Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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युगवीर आचार्यप्रवर श्रीमद् यतीन्द्रसूरिजी
ले० - श्री राजमल लोढा, संपा० दैनिक ध्वज, मन्दसौर
इन पीछले पचास वर्षों में जैन समाज में जितने भी आचार्य, उपाध्यय या मुनि हुए हैं उन सब में श्रीयतींद्रसूरिजी का भी एक मौलिक स्थान है।
१४ वर्ष की बाल्यवय में मुनिजीवन को अंगीकार कर के ब्रह्मचर्य, विद्याभ्यास गुरुसेघा, साहित्यसृजन, समाजसेवा, अंजनशलाका प्रतिष्ठा, त्याग व तपश्चर्या आदि की एक समान आजीवन सतत साधना कम गौरव की नहीं है। ____संसार में एक, दो, चार, हजार, लाख और अनन्त वस्तुओं पर विजय प्राप्त करना सरल है; किन्तु पांच इंद्रियों और छठे मन पर विजय प्राप्त कर लेना महान् कठिन है और दुष्कर है । जिसने इन पर विजय प्राप्त कर ली है वही संसार में परमात्म स्वरूप बना है। और संसार उन्हीं के चरणों पर झुका है । शानियों और महर्षियोंने उन्हीं के चरण-चिन्हों पर चलने का आदेश दिया है । एक ब्रह्मचारी के त्याग और तपश्चर्या के सामने अन्य त्याग और तपश्चर्या की कोई किमत नहीं है। इसकी सतत साधना ही प्रतिदिन त्याग और तपश्चर्या है। उसी प्रकार आचार्य यतीन्द्रसूरि के जीवन में भी अन्य तपश्चर्याओं को उतना महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं हुआ जितना ब्रह्मचर्य की तपश्चर्या को स्थान प्राप्त हुआ है। उसी का प्रभाव है कि आज भी उनका ललाट और मुखाकृति वृद्धावस्था व रुग्णावस्था होने पर भी एक दिव्य मूर्ति के रूप में प्रभावित हो रही है। चौदह वर्ष की छोटी अवस्था से ही उन्होंने अपने जीवन में इसकी दृढ प्रतिज्ञा ली, क्रमशः इस की साधना की और अपने को दृढता पूर्वक निभाया-यही मुनिजीवन की सर्व प्रथम श्रेणी है। मानव-जीवन में अन्य दुर्गुण आंखों से ओजल किये जा सकते हैं; किन्त ब्रह्मचर्य के पालन करने में तिल मात्र भी कमी हुई कि यह अवगुण मानव-समाज के लिये असहनीय बन जाता है और आंखों से ओजल नहीं किया जा सकता ।
ब्रह्मचर्य की तपश्चर्या के साथ-साथ निरन्तर विद्याभ्यास करते रहना जीवन में सोने और सुगन्ध का काम है। आचार्य श्रीने भी बाल्यवय से विद्याभ्यास प्रारम्भ किया और धीरे २ ग्रन्थों का अध्ययन, मनन व परिशीलन किया और अंत में मन्थन करके उस में से रत्नों की प्राप्ति की।
हो सकता है वे आधुनिक जमाने की डिग्रियों से अलग रहे हों। आधुनिक जमाने की डिग्रियों को प्राप्त करने की ओर उनका ध्यान इतना आकर्षित नहीं हुआ हो, किन्तु उन्होंने उस शान और अध्ययन की ओर अपने जीवन को अग्रसर किया है जिस ओर
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