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चारणलब्धि और उसके विविध प्रकार
चारणाशीविषावधि - मनः - पर्यायसम्पदः । योगकल्पद्र मस्यैताः विकासिकुसुमश्रियः ॥ ९ ॥
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अर्थ
चारणविद्या, आशीविषलब्धि, अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान की सम्पदाएं; ये सब योगरूपी कल्पवृक्ष की ही विकसित पुष्पश्री हैं ।
व्याख्या
जिस लब्धि के प्रभाव से जल, स्थल या नभ में निराबाध गति हो सके, उस अतिशय शक्ति को चारणलब्धि कहते हैं। जिस लब्धि के प्रभाव से साधक दूसरे पर अपकार ( शाप ) या उपकार (वरदान) करने में समर्थ हो; वह आशीविपलब्धि कहलाती है । जिस लब्धि के प्रभाव से इन्द्रियों से अज्ञेय परोक्ष रूपीद्रव्य का ज्ञान इन्द्रियों की सहायता के बिना ही प्रत्यक्ष किया जा सके, उसे अवधिज्ञानfब्ध कहते हैं । दूसरे के मनोद्रव्य की पर्यायों को प्रत्यक्ष देखने की शक्ति जिस लब्धि के प्रभाव से हो जाय, उसे मनःपर्यायज्ञानलब्धि कहते हैं । ये सारी लब्धियां योगरूपी कल्पवृक्ष के ही पुष्प समान हैं । इनसे फल की प्राप्ति हो तो केवलज्ञान अथवा मोक्षप्राप्ति होती है; जिगे हम भरतचक्रवर्ती और मरुदेवी के उदाहरण से आगे बताएँगे ।
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चारणलब्धि दो प्रकार की होती है— जंघाचारणलब्धि और विद्याचारणलब्धि । ये दोनों लब्धियां मुनियों को ही प्राप्त होती हैं । उनमें जंघाचारण- लब्धिधारी मुनि सुगमता से उड़ कर एक कदम में सीधे रुचकद्वीप में पहुंच जाते हैं; वापिस आते समय भी रूचकद्वीप से एक कदम में उड़ कर नंदीश्वरद्वीप में आ जाते हैं और दूसरे कदम में जहाँ से गये हों, वहीं मूल स्थान पर वापस आ जाते हैं, और वे ऊर्ध्वगति से उड़ कर एक कदम में मेरुपर्वत के शिखर पर ठहर कर पांडुवन में पहुंच जाते हैं; वहाँ से भी वापस आते समय एक कदम में नंदनवन में आ जाते हैं और दूसरे कदम में उड़ कर जहां से पहले उड़े थे, उसी मूल स्थान पर आ जाते है। विद्याधारणलब्धिधर मुनि तो एक कदम से उड़ कर मानुषोत्तर पर्वत पर पहुंच जाते हैं और दूसरे कदम से नंदीश्वरद्वीप में जाते हैं, वहाँ से एक ही कदम में उड़ कर, जहाँ से गये थे, वहीं वापस आ जाते हैं । कई चारणलब्धिधारी मुनि तिर्यग्गति में भी उसी क्रम से ऊर्ध्व गमनागमन कर सकते हैं ।
इसके अलावा और भी अनेक प्रकार के चारणमुनि होते हैं। कई पल्हथी मार कर बैठे हुए और कायोत्सर्ग किये हुए पैरों को ऊंचे-नीचे किये बिना आकाश में गमन कर सकते हैं। कितनेक तो जल, जंघा, फल, फूल, पत्र-श्रेणी, अग्निशिखा, धूम, हिम-तुपार, मेघ जलधारा, मकड़ी का जाला, ज्योतिष्किरण, वायु आदि का आलंबन ले कर गति करने में कुशल होते हैं। उसमें कई चारणलब्धि वाले मुनि बावड़ी, नदी, समुद्र आदि जलाशयों में जलकायिक आदि जीवों की विराधना किये बिना पानी पर जमीन की तरह पैर ऊँच-नीचे करते हुए रखने में कुशल होते हैं; वे जलचारणलब्धिमान् मुनि कहलाते हैं । जो जमीन से चार अंगुलि -प्रमाण ऊपर अधर आकाश में चलने में और पैरों को ऊँचे-नीचे करने में कुशल होते हैं, वे भी जंघाचारणलब्धिारी मुनि कहलाते हैं । कई भिन्न-भिन्न वृक्षों के फलों को ले कर फल के आश्रित रहे हुए जीवों को पीड़ा न देते हुए फल के तल पर पैर ऊंचे-नीचे रखने में कुशल होते हैं, वे फलचारणलब्धिधारी मुनि कहलाते हैं । इसी प्रकार विभिन्न प्रकार के वृक्षों, लताओं, पौधों या फूलों को पकड़ कर