Book Title: Yatindrasuri Abhinandan Granth
Author(s): Kalyanvijay Gani
Publisher: Saudharmbruhat Tapagacchiya Shwetambar Shree Sangh

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Page 386
________________ विषय खंड पुनरुद्धारक श्रीमद् राजेन्द्रसूरि २६५ आयतन को सजाने के हेतु लाई गई थी । स्वच्छ मसनद पर नक्काशीदार बढिया गलीचा बिछा था । मसनद के निकट ही एक ओघा व मुहपत्ती कुछ - इस भांति रख छोड़े थे जैसे कोई शोभा की वस्तु हों। एक ओर ऊँची टेबल पर रजत-स्वर्णिम डंडिकाओं की झूमरदार स्थापनिका पर सलमे - सितारे के काम-युक्त पोषाक ( रुमाल ) के तले श्री स्थापनाचार्यजी धरे थे। गहरे नीले रंग के किमती किनखाव के पृष्टिका-पट पर रजत-तंतुओं से बनी मंगल-कलशाकृति चमचमा रही थी। उस कलशाकृति के गर्भगोलक में श्री नघपदमंडल का आलेखन किया गया था। जिसमें *हीं नमो अरिहंताणं, सिद्धाणं, आयरियाणं, उवज्झायाणं, सव्वसाहूणं और शान-दर्शन-चारित्र- तप मंत्राक्षरों के साथ भावाकृतियां भी अंकित की गई थीं। इस कमरे में प्रविष्ट होते ही आगन्तुक की दृष्टि प्रथम उस पीठिका-पट पर पड़ती और उसमें आलेखित मंगलकलश के दोनों विशाल चक्षओं से चार आँख हो जाती ! खचाखच वैभव की इस चकाचौंध में ढाकाई मलमल की उत्तम झीनी चद्दर पर मूल्यवान कश्मिरी दुशाला धारण किए श्रीपूज्य धरणेन्द्रसूरि एक साधारण ऊँचे सुखासन पर किंचित तिरछे लेटे थे । मुद्रिका-कंकण-वेष्ठित दाहिने हाथ में एक छोटी-खुली शीशी थी जिसे वे सूंघने का उपक्रम कर रहे थे । भलीभांति कंघी किए श्री पूज्यजी के मोहक-अर्धश्वेत केश की महक में शीशी के इत्र की सुगंध धुली जा रही थी। श्री रत्नविजयजी के प्रविष्ट होते ही श्रीपूज्यजी के निकट बैठे यतिगण और श्रावक उठ खडे हुए । श्रीपूज्यजी ने रत्नविजयजी की ओर शीशी बढाते हुए कुछ लोलुपभाव से फरमाया, "लो यह श्रावकजी नामी इत्र भेंट करते हैं।" राज्यऋद्धि और उसके सुखोपभोग को तणवत त्याग कर भगवान महावीर ने प्रव्रज्या ली-इस विषय पर अभी व्याख्यान हुआ था । रत्नविजयजी ने सोचा कि जैन मार्ग की अहिंसापरंपरा यथावत् प्रचलित रहने पर भी त्याग - परंपरा का इतना विनिपात क्यों ? अपरिग्रहवत की इस उपहासजनक परिस्थिति से उन्हें बड़ा परिताप हुआ । उन्हें प्रतीत हुआ कि यह सब हमारे ही प्रमाद का परिणाम तो है ? अन्यमनस्क भाव से उन्हों ने, श्रीपूज्यजी को उत्तर दिया, “ यह भेट आपको ही मुबारक हो । आप यह क्यों भूल रहे हैं, 'विभूसा पत्तिअंभिक्खू, कम्म बन्धइ चिक्कणं ।' ___ "सुगंध-दुर्गन्ध हमारे लिए क्या ? गधे के मूत्र से अधिक मैं इस इत्र को नहीं लेखता ।" भक्तमण्डली के समक्ष अपनी बात का व्यंगयुक्त ऐसा कटाव श्रीपूज्यजी ने कभी नहीं सुना था । श्री पूज्य धरणेन्द्रसूरि के आत्मसम्मान को इससे बड़ी ठेस लगी। चे ओठ काट कर रह गये। गरुता के स्थान ने उनके क्रोध के पारे को चढ़ा दिया । अधिकारपूर्ण भाव से उन्होंने रत्नविजयजी को कड़े शब्द सुनाए, “हमारे गुरु श्री देवेन्द्रसूरिजी के शब्दों का मान रखते हुए आपको दफ्तरीपद सौंपा गया है। और सदैव मेरे समान ही मैने आपको माना है । व्यवहार में वन्दना-सुखशाता-पृच्छा २. दशवकालिक सूत्र अध्याय ६ गा. ६७, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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