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बलात्कार गण - लातूर शाखा इस शाखा का आरम्भ भ. अजितकीर्ति से हुआ । इन के दीक्षागुरु कारंजा शाखा के भ. कुमुदचन्द्र थे (ले. १९४)। किन्तु कुमुदचन्द्र की मुख्य पट्टपरम्परा में धर्मचन्द्र और धर्मभूषण ये भट्टारक हुए इस लिए अजितकीर्ति ने धर्मभूषण का भी आचार्यरूप में उल्लेख किया है (ले.१९३)। अजितकीर्ति ने शक १५७३ की फाल्गुन शु. ५ को कोई मूर्ति स्थापित की (ले. १९३)।
इनके बाद विशालकीर्ति भट्टारक हुए। आप ने शक १५९२ के वैशाख में एक नन्दीश्वर मूर्ति स्थापित की ( ले. १९४ ) ।
विशालकीर्ति के पट्टशिष्य महीचन्द्र हुए। आप ने शक १६१८ की माघ वद्य ५ को आशापुर में मराठी ग्रन्थ आदिपुराण पूर्ण किया (ले. १९५)। गरुडपंचमी कथा, अठाई व्रत कथा, नेमिनाथ भवांतर और काली गोरी संवाद ये इन की अन्य रचनाएं हैं (ले. १९६-९९)। इन के शिष्य गोमटसागर ने शक १६३३ की भाद्रपद कृ. ५ को कौतुकसार नामक ग्रन्थ की एक प्रति लिखी (ले. २००)। इन के दूसरे शिष्य महाकीर्ति ने शीलपताका नामक कथाग्रन्थकी रचना की थी (ले. २०१)।
महीचन्द्र के पट्टशिष्य महीभूषण हुए। इन ने शक १६४० की वैशाख कृ. ५ को पद्मावती सहस्रनाम की एक प्रति कारंजा में लिखी (ले. २०२ )। इन के शिष्य गौतमसागर ने शक १६४३ की माघ कृ. ४ को बाला पूजा की प्रति लिखी (ले. २०३)।
महीभूषण के बाद इस परम्परा में क्रमशः शान्तिकीर्ति, कल्याणकीर्ति, गुणकीर्ति, चंद्रकीर्ति और माणिकनन्दि ये भट्टारक हुए । चंद्रकीर्ति के शिष्य जनार्दन ने शक १६९७ की माघ कृ. ७ को मराठी श्रेणिक चरित्र पूरा किया (ले. २०४ )।
लातूर शाखा की दूसरी परम्परा कारंजा शाखा के भ. विशालकीर्ति (द्वितीय ) से आरंभ होती है । इन के शिष्य अजितकीर्ति के शिष्य पुण्य
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