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प्रस्तावना
बना रहा और साथ ही उन में गम्भीरता और पावित्र्य की भावना भी दृढ हो । सकी। इसी लिए बाल और वृद्ध, स्त्री और पुरुष सभी प्रकार के व्यक्ति मन्दिरों की ओर आकर्षित हो सके । जैन समाज का अन्य समाजों से सौहार्द स्थापित करने में भी इन कलाओं का विशेष महत्त्व रहा ।।
१२. अन्य सम्प्रदायों से सम्बन्ध सेन संघ, काष्ठासंघ और बलात्कारगग की परम्पराओं के आरंभ काल में जैन धर्म के प्रतिस्पर्धी वैदिक और बौद्ध ये दो धर्म प्रचलित थे। इस लिए बौद्ध दर्शन की अनेक मान्यताओं के खंडन का प्रयास जिनसेन, गुणभद्र आदि आचार्यों के ग्रन्थों में दिखाई देता है। किन्तु भट्टारक परम्पराएं दृढमूल हुई उस समय तक बौद्ध धर्म भारतवर्ष से प्रायः पूरी तरह निर्वासित हो चुका था। इस लिए भट्टारक पीठों से बौद्ध सम्प्रदाय के सम्बन्धों का प्रश्न ही नहीं उठता। अपवाद रूप से नन्दीतटगच्छ के भ. विजयकीर्ति द्वारा वसुधारा नामक बौद्ध तन्त्र विषयक रचना की एक प्रतिलिपि की गई थी जो हाल में ही उपलब्ध हुई है । पहावली आदि में कहीं कहीं बौद्धों के पराजय के जो उल्लेख हैं उन्हें प्रत्यक्ष आधार न होने से पुरानी परंपरा का अनुकरण मात्र समझना चाहिये । चौद्ध ग्रन्थों के अध्ययन या अध्यापन की प्रथा भी भट्टारक सम्प्रदाय में बिलकुल नहीं थी जो श्वेताम्बरों में कुछ हद तक कायम रह सकी।
इन परंपराओं के आरंभ काल में वैदिक सम्प्रदायों का अद्भुत प्रभाव जैन समाज पर पडा। इस से जैन समाज का ढांचा बिलकुल ही बदल गया। एक सवर्ण हिन्दू की तरह जैन भी जातिसिद्ध उच्चता पर विश्वास करने लगे। सामाजिक और वैधानिक मामलों में भी जनों ने प्रायः पूरी तरह वैदिकों का अनुकरण किया। आरंभसे मटसंस्था कैसे उत्पन्न हुई इसका अभी पूरा संशोधन नहीं हुआ है, तो भी भट्टारक सम्प्रदाय के विकास पर शंकराचार्य द्वारा स्थापित मठों का परिणाम स्पष्ट दिखाई देता है। शायद उस समयकी मांग ऐसी ही कुछ होगी। भट्टारक पीठों में भी कई दृष्टियों से वैदिक पद्धतियों का प्रवेश हुआ। पद्मावती आदि देवियों को काली, दुर्गा या लक्ष्मी का ही रूपान्तर माना जाने लगा। अध्यात्मशास्त्रों के व्याख्यान में आत्मा के समान ही ब्रा का निरूपण होने लगा। कथा पुराणों में भी कई वैदिक कथाओं का समावेश किया गया। भट्टारकों के लिए शिक्षक या शिष्यों के रूप में कई बार वैदिक पण्डितों की योजना होती थी। इस से यह प्रभाव व्यापक हो सका । द्विज विश्वनाथ, भूपति प्राज्ञ मिश्र, शैव माधव
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