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योगशास्त्र : प्रथम प्रकाश
दृष्टि से कुणल बुद्धि वाला किसान बहुत-सा धान्य कोठारों में अच्छी तरह संभाल कर सुरक्षित रखता है; वैमे ही दूसरे से सुन कर अवधारण किये हर श्रुत (शास्त्र) के अनेक अर्थों को या बार-बार आवृत्ति किये बिना ही विभिन्न अर्थों को भलीभांति याद रखता है, भूलता नहीं है, इस प्रकार मस्तिष्करूपी कोष्ठागार में का अथं सुरक्षित रखता है, वह कोष्ठबुद्धि कहलाता है । पदानुसारी बुद्धि वाले तीन प्रकार के होते हैंअनुस्रोत, प्रतिस्रोत और उभयपद । (१) जिनकी बुद्धि ग्रन्थ के प्रथम पद के अर्थ को दूसरे से सुन कर अन्तिम पद तक के सम्पूर्ण ग्रन्थ का विचार (स्मरण) करने में समर्थ अत्यन्त तीव्र होती है, वह अनुस्रोतपदानुगारी-बुद्धि कहलाता है । (२) जिसकी बुद्धि अन्तिम पद के अर्थ या ग्रन्थ को दूमरे मे सुन कर, आदि पद तक के अर्थ या ग्रन्ध को स्मरण कर सकने में ममर्थ हो, वह प्रतिस्रोत-पदानुसारी बुद्धि कहलाता है और (B) जिसकी बुद्धि ग्रन्थ के बीच के अर्थ या पद को दूसरे से जान कर आदि से अन्न तक के तमाम पद-समूह और उनका प्रतिनियत अर्थ करके सारे ग्रन्थ-समुद्र को पार करने में समर्थ असाधारण तीव्र हो, वह उभयपदानुसारी बुद्धि कहलाता है । बीजबुद्धि और पदानुसारीबुद्धि में यही अन्तर है कि बीजबुद्धि तो एक पद का अर्थ बताने पर अनेक पदों का अर्थ बताने में कुशल होती है जबकि पदानुसारीबुद्धि एक पद को जान कर दूसरे तमाम पदो को जानने में समर्थ होती है ।
इसी प्रकार मनोबली, वचनबली, कायबली भी एक प्रकार के लब्धिधारी होते हैं । जिसका निमंन्न मन मनिज्ञानावरणीय और वीर्यान्तराय कर्म के अतिशय क्षयोपशम की विशेषता से अंतर्मुहूर्त में मारभूत तत्व उद्धत करके सारे श्रुत-समुद्र में अवगाहन करने में समर्थ हो, वह साधक मनोबन्नी-लब्धिमान कहलाना है। जिसका वचनबल एक अन्तर्मुहूर्त में सारी श्रुतवस्तु को बोलने में समर्थ हो, वह वाग्बलीलब्धिमान कहलाता है; अथवा पद, वाक्य और अलंकार-सहित वचनों का उच्चारण करते समय जिसकी वाणी का प्रवाह अखण्ड अस्खलित चलता रहे, कंठ में जरा भी रुकावट न आए, वह भी वागबली कहलाता है । वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से जिसमें अमाधारण कायाबल-योग प्रगट हो गया हो कि कायोत्सर्ग में चिरकाल तक खड़े रहने पर भी थकावट और वेचनी न हो, वह कायबलीलन्धिमान कहलाता है । उदाहरणार्थ-बाहुबलि मुनि जसे एक वर्ष तक कार्योत्सर्ग-प्रतिमा धारण करके खड़े रहे थे, वे कायबली थे। इसी प्रकार क्षीग्लब्धि, मधुलन्धि, घृतलब्धि और अमृतलब्धि वाले भी योगी होते हैं। जिनके पात्र में पडा हुआ ग्ब राब अन्न भी दूध, मधु, घी और अमृत के ग्स के समान बन कर शक्तिवर्द्धक हो जाता है, अथवा वाचिक, शारीरिक और मानसिक दुःख प्राप्त हुए आत्माओं को खीर आदि की तरह जो आनन्ददायक होते हैं; वे क्रमशः क्षीगलव, मध्वानव, सपिरास्रव, और अमृतास्रव लब्धि वाले कहलाते हैं । वे दो प्रकार के होते हैं. एक होते हैं, अक्षीण-महानसलब्धिमान और दूसरे होते हैं, अक्षीणमहालयलब्धिधर । असाधारण अन्नगय कर्म के क्षयोपशम होने से जिनके पात्र में दिया हुआ अल्प आहार भी गौतमस्वामी की तरह अनेकों को दे दिया जाय, फिर भी समाप्त नही होता; वे अक्षीणमहानस-लब्धिमान कहलाते हैं । जिम परिमित भूमिभाग में असंख्यात देव, तियंच और मनुष्य सपरिवार खचाखच भरे हों, बैठने की मुविधा न हो, वहां अक्षीणमहालय-लग्धिधारी के उपस्थित होते ही इतनी जगह हो जाती है कि तीर्थकर के मममवरण की नग्ह मभी लोग मुखपूर्वक वैठ मकने हैं। इमी तरह प्राज्ञश्रमण आदि साधकों में महाप्रज्ञा आदि लब्धियां भी प्राप्त होती बनाई हैं ; जिनके प्रभाव से वे एक ही इन्द्रिय से सभी इन्द्रियों के विषयों की जानकारी कर मकते हैं; ऐसी महाऋद्धि सभिन्न-स्रोतोलब्धि कहलाती हैं। और भी कई लब्धियां बताते हैं :