Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh
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श्री यतीन्द्रसरिमभिनंदन ग्रंथ
विविध
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शमन और मनोगुप्ति के गुण तो उनमें कटकट कर भरे थे ही । अपने हाथ पर भी उनका नियंत्रण आश्चर्य-जनक था । माज जब निर्झरलेखनी का व्यवहार खुले रूप से हो रहा है। सभी स्वच्छन्द मनमानी लिखावट घसीटे जा रहे हैं । अपना लेखन सुघड़ कैसे हो इसकी किसे पडी है ? किंतु श्री राजेंद्र सूरिजी के अक्षर बहुत सुघड़ हुआ करते थे। उनके हस्तलिखित ग्रन्थ अवलोकनीय हैं । उनका हस्तलाघव देख कर विस्मय होता हे कि नाना प्रवृत्ति और विविध आचार-विधियों में निरंतर प्रवृत्त रहते हुए भी साधारण कलम, स्याही से इन वर्णमुक्तावलियों को गुरुदेव ने कब और कैसे संजो दिया होगा। इन हस्तलिखित प्रतियों में लेखन-सुघड़ता ही नहीं, अपितु सजावट हेतु उन्हीं के बनाए बेलबूटेदार परिक्रमण और शोभनचित्र आदि ऐसे दृष्टव्य हैं कि दर्शन से बरबस प्रशंसा के शब्द निकल पड़ते हैं।
____ धार्मिक-सामाजिक जीवन में क्रांतिकारी सुधारों के उपरान्त आपने जैन साहित्य का भी बड़ा संवर्धन किया। भापने कोष-व्याकरण, कथा-काव्य, चौपाई-पूजा, चैत्यवन्दन-स्तुति, स्तवन-सज्झाय और आगम-सिद्धान्त तथा आचार-सूत्र एवं क्रियाविधि आदि पर गद्य-पद्य में लगभग ६१ पुस्तकों का निर्माण किया है। जिनका अवलोकन करने से साहित्य-दर्शन, व्याकरण-ज्योतिष, गणित-नीति और धर्म तथा आगम आदि विषयों पर और संस्कृत-प्राकृत भाषाओं पर आपका कितना अधिकार था यह भली भांति व्यक्त हो सकता है। व्याकरण के विद्यार्थियों को सहज कण्ठस्थ रहे इस हेतु आपने कलिकालसर्वक्ष श्री हेमचन्द्राचार्य के सुप्रसिद्ध सिद्धिहेम-प्राकृत-व्याकरण पर छन्दों में विवृत्ति १८०१ श्लोकप्रमाण लिखी है। लेकिन आपकी महती साहित्यसेवा का सुफल है 'अभिधान राजेन्द्र' महाकोश । श्री अभिधान राजेन्द्र कोश नामक विराट अन्थराज का निर्माण साहित्य-जगत को श्री राजेन्द्र सूरीश्वरजी महाराज की अपूर्व देन है। जैन धर्म सम्बन्धी कदाचित यह सर्व प्रथम तैयार हुआ विश्वकोश है। इसमें जैन-धर्म-साहित्य से सम्बन्धित प्राकृत शब्दों के संस्कृत भाषा में प्रसंगादि सहित अतिविस्तार पूर्वक अर्थ दिए गए हैं। 'अहिंसा' आदि कुछ शब्दों के अर्थ इतने विशद् रूप से दिए गए हैं कि वे अलग से प्रकाशित करने पर मजे से सौ-डेढ़ सौ पृष्ठ की स्वतंत्र पुस्तिका बन जाय । जैनागमों का कोई भी विषय इसमें व्यवहृत होने से बच नहीं पाया ! जैनों की प्रचलित सभी परंपराओं के शान-विचारों का इसमें विनियोग तो किया ही है। प्रत्युत जैनेतर बहुतेरे शब्दों एवं विषयों का भी इसमें व्यापक विवेचन किया गया है जिनकी प्रसंगादि में उपादेयता रही है । यह कोश सात भागों के बड़े आकार के सात वॉल्युमों में संपूर्ण हो सका है । यद्यपि इसका निर्माण आधुनिकतम शैली और परंपराओं के अनुसार ही हुआ है; तथापि यह हमारा दुर्भाग्य रहा कि उस समय हिन्दी भाषा का विकसित रूप स्थिर नहीं हो पाया था। वरन् यह ग्रन्थराज भारतीय दर्शन के हर विद्यार्थी के लिए भाज एक अनिवार्य ग्रंथ होता । तोभी भी क्या भारतीय और क्या विदेशी ? सभी प्रसिद्ध विद्वान् गुरुदेव के इस साहित्यिक महाकार्य का श्रद्धापूर्वक अमि
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