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बलात्कार गण - सूरत शाखा इस शाखा का आरम्भ भ. देवेन्द्रकीर्ति से हुआ। आप भ. पद्मनन्दी के शिष्य थे जिन का वृत्तान्त उत्तर शाखा में आ चुका है। आप ने संवत् १४९३ की वैशाख कृ. ५ को एक मूर्ति स्थापित की ( ले. ४२५)। आप ने उज्जैन के प्रान्त में प्रतिष्ठाएं करवाई तथा सातसौ घरों की रत्नाकर जाति की स्थापना की (ले. ४२६ ) । आप के शिष्य त्रिभुवनकीर्ति से जेरहट शाखा का आरम्भ हुआ।
देवेन्द्रकीर्ति के पट्टशिष्य विद्यानन्दी हुए । आप ने संवत् १४९९ की वैशाख शु. २ को एक चौवीसी मूर्ति, संवत् १५१३ की वैशाख शु. १० को एक मेरु तथा एक चौवीसी मूर्ति, संवत् १५१८ की माघ शु. ५ को दो मूर्तियां, संवत् १५२१ की वैशाख कृ. २ को एक चौबीसी मूर्ति तथा संवत् १५३७ की वैशाख शु. १२ को एक अन्य मूर्ति स्थापित की (ले. ४२७-३३ ) । संवत् १५१३ की चौवीसी मूर्ति आर्यिका संयमश्री के लिए घोघा में प्रतिष्ठित की गई थी।
विद्यानन्दी ने सुदर्शनचरित नामक संस्कृत ग्रन्थ लिखा (ले. ४३४)। साह लखराज ने पंचास्तिकाय की एक प्रति खरीद कर इन्हें अर्पित की (ले. ४३५)। इन के शिष्य ब्रह्म अजित ने भडौच में हनुमच्चरित की रचना की (ले. ४३६)। इन के अन्य शिष्य छाहड ने संवत् १५९१ में भडौच में धनकुमारचरित की एक प्रति लिखी (ले. ४३७ ) । इन के तीसरे शिष्य ब्रह्म धर्मपाल ने संवत् १५०५ में एक मूर्ति स्थापित की (ले. ४३८)
पट्टावली के अनुसार राजा वज्रांग, गंग जयसिंह, तथा व्याघ्रनरेन्द्र ने आप का सन्मान किया । आप अठसखे परवार जाति के थे । हरिराज
७२ विद्यानंदी के अन्य उल्लेख देखिए (ले. २५७) तथा (ले. ३५६), नोट ४३ तथा (ले. ५२३).
७३ वज्रांग और गंग जयसिंह कर्णाटक के स्थानीय राजा रहे होंगे । इन का ठीक राज्यकाल ज्ञात नहीं हो सका । व्याघनरेन्द्र सम्भवतः किसी वाघेल वंशीय राजा का संस्कृत रूपान्तर है।
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