६७१ की आश्विन कृ. ५ को हरिवंशपुराण लिखा (ले. ५२९) । संवत् १६८१ में एक पार्श्वनाथ मूर्ति, संवत् १६८२ में एक पोडशकारण यंत्र तथा संवत् १६८३ में एक और यन्त्र आप ने स्थापित किया ( ले. ५३०-३२ ) ।
९१ मालवा सुलतान - राज्यकाल १४६९-१५०० ई.
९२ डॉ. हीरालालजी जैन ने श्रुतकीर्तिकृत धर्मपरीक्षा का परिचय दिया है | ( अनेकान्त वर्ष ११ पृ. १०६ ) आप के मंत से श्रुतकीर्ति की गुरुपरंपरा प्रभाचंद्र - पद्मनन्दि-शुभचन्द्र- जिनचन्द्र-विद्यान न्दि-पद्मन न्दि- देवेन्द्र कीर्ति--त्रिभुवनकीर्ति ऐसी है । दिल्ली-जयपुर तथा सूरत शाखा के कालपटों के अवलोकन से साफ होता है कि यहाँ आप ने दो समकालीन परम्पराओं को एकत्रित कर दिया है। नोट ४३ देखिए ।
९३ श्रुतकीर्ति के विषय में पं. परमानन्द का लेख देखिए [ अनेकान्त वर्ष १३ पृ. २७९ ] जिस में उन के योगसार का भी परिचय दिया है ।
९४ त्रिभुवनकीर्ति के बाद की यह परम्परा पं. परमानंद के एक नोट पर से ली गई है जिसमें धर्मकीर्ति के एक और ग्रन्थ पद्मपुराण का उल्लेख है। ( अनेकान्त वर्ष १२ पृ. २८ )
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