Book Title: Yatindrasuri Diksha Shatabdi Samrak Granth
Author(s): Jinprabhvijay
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
View full book text
________________
by
यतीन्द्रसूरी स्मारक ग्रन्थ : व्यक्तित्व कृतित्व
श्री अमिधानराजेन्द्रकोश और आचार्य श्री
PIGS TOTE
विश्वपूज्य प्रातः स्मरणीय प्रभु श्रीमद् विजय राजेन्द्रसूरीश्वरजी म.सा. ने लगातार चौदह-पंद्रह वर्ष तक कठोर परिश्रम कर एक अमूल्य ग्रंथरत्न की रचना की, जिसे आज सम्पूर्ण विश्व अभिधानराजेन्द्रकोश के नाम से जानता है। समस्त जैन साहित्य इस कोश में समाहित हो गया है। इस ग्रंथ रत्न को हम जैन ऐनसाइक्लोपीडिया भी कह सकते हैं। कारण यह कि इस कोश के माध्यम से कोई भी विद्वान् जैनागमों का महत्त्वपूर्ण एवं महोत्तम ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
परमपूज्य ज्योतिषाचार्य मुनिराज
श्री जयप्रभविजयजी श्रमवशिष्य रत्न मुन्राज श्री हितेशचन्द्रविजय 'श्रेयस'...
वि.सं. १९६० का आप का वर्षावास सूरत में व्यतीत हुआ था। वहीं इस कोश के निर्माण का कार्य समाप्त हुआ था। कठोर परिश्रम के परिणामस्वरूप पूज्य गुरुदेव का स्वास्थ्य इन दिनों ठीक नहीं रह रहा था। कोश की रचना के पश्चात् उसको सम्पादित कर व्यवस्थित करना और फिर उसका प्रकाशन करवाना भी एक महत्त्वपूर्ण किन्तु कठिन कार्य था। कारण यह कि इसका प्रकाशन सामान्य बात नहीं थी। इस विशाल कोश के प्रकाशन में भी वर्षों लगने की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता। पूज्य गुरुदेव इस स्थिति में नहीं थे कि वे अब पूर्व की भांति कठोर परिश्रम कर सकें। इदं शरीरं व्याधिमंदिरम की उक्ति के अनुसार पूज्य गुरुदेव का स्वास्थ्य दिनप्रतिदिन गिरता ही जा रहा था । पू. गुरुदेव का स्वास्थ्य जैसे-जैसे गिरता जा रहा था, वैसे-वैसे उनकी चिन्ता बढ़ती जा रही थी। उनकी यह चिन्ता स्वयं के विषय में नहीं थी। उनकी चिंता का मूल कारण यह था कि जिस लगन, निष्ठा और कठोर परिश्रम के साथ अमिधानराजेन्द्रकोश का निर्माण किया, उसका उनके देवलोक गमन के पश्चात क्या होगा? क्या उनका परिश्रम निष्फलचला जायगा।
Jain Education International
ऐसी ही परिस्थिति में पूज्य गुरुदेव का वि.सं. १९६३ का वर्षावास बड़नगर में सानंद सम्पन्न हुआ। वर्षावास की समाप्ति के पश्चात् आप ने वहाँ से विहार कर दिया और मार्गवर्ती ग्रामों में धर्मध्वजा फहराते हुए आप राजगढ़ (धार) पधारे। मुनिराज श्री यतीन्द्रविजयजी म.सा. अपने गुरुदेव की अमिधानराजेन्द्रकोश के प्रकाशन विषयक चिंता से परिचित थे। आपश्री इस भार को वहन करने के लिये तत्पर भी थे। आप किसी उचित समय पर अपनी भावना की अभिव्यक्ति अपने गुरुदेव के समक्ष करना चाहते थे। आप अपने गुरुदेव द्वारा कठोर अध्यवसाय कर निर्माण किये गए कोश का विधिवत सम्पादन कर उसका मुद्रण करवाने की भावना रखते थे। जब राजगढ़ में एक दिन गुरुदेव के सान्निध्य में मुनिराज श्री दीपविजय जी म. तथा मुनिराज श्री यतीन्द्र विजयजी म. बैठे हुए कुछ कार्य कर रहे थे, उस समय दोनों मुनिभगवंतों ने अपने गुरुदेव प्रातःस्मरणीय श्रीमद्विजयराजेन्द्रसूरीश्वर जी म. को कुछ अधिक ही चिंतित मुद्रा में देखा । गुरुदेव पूर्व में अपनी चिंता का कारण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपने सुशिष्यों और समाज के प्रमुख
२१
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org