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प्रस्तावना
सभी सिद्धक्षेत्र दोनों सम्प्रदायों द्वारा पूज्य थे इस लिए उन पर अधिकार पाने के लिए प्रायः झगडे होते रहते थे।
_सत्रहवीं शताब्दी में राजस्थानके आसपास जैन सम्प्रदाय में शुद्धीकरणवादी तेरापंथ की स्थापना हुई। नाटक समयसार आदि के कर्ता पण्डित बनारसीदास इस सम्प्रदाय के नेता थे । पूजा पद्धति को सादी करना, मूल अध्यात्मशास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन बढाना तथा शास्त्रोक्त आचरण न करनेवाले भट्टारकों को पूज्य नही मानना ये इस सम्प्रदाय के प्रमुख लक्षण थे । भट्टारक सम्प्रदाय में शासनदेवताओं की पूजा को एक प्रमुख स्थान मिला था उसे भी तेरापंथ ने नष्ट करना चाहा । स्वभावतः भट्टारकों द्वारा इस पंथ का विरोध किया गया। अपवाद रूप से कारंजा के भ. देवेन्द्रकीर्ति ( तृतीय ) के सम्पर्क में आ कर आगरा निवासी जीवनदास ने तेरापंथ का अपना अभिमान छोड दिया ऐसा उल्लेख मिलता है।
___दक्षिण में श्रवणबेलगोल, कारकल, हुंक्च और मुडबिद्री इन स्थानों पर देशीय गग आदि परम्पराओं के भट्टारक पीठ थे । ये दिगम्बर सम्प्रदाय के ही होने से इन के सम्बन्ध उत्तरीय भट्टारकों से प्रायः अच्छे रहते थे। पण्डितदेव, नागचन्द्रसूरि, श्रुतमुनि आदि दाक्षिणात्य विद्वान् भ. जिनचन्द्र, ज्ञानभूषण, श्रुतसागरसूरि आदि से सम्बन्ध स्थापित करते थे। कारंजा के भ. धर्मचन्द्र श्रवण - बेलगोल पहुंचे तब भ. चारुकीर्ति से उन की मुलाकात हुई थी। नन्दीतटगच्छ के भ. चन्द्रकीर्ति ने नरसिंहपुर में एक विवाद में विजय पाई उस समय भ. चारुकीर्ति उन्हें मिलने आए थे।
१३. परस्पर सम्बन्ध भट्टारक सम्प्रदायों के परस्पर सम्बन्ध प्रायः व्यक्तिगत मनोवृत्ति पर निर्भर रहते थे । इसी लिए न तो उन में कोई स्थायी वैर दिखाई देता है, न स्थायी प्रेम । सहकार्य या झगडे के लिए कोई तत्त्व आधारभूत नहीं था। इसी लिए समय समय पर विभिन्न प्रकार के सम्बन्ध स्थापित हो सके।
सेन गण के प्राचीन आचार्य वीरसेन और जिनसेन अपनी प्रतिभा और विद्वत्ता के कारण पुन्नाट संघ के आचार्य जिनसेन द्वारा सन्मानित हुए थे। उन ने जिन आचार्यों का पूज्य बुद्धि से स्मरण किया है उन में भी सम्प्रदायभेद की कोई झलक नहीं आती । आचार्य कुन्दकुन्द का अनुल्लेख अवश्य कुछ खटकता है।
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