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ऋषभदेव का जन्म और उनके अंगों का वर्णन
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व्याख्या
भरत चक्रवर्ती का वह प्रसंग इस प्रकार है
भरत चक्रवर्ती का आद्योपान्त विस्तृत आल्यान ऋषभदेव प्रभु का जन्म एवं जन्माभिषेक - इस अवसपिणीकाल के सुपम-सुषमा नामक चार कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण वाले पहले आरे के बीतने के बाद, तीन कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण वाले, सुषम नामक दूसरे आरे और दो कोटाकोटि सागरोपग प्रमाण वाले सुपम-दुःपम नामक तीसरे आरे का पल्योपम के आठवें भाग न्यून समय व्यतीत हो जाने के बाद दक्षिणाद्ध गरत में (१) विमलवाहन, (२) चक्षुप्मान, (३) यशस्वी, (४) अभिचन्द्र, (५) प्रसनजित, (६) मरुदेव और (७) नाभि नाम के क्रमशः सात कुलकर हुए। उनमें नाभिकुलकर की पत्नी तीन जगत् को उत्तमशील से पवित्र करने वाली मरुदेवी थी । जब तीसरे आरे के चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष साढ़े आठ महीने शेप रहे तब सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यव कर मरुदेवी माता की कुक्षि में चौदह महास्वप्नों को सूचित करते हुए प्रथम जिनेश्वर उत्पन्न हुए । उस समय उन १४ स्वप्नों के अर्थ को नाभिराजा और मरदेवी यथार्थरूप से नहीं जान सके । अतः इन्द्र ने आ कर हर्षपूर्वक उनके अर्थ सुनाये । उसके बाद एक शुभदिन को ऋपभदेव का जन्म हुआ। छप्पन दियकुमारियों ने आ कर प्ररावकर्म किया। इन्द्र ने प्रमु को मेरुपर्वत पर ले जा कर अपनी गोद में बिठाया और तीर्थजल से प्रभु का तथा हर्षाश्रु जल से अपना अभिपेक किया । वाद में इन्द्र ने प्रभु को ले जाकर उनकी माता को सौंप दिया। प्रभु का सभी धात्रीकर्म देवियों ने किया। प्रभु की दाहिनी जंधा में वृषभ का आकार-लांछन देख कर माता-पिता ने प्रसन्नतापूर्वक उन कानाम ऋपभ रखा। प्रभु ऋषभ चद्रकिरण के समान अतिशय आनन्द उत्पन्न करते हुए एक दिव्य आहार से पोपण पाते हुए क्रमशः बढ़ने लगे।
प्रभु के वंश का नामकरण - एक बार इन्द्र प्रभु की सेवा में उपस्थित हुए, तब विचार करने लगे कि आदिनाथ ऋषभदेव भगवान् के वंश का क्या नाम रखा जाय ? प्रभु ने अवधिज्ञान से इन्द्र का विचार जान कर उसके हाथ से इक्षुदण्ड लेने के लिए हाथी की सूड-सा अपना हाथ लम्बा किया। इन्द्र ने प्रभु को इक्षु अर्पण करके नमस्कार किया और तभी प्रभु के वंश का नाम इक्ष्वाकु रखा।
प्रभु के अंगों का आलंकारिक वर्णन बाल्यकाल बिता कर मध्याह्न के सूर्य के समान प्रभु ने यौवनवय मे पदार्पण किया। यौवनवय से प्रभु के दोनों पैरों के तलुए समतल, लाल और कगल के समान कोमल थे। उष्ण व कंपन-रहित होने से उनमें पसीना नहीं होता था। प्रभु के चरणों में चक्र, अभिषेकयुक्त लक्ष्मीदेवी, हाथी, पुष्प, पुष्पमाला अंकुश एव ध्वज के चिह्न थे। मानो, ये चरणों में नमन करने वालों के दुखों को मिटाने के लिये हो हो। लक्ष्मीदेवी के क्रीडागृह के समान भगवान् के दोनों चरणतलों में शख, कलश, मत्स्य और स्वस्तिक सुशोभित हो रहे थे। स्वामो के अंगूठे भरावदार, पुष्ट, गोल और ऊँचे थे, वे सर्प के फन के समान, वत्स के समान श्रीवत्सचिह्न से युक्त थे। प्रभु के चरणकमल की अंगुलियाँ छिद्ररहित सीधी, वायु प्रवेशरहित होने से निष्कम्प, चमकती दीपशिखा के समान तथा कमल की पंखुड़ियों के समान थीं। प्रभु के चरणों की उंगलियों के नीचे नन्द्यावर्त ऐसे सुशोभित होते थे कि जमीन पर पड़ने वाले प्रतिबिम्ब धर्मप्रतिष्ठा के कारणभूत प्रतीत हो रहे थे । अंगुली के पर्व बावड़ी के समान शोभा देते थे। वे ऐसे मालूम होते थे, मानो विश्व-प्रभु के विश्व-लक्ष्मी के साथ होने वाले विवाह के लिए जौ बोए गए हो। प्रभु के चरण-कमल की एड़ी कन्द के समान गोल व प्रमाणोपेत लम्बी-चौड़ी थी। और उनके नख ऐसे प्रतीत होते