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श्री यतीन्द्रसूरि अभिनंदन ग्रंथ
विविध
भना या दृति का प्रयोग पाणिनि और दारा के समय से चला आया है । ईरान में इन्हें मशका कहते थे। शालिका संभवतः उस प्रकार की नाव थी जिसमें शाला या बैठने - उठने के लिये मंदिर ( केबिन ) पाटातान के ऊपर बना हो । पिंडिका वह गोल नाव थी जो बेतों की टोकरी को चमड़े से मढ़कर बनाई जाती थी । ( पृ० १६५ - ६ )
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३४ वें संलाप नामक अध्याय में बातचीत का अंगविज्जा की दृष्टि से विचार किया है जिसमें स्थान, समय एवं बातचीत करनेवाले की दृष्टि से फलाफलका
विचार है ।
३५ वें अध्याय का नाम पयाविसुद्धि ( प्रजाविशुद्धि ) है । इसमें प्रजा या संतान के सम्बन्ध में शुभाशुभ फल पर विचार किया गया है। छोटे बच्चे के लिए वच्छक, पुत्तक की तरह पिल्लक शब्द भी प्रयुक्त होने लगा था जोकि दक्षिणी भाषाओं से लिया हुआ शब्द ज्ञात होता है ।
३६ वें अध्याय में दोहल ( दोहद ) के विषय में विचार किया गया है । दोहद अनेक प्रकार का हो सकता है। विशेष रूप से उसके पांच भेद किये गये हैं । शब्दगत, गंधगत, रूपगत, रसगत, स्पर्शगत । रूपगत दोहद के कई भेद हैं- जैसे पुष्पभेद, समुद्र, तडाग, वापी, पुष्पकरिणी, अरण्य, भूमि, नगर, स्कन्धावार, युद्ध, क्रीडा, मनुष्य, चतुष्पाद, पक्षी आदि के देखने की इच्छा होती हो तो उसे रूपगत दोहद कहेंगे । गन्धगत दोहद के अन्तर्गत स्नान, अनुलेपन, अधिवास, स्नानचूर्ण, धूप, माल्य, पुष्प, फल आदि के दर्शन या प्राप्ति की इच्छा समझनी चाहिये । रसगत दोहद में पान, भोजन, खाद्य, om और स्पर्शगत दोहद में आसन, शयन, वाहन, वस्त्र, आभरण आदि का दर्शन और प्राप्ति समझी जाती है ।
३७ वें अध्याय की संज्ञा लक्षण अध्याय है । लक्षण बारह प्रकार के कहे गये हैं-वर्ण, स्वर, गति, संस्थान, आकुल सद्ययण (निर्माण), मान या लंबाई, उम्माण ( तोल), सत्त्व, आणुक ( मुखाकृति), पगति [ प्रकृति ], छाया, सार - इन बारहों भेदों की व्याख्या की गई है, जैसे :- - वर्ण के अन्तर्गत ये नाम है :- अंजन, हरिताल, मैंनसील, हिंगुर, चाँदी, सोना, मूँगा, शंख, मणि, हीरा, शुक्ति [ मोती ], अगुरु, चन्दन, शयनासन, यान, चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह, तारा, उल्का, विद्युत, मेघ, अग्नि, जल, कमल, पुष्प, फल, प्रवाल, पत्र, घृत, मंड, तेल, सुरा, प्रसन्ना, पद्म, उत्पल, पुंडरीक, चम्पक माल्याभरण आदि । फिर इनमें से प्रत्येक लक्षण का भी शुभाशुभ फल कहा गया है ] पृ० १७३ - ४ ] |
३८ वें अध्याय में शरीर के व्यञ्जन या तिल, मसा जैसे चिन्हों के आधार पर शुभाशुभ का कथन है ।
३९ वें अध्याय की संज्ञा कण्णावासण है । इसमें कन्या के विवाह एवं उसके जन्म के फलाफल एवं कर्मगति का विचार है कि वह अच्छी होगी या दुष्ट होगीपृ० १७५-६
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