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योगशास्त्र: प्रथम प्रकाश २२ उनके आश्रित सूक्ष्म जीवों की विराधना किये बिना सिर्फ फूल की पंखुड़ियों का आलंबन ले कर गति कर सकते हैं, वे पुष्पचारणलब्धिधर मुनि कहलाते हैं। विविध प्रकार के पौधों, बेलों, विविध अंकुरों, नई कोंपलों, पल्लवों या पत्तों आदि का अवलंबन ले कर सूक्ष्मजीवों को पीड़ा दिये बिना अपने चरणों को ऊंचे-नीचे रखने और चलने में कुशल होते हैं, वे पत्रचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते है। चार सौ योजन ऊंचाई वाले निषध अथवा नील पर्वत की शिखर-थणि का अबलम्बन ले कर जो ऊपर या नीचे चढ़नेउतरने में निपुण होते हैं, वे घेणोचारणलब्धिमान मुनि कहलाते है। जो अग्निज्वाला की शिखा ग्रहण करके अग्निकायिक जीवों की विराधना किये बिना और स्वयं जले बिना बिहार करने की शक्ति रखते है, वे, अग्निशिखाचारणलब्धियुक्त मुनि कहलाते हैं, धुए की ऊंची या तिरछी श्रेणि का अवलम्बन ले कर अस्खलितरूप से गमन कर सकने वाले धूमचारणलब्धिप्राप्त मुनि कहलाते हैं। बर्फ का सहारा ले कर अपकाय की विराधना किये बिना अस्खलित गति कर सकने वाले नोहारचारणलन्धि मुनि कहलाते है । कोहरे के आश्रित जीवों की विराधना किये बिना उसका आश्रय ले कर गति कर सकने की लब्धि वाले अवश्यायचारणनि कहलाते हैं । आकाश मार्ग मे विस्तृत मेघ-समूह में जीवों को पीड़ा न देते हए चलने की शक्ति वाले मेघचारणमुनि कहलाते हैं। वर्षाकाल में वर्षा आदि की जलधागका अवलम्बन ले कर जीवों को पीड़ा दिये बिना चलने की शक्ति वाले वारिधाराचारण मनि कहलाते हैं। विनि ! और पुराने वृक्षों के कोटर में बने मकड़ी के जाले के तंतु का आलम्बन ले कर उन तंतुओं को टूटने न देते हुए पर उठा कर चलने मे जो कुशल होते है, वे मकंटकतन्तुधारणलन्धिधारी मुनि कहलाते है । चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र आदि किसी भी ज्योति की किरणों का आश्रय ले कर नभस्तल में जमीन की तरह पैर से चलने की शक्ति वाले ज्योतिरश्मिचारण मुनि कहलाते हैं। अनेक दिशाओं में प्रतिकूल या अनुकूल चाहे जितनी तेज हवा में, वायु का आधार ले कर अस्खलित गति से पैर रख कर चलने की कुशलता वाले वायुचारणलब्धिप्राप्त मुनि कहलाते हैं ।
तप और चारित्र के प्रभाव के बिना, दूसरे गुणों के अतिशय से भी लब्धियां और ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं। आशीविषलन्धि वाला अपकार और उपकार करने में समर्थ होता है। अमुक सीमा में रहे हुए सभी प्रकार के इन्द्रियपरोक्ष द्रव्यों का हस्तामवकवन प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करने को लब्धि अवधिशान लब्धि कहलाती है।
मनुष्यक्षेत्रवर्ती ढाई द्वीप में स्थित जीवो के मनोगत पर्यायों या मनोगत द्रव्यों को प्रकाशित करने वाली लब्धि मनःपर्यायज्ञानालन्धि कहलाती है। इसके दो भेद हैं -अनुमति और विपुलमति । विपुलमति-मन.पर्यायज्ञान एक बार प्राप्त होने पर फिर नष्ट नहीं होता और विशद्धतर होता है। ऋजमनि वम विशुद्ध होता है। अब योग का माहाम्म्य एव उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले केवलजानरूपी फल का निरुपण करते हैं--
अहो ! योगस्य माहात्म्यं प्राज्यं साम्राज्यमुद्वहन् । अवाप केवलज्ञानं, भरतो भरताधिप ॥१०॥
अर्थ
अहो ! योग का कितना माहात्म्य है कि विशाल साम्राज्य का दायित्व निभाने वाले मरतक्षेत्र के अधिपति श्रीभरत चक्रवर्ती ने भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।