Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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विषय खंड
जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश
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मंदिरमार्गी कहालाते हैं, उसी तरह इसमें उसके स्थान पर साधुमान्य होने से साधुमार्गी।
सं. १८१८ में रघुनाथजी के शिष्य भीखमजी से तेरापंथी सम्प्रदाय का जन्म हुआ । जिन प्रतिमा के अतिरिक्त दयादान सम्बन्ध में भी इनका अन्यों से मतभेद है । २०० वर्षों में इस सम्प्रदाय ने आशातीत सफलता प्राप्त की । आज ६५० करीब संत व सतियां व लक्षाधिक श्रावकादि इसके अनुयायी हैं । विशेष जानने के लिये तेरा पंथी पट्टावली, संतश्री भीखमजी व विवरण पत्रिका में प्रकाशित लेख देखने चाहिये । तेरापंथी साम्प्रदाय के नवम पट्टधर अभी आचार्य तलसी हैं।
लोउअगच्छ -आबू लेख संदोह के ले. ५२२ में सं. १२९३ के लेख में यह नाम मिलता है।
वायडगच्छ-डीसा (जिल्ला पालणपुर) के पास वायड ग्राम है । किसी समय यह महास्थान था। उसीके नाम से वायड जाति व वायडगच्छ का नामकरण हुआ है। वायडगच्छ नाम संभवतः ६-७ शती में प्रसिद्धि में आया। इसके पट्टधरों के नाम जिनदत्तसूरि, राशिल्लसूरि, व जीवदेवसूरि ये तीन नाम ही पुनः २ आते हैं । विवेक विलास व शकनशास्त्र ग्रन्थ के रचयिता जिनदत्तसूरि व बालमारतकाव्य कल्पलता, पद्मानंद काव्यादि के रचयिता कविवर अमरचंद्रसूरि इसी गच्छ में हुए हैं ।
वालमगच्छ --यह संडेर गच्छ का पूर्ववर्ती नाम होने का उल्लेख जिनविजय प्रकाशित जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह के प्रशस्ति नं. ९१ में पाया जाता है।
विधिपक्ष -दे. अंचलगच्छ ।
विद्याधर गच्छ - संभवतः विद्याधर कुल ही पीछे से गच्छरूप में प्रसिध्दि में आया। इस गेच्छ के कुछ प्रतिमा लेख प्रकाशित हैं ।
वीजायती (विजयगच्छ)-- लोंकाशाह की संतति में ऋषि धीजा (या विजय ) से इसका नाम पड़ा है । यद्यपि वर्तमान श्रीपूज्य अपनी परम्परा भिन्न रूप से बतलाते है, पर वास्तव में सं. १५३२ से ४४ के बीचमें यह वीजा ऋषि से ही पृथक हुआ। कोटा में इस गच्छ के सुमतिसागर सूरि अब भी विद्यमान हैं।
संडेरगच्छ (पंडेरक)-जोधपुर राज्य के नाणा से उत्तर में १८ माइल पर सांडेराव नामक स्थान है । यह गच्छ उसी स्थान के नाम से प्रसिद्ध हुआ है। जैन पुस्तक प्रशस्ति संग्रह की प्रशस्ति न. अनुसार इसका पूर्वनाम वालभगच्छ था । सं. ९६४ के लगभग के आ. यशोभद्रसूरि, शालिसूरि, सुमतिसूरि, शांतिसूरि, ईश्वरसूरि हुए । इस गच्छ में यशोभद्र, बलभद्र, व क्षमर्षि ये आचार्य बड़े प्रभावक होगये हैं। इनके सम्बन्ध में संस्कृत में प्रबन्ध व भाषा में लावण्यसमय रचित रास उपलब्ध हैं। १७ वीं शती तक के इस गच्छ के अभिलेख प्रकाशित हैं । विशेष जानने के लिये ऐ. रा. सं. भा. २.
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