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१. सेनगण
शुक्ल ५ को अकालवर्ष के सामन्त लोकादित्य की राजधानी बंकापुर मे लिखी गई थी [ले. ८ ] । इस के अनुसार उत्तर पुराण की रचना में लोकसेन का भी साहाय्य मिला था।
लोकसेन के बाद सेनसंघ का उल्लेख शक ८२४ के एक दान शासन में हुआ है | ले. ९]। यह दान श्रीकृष्ण वल्लभ के सामन्त विनयांबुधि के प्रदेश धवल में मुळगुंद नगर के जिनमंदिर के लिए अरसार्य ने दिया था। यह मंदिर उस के पिता चिक्कार्य ने बनाया था । दान कुमारसेन के प्रशिष्य तथा वीरसेन के शिष्य कनकसेन को दिया गया था।
सूरस्थ गण के वज्रपाणि पंडितदेव को पोयसळ वंशीय विनयादित्य के राजत्व काल में शक ९२४ की चैत्र शुक्ल १० को कुछ दान दिया गया था वह इस परंपरा का अगला उल्लेख है [ ले. १०। __इस के अनंतर ब्रह्मसेन के प्रशिष्य तथा आर्यसेन के शिष्य महासेन का उल्लेख मिलता है । इन्हें कोम्मराज के पुत्र चांकिराज ने पोनवाड नगर में स्वनिर्मित शांतिनाथमंदिर के लिए चालुक्य वंशीय त्रैलोक्यमल्ल महाराज की सम्राज्ञी केतलदेवी से विज्ञप्ति कर के शक ९७६ की वैशाख अमावास्या को सूर्यग्रहण के निमित्त कुछ दान दिया [ले. ११ ।
इन के अनंतर चालुक्य वंशीय राजा त्रिभुवनमल्ल के समय संवत् ११३४ की पौष शुक्ल ७ को उत्तरायण संक्रांति के दिन चालुक्य--गंगपेर्मानडि जिनालय के लिए राजधानी बळ्ळिगावे में सेनगण के रामसेन पंडितदेव को कुछ दान दिया गया [ ले. १२ ] । इसी लेख में किन्ही गुणभद्रदेव की मूर्ति का उल्लेख है।
सुराष्ट गण के रामचंद्रदेव की शिष्या अरसवे का उल्लेख शक १०१७ की भाद्रपद शुक्ल ७ के एक लेख में किया है [ ले. १३] ।
सेन गण के चंद्रप्रभ सिद्धान्तदेव के शिष्य माधवसेन भट्टारक को संवत् ११८१ की माघ शुद्ध ५ को कुछ दान दिया गया था ले. १४ ] ।
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